Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

अम्मी

MORE BYअशफ़ाक़ अहमद

    स्टोरीलाइन

    मुफ़्लिसी में पले बढ़े एक बच्चे की कहानी, जो स्कूल के दिनों में अम्मी से मिला था। उसके बाद लाहौर के एक बाज़ार में उसकी अम्मी से मुलाक़ात हुई। तब वह एक दफ़्तर में नौकरी करने लगा था और जुआ खेलता था। अम्मी से मुलाक़ात के बाद उसे अपने दोस्त और अम्मी के बेटे के बारे में पता चला कि वह इंग्लैंड में पढ़ता है। अम्मी से उसकी मुलाक़ात बढ़ती जाती है और वह उनके साथ ही रहने लगता है। एक बार वह इंग्लैंड से आए अपने दोस्त का ख़त पढ़ता है जिसमें उनसे दो हज़ार रूपये की माँग की गई थी। अम्मी के पास पैसे नहीं हैं और वह उनके लिए अपने ज़ेवर बेचने जाती है। वो उनके पीछे उनके बैग से पचास रूपये चुरा लेता है और जुआ खेलने चला जाता है।

    वो बड़े साहिब के लिए ईद कार्ड ख़रीद रहा था कि इत्तिफ़ाक़न उसकी मुलाक़ात अम्मी से हो गई।

    एक लम्हे के लिए उसने अम्मी से आँख बचा कर खिसक जाना चाहा लेकिन उसके पांव जैसे ज़मीन ने पकड़ लिये और वो अपनी पतलून की जेब में इकन्नी को मसलता रह गया। अचानक अम्मी ने उसे देखा और आगे बढ़कर उसके शाने पर हाथ रखते हुए बोली, सोदी, तुम कहाँ?

    उसने फ़ौरन अपनी जेब से हाथ निकाल लिया और एक ईद कार्ड उठा कर बोला, यहीं, अम्मी, मैं तो यहीं हूँ।

    कब से? अम्मी ने हैरत से पूछा।

    तक़सीम के बाद से अम्मी मैं भी यहां हूँ और माँ और दूसरे लोग भी।

    लेकिन मुझे तुम्हारा पता क्यों चला। मैंने तुम्हें कहीं भी देखा।

    उसके जवाब में वो ज़रा मुस्कुराया और फिर ईद कार्ड का किनारा अपने खुले हुए होंटों पर मारने लगा। दुकान के लड़के ने बड़े अदब से कार्ड उसके हाथ से लिया और उसे मेज़ पर फैले हुए दूसरे कार्डों में डाल कर अंदर चला गया।

    अम्मी ने अपना पर्स खोलते हुए पूछा, अब तो तू अपनी माँ से नहीं झगड़ता?

    मसऊद शर्मिंदा हो गया। उसने ईद कार्डों पर निगाहें जमा कर कहा, नहीं तो... मैं पहले भी उस से कब झगड़ता था।

    अम्मी ने कहा, यूं तो मत कह। पहले तो तू बात बात पर उसकी जान खा जाता था। छोटी छोटी बातों पर फ़साद बरपा कर देता था।

    उसने सफ़ाई के तौर पर अम्मी के चेहरे पर निगाहें गाड़ कर जवाब दिया, जब तो मैं छोटा सा था, अम्मी। अब तो वो बात नहीं रही ना।

    लेकिन इस जवाब से अम्मी की तसल्ली हुई और उसने बात बदलते हुए कहा, तेरा दोस्त तो यू.के. चला गया, इंजीनियरिंग की तालीम पाने। ये ईद कार्ड उसी के लिए ख़रीद रही थी।

    कहाँ? इंगलैंड चला गया! उसने हैरान हो कर कहा, जभी तो वो मुझसे मिला नहीं। मैं भी सोच रहा था उसे क्या हुआ। यहां होता और मुझसे मिलता। कैसी हैरानी की बात है।

    अम्मी ने आहिस्ता से दुहराया, हाँ इंगलैंड चला गया। अभी दो साल और वहीं रहेगा। ये ईद कार्ड उसी के लिए ख़रीदा है। और उसने कार्ड आगे बढ़ा दिया। उस पर ग़रीब-उल-वतनी, दूरी और हिज्र के दो तीन अशआर लिखे थे।

    मसऊद ने उसे हाथ में लिए बग़ैर कहा, लेकिन ये ईद तक उसे कैसे मिल सकेगा। ईद तो बहुत क़रीब है।

    अम्मी ने वसूक़ से कहा, मिलेगा कैसे नहीं। मैं बाई एयर मेल जो भेज रही हूँ।

    लेकिन बाई एयर मेल भी ये वक़्त पर पहुंच सकेगा। मसऊद ने जवाब दिया।

    अम्मी ने कहा, तो क्या है। उसे मिल तो जाएगा। एक-आध दिन लेट सही। और मसऊद के कुछ कहने से पेशतर अम्मी ने कहा, कभी हमारे घर तो आना। तुम्हारी दीदी ने एम.ए. का इम्तिहान दे दिया है। ज़रूर आना। ईद पर चले आना। हम इकट्ठे ईद मनाएंगे।

    जब अम्मी मसऊद को अपना पता लिखा कर चलने लगी तो उसने अपना फ़ोन नंबर बताते हुए कहा, आने से पहले मुझे फ़ोन ज़रूर कर लेना। मैं अक्सर दौरे पर रहती हूँ, लेकिन ईद के रोज़ में ज़रूर घर पर होंगी।

    मसऊद ने पते के साथ एक कोने पर फ़ोन नंबर भी लिख लिया। अम्मी ने एक मर्तबा फिर उसके शाने पर हाथ फेरा और अपनी साड़ी का पल्लू दुरुस्त करते हुए दुकान से नीचे उतर गई। मसऊद ने फिर अपनी जेब में हाथ डाल कर इकन्नी को चुटकी में पकड़ लिया और बड़े साहिब के लिए ईद कार्ड इंतिख़ाब करने लगा।

    मसऊद की माँ ने अपने ख़ावंद की मौत के एक साल बाद ही अपने किसी दूर के रिश्तेदार से शादी कर ली थी। अव्वल अव्वल तो उसकी दूसरी का मक़सद मसऊद की तालीम-ओ-तर्बीयत थी लेकिन अपने दूसरे ख़ावंद की जाबिराना तबीयत के सामने उसे मसऊद को तक़रीबन भुला देना पड़ा। महीने की इब्तिदाई तारीख़ों में जब मसऊद को अपने चचा से फ़ीस मांगने की ज़रूरत महसूस होती तो वो कई दिन यूंही टाल मटोल में गुज़ार देता। पैसों के मुआमले में उसकी माँ बिल्कुल माज़ूर थी। घर के मामूली अख़राजात तक के लिए उसे अपने ख़ावंद का मुँह तकते रहना पड़ा और वो अपनी कम माइगी और तही दस्ती का ग़ुस्सा मसऊद पर उतारा करती। हर सुबह उसे चूल्हे के पास बैठ कर चाय की प्याली और रात को एक बासी रोटी के साथ ये फ़िक़रा ज़रूर सुनना पड़ा, ले मरले। तेरी ख़ातिर मुझे क्या-क्या कुछ नहीं करना पड़ा। ये जुमला गो मसऊद को बहुत ही नागवार गुज़रता लेकिन हर रोज़ नाशते के लिए ये बिल कुछ ऐसा बड़ा भी था और फ़ीस अदा करने के दिन तो उस बिल में अच्छा-ख़ासा इज़ाफ़ा हो जाता। उसका चचा हुक़्क़ा पीते हुए कहता, पढ़ता वोढ़ता तो है नहीं। यूंही आवारागर्दी करता रहता है। मैंने तेरी माँ से कई मर्तबा कहा है कि तुझे डाक्टर बेग के यहां बिठा दें ताकि कुछ कम्पौडरी का काम ही सीख ले। आगे चल कर तेरे काम आएगा लेकिन पता नहीं वो कीन ख़यालों में है। मसऊद दोनों बाँहें सीने के साथ लगा कर आहिस्ता से जवाब देता, काम तो अच्छा है जी, लेकिन पहले मैं दसवीं पास कर लूं फिर...

    और चचा साहिब तंज़ से मुस्कुरा कर एक बाछ टेढ़ी कर के बीच में बोल उठते, बस-बस जैसी को को वैसे बच्चे! यही बात तेरी माँ कहा करती है। उसे जब मालूम हुआ गर ख़ुद कमाकर तेरी रोज़ रोज़ की फीसों की चिट्टी भरे, कितनी फ़ीस है तेरी?

    मसऊद ज़रा सहम कर जवाब देता, चार रुपये तेरह आने जी!

    अच्छा इस मर्तबा तेरह आने का इज़ाफ़ा हो गया।

    खेलों का चंदा है जी! मास्टर जी ने कहा था कि...

    तो कह दे अपने मास्टर वास्टर से कि मैं खेल नहीं खेलता और तुझे शर्म नहीं आती खेलें खेलते हुए। ऊंट की दुम चूमने जितना हो गया है और खेलें खेलता है।

    मसऊद आहिस्ता से खंकार कर जवाब देता, मैं तो कुछ नहीं खेलता जी, पर मास्टर जी कहते हैं खेलो चाहे खेलो, लेकिन चंदा ज़रूर देना पड़ेगा।

    ये अच्छा रिवाज है। उसका चचा सर हिला कर कहता, खेलो चाहे खेलो, लेकिन चंदा ज़रूर दो। स्कूल है कि कमिशनर का दफ़्तर। चंदा हुआ वार फ़ंड हुआ।

    चूँकि आम तौर पर ऐसी बात का जवाब मसऊद के पास होता, इसलिए वो ख़ामोश ही रहता। उसके बाद चचा पास ही खूँटी पर लटकती हुई अचकन से पाँच रुपये का नोट निकाल कर कहता, ले पकड़। अपनी माँ को बता देना और स्कूल से लौटते हुए बाक़ी के तीन आने मुझे दफ़्तर दे जाना।

    ख़ौफ़, नफ़रत और तशक्कुर के मिले-जुले जज़्बात से मसऊद की आँखें फटतीं, बंद होतीं और फिर अपनी असली हालत पर जातीं और वो नोट अपनी मुट्ठी में दबा कर माँ को बताने दूसरे कमरे की तरफ़ चल पड़ता और उसका चचा अपने कमरे में हुक़्क़ा बजाते हुए हाँक लगाता, फ़ीस दे दी है जी, तुम्हार शहज़ादे को। डिप्टी साहिब को! ये सुनते ही मसऊद एक दम रुक जाता और जी ही जी में अपनी माँ को एक गंदी सी गाली देकर वो उल्टे पांव अपनी कोठड़ी में जा कर बस्ता बाँधने लगता। चचा जैसे बेहूदा आदमी से शादी कर के उस की माँ उसकी निगाहों में बिल्कुल गिर चुकी थी और वो चचा की तान आमेज़ बातों का बदला हमेशा अपनी माँ को गाली देकर चुकाया करता।

    तफ़रीह की घंटी में दरख़्तों के साये तले अपने खेलते हुए हम जोलियों की दावत से इनकार करके उसे सीधा घर भागना पड़ता। ख़ास्सा दान तैयार होता जिसे उठा कर वो जल्दी जल्दी अपने चचा के दफ़्तर पहुंचता और उसे उनकी कुर्सी के पास रखकर बग़ैर कुछ कहे स्कूल भाग आता। अर्से से उसकी तफ़रीही घंटियाँ यूंही ज़ाए हो रही थीं। सिर्फ़ इतवार के दिन उसे अपने चचा के दफ़्तर जाना पड़ता, लेकिन इतवार को कोई तफ़रीह की घंटी नहीं होती।

    आठवीं जमात के सालाना इम्तिहान से पहले उसके यहां एक छोटा भाई पैदा हुआ जिसका नाम उसकी माँ के इसरार के बावजूद मक़सूद की बजाय नस्रूल्लाह रखा गया। इस भाई की पैदाइश ने मसऊद से उसकी माँ को क़तई तौर पर छीन लिया और उसकी हैसियत घर में काम करने वाले नौकर सी हो कर रह गई, जो अपना असली काम ख़त्म करने के बाद पड़ोस के दरवाज़े की ऊंची सीढ़ियों पर बैठ कर बच्चे खिलाया करता है। नस्रूल्लाह की आमद के दिन से मसऊद का चचा दिन में बारहा डाक्टर बेग का वज़ीफ़ा करने लगा और मसऊद की माँ से तक़ाज़ा करता रहा कि चूँकि अब नस्रूल्लाह हो गया है, इसके अख़राजात भी होंगे, इसलिए मसऊद को स्कूल से उठा कर डाक्टर साहिब के यहां बिठा देना चाहिए लेकिन उसकी माँ मानी और सिलसिला यूंही चलता रहा। ये उन दिनों की बात है जब मसऊद के स्कूल में मौसम के तिलिस्माती कार्ड बेचने एक आदमी आया और उसकी वजह से मसऊद की मुलाक़ात अम्मी से हुई। गुलरेज़ अपनी बेवा अम्मी का एक ही लड़का था और मसऊद का हमजमाअत था। जमात भर में मसऊद की दोस्ती सिर्फ़ गुलरेज़ से थी। दोनों को नन्ही नन्ही टोकरियां बनाने का ख़ब्त था। पढ़ाई के दौरान में अगर कभी उन्हें फ़ुर्सत के चंद लम्हात मयस्सर आजाते तो वो साईंस रुम के दरवाज़ों से चिम्टी हुई इशक़-ए-पेचाँ की बेलों से अध सूखी लंबी लंबी रगें तोड़ते और खेल के मैदान में हरी हरी घास पर टोकरियां बनाने लगते, जिसमें गुलाब का एक फूल या चम्बेली की चंद कलियाँ मुश्किल से समा सकतीं। मसऊद दस्ती वाली टोकरी भी बना लेता था लेकिन गुलरेज़ से हज़ार कोशिशों के बावजूद भी ऐसी टोकरी बन सकती थी और वो मसऊद की बनाई हुई टोकरी ले लिया करता। हाँ तो जिस दिन उनके स्कूल में मौसम के तिलिस्माती कार्ड बेचने वाला आदमी आया, मसऊद की मुलाक़ात अम्मी से हुई। सफ़ेद कार्डों के बीचों बीच गुलाबी रंग का एक बड़ा सा सुर्ख़ दायरा था, जिस पर एक ख़ास मसालहा लगा हुआ था! कार्ड बेचने वाले ने बताया कि जैसे जैसे मौसम तब्दील होता रहेगा, इस दायरे के रंग भी बदलते रहेंगे। जूँ-जूँ गर्मी बढ़ती जाएगी, गुलाबी दायरा सुर्ख़ होता जाएगा और जब सर्दी का ज़ोर होगा तो ये गुलाबी चक्कर बसंती रंग का हो जाएगा और जिस दिन मतला अब्र आलूद होगा और बारिश बरसने का इमकान होगा तो ये चक्कर ख़ुदबख़ुद धानी रंग का हो जाएगा। कार्ड की क़ीमत दो आने थी। क्लास में तक़रीबन सबने वो कार्ड ख़रीदे और जिनके पास दो आने थे, उन्होंने बात अगले दिन पर उठा दी।

    घर से ख़ास्सादान उठाते हुए मसऊद ने हौले से कहा, अम्मां, मुझे दो आने तो दो मैं...

    मगर उसने तेज़ी से बात काटते हुए कहा, मेरे पास कहाँ हैं दो आने। कभी मुझे पैसे छूते हुए देखा भी है। कौन ला ला के मेरी झोलियाँ भरता है जो तुझे दूअन्नी दूं।

    मसऊद ने मायूस हो कर ख़ास्सादान उठा लिया और चुप चाप दरवाज़े से बाहर निकल गया... दफ़्तर पहुंच कर उसने ख़ास्सादान कुर्सी के पास रख दिया और ख़िलाफ़ मामूल वहां खड़ा हो गया। उसके चचा ने फाईल में काग़ज़ पिरोते हुए ऐनक के ऊपर से देखा और तुर्श रु हो कर पूछा, क्यों? खड़ा क्यों है?

    कुछ नहीं जी। मसऊद का गला ख़ुश्क हो गया।

    कुछ तो है।

    नहीं जी, कुछ भी नहीं। उसने डरते डरते जवाब दिया।

    तो फिर फ़ौजें क्यों खड़ी हैं?

    जी, एक दूअन्नी चाहिए... अम्मां... मैं... स्कूल में जी... माँ...

    बिल्लों माँ, उसके चचा ने गुर्रा कर कह, तुझे दूअन्नी दूं! तुझे नावां दूं! मेरे बोरे जो ढोता रहा है। मेरे साथ जो खेलता रहा है।

    मसऊद शर्म से पानी पानी हो गया। उसने हकलाते हुए कहा, मैं मैं... अम्मां ने... अम्मां ने... जी स्कूल... स्कूल में...

    हूँ। उसके चचा ने ग़रज कर कहा, तुझे पैसे दूं! तुझे दूअन्नियां दूं। क्यों? मुझे बीन सुनाता रहा है। मुझे नब्ज़ दिखाता रहा है। तुझे पैसे दूं। हूँ तुझे दूअन्नी दूं... तुझे...

    मसऊद ने एक निगाह ख़ास्सादान को ग़ौर से देखा जो वाक़ई उनकी बातें नहीं सुन रहा था और फिर अपने चचा को उसी तरह 'हूँ हूँ' करते छोड़कर कमरे से बाहर निकल गया। खपरैल के बरामदे में बेंच पर बैठा हुआ एक बूढ़ा चपरासी आप ही आप कहे जा रहा था, हूँ! तुझे पैसे दूं! तुझे नावां दूं। मेरे बोरे जो ढोता है। हूँ तुझे पैसे दूं।

    और रास्ते भर मसऊद को ऐसी ही आवाज़ें आती रहीं। उसे यूं महसूस हो रहा था गोया उसके टख़नों के दरमियान छोटा सा ग्रामोफोन लगा हुआ है और जिसका रिकार्ड उसकी रफ़्तार के मुताबिक़ घूमता हो। मसऊद ने सड़क के किनारे तेज़ी से भागना शुरू कर दिया और रिकार्ड ऊंचे ऊंचे बजने लगा। तुझे पैसे दूं, तुझे पैसे दूं, मेरे बोरे जो मेरे बोरे जो। मसऊद ने घबरा कर राह चलते लोगों को ग़ौर से देखा कि वो भी तो ये रिकार्ड नहीं सुन रहे और फिर अपनी रफ़्तार बिल्कुल सुस्त कर दी। ग्रामोफोन की चाबी ख़त्म हो गई और रिकार्ड सिसकने लगा। तुझे पैसे... दूं... तुझे नावां... दूं... मेरे... बोरे... जो... और स्कूल तक ये बाजा यूंही बजता रहा।

    स्कूल बंद होने पर गुलरेज़ ने ख़ुद ही उसे अपने घर आने की दावत दी कि तिलिस्माती कार्ड अपने कमरे में लटका कर और सारे दरवाज़े बंद कर के देखेंगे कि गर्मी से दायरा सुर्ख़ होता है कि नहीं। ये तजस्सुस मसऊद को कशां कशां उनके घर ले गया। गोल गोल ग़ुलाम गर्दिश वाले बरामदे के एक कोने में सफ़ेद रंग की साड़ी बाँधे अधेड़ उम्र की एक दुबली सी औरत जाली के दरवाज़े को धागे से टाँके लगा रही थी। उस का सर नंगा था और कंधों पर सलेटी रंग की बनी हुई एक ऊनी शाल पड़ी थी। मसऊद ने एक नज़र उसके नन्हे से वजूद को देखा जिससे सारा बरामदा भरा भरा मालूम होता और सीढ़ियों पर ठिटक गया। उसे इस तरह दम-ब-ख़ुद देखकर गुलरेज़ ने बे तकल्लुफ़ी से बस्ता चारपाई पर फेंक कर कहा, आओ, आओ। और फिर सीमेंट के फ़र्श पर तेज़ी से अपने बूट घसीटता वो उस औरत के पास जा खड़ा हुआ और चिल्लाने लगा, अम्मी अम्मी! मैंने एक चीज़ ख़रीदी। एक नई चीज़, जादू का कार्ड... देखो अम्मी। और उसकी अम्मी ने गर्दन मोड़ कर और कार्ड हाथ में लेकर कहा, अच्छा है, बड़ा अच्छा। और फिर उसकी निगाहें बरामदे में रेंगते हुए उस लड़के पर पड़ीं, जिसने टख़नों से ऊंची मैली शलवार पहन रखी थी और जिसकी ख़ाकी कैनवस के जूतों से उसकी उंगलियां बाहर झांक रही थीं। गुलरेज़ ने शरमाते हुए कहा, ये मेरा दोस्त मसऊद है। अम्मी ये मेरे साथ पढ़ता है। ये मेरे साथ इस कार्ड को रंग बदलते हुए देखने आया है।

