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नज़्म
ज़रा सी ठेस से भी शीशा-ए-दिल टूट जाता है
बहुत नाज़ुक मगर अज़-क़िस्म इस्तिहकाम है उर्दू
माजिद-अल-बाक़री
नज़्म
झुटपुटे के वक़्त घर से एक मिट्टी का दिया
एक बुढ़िया ने सर-ए-रह ला के रौशन कर दिया