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अब मैं क्या करूँ

वक़ार बिन इलाही

अब मैं क्या करूँ

वक़ार बिन इलाही

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    गर्मी हस्ब-ए-मामूल बड़ी कड़ाके की पड़ रही थी, पड़नी भी चाहिए थी कि जून की लाज भी तो रखनी थी। शायद इसी मौसम के बारे में कहा गया था कि उन दिनों चील भी अंडा छोड़ देती है। चील ज़रूर अंडा छोड़ देती होगी लेकिन इन्सान ऐसा करने पर कभी आमादा नहीं होता, शायद इसलिए कि एक तो वो अंडे नहीं देता, उसने गर्मी का तोड़ भी ढूंढ लिया है। इतनी बड़ी इमारत सारी की सारी ही एयर कंडीशंड थी। बड़े हाल, कमरे, राह दारियां हर जगह हर कोना ठंडा था। चंद एक कमरे तो इज़ाफ़ी एयर कंडीशनरों की वजह से जैसे बर्फ़ख़ाने बने हुए थे और उन कमरों में बैठने वाले और बाहर झलने वालों के दरमियान भी उतनी ही दूरी थी जितनी कि मौसमों में, इमारत बाहर से सादा नज़र आती थी लेकिन अंदर क़र्रोफ़र और जाह-ओ-जलाल की तमाम तर नुमाइश मौजूद थी। फ़र्श पर दबीज़ क़ालीन, दीवारों पर ताज़ा रौग़न, छतों के अंदर एक और मस्नूई छत... कमरों के दरवाज़े भारी भरकम और उन पर लश-लश चमकती हुई नामों की तख़्तियाँ। अंदर कई कमरे और आसाइश के तमाम अस्बाब। न्यूयार्क की वाल स्ट्रीट पर घूमते फिरते ये राज़ समझने में देर नहीं लगती कि अमरीका बहादुर को सारी दुनिया की थानेदारी का शौक़ क्यों है। इस एक स्ट्रीट को बचाने के लिए तो वो सारी दुनिया को तबाह कर सकते हैं। दरवाज़े के साथ ही एक मुख़्तसर सा कमरा यहां हर शय मुख़्तसर थी, अलबत्ता टेलीफ़ोन दो थे और मुलाक़ातियों के लिए आम और खुरदुरी कुर्सियाँ थीं। ये पी.ए के पी.ए का कमरा था और मुलाक़ाती सारे के सारे ही निचले तबक़े के थे। यही वजह थी कि कमरे की फ़िज़ा यख़ तो थी लेकिन उसमें पसीने की सड़ान्द भी शामिल थी।

