अलहम्दु लिल्लाह
स्टोरीलाइन
मुफ़लिसी में ज़िंदगी गुजारते एक गाँव के मौलाना की कहानी। मौलाना की जब नई-नई शादी हुई थी तो गाँव भर से इतना नज़राना आ जाता था कि दोनों मियाँ-बीवी का अच्छी तरह से हो जाता था। मगर जैसे-जैसे घर में बच्चों की तादाद बढ़ती गई दो वक़्त की रोटी का मयस्सर होना भी मुश्किल होता गया। ज़िंदगी की इन मुश्किलात में एक शख्स ऐसा था जिसने मौलाना का पूरा साथ दिया। मगर क़हर तो तब टूटा जब एक दिन उस शख़्स की मौत हो गई और मौलाना तन्हा खड़े रह गए।
शादी से पहले मौलवी अबुल के बड़े ठाठ थे। खद्दर या लट्ठे की तहबंद की जगह गुलाबी रंग की सब्ज़ धारियों वाली रेशमी ख़ोशाबी लुंगी, दो घोड़ा बोस्की की क़मीज़, जिसकी आस्तीनों की चुन्नटों का शुमार सैंकड़ों में पहुँचता था। ऊदे रंग की मख़्मल की वास्कट जिसकी एक जेब में क़ुतबनुमा होता और दूसरी जेब में नसवार की नुक़रई डिबिया होती। सर पर बादामी रंग की मशहदी लुंगी जिसमें से कुलाह की मुतल्ला चोटी चमकती रहती थी। हाथ में अ'सा जिस पर जगह-जगह गिलट के बंद और पीतल के कोके जुड़े हुए थे, बालों में कोई बड़ा काफ़िर तेल जिसकी ख़ुशबू गलियों में लटकती रह जाती थी। क़द्रे ऊपर उठी हुई पुतलियों वाली आँखों के पपोटो में सुरमा तो जैसे रच कर रह गया था। उंगलियों में हाजियों के लाए हुए बड़े बड़े नगिनों वाली चांदी की अंगुश्तरियाँ जो व़ज़ू से पहले दिन में चार पाँच-बार उतरती थी। मगर उनकी तर्तीब में कोई फ़र्क़ न देखा गया और फिर मौलवी अबुल की आवाज़ ! शुक्र है अल्लाह ता'ला की बख़्शी हुई ये नेअ'मत कलाम पाक की तिलावत में इस्तिमाल हुई। वर्ना अगर कोई मौलवी अबुल माहिए की कली अलाप देता तो गाँव भर की लड़कियों को संभालना मुश्किल हो जाता। हर ईद के ख़ुत्बे के बाद उसके सामने घर-घर से जमा किए हुए डेढ़-दो सौ रुपयों की पोटली छन से आ गिरती तो वहीं नमाज़ियों के सामने चालीस-पच्चास रूपए गाँव के मिस्कीनों-मोहताजों में बांट देता और उनसे कहता के मुझे दुआ'एँ न दो, उस अल्लाह जल्ल-ए-शानहू को याद करो जो पत्थरों में कीड़ा पैदा करता है तो वहीं से उसे खुराक भी पहुँचता है। मुझे दुआ'एँ न दो, मुझे उसने क्या नहीं दिया, सेहत, इत्मिनान, बेफ़िक्री। मुझे उसकी रहमतों के खज़ाने से और कुछ नहीं चाहिए।
लेकिन शादी के बाद अल्लाह जल्ल-ए-शानहू की रहमतों ने एक और सूरत इख़्तियार कर ली। मौलवी अबुल के यहाँ औलाद का कुछ ऐसा ताना बंध गया कि जब एक साल उसकी बीवी के यहाँ कोई औलाद न हुई तो वो सीधा हकीम के पास दौड़ा गया। उसे यक़ीन था के बच्चा नहीं हुआ तो ज़ैबुन्निसा के निज़ाम-ए-तख़्लीक़ में कोई गड़बड़ पैदा हो गई है। ज़ैबुन्निसा के यहाँ बच्चा न होना ऐसा ही था जैसे पूरी रात गुज़र जाने के बाद भी सूरज तुलूअ' न हो और जब अगले साल सूरज तुलूअ' हुआ तो मौलवी अबुल के जान में जान आई। यक़ीनन औलाद की इफ़रात ख़ुदा की रहमतों में एक रहमत थी मगर मुश्किल ये आन पड़ी के रेशमी ख़ोशाबी लुंगी साफ़ी बन कर रह गई थी। बोस्की की क़मीज़ बरसों पहले पोतड़ों के रूप इख़्तियार करती ग़ायब हो चुकी थी और अब उसकी जगह गाढ़े के चोले ने ले ली थी जो कई बार धुलने के बावजूद यूँ मैला मैला लगता था जैसे उसे बुनते वक़्त जोलाहे ने सूत के ताने-बाने में थोड़ी सी ग़लाज़त भी बुन डाली है। मुतल्ला कुलाह की दाढ़ी मूछें निकल आई थीं। अंगुश्तरियाँ की चांदी और अ'सा का गिलट लड़कियों के बुन्दों-झुमकों की नज़र हो चुका था। सुर्ख़-सुर्ख़ पपोटों वाली आँखों में पुतलियाँ कुछ इस तरह बहुत ऊपर उठ गईं थीं के मौलवी अबुल हर वक़्त नज़ाअ' के कर्ब में गिरफ़्तार नज़र आता था। ताबड़तोड़ बहुत से बच्चों के साथ ज़माने में भी ताबड़तोड़ तब्दीलियाँ हो रही थीं। मौलवी अबुल ने अपनी पहलोटनी की बेटी महरुन्निसा के लिए जो जूता एक रूपए में ख़रीदा था अब वही जूता मोची ने उसकी सब से छोटी बेटी उमदतुन्निसा के लिए छः रूपए में तैयार किया था और जब मौलवी अबुल ने शिकवा किया तो मोची बोला, मैंने तो मौलवी जी आप की ख़ातिर ज्यादा दाम नहीं मांगे, कोई और होता तो छः छोड़ दस मार लेता। चमड़े को तो आग लग गई है। क़ीमतें यूँ एक दम ज़न से उपर गईं हैं कि लगता है दुनिया भर की गाय-भैसें कहीं कोह-ए-क़ाफ़ पर भेज दी गईं हैं। पौने छः की लागत है मौलवी जी, एक चवन्नी कम कर रहा हूँ, आप चवन्नी को भी जाने दीजिए, इसमें ज़रा सा भी झूट हो तो डूब कर मरूं जनाज़ा तक नसीब न हो।
अगर दुआ'ओं के बदले आसमानों से ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी उतरना मुम्किन होता तो उस रोज़ मौलवी अबुल ख़ुदा से अपनी उम्दा के लिए जूते मांगता। रात ज़ैबुन्निसा से मश्विरा किया और जब उसने ज़बान से कुछ कहने के बजाए लिहाफ़ का एक कोना उठा कर मौलवी अबुल को उमदतुन्निसा के पाँव दिखाए तो बच्चों की तरह एक दम रो दिया और दूसरे रोज़ सुब्ह की नमाज़ और वज़ाइफ़ के बाद पौने छः रूपए मोची की नज़र कर आया और मोची की दूकान से उठ कर गली में आया तो अल्लाह जल्-ए-शानहू को हाज़िर-नाज़िर जान कर नसवार से तौबा कर ली।
नमाज़ियों के ता'दाद बढ़ने की बजाए घट रही थी और ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी की क़ीमतें घटने की बजाए बढ़ रही थीं और फिर औलाद बढ़ रही और औलाद के साथ मौलवी अबुल के बालों की सफेदी बढ़ रही थी। इधर महरुन्निसा ने चौदहवीं साल में क़दम रखा उधर मौलवी अबुल की ये हालत हो गई के रुकूअ' में गया है तो उठने का नाम नहीं ले रहा। सज्दे में पड़ा है तो बस पड़ा है। होशियार मुक़तदियों को वक़्त पर खांसी का दौरा न पड़ता तो मुम्किन है मौलवी अबुल एक ही सज्दे में ज़ोहर को अ'स्र से मिला देता। रमज़ान-उल-मुबारक में तरावीह पढ़ाने की सआ'दत हस्ब-ए-दस्तूर उसी को सुपुर्द हुई मगर वो मौलवी अबुल बरकात जो आयात या अल्फ़ाज़ की ग़लती तो क्या कभी ज़ेर-ज़बर की ग़लती का भी मुर्तक़िब नहीं हुआ था। अलबक़रा से अल-निसा में जा निकला और सूरा-रहमान पढ़ना शुरू की तो एक ही रक्अ'त में उसे दो बार पढ़ डाला। चौधरी फ़तह दाद कुर्सी नशीं-व-मेंबर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने जब उसे इस इस्तेग़्राक़ पर सरज़निश की तो एक बार मौलवी अबुल के जी में आई के पुकार उठे के आपके यहाँ तो लौंडों के खेप है न चौधरी साहब, आपके भी कोई बेटी होती और अब वो जवान हो गई होती तो मैं आपको समझाता के एक सूरत को दो बार कैसे पढ़ लिया जाता है।
लेकिन चौधरी फ़तह दाद की ये सरज़निश ज़्यादातर मज़हबी नौइयत की थी वर्ना यह चौधरी ही तो था जो बरसों से मौलवी अबुल के घर में हर शाम को घी लगी एक रोटी और दाल शोरबे का एक सकोरा इस इल्तिज़ाम से भेजवाता था जैसे एक वक़्त नागा हो गया तो सूरज सवा नेज़े पर उतर आएगा और हद ये थी के जिस दिन रोज़-रोटी या दाल सालन भेजवाने में ज़रा सी देर हो जाती तो चौधरी फ़तह दाद बनफ़्स-ए-नफ़ीस मौलवी अबुल से माफ़ी मांगने आता। आज वज़ीफ़ा देर से पहुँचा होगा क़िब्ला! मैं इस ग़फ़लत की माफ़ी मांगता हूँ। चौधराइन ज़रा बीमार थी और खाना नाइन ने तैयार किया, वो हरामज़ादी ये भूल गई के आप के यहाँ अगर देर से खाना पहुँचा तो मुझे एक रोज़ा रख कर कफ़ारा अदा करना होगा।
