आँगन की धूप
स्टोरीलाइन
यह एक बाल कहानी है। इसमें दो छोटे बच्चों की शरारतों, उनके खेलों, चाहतों और ख़्वाहिशों को चित्रित किया गया है। खेलते-खेलते बच्चे कहानी सुनाने की फ़रमाइश करते हैं और उनका बाप न चाहते हुए भी उन्हें एक ऐसे बूढ़े लकड़हारे की कहानी सुनाता है, जो सूखे पेड़ों के साथ हरे पेड़ों की लकड़ियाँ भी काट लाता है। इस कारण उसकी बुढ़िया उससे नाराज़ हो जाती है।
मेघा रानी तुम्हारे दाँत कितने प्यारे हैं, गिलहरी के दाँत। तुम्हारे बाल कब कटे। किसने कटवाए, मुझे अच्छे लगते थे तुम्हारी गर्दन पर दौड़ती गिलहरी की तरह सुनहरे बाल। हाँ गुलाबी फ़ीता भी ख़ूब भपता है, लगता है बड़ी सी तितली तुम्हारे सर पर बसेरा करने के लिए उतर आई है। भाग क्यों रही हो? आओ आओ मैं तुमको अपने बाज़ुओं में छुपा लूं। समझा, ये नट-खट साशा तुम्हारी चाकलेट उड़ाना चाहता होगा। और जूते कहाँ गए। ओहो ठंडे ठंडे पांव, रेशम जैसे नर्म पांव, गुलाबी गुलाबी, आओ में उनको अपनी मुट्ठियों में छुपा लूं। गर्म हो जाऐंगे। न जाने ये लोग इसको मोज़े क्यों नहीं पहनाते?
वो अपनी नन्ही नन्ही हथेलियाँ मेरी आँखों पर रख देती है और चिल्लाती है, “ढूंढ़ो! में खो गई हूँ। मुझे ढूंढ़ो!” और में उसको ढूंढता हूँ। पलंग के नीचे, पर्दे के पीछे, अपनी जेब में। और हर बार उसकी घंटियों जैसी बजती आवाज़ मेरे दिल में दूर तक गूँजती चली जाती है। और साशा इतने में दबे-पाँव आता है और मुझ पर टूट पड़ता है। मैं शिकारी हूँ। बहुत दूर से आया हूँ। जंगल से। जंगल से? भई जंगल क्यों गए थे। शेर को मारने। शेर को? शेर तो बहुत अच्छा होता है। नहीं नहीं मैं तो दूसरे शेर को मारने गया था। दूसरा शेर कौन? वो जो रोज़ रात को आता था, जानवरों को उठा ले जाता था। वो मेरा बेचारा ख़रगोश। क्यों क्या हुआ ख़रगोश को? (शेर उठा कर ले गया और उस ख़रगोश की नर्म खाल के दस्ताने बनवा लिये। दस्ताने? हाँ, ताकि जब बाहर निकले तो कोई उसके पंजे न देखे। इन ही पंजों से तो उसने ख़रगोश को दबोच लिया था। ओहो। साथ में तो दौड़ रहा हूँ। कहीं तुम्हारा शेर यहां आ निकला तो मेरा और मेघा का क्या होगा। क्यों मेघा हमारा क्या होगा? ओहो हो हो! बताओ ना हमारा क्या होगा? हम चूहा बन जाऐंगे। फिर-फिर हम बिल में छुप जाऐंगे। क्यों हम छुप क्यों जाऐंगे। बिल्ली आएगी और हमको खा जाएगी। और हम चूहा न बने तो? साशा का मुँह खुलता है और आँखों से धूप छलने लगती है (ओहो नाना। तुम बिलकुल हाफ विट हो। तो फिर शेर आएगा और तुमको खा जाएगा। और चूहा बन गया तो? तो बिल्ली आएगी और तुमको खा जाएगी। मेघा की आँखों से धूप छलकी और मैं खिसिया कर हँसने लगा। मगर छोटी चिड़िया चहकती रही और साशा चॉकलेट ले उड़ा। वो आँगन में दौड़ रहा है और चॉकलेट खा रहा है और उसकी आँखों की धूप आँगन के दरख़्त से छन्ती धूप में घुल गई है। और वो एक रंग बन गया है, जिसमें सौ रंग हैं, एक चहकार, और रफ़्तार, ज़िंदगी यहां से शुरू होती है और मेघा मेरी आस्तीन खींचती है। साशा मेरी चॉकलेट ले गया। मुझे और चॉकलेट दो। और मैं देता हूँ। ज़िंदगी यहां से भी शुरू होती है। और अब दोनों ख़ुश हैं। रंगों की तरह जिनकी लहरों में उनके क़हक़हे और नाच बह रहे हैं।