    एक कोने में दो-चार अहलकार बैठे थे। थे वो भी निचले दर्जा के, लेकिन थे ख़िदमतगार। इसलिए लिबास उजला और मूंछों में एक चमक थी। दो एक अख़बार पढ़ रहे थे और बक़िया टेलीफ़ोनों के साथ चिपके हुए थे। उसके पीछे दूसरा कमरा था जो क़दरे बड़ा था। सामान भी बाहर के कमरे की निस्बत क़दरे बड़ा था। कुर्सियाँ नर्म और तादाद में ज़्यादा थीं। ये पी.ए. का कमरा था। टेलीफ़ोन अलबत्ता तीन थे। ये कमरा भी मुलाक़ातियों से खचाखच भरा हुआ था। चंद एक पी.ए. साहिब के दोस्त थे, बक़िया उनके और वज़ीर साहब के दोस्तों के दोस्त थे। ज़्यादातर दोस्तों ने सफ़ारी पहन रखे थे जब कि दो तीन ने शलवार क़मीज़ के साथ वास्कट को भी ज़रूरी समझा था। ये लोग सुबह से दोबार चाय पी चुके थे लेकिन आँखों में क़दरे ख़ुमार अब भी था। फ़िज़ा में यख़ी तो थी ही, पसीने की बू थी। यहां भी लोग टेलीफ़ोनों से चिपके हुए थे। सारा मुल़्क उनकी एक उंगली की एक पोर के नीचे दबा था। आगे तीसरा और आख़िरी कमरा था। तीन अतराफ़ में दीवारें और अक़ब में शीशे की दीवार जो ब्लाइंड से यूं ढकी थी कि रत्ती भर धूप भी अंदर सके। कमरे के वस्त में बड़ी मेज़ जो सारी ही शीशे से ढकी हुई, शीशा साफ़-सुथरा, जिससे सिवाए आमाल के हर शय झलक रही थी। मेज़ के पीछे ये बड़ी घूमने वाली कुर्सी, कुर्सी के साथ छोटी मेज़ जिस पर चार टेलीफ़ोन के अलावा एक छोटा सा डिब्बे में बंद स्पीकर, जिस पर अंदर बड़े हाल में जारी इज्लास की कार्रवाई बख़ूबी सुनाई दे रही थी, यहां तक कि मुअज़्ज़िज़ अराकीन की गाली ग्लोच भी सुनने वाले को ख़ासा महज़ूज़ कर रही थी। दीवारों के साथ साथ सोफा सेट या कुशन वाली कुर्सियाँ और उन कुर्सियों पर नफ़ासत का कम-अज़-कम मुज़ाहिरा करने वाले बैठे थे जिनके लिबास कलफ़ लगे शिकन से क़तई पाक थे, जिनके चेहरों पर रऊनत ही रऊनत थी। हाथों में छन छनाती पजेरो, लैंड क्रूज़र, ट्योटा क्राउन, होंडा एकॉर्ड गाड़ियों की चाबियाँ थीं और चंद एक के हाथों में डन हिल सिगरेट के पैकेट। उनके चेहरे, हाथ, कपड़े, आफ्टर शेव और क्लोन में डूबे हुए थे, इसी लिए कमरे में ख़ुश्बू का जैसे बाज़ार खुला हुआ था। चेहरे उनके भी उकताए हुए थे लेकिन शायद उन्हें कोई और काम नहीं कि यहीं नशिस्तों से चिपके हुए थे।

    बाहर जब सर्व और यूकलिप्टस के साये दरख़्तों के अपने क़द से भी लंबे होने लगे तो इजलास की कार्रवाई ख़त्म हो गई। भोंपू की आवाज़ बंद हुई तो तीनों कमरों में बैठे मुलाक़ातियों के चेहरों पर यकदम रौनक़ फैल गई, जैसे तवील लोड शेडिंग के बाद बिजली के अचानक जाने पर मकीनों के चेहरों पर आजाती है। मुलाक़ाती क़दरे बेसबरी से अपनी अपनी नशिस्तों पर पहलू बदलने लगे। इजलास ख़त्म हो गया है, बस अब वज़ीर साहब ही रहे होंगे, हर एक की सोच यही थी। पी.ए. दो फाइलें उठाए अंदर दाख़िल हुआ तो घूमने वाली कुर्सी के क़रीब तरीन बैठी शख़्सियत ने थोड़ी गर्दन घुमाई और बड़ी नख़वत से पूछा, क्यों भाई! अब क्या ख़बर है। पी.ए. आख़िर पी.ए. था, उसने बड़ी बेएतिनाई से उस शख़्स की तरफ़ देखे बग़ैर जवाब दिया, अभी तो मैं कुछ नहीं कह सकता। मुलाक़ाती ने फिर पूछा, अब तो इजलास भी ख़त्म हो गया। पी.ए. ने जवाब नहीं दिया। उसी बेएतिनाई को अपने चेहरे पर सजाये वो अपने कमरे में अपनी कुर्सी में धँसा तो उसके पी.ए. ने उससे पूछा,

    वज़ीर साहिब तो इजलास में भी मौजूद थे, कहाँ चले गए...