    अम्मी उठकर खड़ी हो गई। उसने ग़ौर से मसऊद को देखा। ख़ुश आमदीद की मुस्कुराहट उसके चेहरे पर फैल गई और वो बड़े प्यार से बोली, तुमने कार्ड नहीं ख़रीदा मसऊद?

    और मसऊद को यूं महसूस हुआ जैसे वो उसकी बरसों की वाक़िफ़ हो। मसऊद उसके सेहन में खेल कर इतना बड़ा हुआ हो और वो मसऊद को लंबी लंबी कहानियां सुना कर हर रात कहा करती रही हो, अब तुम सो जाओ।

    गुलरेज़ ने अपने कार्ड के दायरे पर फ़ख़्र से उंगली फेरते हुए कहा, इनने नहीं ख़रीदा अम्मी। इसके पास दूअन्नी नहीं थी। इसके पास कभी भी पैसे नहीं हुए।

    अम्मी ने कहा, तू अच्छा दोस्त है। उसने नहीं ख़रीदा तो तू ने दो कार्ड क्यों ख़रीद लिये? तेरे पास तो पैसे थे।

    गुलरेज़ ने घबरा कर जवाब दिया, बाक़ी पैसों की तो मैंने बर्फ़ी खाली थी और एक आने की पेंसिल ख़रीदी थी।

    अम्मी ने कहा, तो तुझे अपने दोस्त से बर्फ़ी प्यारी है।

    नहीं जी, अम्मी॒, गुलरेज़ शर्मिंदा हो गया और अपने दोस्त का हाथ पकड़ कर साथ के कमरे में ले गया। उस कमरे में सुर्ख़ रंग के सोफ़े पर एक लड़की स्वेटर बुन रही थी। उस के पहलू में चीनी की एक छोटी सी रकाबी में खिलें पड़ी थीं। गुलरेज़ ने अंदर दाख़िल हो कर कहा, देखो, दीदी, देखो, मेरे पास जादू का कार्ड है।

    और दीदी ने सलाइयों से निगाहें उठाए बग़ैर कहा, अच्छा है।

    मसऊद दीदी का रवैय्या देखकर बाअदब हो गया और गुलरेज़ ख़फ़ीफ़ हो कर जाली का दरवाज़ा ज़ोर से छोड़कर बाहर निकल गया। दीदी ने माथा सुकेड़ कर कहा, आहिस्ता और फिर सवालिया निगाहों से मसऊद को देखकर अपने काम में मशग़ूल हो गई। मसऊद ने घबरा कर इधर उधर देखा। हौले से आगे बढ़ा। धीरे से जाली का दरवाज़ा खोला और उसे बड़ी एहतियात से आहिस्ता-आहिस्ता बंद करते हुए गुलरेज़ के पीछे चला गया।

    अपने कमरे में पहुंच कर गुलरेज़ ने कार्ड मेज़ पे डाल कर कहा, दरवाज़ा बंद करो यार। कमरा गर्म हो जाएगा तो कार्ड रंग बदलेगा।

    दरवाज़ा बंद हो गया। वो देर तक कार्ड पर निगाहें जमाए बैठे रहे मगर उसका रंग तब्दील हुआ। मसऊद ने कहा, गुलरेज़ मियां, गर्मी कम है इसलिए रंग तब्दील नहीं होता। बावर्चीख़ाने में चूल्हे के पास कार्ड रखेंगे तो ये ज़रूर सुर्ख़ हो जाएगा।

    जब बावर्चीख़ाने में पहुंचे तो अम्मी गोभी काट रही थीं। गुलरेज़ ने एक चौकी चूल्हे के पास खिंच कर उस पर कार्ड डाल दिया और देखते ही देखते उसका रंग टमाटर की तरह सुर्ख़ हो गया।

    अम्मी से ये उसकी पहली मुलाक़ात थी। जब वो उसे फलों और बिस्कुटों वाली चाय पिलाकर घर के दरवाज़े तक छोड़ने आईं तो बावर्चीख़ाने से चुराई हुई चवन्नी मसऊद की जेब में अँगारे की तरह दहकने लगी और वो जल्दी से सलाम कर के उनके घर से बाहर निकल गया। उस दिन के बाद से अम्मी ने उसे अपना बेटा बना लिया और वो सारा दिन उनके घर ही रहने लगा।

    तक़सीम के बाद जहां सब लोग तितर बितर हो गए, वहां अम्मी और मसऊद भी बिछड़ गए और पूरे तीन साल बाद आज उनकी मुलाक़ात ईद कार्डों की दुकान पर हुई थी।

    मसऊद ने अपनी कोठड़ी तो नहीं छोड़ी थी लेकिन वो दफ़्तर के बाद का तक़रीबन सारा वक़्त अम्मी के यहां गुज़ारने लगा। दीदी ने वाक़ई एम.ए का इम्तिहान दे दिया था और वो पहले से ज़्यादा मुतकब्बिर हो गई थी। ब्रैकट पर एक बड़े से फूलदान में वो सरकण्डों के फूल लगाए मोटी मोटी किताबें पढ़ा करती। उसकी आवाज़ जो पहले नर्गिस के डंठल की तरह मुलायम थी, ख़ुश्क और खुरदुरी हो गई थी। यूं तो वो दिन भर में मुश्किल से ही चंद जुमले बोलती लेकिन जब बात करती तो यूं लगता गोया ख़ुश्क इस्फ़ंज के टुकड़े उगल रही हो। अम्मी जब भी उस से बात करती, बड़े अदब और रख रखाव से काम लेकर। वाक़ई दीदी ने एम.ए. का इम्तिहान दे दिया था।

    अम्मी ने कई मर्तबा मसऊद से उसकी माँ और चचा के बारे में पूछा, लेकिन उसने कभी कोई ख़ातिर ख़्वाह जवाब दिया। इतना कह कर ख़ामोश हो जाता कि यहीं कहीं रहते हैं। मुझे इल्म नहीं।