ये वज़ीफ़े मुख़्तलिफ़ नौइयत के थे और जुमे'रात को तो मौलवी अबुल के यहाँ न आटा गुंधता था और न हंडिया चढ़ती थी। मौलवी अबुल के अ'क़ीदतमंदों के यहाँ से एक दर्जन के क़रीब बड़ी जानदार रोटियाँ आ जाती थीं। उधर ज़ैबुन्निसा ने घर में लड़कियों को क़ुरआन शरीफ़ का दर्स देने का सिलसिला शादी के तीन महीने बाद से ही शुरू कर दिया था। जुमे'रात को हर लड़की छोटे-छोटे से वज़ीफ़ों पर ज़रा ज़रा सी शकर रख कर लातीं तो ज़ैबुन्निसा को दो चंगेरीं उनके लिए अलग रख देना पड़तीं। उस रोज़ दोनों वक़्त सब सेर हो कर खाते जो वज़ीफ़े बाक़ी बचते उन्हें धूप में सूखा ली जाता और महीने में चार बार उन्हें गुड़ के शर्बत में उबाल कर मीठे टुकड़े तैयार किए जाते, लेकिन मुसीबत ये थी इंसान को पेट भरने के लिए रोटी के अ'लावा पेट ढाँकने के लिए कपड़ा भी चाहिए, चौधरी फ़तह दाद हर नई फ़सल पर मौलवी अबुल को एक पोशाक भी पेश करता था। लेकिन जब भी ये पोशाक घर में आई एका एकी दर्ज़ी की दुकान सज गई, ज़ैबुन्निसा, महरुन ज़ुबैदा और शम्सुन को पास बिठा कर लट्ठे के तहबंद का तिया पाइंचा कर के रख देती और यूँ नन्हों के बहुत से चोले निकल आते। मलमल की पगड़ी से भी कुछ ऐसा ही बर्ताव होता और यूँ चंद महीनों के लिए मौलवी की औलाद बिल्कुल नंगी होने से बच जाती। इस दौरान में अगर किसी की निकाह ख़्वानी के सिलसिले में, या नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ाने के ज़िम्न में चंद रुपये आ निकलते तो वो महरुन्निसा के जहेज़ की ख़ातिर टीन के एक डिब्बे में रख दिए जाते। बच्चों के पेट बढ़ रहे थे और बाक़ी जिस्म सिकुड़ रहा था। ज़ैबुन्निसा के कंगन जो कभी उसकी सांवली कलाइयों में गढ़े रहते थे, अब ज़रा से झटके से पहुंचे पर आ जाते थे और उसकी लाँबी-लाँबी पलकों के पीछे जवानी का भोभल सर्द राख बन चुका था और जब वो पलकें झपकती थी तो उसके चेहरे पर ये राख उड़ती हुई मा'लूम होती थी। ख़ुद मौलवी अबुल ज़िंदगी के ज़रा-ज़रा से हादसों के दरमियान बिल्कुल बुच्ची हो कर रह गया था। इनही दिनों उसे मौलवी अबू अल-बरकात की बजाए, मौलवी अबुल कहा जाने लगा था। कनपटियों के बाल तो बिल्कुल सफ़ेद हो चुके थे और दाँतों पर मसूड़ों की गिरफ़्त ढीली पड़ गई थी। तिलावत करते वक़्त कई बार दाँतों की रेखों में सीटियाँ बज उठती थीं मगर आवाज़ का ठाठ वही था। सही मख़रज से निकले हुए हुरूफ़ यूँ बजते थे जैसे पीतल की थाली पर बिल्लौर की गोलियाँ गिर रही हों। अलबत्ता उस आवाज़ में एक लरज़िश ज़रूर आ गयी थी, जो पुराने नमाज़ियों को बहुत अजनबी मा'लूम होती थी लेकिन चौधरी फ़तह दाद को इस इर्तिआ'श सबब मा'लूम था, क्योंकि मौलवी अबुल उससे महरुन्निसा के लिए रिश्ता ढ़ूढ़ने के सिलसिले में बात कर चुका था। चौधरी ने इस मक़सद के लिए सारे गाँव पर नज़रें दौड़ाईं थीं। रात को बिस्तर पर लेट कर एक एक घर में झांक आया था और कई नौजवान उसे जचे भी थे, मगर सारी मुश्किल ये थी कि मौलवी अबुल को सब जानते थे। उन्हें मा'लूम था कि महरुन्निसा सूखे टुकड़ों पर पली है और सूखे टुकड़ों पर पली हुई जवानी में ख़ून कम होता है और आँसू ज़्यादा फिर ये बात भी उनसे छिपी हुई नहीं थी कि अब मौलवी अबुल को ईदैन पर बीस रुपये मिलते हैं जिनसे महरुन्निसा का जहेज़ तो क्या बना होगा दूसरे नौ बच्चों के लिए जूता-टोपी भी शायद ही मुहय्या हो सके हों। एक दो जगह चौधरी ने बात भी की मगर मुख़ातब कुछ यूँ त्योरा कर पीछे हटे जैसे फूल की पत्तियों में से अचानक भड़ निकल आई हो।
लेकिन मौलवी अबुल और ज़ैबुन्निसा की दुआ'एँ राइगाँ न गईं। उन्ही दिनों साबिक़ा ख़ुदा यार और हाल शमीम अहमद शहर से गाँव उठ आया और यहाँ कपड़े की छोटी सी दुकान खोल ली। ख़ुदा यार एक हाफ़िज़-ए-क़ुरआन का इकलौता बेटा था। वालिद के मरने के बाद मौलवी अबुल के हाँ क़ुरआन मजीद हिफ़्ज़ करने की कोशिश करता रहा और जब मसें भीगने लगीं तो बूढ़ी माँ को वहीं गाँव छोड़कर शहर भाग गया। बाद में मा'लूम हुआ कि वो किसी हेड-क्लर्क के हाँ मुलाज़िम हो गया है उसी हेड-क्लर्क ने कुछ अ'र्से के बाद उसे एक दुकान के सामने गज़ भर जगह ले दी, जहाँ वो कटपीस बेचता रहा और अपनी माँ को भी शहर बुला लिया। फिर जब उसने तिजारत में काफ़ी महारत हासिल कर ली तो ख़ुदा यार की बजाए शमीम अहमद नाम इख़्तियार कर के गाँव आ गया। उसने बड़ी मिन्नत ख़ुशामद से मौलवी अबुल को मजबूर किया कि वही उसकी दुकान से बोहनी करे ताकि तिजारत में बरकत हो और नक़द सौदा चलता रहे।
उस रोज़ मौलवी अबुल ने अपने शागिर्द और उस बूढ़ी माँ का दिल रखने के लिए अपनी ज़िंदगी का सब से बड़ा फ़ैसला किया। ज़ैबुन्निसा के पास गया। आ'रिफ़ की माँ! शमीम अहमद कहता है कि वो मेरी बोहनी से कारोबार शुरू करेगा। तुम कहो तो महरुन के लिए एक सूट का कपड़ा ले लें, जहेज़ के लिए ज़रूरत तो है ही। वैसे सारे गाँव वालों के सामने बोहनी की रस्म अदा होगी, इसलिए ज़रा सा रोब भी बैठ जाएगा। फिर शमीम अहमद का दिल रखना तो मेरा फ़र्ज़ है। एक तो पुराना शागिर्द है, दूसरे हाफ़िज़ अबदुर्रहीम मरहूम-व-मग़फ़ूर का नूर-ए-नज़र है। तीसरे... मौलवी अबुल ने रुक इधर-उधर देखा और फिर सरगोशी में बोला, आ'रिफ़ की माँ, अल्लाह-जल्ल-शानहू की क़सम, मुझे तो ऐसा लग रहा है जैसे अल्लाह जल्ल-शानहू ने उसे मेहरुन ही के लिए आसमान पर से उतारा है।
इस बात पर ज़ैबुन्निसा की आँखों की राख एक लम्हे के लिए तो भूभल में बदल गई, “तुम्हारे मुँह में घी शक्कर”, वो बोली और गले में लटकती हुई चाबी क़मीस के अदंर हाथ डाल कर निकाली, संदूक़ खोला और टीन का डिब्बा निकाल कर मौलवी अबुल के सामने रख दिया, “ख़ुदा तेरी ज़बान मुबारक करे, मैं तो जब भी मेहरुन को देखती हूँ ऐसा लगता है जैसे पराठा तवे पर देर तक पड़े-पड़े जलने लगा है!” वह रोने लगी, साथ-साथ मुस्कराती भी रही,और जब महरुन्निसा किसी काम से अंदर आई तो फ़ौरन बोल उठती, बेटी! बाहर धूप में टुकड़े सूख रहे हैं न। वहाँ हंडिया उलट कर रख दो, वर्ना सब टुकड़े कौवों में बट जाएँगे। जाओ मेरी बेटी” और महरुन्निसा के गालों की लाली ने जवाब दिया कि सब समझती हूँ अम्मां। शमीम अहमद की दुकान पर अब्बा मियाँ मेरी बोहनी करने चले हैं।
महरुन्निसा बाहर चली गई तो मौलवी अबुल ने डिब्बे का कुल मताअ' तैंतालीस रुपये निकाल कर जेब में रखे और उठते हुए बोला, दुआ कर, महरुन की कहीं शादी लग जाए तो मैं पाँच-सात बरस के लिए तो फूल की तरह हल्का फुलका हो जाऊँ।
ज़ैबुन्निसा आँसू पोंछती और मुस्कुराती रही और मौलवी अबुल शमीम अहमद की दुकान को चल दिया। वहाँ बहुत से लोग जमा थे, जिनमें ज़्यादा तर औरतें थीं जो नाकों और होंटों पर उंगलियाँ रखे यूँ खड़ी थीं जैसे उनकी नज़रें रंग-रंग के कपड़ों के साथ सिल कर रह गई हों। मौलवी अबुल दुकान में दाख़िल हुआ तो शमीम अहमद उसके क़दमों पर बिछ गया और जब मौलवी ने अपनी ख़ूबसूरत आवाज़ में क़ुरान शरीफ की चंद आयात की तिलावत की तो एक समाँ बंध गया। तिलावत के बाद उसने एक कपड़ा पसंद किया। गुलाबी रंग पर नीले फूल थे और नीले फूलों में जगह-जगह ज़र्द रंग के नुक़्ते थे। “एक ज़नाना सूट का कपड़ा काट दो।’’
मौलवी अबुल ने मा'मूल से ज़्यादा बुलंद आवाज़ में कहा और एक नज़र हुजूम को भी देख लिया। शमीम अहमद ने गज़ उठा कर बिसमिल्लाह हिर रहमानिर रहीम पढ़ी और सात गज़ कपड़ा नापा। क़ैंची उठा कर एक बार फिर बिसमिल्लाह पढ़ी और कपड़ा काटा। तह किया और आख़िरी बार बिसमिल्लाह पढ़ कर मौलवी अबुल के सामने यूँ रख दिया जैसे मुफ़्त में महज़ तोहफ़ा पेश कर रहा है।
“क़ीमत?” मौलवी अबुल ने अब के हाज़िरीन की तरफ़ नहीं देखा सिर्फ़ जेब में हाथ डाल लिया। शमीम अहमद मारे एहतिराम के सिमटने लगा। एक लम्हे तक हाथ मलता रहा, खंखारा और बोला, छः रुपये गज़ के हिसाब से बयालिस रुपये हुए क़िब्ला!
दुकान में सजे हुए सब थान जैसे मौलवी अबुल के दिमाग़ पर धब-धब करने लगे। बौखला कर उसने जेब से हाथ निकाला और एक रुपया वापस जेब में रख कर बाक़ी रक़म शमीम अहमद के सुपुर्द करदी। औरतों की उंगलिया होठों से उठ कर नाक और नाक से उभर कर हवा में जम कर रह गईं। मौलवी अबुल ने कपड़ा बग़ल में लिया तो शमीम अहमद बोला, “क़िब्ला ने बोहनी फ़रमाई है इसलिए मैंने नर्ख़ में कोई रिआ'यत नहीं की। मैं आप का पुराना ख़ादिम हूँ, फिर तलाफ़ी कर दूँगा। इंशाअल्लाह ताला।’’
मौलवी अबुल कपड़े को बग़ल में लेकर उठा तो उसका जी चाहा कि शमीम अहमद को कह दे, “अल्लाह जल्ल-शानहू ही तलाफ़ी करेगा अज़ीज़ी शमीम अहमद, इस लिए कि अगर तुम ने कपड़ा बेचा है तो मैंने भी अपनी बेटी बेचने की कोशिश की है।’’ लेकिन ये तो एक दम से जेब के ख़ाली हो जाने का गुबार था, जिस पर उठते ही उठते उसने क़ाबू पा लिया और बोला, “यह तो तुम्हारा हक़ था शमीम अहमद, यह भी कोई कहने की बात थी! अल्लाह जल्ल-शानहू तुम्हें और तुम्हारे कारोबार में बरकत दे।
आमीन! शमीम अहमद ने हाथ मलते हुए कहा।
आमीन! ज़ैबुन्निसा ने कपड़े की नर्मी और बेक़रारी और फबन को देख कर मौलवी अबुल के इन अल्फ़ाज़ के जवाब में कहा, अल्लाह करे इस कपड़े में हमारी महरुन का सुहाग महके।’’
चंद ही रोज़ बाद एक शाम मौलवी अबुल के दरवाज़े की ज़ंजीर बजी। उस वक़्त आने वाले उ'मूमन चावल या हलवा या खीर लाते थे। इसलिए ज़ंजीर की आवाज़ सुनते ही छोटे बच्चे डयुढ़ी की तरफ़ लपके, लेकिन जाने मौलवी अबुल को क्या सूझी, ख़िलाफ़-ए-मा'मूल कड़क कर बोला, ठहरो बच्चे रुक गए। सब के चेहरे लटक गए। उमदतुन्निसा तो रो दी, मगर मौलवी अबुल उनको दिलासा दिए बगै़र बड़ी बे-परवाई से आगे बढ़ा। जूँही डयुढ़ी का दरवाज़ा खोला ख़ुश्बू का एक फ़व्वारा सा उमड़ा और साथ ही आवाज़ आई, अस्सलामु अलैकुम क़िब्ला!
ये शमीम अहमद था। मुसाफ़ा के लिए बढ़ा तो लट्ठे का नया तहबंद टीन की तरह बज उठा और जब उसने रुक-रुक कर कहा, “आप की ख़िदमत में एक दरख़्वास्त लेकर आया हूँ क़िब्ला। इसलिए आप को बेवक़त ज़हमत दी। तो मौलवी अबुल को शमीम अहमद की पोशाक से उमड़ती हुई महक कुछ गुनगुनाती हुई महसूस हुई। ये दरख़्वास्त यहाँ डयुढ़ी में भी सुनी जा सकती थी, लेकिन मौलवी अबुल गर्दन मुड़ कर पुकारा, मैं अभी आया आरिफ़ की माँ और फिर शमीम अहमद का हाथ अपने हाथ में लेकर इस तेज़ी से मस्जिद की तरफ़ चला कि शमीम अहमद को नए तहबंद का शोर-व-ग़ूगा रोकने के लिए उसे दूसरे हाथ से घुटनों तक उठा देना पड़ा।
दोनों एक हुजरे में पहुँचे तो वहाँ चंद नमाज़ी आग जलाए हारून अलरशीद के इंसाफ़ की कहानियाँ सुन-सुना रहे थे। दूसरे हुजरे में अंधेरा था। यहॉँ उ'मूमन अंधेरा ही रहता था और ये इक्तालिस दिनों की मुसलसल चिल्लाकशी के लिए मख़्सूस था। शमीम अहमद को वहीं छोड़कर मौलवी अबुल पहले हुजरे से जलती हुई एक लकड़ी उठा लाया और अंधेरे हुजरे के एक गोशे में चला गया। डीवट पर कड़वे तेल का चराग़ जल उठा। उसने वापस जा कर लकड़ी को अलाव में फेंका और लपक कर शमीम अहमद के पास आया शमीम अहमद ने उन चंद रोज़ में दाढ़ी नहीं मुंडाई थी। गालों और गले पर निहायत सलीक़े से ख़त बने थे और दाढ़ी के ख़शख़शी बालों पर इत्र-ए-हिना दीये की रौशनी में चमकने लगा था।
कहो। मौलवी अबुल कुछ इस अंदाज़ से बोला जैसे वो अभी अभी अपने मेहमान के लिए एक ऐवान की आराइश-व-ज़ेबाइश से फ़ारिग़ हुआ है।
शमीम अहमद की आँखें झुक गईं और होंट ज़रा सा खुल कर काँपने लगे, फिर उसने सर उठा कर चराग़ की तरफ़ देखा जिसकी लौ बेपनाह धुआँ छोड़ रही थी, आगे बढ़ कर उसने तिनके से चराग़ की बत्ती को कम किया और बोला, आप की इजाज़त हो तो अ'र्ज़ करूँ।
कहो-कहो। मौलवी अबुल ने शमीम अहमद के कंधे को थपका और फिर चौंक कर उसके दूसरे कंधे पर भी हाथ रख दिया। शमीम अहमद के कंधे की हड्डी पर गोश्त की इतनी बड़ी गेंदें सी रखी थीं।
कहो न अ'ज़ीज़म।
शमीम अहमद ने अपनी बात शुरू की। एक लम्हे की ख़ामोशी के बाद उसने कोई चीज़ बड़ी मुश्किल से निगली और बोला, असल में ये काम तो मेरी अम्माँ का था। उन्ही को आप की ख़िदमत में हाज़िर होना चाहिए था, मगर पिछले चंद बरसों से उनका दिल बहुत कमज़ोर हो गया है, बात-बात पर रो देती हैं और बुरा-भला कहने लगती हैं, सो मैंने यही मुनासिब समझा कि ख़ुद ही हाज़िर हो जाऊँ।
“तुम ने अच्छा किया”, मौलवी अबुल ने बड़ी शफ़क़त से कहा।
मैं आप का पुराना ख़ादिम हूँ”, शमीम अहमद ने सिमटते, फैलते और फिर सिमटते हुए कहा, मेरी दरख़्वास्त ये है कि हुज़ूर मुझे हमेशा के लिए... उसने एक बार फिर चराग़ तरफ़ देखा और नज़रें झुका कर आस्तीन पर से कोई ख़्याली धब्बा उड़ा दिया, हुज़ूर मुझे हमेशा के लिए अपनी गु़लामी में ले लें। शमीम अहमद ने नज़ाअ' के से आ'लम में कहा।
मौलवी अबुल का जी चाहा कि चुटकी बजा दे, रस्मन ज़रा हंसते हुए बोला, मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा शमीम अहमद।
शमीम ने बड़ी हैरत और दुख से मौलवी अबुल की आँखों में आँखें डाल दीं। आख़िर ये कैसे मुम्किन है कि जिस शख़्स ने क़ुरआन मजीद के कई मुक़ामात और फ़िक़ह के बे-शुमार मुश्किल मसाइल को आन की आन में साफ़ और सलीस अंदाज़ में सुलझा दिया वो “गु़लामी” का मतलब नहीं समझता। दबी-दबी आवाज़ में जैसे उसने नज़ाअ' की आख़री हिचकी ली, “जी मेरा मतलब है कि हुज़ूर... हुज़ूर मुझे अपनी गु़लामी में क़ुबूल फ़रमाएँ।’’