    आहिस्ता बोलो। इन मुफ़्त ख़ोरों ने सुन लिया, तो मुसीबत आजाएगी। ज़ाहिर है, वो सुब्ह से इजलास के बहाने ही तो इतने सारे लोगों को क़ाबू किए हुए थे।

    मैं आहिस्ता ही बोल रहा हूँ, लेकिन वो गए कहाँ...? पी.ए. के पी.ए. ने आवाज़ धीमी करली।

    जाना कहाँ है। अभी तो वो घर से नहीं चले। रात... उसके पी.ए. ने लुक़मा देना चाहा।

    हाँ रात... ड्राईवर कह रहा था कि... लेकिन पी.ए. ने उसे चुप करा दिया।

    बस-बस, अपना काम करो... इतने में फ़ोन की घंटी बज उठी। पी.ए. ने पहली घंटी के ख़त्म होने का भी इंतिज़ार किया और एक-आध बात सुन कर ही रिसीवर रख दिया।

    साबिर से कहो, फ़ौरन गेट पर जाये। वज़ीर साहब चल दिये हैं। उनका पी.ए. बाहर की तरफ़ लपका तो कई एक मुलाक़ाती एक साथ उठ आए... और जवाब सुनकर अपनी अपनी नशिस्तों पर जा बैठे। यूं लग रहा था जैसे कई घंटे लेट गाड़ी बस प्लेटफार्म पर पहुंचने ही वाली हो।

    चंद ही लम्हे गुज़रे थे कि बाहर से साबिर ने लपक कर दरवाज़ा खोला, पहले वज़ीर साहब अंदर दाख़िल हुए, फिर दो-चार दर्जा अव्वल क़िस्म के मुलाक़ाती, उनके पीछे मुलाज़मीन और आख़िर में नंबर दो क़िस्म के बेशुमार ग़रज़मंद। वज़ीर साहब साठ-पैंसठ के पेटे में थे लेकिन हवास के अलावा भी दूसरी बहुत सी चीज़ें उनके क़ाबू में थीं। अलबत्ता पेट कुछ-कुछ फूल रहा था लेकिन उसे तोंद बहरहाल नहीं कहा जा सकता था। गाल भी क़दरे फूल लग रहे थे लेकिन चेहरे पर बला की ताज़गी थी। रही सही कसर उनकी आँखों ने पूरी कर दी थी। थीं तो जापानी-चीनी लेकिन उनमें अय्यारी और मक्कारी ने ही डेरे डाल रखे थे। वो शायद घर से नहाने के फ़ौरन बाद चल पड़े थे कि उनके दाख़िल होते ही सारे कमरे में साबुन की ख़ुशबू फैल गई। वो बाहर के कमरों में बैठे ग़रज़मंदों से हाथ मिलाने के बाद अपने कमरे में आए तो मुलाक़ातियों को देखते ही खिल उठे। तक़रीबन सभी के साथ बग़लगीर हुए यूं कि बग़लें मिलें ना एक दूसरे के लिबास पर शिकनें पड़ीं। कुर्सी में धँस के उन्होंने हर एक से एक-बार फिर ख़ैर ख़ैरियत पूछी और फिर मुख़ातिब हुए,

    बस एक मिनट और माफ़ कीजिए... उन्होंने सामने खड़े पी.ए. की तरफ़ देखा। पी.ए. के सारे सोच एक दम आन हो गए।

    पीजरो का ये ड्राईवर तो बिल्कुल निकम्मा है। आज फिर ऐसी ख़राब कर लाया है। उसे ठीक कराओ... एक गाड़ी बेगम साहब को भिजवा दो। बच्चों को दूसरी गाड़ी भिजवाओ, उन्होंने शायद पार्क में जाना है और हाँ! एक गाड़ी मेहमान ख़ाने भिजवाओ, वहां चंद एक मेहमान ठहरे हुए हैं वो शायद मरी जाएंगे लेकिन ख़याल रहे, टैंक सबकी फ़ुल हों... पी.ए. ने ये बात नोट करली थी... वो बाहर की तरफ़ चल पड़ा कि आवाज़ ने रोक लिया।

    वज़ारत में उस लुक़्मान के बच्चे से पूछो, कमरों में एसी किस क़िस्म के हैं। शर्म करो, इतना शोर करते हैं कि सोया आदमी भी उठ बैठे। उसे कहो, कम अज़ कम तीन तो तब्दील करा दे... मस्रूफ़ियात क्या हैं? पी.ए. ने दूसरी नोट बुक निकाली।