    दफ़्तर से फ़ारिग़ हो कर मसऊद सीधा अम्मी के यहां पहुंचता और रात को देर तक इधर उधर की बेमानी गप्पें हाँकता रहता। दीदी कोई किताब पढ़ रही होती। वो दो तीन मर्तबा तेज़ तेज़ निगाहों से अम्मी और मसऊद को घूरती और फिर ठप से किताब बंद कर के अंदर कमरे में चली जाती। जब दीदी मसऊद की पहुंच से बाहर हो जाती तो वो ज़ोर ज़ोर से क़हक़हे लगा कर उसकी पढ़ाई में मुख़िल होने लगता। अम्मी को पता था कि वो जान-बूझ कर दीदी को तंग कर रहा है, लेकिन उसने कभी भी मसऊद को मना नहीं किया। एक रात जब उसे बातें करते करते काफ़ी देर हो गई तो अम्मी ने कहा, अब यहीं सो रहो। इस वक़्त इतनी दूर कहाँ जाओगे। तो मसऊद वहीं सो रहा और उस रात के बाद वो मुस्तक़िल तौर पर उसी के यहां रहने लगा।

    चचा की बख़ील फ़ित्रत और माँ की लापरवाई उसकी आज़ादाना ज़िंदगी पर एक अजीब तरह से असर अंदाज़ हुई। वो पहले जिस क़दर गुम-सुम रहता था, अब उसी क़दर हन्सोड़ हो गया था और अपने बचपन की ग़रीबी का मुदावा करने के लिए उसने जुआ खेलना शुरू कर दिया था। पहली तारीख़ को तनख़्वाह मिलते ही वो तंग-ओ-तारीक कूचों में से गुज़रता हुआ उस अंधी गली में पहुंच जाता जिसके आख़िर में पुराने छप्पर और फूंस के ढेर पड़े होते। फूंस को एक तरफ़ हटा कर मसऊद अंधेरे भट्ट में दाख़िल होता जिसके पीछे कच्ची ईंटों की एक ग़लीज़ सी कोठड़ी कड़वे तेल का दिया अपनी आग़ोश में लिये उसका इंतिज़ार कर रही होती। चैतू, भमबीरी और ढिल्लन नशा पानी किए फ़र्श पर लेटे होते और रीबां छोटे से दरवाज़े के टूटे हुए पट से पुश्त लगाए हौले से कहती, आगया, राजा नल आगया। और परेल शुरू हो जाती। मसऊद का ज़ह्न और मुक़द्दर मिल जुल कर ऐसे ऐसे मार्के मारते कि हारने की नौबत कम आती और जब तक मसऊद की जेबें ख़ाली हो जातीं उसे खेलना पड़ती। वो ताश फेंटे जाता, नक़दी की ढेरियां लगाए जाता और परेल खेले जाता, हत्ता कि उसके मुख़ालिफ़ों के पास एक छदाम भी रहता या उसकी जेबों का अस्तर मुर्दा गाय की ज़बान की तरह बाहर लटकने लगता।

    अम्मी को पता था कि मसऊद नौकर हो कर बड़ा ही ज़िंदा दिल और चुस्त हो गया है लेकिन इस बात का उसे इल्म था कि परेल खेलते हुए उसकी उंगलियां भी क़ैंची की तरह चलने लगती हैं। हर महीने की पहली तारीख़ को अम्मी उसका बिस्तर बिछा कर आधी रात तक उस का इंतिज़ार करते हुए सोचा करती कि गुलरेज़ भी यूंही आवारागर्दी करता होगा और उसकी लैंड लेडी उसका इंतिज़ार इसी तरह किया करती होगी। फिर मसऊद और गुलरेज़ आपस में गड-मड हो जाते। अम्मी और लैंड लेडी एक दूसरे में मुदग़म हो जातीं और शफ़क़त ला-उबाली का इंतिज़ार करने लगती। दीदी अपने बिस्तर पर एक दो मस्नूई करवटें बदल कर आतिशबार निगाहों से अम्मी को घूरती और फिर मुँह दूसरी तरफ़ करके दम साध लेती।

    मसऊद जब फाटक के क़रीब पहुंचता तो पंजों के बल चलने लगता। शोर मचाने वाले पट को आहिस्ता से धकेलता और फिर अंदर दाख़िल हो कर उसे उसी तरह बंद करने लगता कि अम्मी पुकार कर पूछती,

    कहाँ से आए हो?

    कहीं से नहीं अम्मी, वो सहम जाता।

    नहर पर दोस्तों के साथ गप्पें मार रहा था।

    ये तुम्हारे कौन से ऐसे दोस्त , हैं ज़रा मैं भी तो देखूं।

    मेरे दफ़्तर के साथी हैं अम्मी। दफ़्तर की बातें हो रही थीं। और वो आराम से आकर अपने बिस्तर पर बैठ जाता और अपने बूट खोलने लगता। अम्मी ख़ामोशी से उठकर अन्दर आजाती और किट कैट का पैकेट उसके बिस्तर पर फेंक कर बेपर्वाई से कहती, मैं आज बाज़ार गई थी और तेरे लिए ये लाई थी। आधी अपनी दीदी के लिए रख लेना।

    और जब वो बिस्तर पर लेटने लगता तो अम्मी कहती, ये तू अपने बालों पर इतना तेल क्यों थोप लेता है। ले के सारे तकिए तेली की सदरी बना दिये हैं। सुबह होने दे तेरे सर पर उस्तुरा फिरवाती हूँ।

    और मसऊद कोई जवाब दिये बग़ैर सफ़ेद चादर ओढ़ कर मुर्दे की तरह सीधा शहतीर लेट जाता तो अम्मी जल कर कहती, तुझे कितनी मर्तबा कहा है, यूं ना लेटा कर। या तो करवट बदल या टांगों में ख़म डाल। इस तरह लेटने से मुझे वहशत होती है।

    मसऊद करवट बदल कर सो जाता और लैंड लेडी इत्मिनान की सांस के कर लिबास तब्दील करने चली जाती।

    अम्मी गुलरेज़ का हर ख़त मसऊद को ज़रूर दिखाती और फिर इतनी मर्तबा उस से पढ़वा कर सुनती कि मसऊद को उलझन होने लगती और वो ख़त फेंक कर बाहर चला जाता। गुलरेज़ के हर ख़त में या तो रूपों का मुतालिबा होता या गर्म कपड़ों और दीगर मामूली मामूली चीज़ों का जिनका बंदोबस्त अम्मी बड़े इन्हिमाक से किया करती। पार्सल सिए जाते। उन पर लाख की मोहरें लगतीं और फिर मसऊद को उन्हें डाकखाने ले जाना पड़ता।

    तनख़्वाह मिलने में अभी कई दिन पड़े थे। भमबीरी मसऊद को सड़क पर मिल गया। उसने बताया कि उनकी चौकड़ी में एक बड़ा मालदार कबाड़िया रुकना दाख़िल हो गया है जो सिर्फ़ हज़ारों की बाज़ी लगाता

    है। मसऊद के इस्तिफ़सार पर भमबीरी ने बताया कि वो हर रोज़ अपने एक गुमाशते लालू काने के साथ गुफा में आता है और नशा पानी कर के चला जाता है। मसऊद ने डाकखाने के पिछवाड़े जा कर गर्म सूट का पार्सल खोला और मास्टर ग़ुलाम हुसैन की दुकान पर जा कर डेढ़ सौ रुपये में बेच दिया। उस रात वो घर नहीं गया। उस का बिस्तर तमाम रात ठंडा रहा और उसकी पायंती पर पड़ी सफ़ेद चादर अम्मी की तरह सारी रात उसका इंतिज़ार करती रही। सुबह जब वो घर पहुंचा तो उसके पास रुपये थे और पार्सल की रसीद। अम्मी ने रात भर ग़ायब रहने के वाक़िया की तरफ़ इशारा किए बग़ैर उस से पूछा, पार्सल करवा दिया था?

