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नज़्म
जो भी हो अकेले इंसाँ से दुनिया की बग़ावत कुछ भी नहीं
तन्हा जो किसी को पाएँगे ताक़त के शिकंजे जकड़ेंगे
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
ज़ुल्म कहीं भी हो हम उस का सर ख़म करते जाएँगे
महलों में अब अपने लहू के दिए न जलने पाएँगे
हबीब जालिब
नज़्म
मिरे दिल की फ़सुर्दा ख़ल्वतों में जा न पाएँगी
ये अश्कों की फ़रावानी से धुँदलाई हुई आँखें
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
किस को समझाएँ उसे खोदें तो फिर पाएँगे क्या
हम अगर रिश्वत नहीं लेंगे तो फिर खाएँगे क्या
जोश मलीहाबादी
नज़्म
ग़म-ए-दौराँ से जब भी फ़ुर्सत-ए-यक-लम्हा पाएँगे
तिरी यादों में खो जाएँगे ख़ुद को भूल जाएँगे
अब्दुल अहद साज़
नज़्म
कब तक अंधी भेड़ों की तरह ये अपनी राह न पाएगा
कब तक मौत के आगे से पीछे ही हटता जाएगा