    जनाब चार बजे से इजलास शुरू है। रात डिनर पर्ल में है और रात... उन्होंने हाथ के इशारे से पी.ए. को रोक दिया, बस ठीक है। नलकों में पानी नहीं है तो क्या चाय भी नहीं मिलेगी। पी.ए. बाहर की तरफ़ लपका। वज़ीर साहब धुले धुलाए लोगों की तरफ़ मुड़े तो चेहरा गुलनार हो रहा था।

    जी चौधरी साहब, इतने दिनों बाद आपने इधर का रुख़ किया है। आप पहले तो ऐसे थे... ठहरे कहाँ हैं... चौधरी साहब के लहजे से मुलाक़ात की ख़ुशी उबल रही थी। अपने अज़ीज़ हैं यहां, उन्ही के पास ठहरा हूँ। बस एक ज़हमत देनी थी... वज़ीर साहिब ने उन्हें रोक दिया।

    अब इतना भी क्या तकल्लुफ़। आप हुक्म तो करें जी...

    आप तो जानते हैं, आपकी सिफ़ारिश पर ही तो मुझे दस करोड़ का क़र्ज़ा मिला था। मैं वापस भी कर रहा था लेकिन फिर ख़याल आया, क्यों एक आध मिल और लगा लूँ। ये काम अभी आधे में है कि इदारे ने क़र्जे़ की अदायगी के लिए तंग करना शुरू कर दिया है... उनकी बात ख़त्म होने से पहले ही वज़ीर साहब ने रिसीवर उठाया और पी.ए. से नंबर मिलाने को कह दिया। इधर चौधरी साहब की बात ख़त्म हुई उधर वो साहब मिल गए। वज़ीर साहब ने कुछ पुराने तअल्लुक़ात का हवाला दिया, कुछ आइन्दा की मेहरबानियों की तरफ़ इशारा किया और चंद ही लम्हों में उन साहब को चित कर लिया। रीसीवर रखते हुए बोले,

    लें चौधरी साहब, वो तो मान ही नहीं रहा था। बहरहाल जब तक मैं हूँ वो फिर तक़ाज़ा नहीं करेगा... चौधरी साहब सर से पांव तक शुक्रिये की ये बन गए। ऐसे कि मुँह से कुछ निकल नहीं रहा था। बस इतना कह सके,

    अल्लाह आपका इक़बाल और बुलंद करे... फिर वो कमरे से निकल गए यूं कि उनके दोनों हाथ सीने पे एक दूसरे के ऊपर विराजमान थे और पुश्त दरवाज़े की तरफ़ ही रही जैसे किसी मज़ार पर हाज़िरी देने के बाद उल्टे क़दमों जा रहे हों। वज़ीर साहिब को कुछ याद गया। उन्होंने फ़ोन का रिसीवर उठाया और बज़र की घंटी दबा दी। दूसरी तरफ़ पी.ए. था।

    वो घर में सोफा सेट किस ने बनवाए हैं... बिल्कुल जाहिल है, गधा है। कपड़े का रंग तो पर्दों से मिलता है क़ालीन से... तब्दील कराओ उन्हें... और हाँ! स्टेशन से वो आमों की पेटियां मंगवाई हैं कि नहीं... घर पहुंच गई हैं! रिसीवर रख के वो दूसरे मुलाक़ाती से मुख़ातिब हुए।

    जी ओखरा साहब, क्या हाल हैं। यार! पिछली बार आपने शिकार के इंतिज़ामात ख़ूब किए थे, वो नशा तो आज तक नहीं उतरा... ओखरा साहब अब इतने भी कुंद ज़ह्न थे कि इशारा समझते, बोले,

    मैं तो गर्मियों के ढलने का इंतिज़ार कर रहा हूँ, अगला प्रोग्राम और भी शानदार होगा। वज़ीर साहब निहाल हो गए।

    जी जी क्यों नहीं, इस बार बर्क़ी साहब को भी ले चलेंगे... अच्छा तो, कैसे ज़हमत की आपने?

    बस क्या कहूं जी! वो आपका भतीजा बी.ए. तो कर गया है, आगे पढ़ने को तैयार नहीं। आपके महकमे में ग्रेड 18 की दो आसामियां हैं। उसे यहीं फंसा दें तो... वज़ीर साहब ने दरख़्वास्त ले ली, उस पर कुछ लिखा और बोले,

    ग्रेड अठारह के लिए तो एम.ए होना ज़रूरी है और पाँच साल का तजुर्बा भी... लेकिन आप का बच्चा तो मेरा बच्चा हुआ नां। मेरे महकमे के दूसरे अफ़्सर बड़ी मीन मेख़ निकालते हैं, लेकिन ख़ैर... आप समझें, काम हो गया... फिर उन्हों ने पी.ए. को बुलाया, दरख्वास्त उसे पकड़ाई और बोले, मुझे लैक्चर मत देना। ये दरख़्वास्त अभी ले जाओ और अपने सेक्रेटरी साहब से कहो, कल दोपहर तक मुझे आर्डर की कापी मिल जाना चाहिए... उनसे भी कहना, मुझे कापी दरकार है, क़ायदे, क़वानीन के वाज़ नहीं। इतने में टेलीफ़ोन बज़र बज उठा। वज़ीर साहब ने रिसीवर उठाया। पी.ए. से जब सुन चुके कि लाइन पर कौन है तो कुर्सी में फैल गए और मुस्कुराहट उनकी मूंछों से भी उबली पड़ रही थी। लाइन मिल गई दूसरी तरफ़ एक और वज़ीर साहब थे...

    जी, जी। बिस्मिल्लाह, बिस्मिल्लाह। क्या हाल है... हूँ... फिर उन्होंने छत फाड़ क़िस्म का क़हक़हा लगाया... फिर यकलख़्त संजीदा हो गए। अच्छा... कुल कितने लोग हैं। क्या कहा सत्तर। जाना कहाँ कहाँ है... ब्राज़ील और... मैक्सिको और पुर्तगाल... नहीं वो तो ठीक है। पर बेगम और बच्चे नहीं मानेंगे। पिछली बार भी मैंने टर्ख़ा दिया था। अब पूरा जहाज़ जा रहा है तो दो तीन से क्या फ़र्क़ पड़ता है... हाँ हाँ, यार तुम कोशिश तो करो... मेरी तरफ़ से तो हाँ समझें लेकिन... हाँ हाँ! बच्चे सही लेकिन बेगम के बग़ैर और हाँ बड़े बच्चे को तो बिल्कुल इग्नोर नहीं कर सकता, मेरे बाद आख़िर उसी ने तो ये सारा धंदा सँभालना है... ओके, ओके... रिसीवर रखते रखते उनके चेहरे का इत्मिनान, संजीदगी में बदल गया। फिर से वो सीधे हो बैठे। कमरे का जायज़ा लिया। बाक़ी रह गए दो-तीन लोगों की तरफ़ देखा और बोले, मेरे लिए कोई ख़िदमत!

    अरे नहीं, तक्लीफ़ देने को जी तो नहीं चाहता लेकिन... बच्चों की छुट्टियां हो रही हैं। अगर...वज़ीर साहब ने बात नहीं की, बज़र दबा के पी.ए. को हिदायात देने लगे,

    जातली साहब के बच्चों के लिए रेलवे से कहो, पूरा सैलून बुक कर दें। यहां से दो गाड़ियां इंतिज़ाम कर रखो और मरी में रेस्ट हाऊस भी बुक करा दो... हाँ! तो ये जातली साहिब से पूछ लो... जातली इशारा समझ गए। उठे, बड़े एहतिराम से सलाम करते हुए बाहर निकल गए।

    उनके बाद किसी इलाक़े के ज़मींदार की बारी थी। उनका कोई मुज़ारे किसी और मुज़ारे की बेटी को अग़वा कर के ले गया था लेकिन पुलिस अब रिपोर्ट दर्ज नहीं कर रही थी। वज़ीर साहब ने तीन-चार फ़ोन करवाए, थानेदार तो नहीं मिला, हवालदार पर ही बरस पड़े। उसे हुक्म देने के बाद उस ज़मींदार को तसल्ली देने लगे,।