    करवा दिया था। उसने रुखाई से जवाब दिया।

    और रसीद? दीदी ने पूछा।

    मसऊद ने घूर कर दीदी को देखा और कहा, रात में जिस दोस्त के यहां सोया था रसीद वहीं रह गई।

    अम्मी ने चाय की प्याली बनाते हुए पूछा, छः रुपये में काम बन गया था।

    नहीं। मसऊद ने आहिस्ता से कहा, साढे़ सात रुपये के टिकट लगे। मैंने डेढ़ रुपया उधार ले लिया था। और डेढ़ का लफ़्ज़ आते ही चाय उसके हलक़ में फंस गई।

    मसऊद को मालूम था अम्मी की तनख़्वाह तीन-चार सौ ले लगभग है। उसने जी ही जी में अपने आपको ये कह कर तसल्ली दे ली थी कि एक पार्सल के पहुंचने से वो मर नहीं जाएगी।

    एक दिन जब दीदी के ड्रेसिंग टेबल से पच्चीस रुपये गुम हो गए तो उसने आसमान सर पर उठा लिया। उसने बिला सोचे समझे अम्मी से कह दिया कि ये कारस्तानी मसऊद की है। अम्मी बजाय ख़फ़ा होने के रो कर कहने लगी, आज तू मसऊद पर इल्ज़ाम धरती है, कल मुझे चोर बताएगी... वो भला तेरे पैसों का भूका है?

    लेकिन दीदी मानी और माँ-बेटी में ख़ूब ख़ूब तकरार हुई शाम को अम्मी ने खाना खाया और दीदी ने, लेकिन उस रात मसऊद का पाँसा भारी रहा और उसने अपने साथ भमबीरी और चैतू को भी नान खिलाए।

    गुलरेज़ का ख़त आगया था कि उसे पार्सल नहीं मिला। डाकखाने में पूछगछ हुई। रसीद की ढूंढय्या पड़ी लेकिन रसीद मिली पार्सल का पता चला और अम्मी डाकखाने को रो पीट कर ख़ामोश हो रही, लेकिन इस मर्तबा तो उसने गुलरेज़ का ख़त मसऊद को दिखाया और ही उससे पढ़वा कर सुना। इस नए रवैय्ये ने मसऊद को यूंही तजस्सुस में डाल दिया। उसने एक दो मर्तबा अम्मी से ख़त के बारे में पूछा भी लेकिन वो यही कह कर ख़ामोश हो गई कि मैं कहीं डाल कर भूल गई हूँ। ख़त घर ही में तो था, जाता कहाँ, मसऊद की तफ़तीश ने उसे अम्मी की मेज़ से ढूंढ निकाला। गुलरेज़ ने लिखा था, पार्सल मुझे नहीं मिला। पता नहीं क्या बात है। यहां सर्दी बढ़ती जा रही है और मैं सख़्त परेशान हूँ लेकिन सबसे बड़ी परेशानी रुपये की है। मुझे नई क्लास में दाख़िला लेना है जिसके लिए मुझे कम अज़ कम दो हज़ार रूपों की ज़रूरत होगी, लेकिन अम्मी तुम ये दो हज़ार रुपया कहाँ से लाओगी। मुझे इल्म है कि तुम्हारे पास अब कुछ नहीं रहा। पर मैं करूँ भी तो क्या! तालीम अधूरी छोड़कर एक ही डिग्री लेकर आजाऊँ...

    इस के आगे मसऊद ने कुछ पढ़ा। ख़त तह किया और दराज़ में रखकर दफ़्तर चला आया। उसे अम्मी की तनख़्वाह के बारे में इल्म था और उस के अंदोख़्ता के मुताल्लिक़ भी अंदाज़ा था लेकिन गुलरेज़ के इस ख़त ने उस के सारे अंदाज़ों पर पानी फेर दिया। सारा दिन वो बेशुमार नन्हे नन्हे सवालों में घिरा टाइप करता रहा और आख़िर इसी नतीजा पर पहुंचा कि अम्मी ने गुलरेज़ को भी धोके में रख छोड़ा है ताकि वो ग़ैर मुल्क में अय्याशियों पर उतर आए। शाम को वो मामूल से पहले घर पहुंच गया। फाटक पर तांगा खड़ा था। दीदी कहीं बाहर गई हुई थी और अम्मी अंदर अपने कमरे में जाने क्या कर रही थी। मसऊद दरवाज़े की ओट में खड़ा हो गया। अम्मी अपने बड़े स्याह ट्रंक से ज़ेवर निकाल निकाल कर उन्हें हसरत भरी निगाहों से देखती और फिर अपने पर्स में डाले जाती। ट्रंक बंद करके उसने इधर उधर देखा और अपने बाएं हाथ की उंगली से सुनहरी अँगूठी उतार कर भी उसी पर्स में डाल ली। जब वो उठकर चलने लगी तो मसऊद ने अंदर दाख़िल हो कर कहा, कहाँ की तैयारी हो रही है?