मैं भी कभी इसी तरह आँगन में खेलता हूँगा और कोई मुझे शोले की तरह लपकता देखता होगा और देखने वाले का दिल उम्मीदों की धूप से भर जाता होगा। लेकिन अब मुझे ऐसा लग रहा है कि ये धूप कभी भी बुझ सकती है। कभी भी एक तूफ़ान उठ सकता है, ऐसा जैसा पहले कभी नहीं उठा। और वो सब कुछ अपने शोलों में बहा कर सूरज के अंधेरे ग़ार में डुबो सकता है। कभी भी। शायद ये तूफ़ान इस लिए आएगा कि मैं चुप हूँ। चुप से पैदा होने वाला तूफ़ान बहुत भयानक होता है।
जाने मैं क्या-क्या बकता रहता हूँ। लगता है में कोई और हूँ, मैं नहीं। और, कोई और मेरे दिल के खन्डर में चमगादड़ की तरह उड़ता रहता है। ढेती दीवारों से उसके टकराने की आवाज़ मैं सुनता रहता हूँ। मिट्टी सरसराती है और हवा मिट्टी को ले-उड़ती है। और मैं सुबह से शाम तक अंधी आँखों से सब कुछ देखता रहता हूँ और मुझे कुछ दिखाई नहीं देता।
दोनों अब तक आँगन में खेल रहे हैं। न जाने उनको गीली मिट्टी कहाँ से मिल गई है, अमरूद के पेड़ के नीचे। उनको पता ही नहीं कि मैं हूँ और उनको देख रहा हूँ। बच्चों की अपनी दुनिया है, अपने हाथ, अपनी मिट्टी, अपना चाक-चाक घूम रहा है और वो बर्तन बना रहे हैं। कोई सुराही, कोई गिलास, कोई प्याला। लेकिन वो एक दूसरे से मिट्टी छीन रहे हैं। और चिल्ला रहे हैं: “ये मेरी मिट्टी है। ये मेरी मिट्टी है।”
और मेरी मिट्टी? मैं चुप-चाप हँसता हूँ। और मेरा सूरज? मैं फिर चुप-चाप हँसता हूँ।धूप अब पूरे आँगन में भर गई है और दोनों बच्चे फिर दौड़ रहे हैं। साशा बच्ची से पूछता है, “मेघा तुम क्या कर रही हो?” जवाब मिलता है: “घोंसला बना रही हूँ”। फिर साशा की आवाज़ गूंजती है, “घोंसले का क्या करोगी?” मेघा के होंट चोंच की तरह नुकीले हो जाते हैं। “रहूंगी घोंसले में!” साशा बाज़ की तरह झपटता है और मेघा के गिर्द चक्कर काटता है। घोंसले में तो चिड़िया रहती है”। “मैं भी तो चिड़िया हूँ, देखो चोंच! दोनों हाथ पकड़ कर दरख़्त के गिर्द चक्कर लगाते हैं और धूप उनके चकराते सायों से खेलती है।
ज़िंदगी यूं भी तो शुरू होती है। क्या उनकी बातों से किसी ओर-छोर का पता चलता है। नन्हे नन्हे मुशाहिदों से ये बातें पानी के धार की तरह फूटती हैं। और वो सुबह से शाम और शाम से सुबह कभी सायों के पीछे भागने में और कभी रोशनी में चिपने में कर देते हैं। मैं जहां हूँ वहां न धूप है, न साये, बस एक झुटपुटा सा है। कुछ यादों का, कुछ ख़्वाबों का।
हाँ बेटा साशा अगर मैं तुमको अपने कंधों पर बिठा लूँ तो तुम कहाँ तक देख सकते हो। पहले बिठाओ। अब बैठ गए, अब बताओ। में भी बैठूँगी गर्दन पर। मेघा रानी, अच्छा लो तुम भी बैठ गईं। अब तुम दोनों बारी-बारी से बताओ। बताएं? दीवार है दीवार। तालियाँ, अच्छा। अब निकलते हैं इस आँगन से। बाहर। अब बताओ। क्या देखते हो? पेड़, और आगे? और आगे खिड़कियाँ, खिड़कियों में रोशनी, रोशनी में साया, साये में रोशनी, और आगे? और आगे और आगे, अंधेरा और अंधेरे में? अंधेरे में चांद, और चांद में? चांद में, चांद में, अंधेरा! अरे भई गर्दन टूटी मेरी तो, उतरो। उतरो।
रात गहरी हो गई है और बाहर दरख़्तों पर गहरा उतर रहा है। आहिस्ता-आहिस्ता। कोहरे पर निओन लाइट भाप की तरह तैर रही है। और दोनों लिहाफ़ में लेटे हुए हैं मगर उनकी आँखें भौरों की तरह चमक रही हैं। पपोटों पर नींद का कोहरा है लेकिन कोहरे में आँखों की लवें लपक रही हैं। मैं इल्तिजा करता हूँ। भई सो जाओ। मगर साशा और मेघा दोनों की ज़िद जारी है। नहीं हर रात की तरह उनको कहानी का इंतिज़ार है। अच्छा सुनो। कौन सी सुनाऊँ। शेर वाली कहानी जो रोज़ रात को आकर जानवरों को उठा ले जाता था। नहीं, दोस्तो, आज मैं तुमको शेर की कहानी सुनाऊँगा जो ख़रगोश को उठा ले गया और जिसने उसके समूर के दस्ताने बना लिये ताकि उसके पंजे दिखाई न दें। नहीं, आज मैं तुमको एक बूढ़े की कहानी सुनाता हूँ।
सुनाओ।
सुनो।
एक था बूढ़ा। लकड़हारा। वो रोज़ जंगल से लकड़ियाँ काट कर लाता था। वो लकड़ियाँ ला कर बेचता था। और जो पैसा उसके हाथ में आता था वो उससे काम की चीज़ें ख़रीदता था। तब उसकी बीवी चूल्हा जलाती थी। लकड़ी कच्ची हो तो धुआँ बहुत उठता है। सो धुआँ बहुत उठता था। एक दिन औरत ने झुर्रियों में फैलते आँसूओं को पोंछते हुए बूढ़े लकड़हारे से पूछा। कच्चे दरख़्तों को काटते हुए क्या तुमको उन दरख़्तों से उनकी उम्र छीनते अच्छा लगता है? अभी तो उनके धूप खाने और हवा में झूलने के दिन थे। ऐसे में तो एक दिन सारा जंगल कट जाएगा। फिर तुम क्या करोगे? लकड़हारा सोच में पड़ गया। फिर बोला तब तो हम भी नहीं होंगे। न जंगल, हम नहीं होंगे पर और तो होंगे। अक़्ल के दुश्मन। औरत ने सर पर हाथ मारते हुए फिर चूल्हे में फूंकना शुरू कर दिया। आग तेज़ हो गई। औरत का चेहरा रोशनी और गर्मी से दहक उठा। लकड़हारा उदास हो गया। वो अपने दिल के साथ बहने लगा। वो बहते बहते जंगल पहुंच गया। सारा जंगल अंधेरे में छुप गया था और हवाएं रो रही थीं। हवाओं के साथ जानवर भी रो रहे थे। जानवरों के साथ बूढ़ा लकड़हारा भी रोने लगा। अंधेरे में छोटे छोटे पौदों की आवाज़ों ने उसके कंधे पर हाथ रखा और पूछा तुम क्यों रोते हो लकड़हारे? मैं तो यूं रोता हूँ कि तुम रोते हो। हम तो यूं रोते हैं कि हम कट गए। और तुम? और मैं यूं रोता हूँ कि मैं ज़िंदगी-भर तुमको काटता रहा। और अब रात होती है तो रात का जंगल तो है, पर वो हंसते खेलते दरख़्त दिखाई नहीं देते। मैं बहुत अकेला हो गया हूँ। सारा जंगल हँसने लगा। सारे चांद, सारे सूरज हवा में तैरने लगे। लकड़हारे का सर चकराया और वो दलदल में गिर गया। अब वो जितना हाथ पांव मारता था अन्दर धंसता जाता था। यकायक धमाका हुआ और...
मैं आँखें मलता हूँ और देखता हूँ कि धूप दीवार पर चढ़ आई है। और साशा अभी तक आँगन के दरख़्तों के पास मिट्टी से सुराही बना रहा है और मेघा तिनकों से घोंसला। वैसे बड़ा सन्नाटा है।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.