    आप फ़िक्र करें। रिपोर्ट दर्ज हो जाएगी। इस मुज़ारे की ये मजाल कि लड़की अग़वा करे। आप मुतमइन रहें, हमने इन बुराइयों के ख़ातमे का तहय्या कर रक्खा है। फिर वह दूसरे मुलाक़ाती से बात करने ही वाले थे कि पी.ए. दरवाज़ा खोल के अंदर आया लेकिन वज़ीर साहब के चेहरे पर जलाल देखकर झिजक गया, बात करे या ना करे... वज़ीर साहब भी लहज़ा भर चुप रहे जैसे अंदर ही अंदर कुछ पी रहे हों। थोड़ी देर बाद वो नॉर्मल हुए तो उन्होंने मुस्कुरा के पी.ए. की तरफ़ देखा और सर का इशारा कर दिया... पी.ए. के लिए ये इशारा काफ़ी था।

    बाहर कुछ मुलाक़ाती बैठे हैं और इजलास का वक़्त भी हो रहा है... वज़ीर साहब ने चौंक जाने की ऐक्टिंग की, अच्छा कह के उठ खड़े हुए। उनका उठना था कि बाहर बरामदे तक थरथली मच गई। हर किसी की ज़बान पर यही था। वज़ीर साहब उठ रहे हैं... वो पहले पी.ए. के कमरे में आए... पी.ए. का कमरा बस ख़ाली था लेकिन एक साहब जो पी.ए. के ऐन सामने निहायत अदब से खड़े थे, वज़ीर साहब को देखकर थोड़ा सा आगे बढ़े, ठिठुके फिर पीछे हट गए। इतने में पी.ए. वज़ीर साहब की पुश्त से निकल कर सामने गए।

    सर यह मिरे पुराने साथी हैं। बेचारे सिफ़ारिश होने की वजह से बस खड्डा लाइनों पर ही चल रहे हैं। वज़ीर साहब ने पुराने साथी का पांव से सर और सर से पांव तक जायज़ा लिया, फिर पूछा, अच्छा तो फिर?

    जी आप अगर मेहरबानी करके दो लफ़्ज़ इनकी दरख़्वास्त पर लिख दें तो ये कस्टम में... वज़ीर साहब ने मुआमला यहीं रोक दिया। दरख़्वास्त लाओ भाई... इसमें मेहरबानी की क्या बात है। हम तो ब्यूरोक्रेट्स को हुकूमत की रीढ़ की हड्डी समझते हैं। इस नाते हमारे अपने हुए ना। साथ ही साथ वो दरख़्वास्त पर भी लिखते गए।

    फिर वह बाहर के कमरे में आए तो पसीने की सड़ान्द से वो कुछ ख़ुश नहीं हुए। लेकिन सारी फ़ौज उनके साथ थी, इसलिए कुछ कर भी सके। ये कमरा मुलाक़ातियों से खचा खच भरा हुआ था, उनका जी चाहा, इजलास का बहाना करके यहां से खिसक लें। लेकिन अपने दूसरे अहलकारों को सर पे सवार देख के रुक गए और बारी बारी हर एक से दरख़्वास्त ले के उसपे कुछ कुछ लिखते गए। पता तो उन्हें भी नहीं था कि किस दरख़्वास्त पर क्या लिख रहे हैं। दरख़्वास्त गुज़ार साथ कहानी भी सुनाते थे लेकिन यहां इतनी फ़ुर्सत किस के पास थी कि कहानियां सुनता रहे और फिर कहानियों में नयापन तो था नहीं, वही पुराने क़िस्से, लड़का फ़ेल हो गया है, पास करा दें। म्युनिसिपल कमेटी मान नहीं रही, नलका लगवा दें। बेटी के ब्याहने की जहेज़ नहीं है, पैसे दिलवा दें, वग़ैरा वग़ैरा, जब भीड़ छट गई और वज़ीर साहब ने सोचा, बक़िया एक दो को नजरअंदाज़ करके निकल जाएं कि एक वर्कर ने तुरत उनके कान में सरगोशी की।

    इस बाबे की बात ज़रूर सुन लें, इसके ख़ानदान की सोलह वोटें हैं। वज़ीर साहब चौंके। बाबे की तरफ़ देखा और हाल अहवाल पूछा।

    क्यों बाबा जी। कोई ख़िदमत? बाबे ने ज़िंदगी भर इतनी मुहब्बत, हमदर्दी कहाँ पाई होगी।

    पुत्तर, मुझे पुलिस ने बड़ा तंग कर रखा है।

    बाबा जी, आप चिंता करें, हमने इन तमाम बुराइयों के ख़ातमे का अज़्म कर रखा है। बात क्या है?

    पुत्तर आज पंद्रह रोज़ हो गए हैं, भाखड़ा ग्रूप के बंदे मेरा मुर्ग़ चुरा के ले गए हैं... वज़ीर साहब को झटका लगा... थोड़रा सा मुस्कुराए... क्या कहा बाबा जी, मुर्ग़?

    जी पुत्तर, मुर्ग़... बात मुर्ग़ की नहीं है। बात भाखड़ों की है, वो इतने मुँह ज़ोर हो गए हैं। मैं पुलिस के पास इतनी बार गया हूँ वो रिपोर्ट ही दर्ज नहीं करते। बस आप पर्चा कटवा दें। वज़ीर साहब रुक गए, मुड़ के फिर पी.ए. के कमरे में आए, शहर का नाम लिया और बोले,

    आई जी से मिलाओ... उनकी इतनी जुरअत, उन्हें मालूम नहीं, अवाम की ख़िदमत हमारा नस्ब उल-ऐन है।

    पी.ए. ने मुताल्लिक़ा शहर में नंबर दो-चार घुमाया और नंबर मिला तो किसी से बात करके क़दरे मायूसी से बोला,

    आई जी साहब तो हैं नहीं, दौरे पर हैं।

    अच्छा अच्छा... उनके दौरे ही ख़त्म नहीं होते। एस.पी. को मिलाओ। हुक्म देने के बाद वज़ीर साहिब ने इधर उधर देखा, कुछ कहना चाहा लेकिन कमरे के सन्नाटे से ख़ुद ही डर गए। टेलीफ़ोन के साथ दंगल करते हुए पी.ए. साहब को देखने लगे। पी.ए. ने नंबर मिला लिया, किसी से बात भी की और फिर रिसीवर हटाके बोला, एस.पी साहब तो किसी मीटिंग में मस्रूफ़ हैं।

    इन सबको... तुम एस.एच.ओ से मिलाओ। नंबर तो मिल गया लेकिन वो शायद ड्राइंगरूम में किसी की लतरोल में मस्रूफ़ थे कि ख़ासी देर बाद फ़ोन पर आए। पी.ए. ने रिसीवर वज़ीर साहब को पकड़ा दिया। वज़ीर साहब ने आओ देखा ताव बरस पड़े।

    थानेदार साहब, आप थाने में ही होते हैं या... अप्पोज़ीशन के जलसे कराते फिरते हैं। अप्पोज़ीशन ने और तो बेड़ा ग़र्क़ कर ही दिया है, पुलिस का भी सत्यानास हो गया है। हाँ! आप इस ग़रीब की शिकायत क्यों नहीं सुनते। इसलिए कि ये मेरा वोटर है। याद रखें, हम सारी गंदी मछलियों को ख़त्म कर देंगे...क्या कहा... आपकी बात सुनूँ, क्यों सुनूँ... आप भाखड़ों के ख़िलाफ़ पर्चा क्यों नहीं काटते... क्या कहा... पहले तो वज़ीर साहब का पारा स्टाक ऐक्सचेंज के भाव की तरह कभी ऊपर कभी नीचे हो ही रहा था लेकिन अब यूं लगा जैसे पारा गिर कर जम गया हो और वज़ीर साहब की सारी हवा निकल गई हो। यख़ कमरे में भी उनकी पेशानी पर हल्का सा पसीना आगया। रिसीवर उन्होंने पी.ए. के हाथ में पकड़ाया और किसी क़दर टूटे हुए लहजे में बाबे के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले,

    बाबा जी... हंगरोल साहब मुझसे बड़े और ताक़तवर वज़ीर हैं। पर्चा वो आपके ख़िलाफ़ पहले ही कटवा चुके हैं, हतक-ए-इज़्ज़त का... आप ही बताएं, अब मैं क्या करूँ?

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