और जैसे इस वज़ाहत से मौलवी अबुल को तसल्ली हो गई! उसने मज़ीद तशरीह तलब करने की ज़रूरत न समझी। शमीम अहमद कुछ देर तक नज़रें झुकाए खड़ा हाथ मलता और मरोड़ता रहा और जब मौलवी अबुल एक लफ़्ज़ तक न बोला तो उसने अपनी नज़रों को जैसे दोनों हाथों से बसद मुश्किल उठा कर बे-इंतिहा झिझक से ऊपर देखा। मौलवी अबुल की दाढ़ी पर आँसुओं के क़तरे रुक गए थे, शमीम अहमद की दाढ़ी पर इत्र चमक रहा था और मौलवी अबुल की दाढ़ी में आँसू जगमगा और थरथरा रहे थे और चराग़ की लौ फिर ढेरों धुआँ उगलने लगी थी। मगर अब के शमीम अहमद को बत्ती कम कर देने का ख़्याल न आया। वो कुछ कहने के लिए बेताब हो गया मगर सिर्फ़ होंटो को खोल कर रह गया। मौलवी अबुल एका-एकी जैसे कुछ सोच कर पगड़ी के पल्लू से अपनी आँखें पोंछी और फिर भर्राई हुई आवाज़ में बोला, “लड़की तेरी कितनी मिस्किन मख़्लुक़ है अल्लाह जल्ल-शानहु! कितनी मिस्कीन!” उसकी आँखों से बहुत से आँसू एक साथ निकले और दाढ़ी के बालों ने उन्हें पिरो लिया। देने का माल है शमीम अहमद! दूँगा। क्यों नहीं दूँगा? देना ही पड़ेगी। और फिर तुम मेरे अपने अ'ज़ीज़ हो, भाई हाफ़िज़ अबदुर्रहीम मरहूम-व-मग़फ़ूर का बेटा मेरा अपना बेटा है आओ इधर आओ” और मौलवी अबुल ने शमीम अहमद को अपने सीने से लगा लिया।
जब वो वापस घर में आया तो ज़ैबुन्निसा ने चंद क़दम के फ़ासले पर से ही कह दिया, “कहाँ से आ रहे हो? इत्र की लपटें आने लगी हैं।’’
महरुन्निसा तवे पर आख़री रोटी डाले बैठी थी, बोली, “सच अब्बा जी, सारा घर महक उठा है।’’
“क्या बात है’’, ज़ैबुन्निसा ने पूछा।
मौलवी अबुल ने बड़ी आसूदा ख़ातरी से बच्चों की क़तार की तरफ़ देखा। वो ख़ाली हाथ घर में आया था। इसलिए सब के मुँह लटकने लगे थे, सबको एक साथ प्यार करना मुश्किल था इसलिए बोला, “आज मेरे सब बच्चों को रोटी के साथ गुड़ का एक एक टुकड़ा भी मिलेगा”, लटके हुए चेहरे संभल और संवर गए और महरुन्निसा की नज़रें तवे पर गड़ गईं।
बात सुनो आरिफ़ की माँ”, मौलवी अबुल बाहर जाते हुए बोला।
ज़ैबुन्निसा ने सब हालात सुन कर कहा, मेरे सर पर हाथ रख कर कहो।
मौलवी अबुल चहका, अल्लाह जल्ल-शानहू की क़सम खा कर कह रहा हूँ। अब तू अपने सर की क़सम देती है तो नऊज़-बिल्लाह क्या तू अल्लाह जल्ल-शानहू से बड़ी है? काश औरत की अ'क़ल यहाँ कहीं खोपड़ी के आस पास होती! और उसने मुस्कुरा कर ज़ैबुन्निसा के तालू पर एक चपत जड़ दी।
ज़ैबुन्निसा बच्चों की तरह रोने लगी। वो उन आँसुओं का मतलब समझता था। वो भी तो कुछ देर पहले ऐसे ही आँसू गिरा चुका था। एक लम्हे के बाद वो आगे बढ़ा और ज़ैबुन्निसा के भीगे-भीगे गालों पर अपनी दाढ़ी रख दी।
दुआ'एँ यूँ क़ुबूल होती हैं आरिफ़ की माँ”, मौलवी अबुल बरसों की इ'बादत-व-रियाज़त का जलाल चेहरे पर ला कर बोला, अलहम्दुलिल्लाह! यूँ सुनता है सुनने वाला यूँ देता है छप्पर फाड़ कर, सुनती हो ज़बीन।’’ आज मौलवी अबुल ने सुहाग रात के बाद शायद पहली बार ज़ैबुन्निसा को आरिफ़ की माँ के बजाए ज़बीन कह कि पुकारा था।
ज़ैबुन्निसा आँखें पोंछते हुए बोली, ‘‘जब शमीम अहमद ख़ुदा यार था, जब वो लड़का था और तुम्हारे पास पढ़ता था तो यूँ फटी-फटी निगाहों से देखता था मेहरुन को जैसे कभी-कभी तुम मुझे देख लेते हो अल्लाह क़सम।’’
और अभी मियाँ बीवी आँसुओं को अच्छी तरह ख़ुश्क भी न कर पाए थे कि एक बार फिर दरवाज़े की ज़ंजीर बजी, बच्चे डयुढ़ी की तरफ़ दौड़े।
“ठहरो” अब के मौलवी अबुल की आवाज़ में डांट थी, ‘‘मैं जाऊँगा’’। फिर बच्चों के पास आ कर उनके सरों पर हाथ फेरा और आहिस्ता से बोला, नदीदापन बहुत बुरा होता है। समझे? हर आने वाला हलवा और चावल देने नहीं आता। कई लोग दूसरे कामों के लिए भी आ निकलते हैं। समझे? जाओ। फिर ज़रा बुलंद आवाज़ में बोला, ”उन्हें बाहर सर्दी में न निकलने दो मेहरुन बेटी, यही बच्चे तो मेरी ज़िंदगी का सरमाया हैं।“
वो डयुढ़ी की तरफ़ बढ़ा। दरवाज़ा खोला तो गर्म चादर में लिपटे हुए चौधरी फ़तह दाद ने हाथ बढ़ा कर मौलवी अबुल को बाहर गली में घसीट लिया और छाती से लगा कर बोला, “मुबारक हो क़िब्ला! हज़ार बार मुबारक हो, आख़िर मेरी कोशिशें बेकार नहीं गईं।”
उस वक़्त मौलवी अबुल की नज़रों में चौधरी फ़तह दाद के फ़रिश्ता बनने में पोरों की कमी रह गई थी। “अल्लाह-जल्ल-शानहू का शुक्र और आप का एहसान है।” उसने चौधरी से बड़े पिघले हुए सैयाल लहजे में कहा।
“ख़ुदा ने मुझे आपके सामने सुर्ख़-रु फ़र्मा दिया।“ चौधरी फ़तह दाद बोला, ”अब जल्दी से शादी की तारीख़ भी तय कर लीजिए। शमीम अहमद अच्छा लड़का है, पर आख़िर जवान लड़का है और फिर दुकानदार है। दिन में बीसियों औरतें उसकी दुकान पर आती हैं और आप जानते ही हैं कि कैसा नंगा ज़माना आ लगा है। लड़के-लड़कियाँ बारूद के गोले हो रहें है। कुछ पता नहीं चलता कि कब पड़े-पड़े भक से हो जाएं, शमीम अहमद को मैंने ही आपकी ख़िदमत में भेजा था। रस्म-व-रिवाज के मुताबिक़ उसकी माँ आपके घर में आती मगर बुढ़िया सठिया सी गई है। कोई बात उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हो तो सात पुश्तें तोम डालती है कमबख़्त। अभी-अभी शमीम अहमद ने आ कर बताया कि आप ने हामी भर ली है। मैंने उसे जल्दी से शादी कर लेने पर ज़ोर दिया तो बोला कि आप ही क़िब्ला मौलवी साहब से तारीख़ का फ़ैसला करा दीजिए, सो मैं इसीलिए हाज़िर हुआ। आप कल तक सोच लीजिए और ये ये चौधरी फ़तह दाद ने गर्म चादर के नीचे से एक पोटली सी निकाली, “ये मेरी बेटी को दे दीजिएगा।’’
मौलवी अबुल ने ख़ामोशी पोटली ले ली तो चौधरी ने आहिस्ता से कहा, “अल्लाह क़ुबूल फ़रमाए।’’
“आमीन।’’ मौलवी अबुल के मुँह से आ'दतन ये लफ़्ज़ निकल गया।
मौलवी अबुल ने अंदर आ कर पोटली खोली तो एक बड़े से रेशमी रूमाल में सौ के एक नोट पर सोने के दो झुमके रखे थे, जिनकी बड़े से बुलबुले जितनी कटोरियाँ में जाने नगीने जुड़े थे या मीनाकारी का काम था!
ज़ैबुन्निसा किसी और चीज़ की उम्मीद में रूमाल को झाड़ कर चहकी, “शमीम अहमद ने भेजे हैं?’’ और अभी मौलवी अबुल जवाब नहीं देने पाया था कि महरुन्निसा भाग कर बाहर निकल गई।
“अरे!’’ मौलवी अबुल ने हैरत से ज़ैबुन्निसा की तरफ़ देखा और फिर दोनों एक साथ बेइख़्तियार हंस पड़े!
“समझ गई!’’ ज़ैबुन्निसा बाहर देखते हुए अंगुश्त-ए-शहादत को नाक की कीली पर रख कर बोली।
“तुम ने भी तो मुँह भर कर कह दिया शमीम अहमद ने भेजे हैं?’’
मौलवी अबुल ने ज़िंदगी में शायद पहली बार औरत की आवाज़ और अंदाज़ की नक़ल उतारी और बच्चे जो अभी तक महज़ हैरत-ज़दा थे महज़ूज़ हो कर ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। उमदतुन्निसा डरते-डरते झुमकों को छूने की कोशिश कर रही थी।
“चौधरी फ़तह दाद दे गया है मेहरुन के लिए।’’ मौलवी अबुल ने बड़ी बे-परवाई और रवा-रवी में राज़ फ़ाश किया।
“अल्लाह क़ुबूल फ़रमाए।’’ ज़ैबुन्निसा जैसे अपनी क़ब्र में से बोली जिसपर नया-नया ग़िलाफ़ चढ़ाया गया था।
चंद ही रोज़ में महरुन्निसा माइयों बिठा दी गई। उसके पैरों में मेहंदी थोप दी गई। ढोलक तो ख़ैर न बजी, क्योंकि शादी का घर सही पर आख़िर मौलवी अब्बू अल-बरकात का घर था, जिसने हुज़ूर पर नूर-ए-सलअ'म की मदीना में तशरीफ़ आवरी पर मदीने की लड़कियों के दफ़एँ बजा-बजा कर गाने के मुतअ'ल्लिक़ तो पढ़ा था मगर ढोलक का जवाज़ कहीं मौजूद न था और पंजाब इतना बदनसीब था कि यहाँ अब तक दफ़ का रिवाज ही नहीं चलने पाया था। दफ़ हो तो लाओ और बजाओ और गाओ। तुम ढोलक अब लाईं तो मैं उसे उठा कर छत पर फेंक दूँगा। मौलवी अबुल ने मीरासिनों के हुजूम से डांट कर कहा था, आख़िर गाँव की लड़कियाँ महरुन्निसा को अपने दायरे में ले कर बैठ गईं और ढोलक के बगै़र ही अपुन सुरीली अलापों से रात भर उसके गिर्द मोहब्बत और दोस्ती फूलों और फव्वारों, मुलाक़ातों और जुदाइयों के तिलिस्मात बुनती रहीं।
लेकिन भला शमीम अहमद को ढोल शहनाई बजवाने और गोले छोड़ने से कौन रोकता। बरात ऐसी धूम से आई और मौलवी अबुल की डयुढ़ी में वो हंगामा मचा कि मा'लूम होता था कि ढोल की हर चोट मौलवी अबुल के कच्चे घरौंदे की बुनियादों पर पड़ रही है।
ये धूम धड़क्का देख कर रात ही रात मौलवी अबुल और ज़ैबुन्निसा ने मकान के एक गोशे में चंद सरगोशियाँ कीं। लड़कियों के गीतों के दरमियान बक्सों के घिसटने, खुला और बंद होने की आवाज़ें रेंगती रहीं और जब दूसरे दिन सुब्ह को जहेज़ का सामान आंगन और छत पर बिछाया गया तो गाँव का गाँव पहली नज़र में तो त्योरा कर पीछे हट गया। कपड़े तो ख़ैर बन ही जाते हैं पर ये सोने के इतने बड़े बड़े झुमके!
“मौलवी के पास दस्त-ए-ग़ैब का ता'वीज़ है।’’ किसी ने राय दी।
एक बुढ़िया ने ठोढ़ी की लटकती हुई झिल्ली में उंगली डुबो कर कहा, “कपड़ों के कई जोड़े तो इन गुनहगार, आँखों ने पहचान लिए हैं, कुछ तो बेचारी मरने वालियों के हैं, कुछ ऐसे हैं जो बीबी जैबुन्निसा को अपनी शादी पर मिले थे। सुघड़ है इसलिए औलाद के लिए रख छोड़े ये कंगन और ये नाक की कील, ये सब कुछ बीवी ही का है। पर ये झुमके?’’ और उसने अपनी उंगली को ठोढ़ी की झिल्ली में से निकाल कर आसमान की तरफ़ बुलंद कर दिया।
मेहरुन्निसा को डोली में बिठाया गया तो इकन्नियों और छोहारों की एक लहर सी उस पर से निछावर हो गई। गाँव के बच्चे उन पर झपटे। मौलवी के बच्चे जो डयुढ़ी में माँ-बाप की देखा-देखी रो रहे थे, एक दम यूँ उछले जैसे उनके क़दमों तले लचकदार कमानियाँ भर आई हैं। ठहरो मौलवी अबुल गरजा। कमानियाँ धरती में उतर गईं, बच्चे जहाँ थे वहीं थम गए। सिर्फ़ आरिफ़ एक इकन्नी को अपने पंजे तले छुपाए खड़ा रहा और बरात के चले जाने के बाद ही उसका ये असासा उसके पाँव से हाथ तक की मुसाफ़त तय कर सका।
मौलवी अबुल कुछ दूर तक डोली के साथ गया। उसकी नाक और आँखें सुर्ख़ थीं मगर उनके साथ चेहरे की ज़र्दी ज़रूरी थी और मौलवी अबुल का चेहरा गुलाबी हो रहा था। यूँ मालूम होता था जैसे दुख और इत्मिनान ने चेहरे की सरज़मीन को अपने अपने मुज़ाहिरों के लिए बाँट लिया है। एक मोड़ पर जा कर वो रुक गया और दूर तक डोली पर पड़े हुए रेशमी पर्दे को देखता रहा। फिर एक लंबी गहरी साँस लेकर उसने दोनों हाथों की उंगलियों को एक दूसरे में फंसा कर चटख़ा और पलट कर घर जाने लगा।
गली में गांव के बच्चे अब तक इकन्नियाँ और छोहारे ढूंढ रहे थे। डयुढ़ी के दरवाज़े पर खड़े हुए आरिफ़ और दूसरे बच्चों ने अपने अब्बा को देखा तो एक आन भूतों की तरह ग़ायब हो गए। मौलवी अबुल के होंटों में देर से जो सोज़िश और खुजली हो रही थी वो मुस्कुराहट बन कर नुमूदार हुई और उसकी आँखों तक फैली चली गई। डयुढ़ी में दाख़िल होने लगा तो उसे दीवार से लगी हुई एक इकन्नी चमकती दिखाई दी। लेकिन वो बड़ी बेपरवाई से आगे बढ़ गया। ज़ैबुन्निसा शायद किवाड़ ही से लगी खड़ी थी। मौलवी अबुल का हाथ पकड़ कर बच्चों की तरह ज़ार-ज़ार रोने लगी और फिर उसके साथ साथ चलती हुई जब आंगन में आई तो दोनों हाथों से बड़े से दायरे बना कर बोली, हमारे लिए तो बस ये क़ब्रिस्तान का सन्नाटा छोड़ गई हमारी मेहरुन।’’
“तुम्हारा तो दिमाग़ चल गया।’’ मौलवी अबुल ने अपनी मुस्कुराहट को और फैलाया, मेहरुन चली गई तो क्या ज़ुब्दा को भी ले गई? और क्या शम्सुन भी उसके साथ चली गई? फिर ज़रा रुक कर बोला, आरिफ़ मियाँ! ज़ुब्दा क्या कर रही है?
“जी रो रही है।’’ आरिफ़ दीवार से लगे हुए बच्चों की क़तार में से निकल कर बोला।
कहाँ? मौलवी ने पूछा।
जी जहाँ महरुन आपा माइयों बैठी रहीं।’’ आरिफ़ बोला।
ज़ुब्दा। मौलवी अबुल पुकारा। ज़ैबुन्निसा मुसलसल रोए जा रही थी।
ज़ुब्दा दरवाज़े पर नुमूदार हुई। नया गुलाबी दुपट्टा आँसुओं की नमी के सबब जगह जगह सियाही माइल सुर्ख़ पड़ गया था और ज़ुब्दा ने अपने जिन मेहंदी रचे हाथों को सुब्ह उठ कर घी से चमकाया था उन पर जगह जगह मिट्टी जम रही थी और बालों की मेंढियाँ उजड़ रही थीं और...
मगर मौलवी अबुल तो ज़ुब्दा को देखते ही सन्नाटे में आ गया था, मुस्कुराहट होंटों में सिमट कर यूँ फड़ फड़ाने लगी थी जैसे दम तोड़ रही है। चेहरे पर ज़र्दी खंड गई थी। ज़ुब्दतुन्निसा चंद क़दम पर आ कर रुक गई और सिसकियों में रोने लगी।
और फिर मौलवी अबुल ने ज़ैबुन्निसा के हाथ को हाथ में जकड़ लिया और उसे बेढ़ंगेपन खींच कर आंगन के एक गोशे में ले जा कर यूँ बोला जैसे घर में आग लगने की इत्तिला दे रहा है, “आरिफ़ की माँ! सुनो, ये ज़ुब्दा तो जवान हो गयी है।’’
और ज़ैबुन्निसा आँखें फाड़ फाड़ कर ज़ुब्दा की तरफ़ यूँ देखने लगी जैसे वो अब तक वालदैन की बे-ख़ब्री में मेहरुन के अ'क़ब में बैठी पलती-बढ़ती रही थी।
कुछ देर के बाद मौलवी अबुल ने बगै़र ज़रूरत के गला साफ़ किया और दम-बख़ुद ज़ैबुन्निसा के कंधे पर हाथ रख दिया।
“फ़िक्र न करो बीवी, अल्लाह जल्ल-शानहू की रहमतों से मायूस होना कुफ्र है।’’
ज़ैबुन्निसा ने मौलवी अबुल का हाथ किसी क़दर सख़्ती से अपने कंधे पर से गिरा दिया। “शर्म करो पहले मेरा हाथ पकड़े चले आए, अब कंधा सहला रहे हो। जवान जहान बेटियाँ क्या कहेंगी कि औलाद के सामने।’’ ज़ैबुन्निसा ने फ़िक़रा पूरा करने की बजाए अपना वही कंधा उचका दिया।
मौलवी अबुल के ज़ेह्न में एक ख़याल आया। पुकारा, “शम्सुन!’’
शम्सुन्निसा क़तार में से निकली ही थी कि मौलवी अबुल ने जैसे सहारा लेने की ख़ातिर अपने अ'क़ब में दीवार को टटोलने के लिए हाथ हिलाया और कोई सहारा न पा कर टूटी शाख़ की तरह झूम सा गया। चलते हुए शम्सुन्निसा के पाँव के तलवे एक दम चपटे-चपटे ज़मीन पर नहीं लग जाते थे बल्कि उसके जिस्म की तरह उसके पाँव में भी लहराव सा था। सब से पहले एड़ी ज़मीन को छूती थी फिर तलवे का ख़म झुकता था और उसके बाद पंजे की उठी हुई उंगलियाँ बारी-बारी जैसे लचक-लचक कर धरती को छूती थीं, तब जा कर दूसरा क़दम उठता था।
“कुछ नहीं बेटी, कुछ नहीं जाओ।’’ मौलवी अबुल तेज़ी से डयुढ़ी की तरफ़ जाते हुए बोला।
शम्सुन्निसा हैरान हो कर अपनी माँ को देखने लगी।
और ज़ैबुन्निसा ज़ार-ओ-क़तार रोती हुई वहीं ढेर हो गई। ज़ुब्दा और शम्सुन उसकी तरफ़ लपकीं।
मौलवी अबुल ने बाहर जा कर चोरों की तरह इधर-उधर देखा और फिर दीवार के क़रीब से चमकती हुई इकन्नी उठा कर अपनी जेब में डाल ली।
घर में कुल दो ही बक्स तो थे। अब इनमें से एक में सूखे टुकड़े रखे जाने लगे थे और दूसरे में क़मरुन और उम्दा की गुड़ियाँ और दूसरे नन्हों की बिल्लौर की गोलियाँ पड़ी रहती थीं। गाँव में लड़कियों का प्राइमरी स्कूल भी खुल गया था इसलिए अब कलाम-ए-पाक का दर्स लेने वाली लड़कियों की ता'दाद बहुत कम रह गई थी और इसीलिए सूखे टुकड़े अब हफ़्ते की बजाए पंद्रह रोज़ के बाद उबाले जाने लगे। नमाज़ियों को भी ज़माने की हवा लग गई थी। बा'ज़ वक़्त तो मौलवी अबुल अज़ान दे कर वहीं बैठ जाता और जब देखता कि नमाज़ियों के इंतिज़ार में नमाज़ क़ज़ा हो रही है तो कुछ यूँ खोया सा उठ कर अंदर मस्जिद में आता जैसे कोई बड़ा नागवार फ़र्ज़ अदा करने चला है। जुमा पर जब चंद किसान जमा हो जाते तो बड़ी रक्क़त से ख़ुत्बा देता। इस्लाम में नमाज़ की अहमियत और उलमा-ए-दीन की ख़िदमत की बरकात का तज़किरा करता और कहता, तुम्हें याद होगा कि कोयटे में ज़लज़ला आया था! क्यों आया था? तुर्की में भूंचाल आया तो कितने ही गाँव को ज़मीन निगल गई! क्यों निगल गई? मुसलमान हर जगह भेड़ बकरियों की तरह ज़बह हो रहे हैं! क्यों हो रहे हैं! क्यों? कभी सोचा है तुम ने! और भला तुम क्यों सोचो, तुम्हें तो गंदुम के ख़ुमार ने दीन से बे-गाना कर रखा है। ये नमाज़ न पढ़ने और उलमा-ए-दीन की ख़िदमत न करने के नतीजे हैं। ये क़ह्र-ए-इलाही है। ये आसार-ए-क़यामत हैं। समझे? और क्या तुम अपने गाँव को भी ज़मीन के पेट में उतार दोगे? बताओ! इस क़िस्म के जज़्बाती ख़ुत्बों के बाद मुक़तदियों में ज़रा सा इज़ाफ़ा होता और एक-दो रोज़ तक घी लगे वज़ीफ़े आने लगते। फिर वही सन्नाटा ऊ'द कर आता, जिसमें ज़ुब्दा की आँखें चमकतीं, शम्सुन का जिस्म लचकता। टीन के ख़ाली बक्सों में सूखे टुकड़े और बच्चों के बिल्लौरी बंटे बजते और तालियाँ बजाते और क़मरुन की गुड़ियाँ नंगी हो हो कर एक दूसरे में घुसी पड़तीं।
मौलवी अबुल के दो ऐसे सहारे थे जो कभी न टूटे, अल्लाह जल्ल-ए-शानहू और चौधरी फ़तहदाद अल्ला जल्ल-शानहू का यही करम क्या कम था कि मौलवी अबुल और ज़ैबुन्निसा अब तक ज़िंदा थे और अब तक उनकी सारी औलाद ज़िंदा थी और मेहरुन्निसा का ब्याह इस ठाट से हुआ था कि ज़ुब्दा और शम्सुन के लिए रिश्ते के पयामों का सिलसिला टूटने में न आता था। लेकिन मौलवी अबुल जिस शिद्दत से मेहरुन्निसा के बर की तलाश में सरगरदाँ रहता था उसी शिद्दत से वो ज़ब्दतुन्निसा और शम्सुन्निसा के लिए आने वाले पयामों से मुतनफ़्फ़िर था। अभी तो कल की बच्चियाँ हैं भई। अभी तो गुड़ियों से खेलती हैं। शम्सुन ने अभी क़ुरआन मजीद भी ख़त्म नहीं किया। मैं ज़रा-ज़रा सी पोनी ऐसी बच्चियों को किस दिल से उठा कर पराये घर में पटख़ आऊँ, ज़बान-वबान नहीं दूंगा। अगले साल देखा जाएगा।
“देखा जाएगा।’’ वो ज़ैबुन्निसा से ज़ुबिदा और शम्सुन पर बेतहाशा आई हुई जवानी की अ'ताएँ पा कर कहता, “अल्लाह ता'ला जल्ल-शानहू रहम फ़रमाएगा। तवक्कल बड़ी चीज़ है आरिफ़ की माँ! किसान जब धरती में बीज बोता है तो अल्लाह जल्ल-शानहू पर तवक्कल करता है। तवक्कल न करे तो बीज वहीं मिट्टी में मिट्टी हो कर रह जाए, यही तवक्कल बीज को चटख़ाता है और धरती को चीर पौदा निकालता है और सब्ज़ पत्तियों की कोख में बालियों और बठों को परवान चढ़ाता है, समझी आरिफ़ की माँ?’’
“पर किसान बीज तो बोता है!’’ ज़ैबुन्निसा बहस कुछ किया है। “तुम ने क्या किया है?’’
“अलहम्दुलिल्लाह’’ मौलवी अबुल कहता, “मैंने बहुत कुछ किया है। मैंने हर नमाज़ के बाद दुआ'एँ मांगी हैं?’’ और ज़ैबुन्निसा लाजवाब हो जाती।
दुआ'ओं के बाद मौलवी अबुल का ज़ेह्न चौधरी फ़तह दाद की तरफ़ मुंतक़िल हो जाता। आज कितने बरसों से इस ख़ुदातरस इंसान ने उसके घर में हर शाम को वज़ीफ़ा भेजवा दिया था और कितनी पाबंदी से हर फ़सल पर मौलवी अबुल को पोशाक पहनाई थी और लुत्फ़ की बात ये है कि दूसरों की तरह ढिंडोरा नहीं पीटा था। लेकिन अब चंद रोज़ से चौधरी फ़तहदाद बीमार रहने लगा था। एक बूढ़े नाई ने जो अ'र्से से जर्राही का काम कर रहा था। चौधरी की रीढ़ की हड्डी फोड़े के आस पास कुछ ऐसी नश्तर ज़नी की कि ये फोड़ा शाम तक सूज कर फूट पड़ा और बहने लगा। साथ ही चौधरी को लर्ज़े के बुख़ार ने आ लिया और इ'लाक़े के हकीमों का तांता बंध गया। उन दिनों मौलवी अबुल के घर पर मुर्दनी छाई रहती। एक तो महरुन्निसा से उसकी सास का बर्ताव सोहान-ए-रूह था, उस पर चौधरी न होता तो आज तक हम में से आधे आदमी तो फ़ाक़ों से मर गए होते। अल्लाह जल्ल-शानहू के हुज़ूर में उसकी सेहत की दुआ' करो बद बख़्तो!
मौलवी अबुल उन दिनों हर रोज़ सुब्ह-व-शाम चौधरी फ़तह दाद के हाँ मिज़ाजपुर्सी को जाता। मगर वहाँ इ'यादत करने वालों के हुजूम में कभी कोई घर की बात न हो सकी। बस इतना होता कि मौलवी अबुल को देख चौधरी ता'ज़ीमन उठने की कोशिश करता और फिर कराह कर उसी तरह मुँह के बल गिर जाता। “दुआ' फ़रमाइए क़िब्ला’’, वो आहिस्ता से कहता और मौलवी अबुल आँसू ला कर आसमान की तरफ़ उंगली उठाता और कहता वही शान-ए-मुतलक़ आप को सेहत-ए कुल्ली अ'ता फ़रमाएगा लेकिन एक रोज़ जब मौलवी अबुल चौधरी के हाँ गया तो वहाँ सिवाए उसके एक बेटे के और कोई न था। चौधरी की तबीयत भी ख़िलाफ़-ए-मा'मूल संभली हुई थी। आज वो हस्ब-ए-आ'दत ता'ज़ीमन कुछ उठा लेकिन कराहा नहीं, लड़के को इशारा कर के बाहर भेज दिया और बोला, “बेटियाँ कैसी हैं क़िब्ला?’’
“अलहम्दुलिल्लाह। अच्छी हैं। दुआ गो हैं।’’ मौलवी अबुल ने जवाब दिया।
“सुना है बहुत पैग़ाम आ रहे हैं?’’ चौधरी ने पूछा।
मौलवी अबुल अभी तक ये समझे बैठा था कि लड़कियों के पैग़ाम तरफ़ैन के दरमियान सर बस्ता राज़ों की हैसियत रखते हैं। वो ये नहीं जानता था कि जवानी का डंका पिटता है तो कोई राज़ राज़ नहीं रहता। चौंक कर बोला, “जी हाँ बहुत आ रहे हैं।’’
“फिर? कोई फ़ैसला फ़रमाया आप ने?’’ चौधरी मुसलसल मौलवी अबुल की तरफ़ देखे जा रहा था।
मौलवी अबुल घबरा सा गया। कुछ कहने के लिए होंट खोले मगर महसूस किया कि अचानक तालू ज़बान और हलक़ ख़ुश्क हो गए हैं। कुछ निगल कर बोला, जी फ़ैसला मैं क्या करूँ। ये तो अल्लाह जल्ल-शानहू करेगा। जिस ख़ाली ढिंडार घर में ख़िलाल के लिए तिनका तक न मिले वहाँ बेटियों के रिश्ते कौन तय करता फिरे।
“तो क़िब्ला क्या मैं मर गया हूँ?’’ चौधरी फ़तह दाद की आवाज़ में भर्राहट थी।
“आप के दुश्मन मरें।’’ मौलवी अबुल फ़ौरन बोल उठा, “आप अल्लाह जल्ल-शानहू के फ़ज़ल से तंदुरुस्त हो जाएँ तो फिर बैठ कर तय कर लेंगे।’’
“जी हाँ’’, चौधरी ने हमदर्दाना अंदाज़ में कहा, फ़ौरन तय होना चाहिए। घर में जवान लड़की बैठी हो तो एक-एक दिन एक एक सदी बन जाता है, अल्लाह ता'ला सब आसान कर देगा, वज़ीफ़ा तो बाक़ाएदा पहुँच रहा है ना?
जी हाँ मौलवी अबुल ने जवाब दिया, बाक़ाएदा।
अल्लाह क़ुबूल फ़रमाए। चौधरी फ़तह दाद ने आहिस्ता से दुआ' की।
आमीन। मौलवी अबुल ने आ'दतन इस दुआ' की ताईद कर दी।
कुछ देर ख़ामोशी रही, चौधरी ज़रा सा कराहा, फिर बोला, सुना है बेटी मेहरुन्निसा और शमीम अहमद की ख़ूब निभ रही है, पर सास उसके पाँव नहीं टिकने देती।
जी हाँ। मौलवी अबुल ने बड़े दुख से कहा, लेकिन मैंने कभी कोई दख़ल नहीं दिया। बेटी ब्याह दी जाए तो पराई हो जाती है।
पर सास से क्यों नहीं बनती?
बस वही ग़रीबी मुफ़्लिसी के ता'ने। तू कंगली है, तू सूखे टुकड़ों पर पली है, तेरे कपड़ों से कफ़न की बू आती है, तू अपने साथ क्या लाई है? वही औरतों की बातें।
हूँ। चौधरी फ़तह दाद कुछ देर तक सोचता रहा फिर बोला, बेटी पराई हो जाती क़िब्ला! ब्याह के बाद तो उसके हुक़ूक़ बढ़ जाते हैं। अब अगर सास इस क़िस्म की है तो आप का फ़र्ज़ है कि उसे इन ता'नों का मौक़ा ही न दें। वो बेटी मेहरुन्निसा को कंगली कहती है ना? अब हमारी बेटी के बच्चा होगा तो उसके लिए आप रेशम के कपड़े और तिलाई टोपियाँ और सोने के घुंघरुओं वाले कंगन भेज दीजिए और फिर देखिए किस तरह बेटी का मान भी बढ़ेगा और बुढ़िया की पलीद ज़बान भी कट जाएगी। ठीक है न क़िब्ला?
ठीक है, मौलवी अबुल ने सोचा। बहुत हद तक ठीक है, मगर एक हद तक मुहाल भी है। ये सब सामान आख़िर आएगा कहाँ से? और क्या आरिफ़ की माँ ने आज से आठ महीने पहले मेहरुन के बारे में जो अंदाज़ा लगाया था वो दुरुस्त था? अब मौलवी अबुल का वहाँ देर तक निचला बैठे रहना मुश्किल था। तो क्या सचमुच मेहरुन बेटी के बच्चा पैदा होने वाला है? उसने तो ज़ैबुन्निसा से कभी पूछा ही न था और ज़ैबुन्निसा ने भी हया के मारे कभी कोई बात नहीं की थी। उसे मा'लूम था कि मौलवी अबुल बेटियों के पेटों को टटोलने फिरने के सख़्त ख़िलाफ़ है।
मौलवी अबुल डयुढ़ी ही से पुकारा, आरिफ़ की माँ!
ज़ैबुन्निसा भागती आई, ख़ुदा ख़ैर करे क्या हुआ? चौधरी कैसा है?
अल्लाह जल्ल-शानहू रहम फ़रमाएगा, मौलवी अबुल बोला, आरिफ़ की माँ! सुनो मेहरुन बेटी कैसी है?
ज़ैबुन्निसा चौंकी, तुम्हें किस ने बताया?
कब तक होगा? मौलवी अबुल आज तो आपे से बाहर हो रहा था।
बस अल्लाह चाहेगा तो आजकल में... ज़ैबुन्निसा झेंप कर बोली, पर तुम्हें किस ने... मौलवी अबुल तक़रीर के से अंदाज़ में बोला, बस यही मौक़ा है जब हम मेहरुन बेटी को सास के ता'नों तिशनों से छुटकारा ला सकते हैं। हम अपने नवासे-नवासी के लिए बहुत सा...’’
अल्लाह करे नवासा हो। ज़ैबुन्निसा ने मौलवी अबुल की बात काट दी।जो कुछ भी हो मौलवी अबुल ने टूटे तार को जोड़ा, हम बच्चे के लिए बहुत सा सामान भेज कर अपनी बेटी का मान भी बढ़ाएँगे और उस बद-बख़्त बुढ़िया की पलीद ज़बान भी खींच लेंगे हमेशा के लिए ठीक है ना?
कहना तो बड़ा आसान है पर करोगे कहाँ से? ज़ैबुन्निसा ने पूछा।
तवक्कल आरिफ़ की माँ, तवक्कल। मौलवी अबुल के ज़ेह्न में चौधरी फ़तह दाद का मीठा-मीठा हमदर्दाना लहजा घूम रहा था। अल्लाह जल्ल-शानहू पर तकिया करो। मौलवी अबुल को उस वक़्त चौधरी पर तकिया था।
शाम होते ही ज़ैबुन्निसा ने बुर्क़ा ओढ़ा, आरिफ़ को साथ लिया और मेहरुन्निसा के हाँ चली गई। रात गए वापस आई। बुर्के को एक तरफ़ रख कर आहिस्ता से बोली, जाग रहे हो आरिफ़ के अब्बू!
हाँ आरिफ़ की माँ। क्यों! मौलवी अबुल ने लिहाफ़ में सर निकाला।
बड़ी तकलीफ़ में है मेहरुन बेटी। शमीम अहमद रो रहा था बेचारा, शायद कल तक हो जाएगा। ज़ैबुन्निसा ने बड़ी ख़न्की हुई आवाज़ में सरगोशी की।
सच अम्माँ? ज़ुब्दा तड़प कर बिस्तर पर उठ बैठी।
अरे! मौलवी अबुल और ज़ैबुन्निसा हैरान रह गए और फिर उस मौज़ू पर मज़ीद इज़हार-ए-राय के बगै़र सो गए।
दूसरे रोज़ भी कुछ ऐसी ही कैफ़ियत रही। जब बेटी मारे दर्द के चीख़ती है और माँ-बाप मारे ख़ुशी के फूले नहीं समाते।
और फिर आधी रात को एक नाइन ने डयुढ़ी का दरवाज़ा खट-खटाया। मौलवी अबुल ने लपक कर ज़ंजीर खोली, मेहरुन के हाँ बेटा हुआ था, सारा घर जाग उठा और जब काफ़ी देर के बाद सब अपनी अपनी मुस्कुराहटें समेट कर ऊँघने लगे तो मौलवी अबुल ज़ैबुन्निसा के पास आया, अब क्या होगा?
चौधरी कैसा है? ज़ैबुन्निसा ने पूछा।
अल्लाह जल्ल-शानहू ही रहम फ़रमाए। मौलवी अबुल ने कहा।
ज़ैबुन्निसा उसके साथ लग कर बैठ गई। तिलाई टोपियों और सोने के कंगनों को तो झोंको भाड़ में, मैं तो कहती हूँ अगर रेशम का एक एक चोला चुनी ही बनवा लें तो नाक रह जाए कोई सबील है?
सबील? मौलवी अबुल सोच में पड़ गया और जब बोला तो उसकी आवाज़ में ग़ुस्सा था, तुम्हारी अ'क़ल भी तो अड़े में है और जाने वहाँ भी है कि नहीं। सात बेटियाँ हैं और पहली ही बेटी ब्याह पर कपड़े लत्ते और गहने-पाते यहाँ तक कि उंगलियों के छल्ले भी जहेज़ में दे डाले, आख़िर एक भूके मरझिल इमाम मस्जिद की बेटी का ब्याह था वो कोई नवाब ज़ादी तो थी नहीं कि कोई उंगली धरता। अब हाथ भर लौंडा पैदा हुआ है तो उसके लिए दो हाथ कपड़ा मौजूद नहीं और पूछती है कोई सबील है? नहीं कोई सबील, कफ़न भी तो नहीं कि उठा कर नवासे को पहना देता।
बकने क्यों लगे? ज़ैबुन्निसा भी ग़ुस्से में बोली, कफ़न पहनें उसके दुश्मन। अल्लाह वो सहरे बांधे। अब ये तो मुझ से नहीं होगा कि ख़ाली हाथ मटकाती मेहरुन के पास जाऊँ, उसकी कमीनी सास के सामने। और ज़बानी सदक़े क़ुर्बान हो कर वापस आ जाऊँ, ला'नतों की गठरी उठा कर मुझ से तो ये नहीं होगा, जीना अजीरन हो जाएगा मेरी बेटी का। सास नाक में दम कर देगी। आँखें नहीं उठ सकेंगी किसी के सामने, ज़ुब्दा और शम्सुन को भी कोई नहीं पूछेगा। सब को पता चल जाएगा कि जो कुछ था वो एक दम उगल बैठे और अब वही सूखे टुकड़े तोड़ते फिरते हैं, सारी उम्र कुंवारियाँ बैठी रहेंगी।
बैठी रहें। मौलवी अबुल तैश में आ गया। अब कहो तो सर फोड़ डालूँ अपना, कह जो दिया कि मेरे पास कफ़न तक नहीं और तू रेशम का कपड़ा मांगती है? कुछ नहीं मेरे पास समझीं? मेरे पास कुछ भी नहीँ। मौलवी अबुल बाहर निकल गया।
ज़ैबुन्निसा कुछ देर तक इस ख़्याल से चुप चाप बैठी रही कि वो आंगन में कुछ देर टहल कर अंदर आ जाएगा, मगर जब डयुढ़ी के दरवाज़े की ज़ंजीर खुलने की आवाज़ आई तो वो बिलबिला कर रो दी और ज़ब्दतुन्निसा और शम्सुन्निसा तड़प कर बिस्तरों में से निकलीं और हक्लाती हुई अपनी माँ से लिपट गईं।
मौलवी अबुल सीधा मस्जिद में गया। वज़ू कर के देर तक तहज्जुद पढ़ता रहा। फिर सुब्ह की अज़ान दे कर कलाम-ए-पाक की तिलावत शुरू कर दी। चंद नमाज़ी आए तो जमात कराई और सूरज तुलूअ' होने पर घर आया तो ज़ैबुन्निसा उसी जगह बैठी अपनी सूजी सूजी आँखों से दीवार को घूरे जा रही थी और ज़ुब्दा और शम्सुन उसके पास गठरियाँ बनी हुई पड़ी सो रही थीं। वो मुजरों की तरह चुपके से अपनी चारपाई तक गया और यूँ बेहिस-व-हरकत बैठ गया जैसे उसे तस्वीर उतरवाया है।
ज़ैबुन्निसा की नज़रें दीवार से उतर कर ज़मीन पर जम गईं । मौलवी अबुल की नज़रों ने उनका तआ'क़्क़ुब किया मगर मुडभेड़ न हो सकी। फिर जाने उसे क्या ख़याल आया कि उसने ज़ोर की आह भरी। अब ज़ैबुन्निसा से न रहा गया, फ़ौरन उसकी तरफ़ देखने लगी। मौलवी अबुल के होंटों पर मरी मरी मुस्कुराहट नुमूदार हुई और उसकी आँखों ने कहा, इधर आओ।
ज़ैबुन्निसा उठ कर उसके पास गई। अब मौलवी अबुल मोम हो चुका था।
कहाँ चले गए थे। ज़ैबुन्निसा ने बड़ी प्यार भरी शिकायत की।
क्यों गए थे?
क्यों जाते हैं?
कुछ सोचा?
हाँ!
क्या सोचा?
यही कि सुब्ह हो गई है। तुम्हें तो माँ होने के सबब रात ही को मेहरुन के हाँ पहुँच जाना चाहिए था। रात को न जा सकीं तो अब इस वक़्त तो तुम्हारा जाना बहुत ज़रूरी है।
ख़ाली नहीं।
फिर?
यही तो सोच रहा हूँ। तुम ने क्या सोचा?
यही।
कुछ देर तक दोनों ख़ामोश बैठे रहे।
सुनो”, ज़ैबुन्निसा बोली, कहीं से दस रुपये क़र्ज़ा मिल जाएगा?
मौलवी अबुल ने भवें उठा कर उसकी तरफ़ देखा और देखता रह गया। फिर होंटों को सिकुड़ कर ज़मीन को घूरा और घुटनों पर हाथ रख यूँ आहिस्ता-आहिस्ता उठा जैसे कमर टूटी हुई है। थके हुए लहजे में बोला, अबू अल-बरकात को कौन अ'क़ल का अंधा क़र्ज़ा देगा आरिफ़ की माँ। मुझे सब लोग बहुत अच्छी तरह जानते हैं। सूखे टुकड़े पेट में जा कर आँखों में से झांकने लगते हैं। मुझे तो अंधेरा नज़र आता है। सोचता हूँ आज नवासे के लिए दो गज़ कपड़ा न भेज सका तो फिर इस गाँव में काहे को रहूँगा।
ज़ैबुन्निसा बड़ी महारत से उमडे हुए आँसू पी गई। बोली, चौधरी कैसा?
वहीं जाता हूँ। मौलवी अबुल ने जमाही लेकर कहा, ज़रा सा भी अच्छा हुआ तो मेहरुन का ज़रूर पूछेगा। हो सकता है अल्लाह जल्ल-शानहू कोई सबील पैदा कर दे।
मौलवी अबुल काफ़ी देर तक वापस न आया। ज़ैबुन्निसा ने बुर्के को झाड़कर अलगनी पर डाल दिया और आरिफ़ के मुँह-हाथ धोने और तैयार हो जाने को कहा। ज़ुब्दा और शम्सुन ने ज़िद की कि वो भी अपने भांजे को देखने जाएँगी।
अभी ठहरो बेटी! ज़ैबुन्निसा यूँ आहिस्ता से बोली जैसे उस वक़्त ज़रा सी भी बुलंद आवाज़ से बोली तो कोई चीज़ छन्न से टूट रह जाएगी।
इंतिज़ार...
इंतिज़ार...
माँ के तेवर देख कर बच्चे भी सहमे बैठे थे और माँ चिड़िया के उड़ाने तक से चौंक कर डयुढ़ी की तरफ़ देखने लगती थी।
और फिर डयुढ़ी के किवाड़ धड़ाक से बज कर खुले और मौलवी अबुल ज़िंदगी में शायद पहली बार भागता और हाँपता हुआ अंदर आया और चिल्लाया, आरिफ़ की माँ, ए आरिफ़ की माँ।
ज़ैबुन्निसा बाहर लपकी और उसके पीछे ज़ुब्दा, शम्सुन, आरिफ़, क़मरुन, उम्दा और दूसरे बच्चे यूँ निकले जैसे कि कमरे में से किसी बगूले ने उन्हें उठा कर बाहर बिखेर दिया है।
और मौलवी अबुल उसी बजते हुए लहजे में चिल्लाया, मुबारक हो आरिफ़ की माँ! तुम नवासे के चोले को रो रही थीं और अल्लाह जल्ल-शानहू ने चोले, चुन्नी और टोपी तक का इंतिज़ाम फ़रमा दिया। जनाज़े पर कुछ नहीं तो बीस रुपये तो ज़रूर मिलेंगे। अभी कुछ देर तक जनाज़ा उठेगा चौधरी फ़तह दाद मर गया है न।
ज़ैबुन्निसा ने इस ज़ोर से अपनी छाती पर हाथ मारा कि बच्चे दहल कर रो दिए और फिर एक दम जैसे किसी ने मौलवी अबुल को गर्दन से दबोच लिया है, उसकी ऊपर उठी हुई पुतलियाँ बहुत ऊपर उठ गईं। फिर एक लम्हे के दर्दनाक सन्नाटे के बाद मौलवी अबुल जो मर्द के चिल्ला-चिल्ला कर रोने को ना-जाइज़ और ख़िलाफ़-ए-शरा क़रार देता था, चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा और बच्चों की तरह पाँव पटख्ता हुआ डयुढ़ी के दरवाज़े में से निकल कर बाहर भाग गया।
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