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नज़्म
वो अपनी नफ़्इ से इसबात तक माशर के पहुँचा है
कि ख़ून-ए-रायगाँ के अम्र में पड़ना नहीं हम को
जौन एलिया
नज़्म
गर कभी ख़ल्वत मयस्सर हो तो पूछ अल्लाह से
क़िस्सा-ए-आदम को रंगीं कर गया किस का लहू
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मैं आहें भर नहीं सकता कि नग़्मे गा नहीं सकता
सकूँ लेकिन मिरे दिल को मयस्सर आ नहीं सकता
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
क्यूँ भी कहना जुर्म है कैसे भी कहना जुर्म है
साँस लेने की तो आज़ादी मयस्सर है मगर
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
ग़रज़ वो हुस्न अब इस रह का जुज़्व-ए-मंज़र है
नियाज़-ए-इश्क़ को इक सज्दा-गह मयस्सर है