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नज़्म
अजब है ये ज़बाँ, उर्दू
कभी कहीं सफ़र करते अगर कोई मुसाफ़िर शेर पढ़ दे 'मीर', 'ग़ालिब' का
गुलज़ार
नज़्म
फ़िक्र-ए-इंसाँ पर तिरी हस्ती से ये रौशन हुआ
है पर-ए-मुर्ग़-ए-तख़य्युल की रसाई ता-कुजा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
इसी हिंडोले में 'विद्यापति' का कंठ खुला
इसी ज़मीन के थे लाल 'मीर' ओ 'ग़ालिब' भी
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
वर्ना 'ग़ालिब' की ज़बाँ में मिरे हमदम मिरे दोस्त
दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग