Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

आँसू सच बोलते हैं...?

अहमद जैनुद्दीन

आँसू सच बोलते हैं...?

अहमद जैनुद्दीन

MORE BYअहमद जैनुद्दीन

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो दुःखी, लाचार, भिखारी बनकर लोगों को ठगने का काम करता है। उसे ट्यूबवेल के पास खड़ा रोता देखकर जब पीने के लिए पानी और खाने के लिए खाना दिया गया तो उसे कुछ राहत मिली थी। बाद में उसने बताया कि वह अयोध्या से बक्सर अपनी माँ का कैंसर का इलाज कराने आया था। माँ तो बच नहीं सकी, उसका सारा सामान भी चोरी हो गया। उस पर दया करते हुए आपा ने उसे अपनी सारी जमा-पूँजी दे दी थी। वापसी के लिए जब मैं स्टेशन जा रहा था तो मैंने रास्ते में देखा कि वह व्यक्ति एक दूसरे आदमी को अपनी वही राम-कहानी सुना रहा था।

    गांव की एक शदीद तप्ती हुई दोपहर का ज़िक्र है।

    मैं बरसों बाद सरहद पार अपने आबाई गांव के नीम पुख़्ता मकान की ड्योढ़ी के बाहरी दरवाज़े पर खड़ा खाने के बाद जूठे हाथ धो रहा था और मेरी नज़रें उन चूज़ों पर जम गई थीं जो सिली ज़मीन पर गिरे हुए दाल-चावल के टुकड़ों को चुन-चुन कर बड़ी बेसबरी से हलक़ के नीचे उतार रहे थे। मुर्ग़ी भी दानों पर लपकती मगर अपने हिस्से का रिज़्क़ छिन जाने पर अपने ही बच्चों को बड़ी बेदर्दी से चोंच मारती और रगेदती...!

    दूसरी जानिब ज़रा फ़ासले पर खड़ा घर का वफ़ादार कुत्ता, ज़बान निकाले गुरसना निगाहों से ये सारा तमाशा देख रहा था और कभी कभी इशतिहा से मजबूर हो कर वो अपनी लंबी ज़बान को होंटों पर फेर लेता। फिर वो बड़ी बेबसी से बैठ कर टुकड़े का इंतिज़ार करने लगा। इतने में मेरी नज़र नीम के नसलों पुराने देव हैकल पेड़ के तने पर जा कर ठहर गईं जिसकी आड़ में एक अजनबी खड़ा होंटों पर ज़बान फेरते हुए कभी ट्यूबवेल और कभी दाना चुगते चूज़ों को बड़ी हसरत से देख रहा था और भूकों के इस तिकोन के बाहर मेरा वजूद बड़ा बेजोड़ और मज़हकाख़ेज़ लग रहा था...!

    अभी मैं कुछ कहना ही चाहता था कि इतने में रोटी का बड़ा सा टुकड़ा कुत्ते को डालते हुए आपा की नज़र उस अजनबी शख़्स पर पड़ी।

    बेचारा, भूका-प्यास लगता है। पानी पीने का इंतिज़ार कर रहा है शायद!

    उन्होंने ट्यूबवेल की तरफ़ देखा जहां मुहल्ले के हिंदू-मुसलमान लड़के पानी भरने के लिए अपनी बारी का इंतिज़ार कर रहे थे, मगर बेबी गले से नहाने में इस क़दर मगन थी कि उसे किसी बात का होश था। आपा से रहा गया।

    बेबी, कितना नहाओगी, चल हट। दूसरों को मौक़ा दे।

    नानी की ग़ुस्सा भरी आवाज़ सुनकर वो भागती हुई दूसरे दरवाज़े से आँगन में आगई और डर के मारे कुछ देर धूप में खड़ी रही। तब बच्चों ने पहले उस प्यासे को ओक से पानी पिलाया। मैं सिगरेट जलाने के लिए पीछे मुड़ा। आपा मुतमइन हो कर बावर्चीख़ाने की तरफ़ चली गईं जहां राना बर्तन समेट रही थी।

    मैं सिगरेट का कश लेते हुए अभी उस शख़्स के बारे में सोच ही रहा था कि मुझे बाहर से सिसकियों की आवाज़ सुनाई दी। देखा तो वही शख़्स पेट पकड़े मुँह पर कुछ रखे बेइख़्तियार ज़ार-ओ-क़तार रो रहा है। मैंने परेशान हो कर पूछा,

    क्या बात है? क्यों रो रहे हो? क्या तकलीफ़ है?

    मगर वो रोए चला जा रहा था। फिर वो पेट पकड़ कर ज़मीन पर बैठ गया और कराहने लगा। मैंने आपा को आवाज़ दी, उन्होंने बदहवास हो कर कहा, भय्या, इसे अंदर ले आओ। जाने क्या तकलीफ़ है।

    मैंने बाज़ू से पकड़ कर उसे उठाया। वो बड़ी मुश्किल से चल कर ड्योढ़ी में आया और चौकी पर बैठ गया और सिसकियों से रोने लगा। वो अपनी तकलीफ़ नहीं बता रहा था जिससे हमारी परेशानी और बढ़ती जा रही थी।

    कुछ बोलो भय्या, खाना खाओगे? आपा ने दिलासा देते हुए पूछा और जल्दी से जो कुछ बचा था, लेने चली गईं।

    राना पानी का जग और गिलास ले आई, पेट में मरोड़ के साथ भूक से दर्द हो रहा है शायद! ख़ा लो भय्या, ख़ा लो। उन्होंने सेनी उसके सामने रखते हुए कहा। फिर कई बार कहने के बाद वो खाना खाने लगा और मेरी नज़रें उसके वजूद का जायज़ा लेने लगीं।

    दुबला-पुतला, कमज़ोर सा नौजवान जिसके तन पर सुरमई रंग का मैला कुचैला कुरता, छोटे पाइंचे का मटियाला पाजामा, सर पर बदरंग सी दोपल्ली टोपी, धारीदार गमछा, सुते हुए चेहरे पर छोटी सी ख़शख़शी दाढ़ी और आँखों में उदासी का गहरा सन्नाटा, भूक और ग़ुर्बत ने जिससे जवानी का सारा कस बल छिन के जीने के लिए सिर्फ़ आँसू दे दिए थे जिसे बहा बहा कर वह सिर्फ़ औरों की तरह ज़िंदगी जिए जा रहा था। आपा उसे पंखा झल रही थीं। राना और उसके बच्चे कुछ देर उसे ग़ौर से देखने के बाद उसारे में चले गए थे। एक सोगवार सी ख़ामोशी कुछ देर फैली रही। मेरी नज़रें उसके वजूद पर जमी थीं और ज़हन सोच रहा था कि आधी सदी बीत जाने के बाद भी यहां के एक तब्क़े को भूक और अफ़्लास से छुटकारा नहीं मिला। सब कुछ वैसा ही है जैसा मैं छोड़कर गया था बल्कि अब तो जान की क़ीमत भी नहीं रही, आए दिन दंगा फ़साद!

    खाने के बाद वो ज़रा पुरसुकून नज़र आया।

    तुम्हारा नाम क्या है? मैंने उसे बोलने पर आमादा करना चाहा।

    अब्दुल नाम हैख्।

    इतना क्यों रो रहे थे?

    पानी पीते ही पेट में मरोड़ उठा था न। तीन दिन से कुछ खाया भी नहीं था और अम्मां की याद आगई थी...

    अम्मां की याद? यानी...?

    अपनी अम्मां का ईलाज कराने अयोध्या से बक्सर आया। वो कैंसर की मरीज़ा थीं। किसी ने बताया था कि यहां अच्छा और सस्ता ईलाज होता है। चंद दिन दवा दारू के बाद वो कुछ ठीक हो रही थीं मगर अचानक जाने क्या हुआ कि एक रात वो हमको छोड़कर चली गईं। मैं बहुत रोया पीटा। कुछ समझ में नहीं आरहा था कि उनकी मय्यत को अयोध्या कैसे ले जाऊं। पैसे ख़त्म हो चुके थे। कहाँ कहाँ नहीं ईलाज कराया। लखनऊ भी गए। अभी ईलाज चल ही रहा था कि एक दिन ख़बर आई कि अयोध्या में बलवाइयों ने मेरे मुहल्ले के सारे मुसलमानों के घर जला दिए हैं और मेरा घर भी लूट कर आग लगा दी। बीवी के साथ ज़्यादती की, फिर उसे मार डाला। बच्चे भाग कर पड़ोस में चले गए थे इसलिए बच गए वर्ना वो भी...

    वो एक-बार फिर फूट फूटकर रोने लगा। मैं उसकी बिप्ता सुन रहा था मगर मेरा ज़हन उन वाक़ियात में उलझ गया था जो सरहद पार करते हुए मेरे क़ाफ़िले वालों के साथ भी पेश आए थे। ख़ानदान के ख़ानदान क़त्ल कर दिए गए और सबको बेसर-ओ-सामानी के आलम में ख़ाली हाथ शोलों के दरमियान से जान बचा कर भागना पड़ा था। वक़्त फिर वही कुछ दोहरा रहा है। मेरा दिल रोने लगा।

    बच्चे दादी से बहुत मानूस हैं। मैं उन्हें क्या जवाब दूँगा। वो दीवार को घूरने लगा।

    मुझे यूं लगा जैसे वो दरवाज़े पर भूके प्यासे बैठे दादी का इंतिज़ार कर रहे हों। फिर बहुत से बच्चे मेरी नज़रों के सामने आगए।

    सब के चेहरे पर वही उदासी थी और उनकी मासूम नज़रों के सामने लक़-ओ-दक़ मैदान की रूह फ़र्सा वीरानी।

    वो बता रहा था, अम्मां के कफ़न-दफ़न का बंदोबस्त मय्यत के गिर्द जमा होने वाले मुक़ामी लोगों ने किया। हिंदू-मुसलमान सभों ने चंदा दिया। फिर वहीं दफ़ना दिया गया।

    उसके आँसू अब भी रवां थे। माँ के बिछड़ने के ग़म, बच्चों की जुदाई, बीवी की हलाकत, बेघरी, बेसर-ओ-सामानी, ख़ौफ़, बे-यक़ीनी, तवील सफ़र और ज़ाद-ए-राह कुछ भी नहीं। गोया आँसू ही उसका सरमाया थे। मैं उसके बारे में सोच कर उदास हो गया। शायद उन नौजवानों का यही मुक़द्दर है!

    बक्सर स्टेशन पर मैं ट्रेन का इंतिज़ार कर रहा था। बड़ी भीड़ थी भया और तरह तरह के लिबास में लोग जा रहे थे जैसे हिंदूओं का कोई तेहवार हो।

    लगन का मौसम है ना! शादी ब्याह होता है, बारात एक गांव से दूसरे गांव बाजे गाजे के साथ जाती है। तुम यहीं के हो, तुमको कुछ नहीं मालूम? मैंने उसे बताया।

    शहर में ये सब कहाँ होता है अब। उसने अंजान बन कर कहा, फिर जब बहुत देर हो गई और गाड़ी नहीं आई तो मैं वुज़ू बनाने चला गया और अपने क़रीब बैठे हुए मुसाफ़िर को सामान पर नज़र रखने के लिए कह दिया। फिर जब नमाज़ पढ़ कर वापस आया तो ये देखकर हैरान रह गया कि मेरा सामान वहां मौजूद था और वो मुसाफ़िर। बिस्तरबंद में किराए के पैसे थे जिसे जेबकतरों के डर से मैंने जेब में रखने की बजाय तकिये के ग़लाफ़ में छुपा रखा था और अभी तक टिकट भी नहीं ख़रीदा था। ख़ाली जेब और ख़ाली ज़हन में उसे पूरे प्लेटफार्म पर ढूंढता रहा। भूक से बुरा हाल था। थक-हार कर मैं स्टेशन से बाहर आगया। काफ़ी दूर आने के बाद जब मुझसे चला नहीं जा रहा था तो मैं थक कर एक दरख़्त के साये में सुस्ताने के लिए बैठ गया और फूट फूटकर रोने लगा। अब मुझमें आगे जाने की हिम्मत थी। घर और बच्चों का ख़्याल सता रहा था, मायूसी बढ़ती जा रही थी। अल्लाह मेरी मदद कर, मुझे किसी तरह घर पहुंचा दे, यही मेरे दिल की आवाज़ थी। फिर बहुत देर के बाद सामान से लदा एक ट्रक मेरे क़रीब आकर रुका। ड्राईवर पेशाब करने के बाद मेरे क़रीब आया और उसने पूछा, कहवां जाइएगा भय्या, काहै रोवत हौवा!

    माँ मर गई है...!

    कौनो ठिकाना बतावा। हम तोहरा के छोड़ देईब।

    हमारा घर तो अयोध्या में है। मगर कौनो ऐसे गांव पहुंचावा जहां ठिकाना मिल सके।

    उसने मुझे ट्रक में बिठा लिया। रास्ते भर मेरी बिप्ता सुनता और अफ़सोस करता रहा। फिर उसने मुझे इस बस्ती के क़रीब ये कह कर उतार दिया कि यहां चंद घर मुसलमानों के हैं, तुम्हें पनाह मिल जाएगी। सुना है इस बस्ती में कोई परदेसी भी आया हुआ है।

    मैंने चौंक कर आपा की तरफ़ देखा, उसे ये कैसे मालूम हुआ...?

    अब्दुल हमारे चेहरे की तरफ़ देखकर ख़ामोश रहा।

    आपा ने बताया, वो यक़ीनन इसी दैर का रहने वाला होगा। बात ये है भय्या कि जब कोई परदेस या किसी दूसरे शहर से बहुत दिनों बाद आता है तो एक दूसरे को ख़बर हो जाती है। राह चलते हुए जब एक गांव के लोग दूसरे गांव वालों से मिलते हैं तो किसी नई बात का ज़िक्र ज़रूर करते हैं। किसी को कुछ बताने या ख़बर फैलाने की ज़रूरत नहीं होती। वो तो ख़ुदबख़ुद फैल जाती है। इस में इतनी हैरानी की ज़रूरत नहीं।

    लेकिन उनकी ये बात सुनने के बावजूद भी मुझे हैरत हो रही थी और में उनके चेहरे को बड़े ग़ौर से देख रहा था।

    वो मुस्कुरा कर कहने लगीं, तुम अपना बचपन भूल गए। तुम भी तो ऐसी बातें अपने हमजोलियों से सुनकर हमें बताया करते थे।

    अच्छा... मैंने कुछ याद करते हुए सोचा और इस गांव की गलियों में भटकने लगा जो सब कुछ लुट जाने और वक़्त की तनाबें खिंच जाने के बावजूद भी मेरे अंदर आबाद है। वो मक्खियां उड़ाते हुए पंखा झलने लगीं। अब्दुल बड़े इन्हिमाक से हमारी बातें सुन रहा था।

    तुम्हारे कितने बच्चे हैं? मैंने उसके चेहरे पर क़दरे सुकून देखकर पूछा।

    दो बच्चे हैं। एक बेटा और एक बेटी। उसने गहरी उदासी से कहा और कुछ बेचैन सा दिखाई दिया जैसे अब जाना चाहता हो।

    आपा ने गहरी नज़र से मेरी तरफ़ देखा। राना ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो बड़ी देर से ख़ामोश बैठी थी, उठकर उसारे में चली गई और अपनी छोटी बेटी बेबी को जो मुसलसल शरारत किए जा रही थी डाँटने लगी।

    आपा का मतलब समझ कर मैंने जेब से कुछ रुपये निकाले और उसे देते हुए पूछा, किराए और सफ़री ख़र्च के लिए कम तो नहीं होंगे?

    उसने झिजकते हुए मेरी तरफ़ देखा।

    ले लो भयी, ले लो। शरमाने की ज़रूरत नहीं। आख़िर तुम घर कैसे जाओगे। बच्चे इंतिज़ार कर रहे होंगे।

    हाँ ठीक है। जैसे उसे कुछ याद आगया हो।

    रुपये जेब में रखते हुए अब्दुल जाने के लिए तैयार हो गया। उसके चेहरे पर इत्मिनान देखकर मुझे ख़ुशी हो रही थी और आपा मेरे जज़्बा-ए- तरह्हुम और नेकी से निहाल हो रही थीं। वो नीम के साये से गुज़र कर गली की नर्म धूप में बाएं जानिब मुड़ गया। आपा उसे जाता हुआ देखकर दुआएं दे रही थीं।

    मामूं आँगन में जाईए। धूप जा चुकी है, अच्छी हवा चल रही है। राना ने आँगन में छिड़काओ कर के चारपाई बिछाते हुए आवाज़ लगाई।

    मैं सिगरेट जला कर कुछ सोचने लगा था।

    अरे मामूं ज़्यादा मत सोचिए। इस घर में ऐसे वाक़ियात आए दिन होते रहते हैं। सारे दुखियारों को बस यही घर नज़र आता है। हमारी अम्मां के दम से ये रौनक है ना मामूं। वो खिलखिला कर हँसने लगी और कन-अँखियों से आपा को देखा।

    उन्होंने घड़ौंची पर रखे कोरे मटके से ठंडा पानी पीते हुए कटोरे की ओट से उसे तेज़ नज़रों से देखा और मुस्कुरा कर रह गईं। वो उसकी पेट पोछनी इकलौती बेटी थी जो मुँह लगी और तेज़ तर्रार भी थी।

    क्या मतलब है तुम्हारा? मैंने उसकी ख़ास हंसी में झाँकते हुए पूछा।

    रहने दें मामूं। अम्मां नाराज़ हो रही हैं।

    क्यों? मुझे तो बताओ।

    अरे मामूं क्या-क्या बताएं। चलिए आप कहते हैं तो बस एक बात सुन लीजिए। अभी कुछ दिन पहले एक अँगूठी वाले बाबा आए थे। उन्होंने अपनी सारी उंगलियों में ये बड़े बड़े पत्थर पहन रखे थे। बड़े बड़े बाल, लंबा जुब्बा पहने, डरावनी शक्ल, सर पर हरी पगड़ी, नंगे-पाँव, हाथ में डंडा। ऐसी ही भरी दोपहरिया थी। पहले उन्होंने पेट भर खाना खाया। फिर लंबी डकार लेकर अपनी थैली में से क़िस्म क़िस्म के पत्थर निकाल कर सबकी ख़ासीयत बताई। अम्मां की हथेली की लकीरों को देखा। फिर घर और बाल-बच्चों की क़िस्मत बदल जाने का यक़ीन दिला कर अम्मां की जमा पूँजी ले गए। उस दिन से अम्मां अँगूठी पहने घर की ख़ुशहाली का इंतिज़ार कर रही हैं। इस गांव में बिजली तो दिन भर रहती नहीं, गर्मी से आपका बुरा हाल है।गांव वाले सारी रात जाग कर करंट आने और मोटर चलाकर ट्यूबवेल से खेतों में पानी देने का इंतिज़ार करते रहते हैं। फिर भला आप ही बताईए कि ऐसी सूरत में भला ख़ुशहाली कहाँ से आएगी। गर्मी की शिद्दत से हम सब का बुरा हाल रहता है। मक्खी-मच्छरों की भरमार है। अम्मां दिन भर पंखा झलती हुई अच्छे दिनों का इंतिज़ार करती रहती हैं। भय्या का काम भी छूट गया है।

    आपकी सादगी और नेक दिली पर उसे हंसी आगई।

    बुज़ुर्गों की शान में ऐसा नहीं कहते। आपा ने बुरा मनाते हुए टोका।

    मेरी अम्मां सचमुच बड़ी भोली हैं मामूं। ये नहीं जानतीं कि दुनिया कितनी बदल गई है, धोका, फ़रेब आम सी बात है। सबके आँसू सच नहीं बोलते।

    अच्छा अच्छा आक़िला बुआ, अपनी बकवास बंद कर। अल्लाह तो देख रहा है न! कोई किसी की क़िस्मत थोड़े ही ले जाएगा। उन्होंने ज़च हो कर कहा और वुज़ू बनाने चली गईं।

    मैं राना की बातें सुनकर सोच में पड़ गया। उसके ज़हन में ये बात कैसे आई। क्या वाक़ई आँसू...

    आपा अस्र की नमाज़ से फ़ारिग़ हो कर अब्दुल के लिए बड़ी देर तक दुआ माँगती रहीं। उनके लफ़्ज़ों की हल्की हल्की गूंज मेरे कानों की राह दिल में उतर रही थी और ज़हन के वस्वसे दूर हो रहे थे। मुसल्ले से उठकर उन्होंने मेरे सर पर फूंक मारी। पेशानी को चूमा और मेरी वापसी के दिन उंगलियों पर गिनते हुए रुहांसी हो गईं। मेरा दिल उनके प्यार से भर आया। वो पानदान लेकर मेरी चारपाई की पाएँती बैठ गईं।

    मैं लेटा, खुले आसमान को देख रहा था, बादल उड़े जा रहे थे। वो पान लगाते हुए रिक़्क़त भरी आवाज़ में मेरे तवील सफ़र के बारे में पूछने लगीं। लम्हे ठहर गए थे। मैं भारी दल के साथ उनकी एक एक बात का जवाब देता रहा। उस रात मैं ठीक से सो नहीं सका। दिन भर के वाक़ियात सताते रहे।

    सुबह से ही घर में चहल-पहल और ग़मगीं उदासी थी। ख़ानदान के लोग और पड़ोसी अल-विदाई मुलाक़ात के लिए जा रहे थे। सबकी आँखों में जुदाई के आँसू थे। मैं बोझल क़दमों से मिलने वालों को गले लगा कर दुबारा आने का वादा कर रहा था। आपा और राना को तसल्ली दे रहा था। दिल की अजीब कैफ़ियत थी। आने की ख़ुशी से जाने का ग़म कितना बड़ा होता है। घर के चंद अफ़राद मुझे स्टेशन छोड़ने आए। प्लेटफार्म पर बड़ी भीड़ थी। थोड़े थोड़े फ़ासले पर छोटी छोटी टुकड़ियों में परदेस वापस जाने वालों को रुख़्सत करने के लिए लोग जमा थे। सब के चेहरे उदास थे और अपनों की आँखों से जुदाई के आँसू रवां थे। अजीब रिक़्क़त आमेज़ मंज़र दिखाई दे रहा था। इतने में उसी भीड़ में मेरी नज़र एक ऐसे शख़्स पर पड़ी जो ज़रा फ़ासले पर, गिड़गिड़ा कर किसी परदेसी को अपनी बिप्ता सुना रहा था। उसकी पुश्त मेरी जानिब थी मगर आवाज़ मानूस सी लग रही थी। मेरे ज़हन में उसे देखने का तजस्सुस पैदा हुआ। दूसरे ही लम्हे एक और ख़याल ने पूरी शिद्दत से मेरे ज़हन को जकड़ लिया। कहीं ये वही शख़्स तो नहीं जिसकी मदद मैंने की थी। मगर शायद नहीं। वो तो अपने बच्चों को गले लगा कर दिलासा दे रहा होगा। अभी मैं इतना ही सोच पाया था कि वो परदेसी से रक़म लेकर पल्टा। हमारी निगाहें चार हुईं। मैं हक्का-बक्का उसे देखने लगा। वो ठिठका। राना की बातें एक दम मेरे कानों में गूंज उठीं। मेरा जी चाहा कि मैं बढ़कर उस का गिरेबान पकड़ लूं। इतने में अजीब अंदाज़ से भीड़ को चीरता हुआ वो मेरी जानिब बड़ी तेज़ी से लपका और फिर मेरे पांव पर गिर पड़ा।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए