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नज़्म
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
हम ने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ज़बाँ अपनी ज़बाँ मैं तुम को आख़िर कब सिखा पाया
अज़ाब-ए-सद-शमातत आख़िरश मुझ पर ही नाज़िल हो
जौन एलिया
नज़्म
बैठे-बिठाए हो गई घर में मार-कटाई चार बजे
मेरे बुज़ुर्गों ने मुझ को तहज़ीब सिखाई चार बजे