    अम्मी घबरा गई। उसने मस्नूई मुस्कुराहट से काम लेते हुए कहा, अच्छा ही हुआ तुम आगए। मैं बाज़ार जा रही थी। थोड़ा सा कपड़ा ख़रीदना है। तुम घर पर ही रहना तुम्हारे लिए किट कैट लाऊंगी।

    मसऊद ने कहा, अम्मी हमें तो आज इसलिए जल्दी छुट्टी हो गई है कि हमारे दफ़्तर की टीम रेलवे क्लब से फूटबाल खेल रही है और मैं छावनी जा रहा हूँ। मैं घर पर रह कर क्या करूँगा। दीनू जो यहां मौजूद है।

    अम्मी ने कहा, इसे मैं साथ लिए जा रही थी लेकिन ख़ैर अब वही घर पर रहेगा... तुम चाय पी लेना। तुम्हारे लिए अंडे उबाल कर मैंने थर्मोस में रख दिये हैं।

    अम्मी चली गई। मसऊद ने अपना कोट उतार कर खूँटी पर लटका दिया और ख़ुद कुर्सी पर दराज़ हो कर अख़बार देखने लगा। दीनू चाय तिपाई पर रखकर तंबाकू लेने चला गया। मसऊद ने उसी तरह अख़बार गोद में डाले एक प्याली पी। थर्मोस खोल कर एक अण्डा निकाला और बग़ैर नमक लगाए खा गया। दीनू को बाज़ार गए काफ़ी देर हो चुकी थी और उसके लौट आने में थोड़ा ही वक़्त रह गया था। मसऊद उठा। दीदी के ट्रंक से क्रोशिया निकाला और अम्मी के कमरे में जा कर अटैची केस खोलने लगा। ऊपर ही क़िरमिज़ी रंग की एक रेशमी साड़ी की तह में पच्चास रुपये पड़े थे। रुपये उठा कर उसने जेब में रख लिये और फिर ताला बंद करने लगा, लेकिन ज़ंगआलूद फाटक के खुलने पर वो चौंक पड़ा और घबराहट में क्रोशिया भी जेब में डाल कर बाहर आगया। मसऊद ने दीनू को घूरते हुए पूछा, इतनी देर कर दी थी। कहाँ चला गया था?

    जाना कहाँ था। दीनू ने अपने मख़सूस अंदाज़ में जवाब दिया, बना बनाया तंबाकू दुकानदार के पास था नहीं, मैं अगली दुकान पर गुड़ लेने चला गया।

    अच्छा। मसऊद ने बेपर्वाई से कहा। अम्मी से कह देना, मैं ज़रा देर से आऊँगा और खाना नहीं खाऊंगा।

    सुपरिटेंडेंट के यहां पहुंच कर मसऊद ने अपने चेहरे पर मिस्कीनी के ऐसे आसार पैदा किए कि वो पसिज गया और उसने अपनी बीवी को बताए बग़ैर डेढ़ सौ रुपया ला कर मसऊद को दे दिया और लजाजत आमेज़ लहजे में कहने लगा, मुझे बड़ा ही अफ़सोस है कि दो सौ रुपये इस वक़्त मेरे पास नहीं। शायद ये रक़म तुम्हारी वालिदा को मौत के मुँह से बचा सके। और जब मसऊद उठकर जाने लगा तो सुपरिटेंडेंट ने कहा, जनरल वार्ड के इंचार्ज डाक्टर क़दीर मेरे वाक़िफ़ हैं। कहो तो उन्हें एक रुक़्क़ा लिख दूं।

    मसऊद ने तशक्कुर आमेज़ लहजे में कहा, अगर ऐसा कर दीजिए तो मेरी दुनिया बन जाये। ख़्वाजा साहिब मेरा इस जहां में सिवाए मेरी माँ के और कोई नहीं।

    सुपरिटेंडेंट ने तसल्ली देते हुए कहा, घबराने की कोई बात नहीं, तुम्हारी वालिदा राज़ी हो जाएगी।

    और जब मसऊद रुक़्क़ा लेकर बँगले से निकला तो रात छा चुकी थी और सड़कों की बत्तियां जल रही थीं। उसने एक ताँगा किराया पर लिया और सड़कों पर यूंही बे मक़्सद घूमता रहा। नौ बहार होटल में जा कर खाना खाया और फिर रेलवे स्टेशन पर चला गया। शुरफ़ा के कमरे में जा कर उसने हाफ सेट चाय का आर्डर दिया और देर तक आहिस्ता-आहिस्ता चाय पीता रहा। जब वो स्टेशन से निकला तो नौ बज चुके थे। उसने तांगा बाग़ के क़रीब छोड़ दिया और पैदल चलने लगा। सड़कों की चहल पहल कम होने लगी। सैर करने वालों की टोलियां बाग़ से निकल कर ख़िरामां ख़िरामां घरों को जा रही थीं। चौराहों के संतरी जा चुके थे और सिनेमाओं के सामने की रौनक़ अंदर हाल में सिमट गई थी। मसऊद ने अँधेरी गली में दाख़िल हो कर इधर उधर देखा और फिर फूंस उठा कर गुफा में दाख़िल हो गया। रीबां ने मुस्कुरा कर उसे देखा और सुलफ़ा भरे सिगरेट का दम लगा कर बोली, गया, राजा नल आगया।

    रुकने कबाड़िये ने खंकार कर कहा, आने दो। आगे कौन से नंग बैठे हैं।

    लालू ने अपनी कानी आँख खोलने की कोशिश करते हुए कहा, लाल वए। पहली तारीख़ से पहले कैसे दर्शन दिए। अभी तो चांद चढ़ने में काफ़ी देर है?

    मसऊद मुस्कुरा कर ख़ामोश हो रहा।

    चैतू ने कहा, ले, भमबीरी, चांद मक्खन, चांद हीरा। चांद चढ़ गया चढ़ गया। चढ़ा चढ़ा, नशा जो हुआ।

    इस पर सब हँसने लगे।

    जब मसऊद जूता उतार कर दरी पर बैठ गया तो रुकने ने पूछा, फिर कुछ हो जाये छोटी सी बाज़ी?

    ले वाह, छोटी क्यों लाला। काने ने कहा, बाज़ी हो तो अगड़बम हो, नहीं तो सही।

    रुकना बोला, हम तो अगड़बम ही खेलते हैं, लेकिन बाबू ज़रा नरम है, इसलिए लिहाज़ करना ही पड़ता है।

    लालू काने को ये बात बहुत बुरी लगी। उसने कहा, शरा में क्या शर्म। बाज़ी में क्या लिहाज़। बाज़ी वो जिसमें चमड़स हो जाये।

    मसऊद ने कोई जवाब दिये बग़ैर दो सौ के नोट निकाल कर दरी पर रख दिये और चौकड़ी मार कर बैठ गया। दीये की लौ ऊंची कर दी गई और बाज़ी शुरू हो गई। आख़िरी पत्ता दरी पर फेंक कर मसऊद ने रुकने के आगे से दो सब्ज़ नोट उठा कर अपने नोटों में रख लिए और उन्हें आगे धकेल दिया।

    रीबां ने गर्दन फेर कर कहा, तेरे सदक़े, अँगूठी बनवा दे।

    ढिल्लन ने डकार ले कर कहा, तेरे सदक़े, कुँआं लगवादे। उल्टा लटक कर मालिक से मिलूँगा।

    रुकने कबाड़िये ने सदरी से सौ-सौ के चार नोट निकाल कर अपने सामने रख लिये और झल्लाकर लालू से कहने लगा, काने बीमबड़ पंखा तो कर, गर्मी से जान निकल रही है।

    काना बीमबड़ पंखा करने लगा तो मसऊद ने हाथ से इशारा करके आहिस्ता से कहा, ज़रा हौले। दीया ना बुझ जाये।

    और बाज़ी फिर शुरू हो गई।

    दीदी बिस्तर पर बेमानी सी करवटें बदल रही थी और उसके क़रीब आराम कुर्सी में दराज़ अम्मी चुप चाप बैठी थी। उसके सामने तिपाई थी जिस पर मसऊद चाय पी कर गया था और अब उस तिपाई पर अम्मी का पर्स और किट कैट का एक पैकेट पड़ा था। दीदी जागते में बड़बड़ा रही थी और अम्मी ख़ामोशी से उस के टूटे फूटे अलफ़ाज़ सुन रही थी।

    बाज़ी ख़त्म हो गई और मसऊद ने रुकने के चार सौ समेट कर अपने नोटों में मिला लिये। काने ने फटी फटी निगाहों से रुकने को देखा और बोला, लाला!

    रुकने ने कहा, फिर क्या हुआ? अभी तो बड़ी माया है। बाबू को जी बहलाने दे। और उसने दो सौ के नोट निकाल कर आगे रख लिये।

    मसऊद ने कहा, यूं नहीं। तख़्त या तख़्ता। और फिर सारे नोट आगे धकेल दिये।

    रुकने ने कहा, यूं तो यूं सही। और छः और सब्ज़ नोट निकाल कर अगले नोटों पर डाल दिये। ताश के पत्ते फिर उंगलियों में नाचने लगे।

    अम्मी ने चोर आँखों से दरवाज़े की तरफ़ देखा और हौले से कहा, अभी तक आया नहीं, पता नहीं क्या वजह है। फिर उसने किट कैट के पैकेट को उंगली से दबा कर देखा जो गर्मी की वजह से ज़रा लिजलिजा हो गया था। ठंडे पानी का एक गिलास लाकर अम्मी ने किट कैट के पैकेट पर छिड़का और फिर कुर्सी पर दराज़ हो गई। दीदी ने क़हर आलूद निगाहों से अम्मी को देखा और फिर करवट बदल ली।

    आख़िरी पत्ता फेंकने से पहले मसऊद ने रुकने के नोट फिर उठा लिये और पत्ता चूम कर उसकी गोद में फेंक दिया। लालू काना दम बख़ुद पंखा किए जा रहा था। चैतू, ढिल्लन और भमबीरी फ़र्श पर सोए हुए थे और रीबां दीवार के के साथ लगी ऊँघ रही थी।

    रुकने ने लालू की तरफ़ देखा और शर्मिंदगी टालने के लिए दो नोट निकाल कर अपने सामने रख लिये। मसऊद ने कहा, बस दो सौ! कोई और जेब देख, लाला। शायद उस में सब्ज़े पड़े हों।

    लेकिन रुकना कोई और जेब देखने पर रज़ामंद हुआ। लालू काना बोला, कल सही बाबू। बोलती बंद हो जाएगी। ले ये एक दस रुपये की गरमजोस यारों की भी रही। और उसने रुकने के दो सौ पर दस और रुख दिये... ताश बाँटी जाने लगी।

    अम्मी ने दीदी के सिरहाने तले हाथ फेर कर उसकी घड़ी निकाली और अपने आपसे कहा,

    एक बज गया।

    फाटक ज़रा सा हिला। अम्मी तेज़ तेज़ क़दम उठाती उधर गई। उसने बोल्ट खोलने से पहले चौड़ी दराड़ में से बाहर झांक कर देखा। एक ख़ारिश ज़दा कुत्ता फाटक के साथ अपनी कमर रगड़ रहा था। वो अपनी जगह पर आकर फिर उसी तरह बैठ गई।

    बाज़ी ख़त्म हो गई और मसऊद ने दो सौ दस रुपये उठा कर अपने नोटों में शामिल कर लिये और रुकने से पूछा, और? रुकने ने मानी ख़ेज़ निगाहों से लालू को देखा और मुँह पोंछ कर बोला, बस!

    नोटों की गड्डी बना कर मसऊद ने सामने की जेब में डाल ली। जूता पहन कर खड़ा हो गया और सोए हुए बेचारों पर निगाह डाल कर बोला, अच्छा, उस्ताद, फिर सही पहली तारीख़ को।

    रुकने और लालू ने कोई जवाब दिया और मसऊद ख़ामोशी से चल दिया। फूंस से गुज़र कर उसने ताज़ा हवा में एक लंबा सांस लिया और अंधेरे की गोद में मुड़ती हुई बेजान गली को दूर तक महसूस किया। फिर वो अपने गिरेबान के बटन खोलते हुए आहिस्ता-आहिस्ता चलने लगा और सोचने लगा कि ये तो कुल अठारह सौ हुए और गुलरेज़ ने दो हज़ार मांगे हैं। बाक़ी दो सौ का बंदोबस्त क्यूँकर होगा और वो अभी बाक़ी दो सौ के मुताल्लिक़ सोच ही रहा था कि किसी ने उसके गले में साफा डाल कर उसे ज़मीन पर गिरा या। गिरते ही एक तेज़ धार चाक़ू का लंबा फल उसके सीने से गुज़र कर दिल में उतर गया।

    एक आवाज़ ने कहा, काने बीमबड़ ये क्या किया... नोट निकाल नोट।

    काने बीमबड़ ने जेब में हाथ डाल कर नोट निकालने की कोशिश की मगर चाक़ू का फल नोटों को पिरोता हुआ पसलियों में पैवस्त हो चुका था। उसने ज़ोर लगाते हुए कहा, लाला निकलते नहीं। और जब लाला नोट निकालने को झुका तो गली के दहाने पर सिपाही सीटियाँ बजाने लगे और वो दोनों मसऊद को यूंही छोड़कर भाग गए।

    मसऊद ने ज़ोर लगा कर चाक़ू बाहर निकाला और उसे परे फेंका। फिर उसने ख़ून आलूद नोटों की गड्डी जेब से निकाली और उठने की कोशिश की मगर वो उठ सका। पेट के बल लेट कर उसने नोट दाएं हाथ में पकड़ लिये और अपना हाथ आगे फैला दिया। कुहनी को ज़मीन पर दबा कर उसने आगे घसीटना चाहा लेकिन जूंही कुहनी उसके पहलू से आकर लगी उसका हाथ ज़मीन से जा टकराया और उसकी जेब से एक क्रोशिया निकल कर बाहर गिर पड़ा। मुट्ठी में पकड़े हुए नोटों को देखने की नाकाम कोशिश करते हुए उसने कहा, अम्मी... मी... मी... अम्मी... लहू की आख़िरी बूँद ज़मीन पर गिरी और उसकी मुट्ठी ढीली हो गई।

    अम्मी ने ठंडे पानी में उंगली डुबो कर एक क़तरा किट कैट पर टपकाते हुए अपने आपसे कहा, अभी तक नहीं!

    स्रोत :

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए