ज़िंदगी
तमतमाए हुए आरिज़ पे ये अश्कों की क़तार
मुझ से इस दर्जा ख़फ़ा आप से इतनी बेज़ार
मैं ने कब तेरी मोहब्बत से किया है इंकार
मुझ को इक लम्हा कभी चैन भी आया तुझ बिन
इश्क़ ही एक हक़ीक़त तो नहीं है लेकिन
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम
सोच दुनिया से अलग भाग के जाएँगे कहाँ
अपनी जन्नत भी बसाएँ तो बसाएँगे कहाँ
अम्न इस आलम-ए-अफ़्कार में पाएँगे कहाँ
फिर ज़माने से निगाहों का चुराना कैसा
इश्क़ की ज़िद में फ़राएज़ को भुलाना कैसा
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम
तीर-ए-इफ़्लास से कितनों के कलेजे हैं फ़िगार
कितने सीनों में है घुटती हुई आहों का ग़ुबार
कितने चेहरे नज़र आते हैं तबस्सुम का मज़ार
इक नज़र भूल के उस सम्त भी देखा होता
कुछ मोहब्बत के सिवा और भी सोचा होता
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम
रंज-ए-ग़ुर्बत के सिवा जब्र के पहलू भी तो हैं
जो टपकते नहीं आँखों से वो आँसू भी तो हैं
ज़ख़्म खाए हुए मज़दूर के बाज़ू भी तो हैं
ख़ाक और ख़ून में ग़लताँ हैं नज़ारे कितने
क़ल्ब-ए-इंसाँ में दहकते हैं शरारे कितने
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम
अरसा-ए-दहर पे सरमाया ओ मेहनत की ये जंग
अम्न ओ तहज़ीब के रुख़्सार से उड़ता हुआ रंग
ये हुकूमत ये ग़ुलामी ये बग़ावत की उमंग
क़ल्ब-ए-आदम के ये रिसते हुए कोहना नासूर
अपने एहसास से है फ़ितरत-ए-इंसाँ मजबूर
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम
आप को बंद ग़ुलामी से छुड़ाना है हमें
ख़ुद मोहब्बत को भी आज़ाद बनाना है हमें
इक नई तर्ज़ पे दुनिया को सजाना है हमें
तू भी आ वक़्त के सीने में शरारा बन जा
तू भी अब अर्श-ए-बग़ावत का सितारा बन जा
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम
- पुस्तक : azadi ke bad urdu nazm (पृष्ठ 203)
- रचनाकार : shamim hanfi and mazhar mahdi
- प्रकाशन : qaumi council bara-e-farogh urdu (2005)
- संस्करण : 2005
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