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नज़्म
शाही दरबारों के दर से फ़ौजी पहरे ख़त्म हुए हैं
ज़ाती जागीरों के हक़ और मोहमल दा'वे ख़त्म हुए हैं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
ये हाथ न हूँ तो मोहमल सब, तहरीरें और तक़रीरें हैं
ये हाथ न हों तो बे-मा'नी इंसानों की तक़रीरें हैं
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
अब मेरी बातों में वो लफ़्ज़-ए-मोहमल की तरह है
वो अपनी यादों में मुझे तफ़्सील से सोच रहा होगा
मर्यम तस्लीम कियानी
नज़्म
आदमी सादा है या ख़ंजर-ब-कफ़ है क्या पता
किस लिए ये शोर-ए-मोहमल सफ़-ब-सफ़ है क्या पता
चन्द्रभान ख़याल
नज़्म
पत्ता पत्ता हर्फ़ गिरते हैं
कोई फ़िक़रा शजर के ज़ख़्म-ए-मोहमल की पज़ीराई नहीं करता
अख़्तर हुसैन जाफ़री
नज़्म
पूछता है मुझ से इस मोहमल से फ़िक़रे का जवाब
सुन किए देता हूँ मैं सारी हक़ीक़त बे-नक़ाब
नख़्शब जार्चवि
नज़्म
क़ल्ब में सोज़ नहीं रूह में एहसास नहीं
कुछ भी पैग़ाम-ए-मोहम्मद का तुम्हें पास नहीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ये चमन-ज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श दर ओ दीवार ये मेहराब ये ताक़
साहिर लुधियानवी
नज़्म
इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब