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नज़्म
ख़रोश-आमोज़ बुलबुल हो गिरह ग़ुंचे की वा कर दे
कि तू इस गुल्सिताँ के वास्ते बाद-ए-बहारी है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जिन के हंगामे अभी दरिया में सोते हैं ख़मोश
कश्ती-ए-मिस्कीन-ओ-जान-ए-पाक-ओ-दीवार-ए-यतीम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
नहीं मिन्नत-कश-ए-ताब-ए-शुनीदन दास्ताँ मेरी
ख़मोशी गुफ़्तुगू है बे-ज़बानी है ज़बाँ मेरी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जुज़ इक ज़ेहन-ए-रसा कुछ भी नहीं फिर भी मगर मुझ को
ख़रोश-ए-उम्र के इत्माम तक इक बार उठाना है
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
इक तरफ़ हाजत की शिद्दत इक तरफ़ ग़ैरत का जोश
नुत्क़ पर हर्फ़-ए-तमन्ना दिल में ग़ुस्से का ख़रोश
जोश मलीहाबादी
नज़्म
सर-ए-शाम जब सूरज और मेरी आँखें सुर्ख़ हों
तो मैं चाँद के बुलावे पे समुंदर का ख़रोश देखने चली जाती हूँ
किश्वर नाहीद
नज़्म
तेरी चुटकी की सदा है या कि शैताँ का ख़रोश
रहम कर इंसानियत पर ओ बुत-ए-इस्मत-फ़रोश
माहिर-उल क़ादरी
नज़्म
ये जोहद-ओ-कश्मकश ये ख़रोश-ए-जहाँ भी देख
अदबार की, सरों पे घनी बदलियाँ भी देख
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मर्हबा ऐ नौ-गिरफ़्तारान-ए-बेदाद-ए-फ़रंग
जिन की ज़ंजीरें ख़रोश-अफ़ज़ा-ए-ज़िंदाँ हो गईं