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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
शीराज़ के मज्ज़ूब-ए-तुनक-जाम के अफ़्कार के नीचे
तहज़ीब-ए-निगूँ-सार के आलाम के अम्बार के नीचे
नून मीम राशिद
नज़्म
शौक़ हो कर दिल-ए-मज्ज़ूब पे छाया है वही
दर्द बन कर दिल-ए-शाइ'र में समाया है वही
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
राह में झुकते हुए सर या किसी शाह के मग़रूर क़दम
या किसी मौज में आए हुए मज्ज़ूब का रौंदा हुआ ताज
मक़सूद वफ़ा
नज़्म
क्या मिरे दिल में भी है कहते हैं जिस को ला-यज़ाल
या फ़क़त मज्ज़ूब के वहम-ओ-गुमाँ की काएनात
सिद्दीक़ कलीम
नज़्म
तुझ से खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिन में
उस के मल्बूस की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
तो ये 'ज़रयून' जो है क्या ये अफ़लातून है कोई
अमाँ 'ज़रयून' है 'ज़रयून' वो माजून क्यूँ होता
जौन एलिया
नज़्म
चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम