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नज़्म
मिरी 'सलमा' मुझे ले चल तू उन रंगीं बहारों में!
जहाँ रंगीं बहिशतें खेलती हैं सब्ज़ा-ज़ारों में!
अख़्तर शीरानी
नज़्म
तिरे ज़ेर-ए-नगीं घर हो महल हो क़स्र हो कुछ हो
मैं ये कहता हूँ तू अर्ज़-ओ-समा लेती तो अच्छा था