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नज़्म
ये शाम शाम-ए-अवध नहीं है जिसे तुम्हारी सियाह ज़ुल्फ़ें छुपा सकेंगी
ये सुब्ह सुब्ह-ए-तरब नहीं है
अख़्तर पयामी
नज़्म
भर दिया मैं ने अयाग़-ए-लाला में ख़ून-ए-बहार
जाबिर-ओ-सरकश अनासिर पर है मेरा इख़्तियार
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
बूढ़ा पनवाड़ी उस के बालों में माँग है न्यारी
आँखों में जीवन की बुझती अग्नी की चिंगारी
मजीद अमजद
नज़्म
उफ़ ये शबनम से छलकते हुए फूलों के अयाग़
इस चमन में हैं अभी दीदा-ए-पुर-नम कितने