Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

अंधेरी गलियाँ

राम लाल

अंधेरी गलियाँ

राम लाल

MORE BYराम लाल

    स्टोरीलाइन

    घर से भागे दो मोहब्बत करने वालों की कहानी, वे रात के अंधेरे में गलियों की ख़ाक छानते और उन पलों को याद करते हुए जिन्होंने उन्हें इस मुक़ाम पर ला खड़ा किया था, स्टेशन की तरफ़ चले जा रहे थे। बस्ती पीछे छूट गई थी और स्टेशन क़रीब था। तभी उन्हें एक होटल के सामने कुछ नौजवान घेर लेते हैं। वे आशिक़ लड़के की बुरी तरह पिटाई करते हैं और लड़की को अपने साथ उठा कर ले जाते हैं।

    घर से निकल कर जब वो सरीन मुहल्ले के मास्टर तारा सिंह चौक पर पहुँचे तो बिजली की रौशनियाँ बुझ गईं, और एक हैबत-नाक और मौत के तसव्वुर से ज़ियादा गहरा अँधेरा छा गया और जाने किस गली के मोड़ पर मुहल्ले का चौकीदार अपनी करख़्त, सख़्त और दहला देने वाली आवाज़ से चिंघाड़ा, “ख़बरदार... ख़बरदार हो!”

    कमलेश का दिल यूँ धड़का जैसे कोई भटका हुआ, दरख़्त का पत्ता हवा के तुंद झोंके से ज़मीन से उठकर राहगीर की टाँगों से जा चिमटे। सागर ने उसकी कमर में अपना बाज़ू डाल दिया और आहिस्ता से पूछा, “मेरे इरादों में जुरअत भरने वाली आज तन्हाई की हल्की सी चीख़ से ख़ौफ़ खा गई! क्यों?”, कमलेश कुछ बोली। सागर ने उसका चेहरा अपनी तरफ़ घुमा दिया।

    “कमलेश!”

    “जी!”

    “बस दो गलियाँ और हैं। उनके बा'द एक लंबी सड़क है, जो स्टेशन की तरफ़ जाती है।”

    “बहुत दूर है स्टेशन?”

    “बस इतना जितना म्यूंसिपल्टी से तुम्हार घर तक फ़ासिला है।”

    “हमार घर तो... आह!”, वो लड़खड़ाई और नाली के सिरे पर मुँह के बल गिरी।

    “चच...!”

    “हाय...”, कमलेश घुटना पकड़ कर बैठ गई। सागर उसे उठाते हुए बोला, “आहिस्ता बोलो कोई सुन लेगा तो जान बचानी मुश्किल हो जाएगी।”

    “आह ये कुहनी यूँ दुख रही है जैसे... देखो देखो ख़ून मा'लूम होता है। आह मैं क्या करूँ... आह!”

    “आहिस्ता कराहो कमलेश बच्ची मत बनो।”

    “हा। तुम गिर पड़ते तो मैं देखती कि...”, वो रोने लगी।

    “आहिस्ता-आहिस्ता रोओ। उट्ठो मैं तुम्हें सहारा देता हूँ। परली गली में से किसी के आने की चाप सुनाई दे रही है। लो सुनो, गली के फ़र्श पर डांड खड़क रही है।”

    कमलेश सारा दर्द भूल कर उठ खड़ी हुई। सागर ने बाज़ुओं का सहारा दिया। वो चली तो उसे घुटने के क़रीब यूँ महसूस हुआ जैसे उसमें कोई उतारा हुआ नश्तर बाहर खींचा जा रहा हो।

    “आह...”, उसकी सिसकी और ठंडी साँस उस गहरी ख़ामोशी में इस तरह उभरी और डूबी जैसे कोई ताइर छपाक से सिर पर से गुज़र जाए और शऊ'र के ख़ला में एक सनसनाहट सी देर तक गूँजती रहे, फिरती रहे और मिटती रहे। हवा ठंडी और क़द्रे तेज़ थी। कमलेश के दाँत किटकिटा जाते थे। दोनों ने चैसटर पहन रखे थे। छाती और गले के बटन अच्छी तरह बंद कर रखे थे। लेकिन फिर भी ये सर्दियों की ख़ुनुक हवा जाने किधर से अंदर घुस जाती थी कि दिलों के अंदर सहमी-सहमी आरज़ूओं को मुंजमिद कर रही थी। उन्हें यूँ महसूस हो रहा था जैसे उनके दिलों में बर्फ़ सी घुसी जा रही है, और ये रास्ता जो पहले कभी पुर-ख़तर और तवील था, आज अचानक बदल गया था।

    घर से निकलते ही उसकी हैअत में एक हैबत सी भर गई थी, और एक ऐसा हौल जो पहले कभी था, आस-पास के ऊँचे और पस्त मकानात गली पर भूतों के साये बन कर छुपे हुए थे। गली की सत्ह पर जहाँ पहले कभी कोई नशेब दिखाई दिया था, अब उस पर चलते हुए यूँ महसूस होता था जैसे अगर उन्होंने सँभाल कर क़दम रखे तो वो मुँह के बल जा गिरेंगे। अपने आगे नज़र आने वाले अँधेरे में बे-शुमार गढ्ढे बिखरे हुए मा'लूम होते थे, और जैसे इन गढ्ढों में साज़िशें थीं, घातें थीं। दिखाई देने वाले भाले जिनका क़दम-क़दम पर जिस्म में उतर जाने का इम्कान था और कुछ खटके ऐसे भी थे जो कमलेश के दिल में तज़लज़ुल सा भर रहे थे। और उन आहनी इरादों में जिन पर उसे भरोसा था, ए'तिमाद था, आज अचानक गुदाज़ पैदा हो रहा था, और एक ऐसा भी एहसास हो रहा था जैसे मुजरिम सागर था। वो थी।

    वो तो एक बोल सकने वाली भीड़ थी जिसे ज़बरदस्ती खींचा जा रहा हो। उसमें तरग़ीब थी दा'वत, कोई ख़याल चकाचौंद, एक मरी हुई ख़ामोश, सर्द और झुलसी हुई नाश। वो अपने तसव्वुर से काँप गई और सागर के बाज़ू को पकड़ कर यूँ रुक गई, जैसे चलती हुई मशीन में से किसी ने क़ुव्वत का तार खींच लिया हो। और सागर ने अपने गिर्द-ओ-पेश अँधेरे को घूरा, और उसके बर्फ़ की मानिंद सर, माथे और गाल पर हाथ फेर कर बोला, “क्या है कमलेश!”

    कमलेश का जी चाहा, रोकर उससे लिपट जाए। और चीख़-चीख़ कर कहे... मुझे वापिस ले चलो। मैं वापिस जाना चाहती हूँ। आगे बढ़ने की मुझमें हिम्मत नहीं। इस अँधेरे की हवा की तेज़ साँसों में मुझे अपने बाप के खाँसने की आवाज़ें और माँ की पुकारें सुनाई देती हैं... लेकिन वो एक बे-ज़बान की मानिंद सर उठाकर खड़ी हो गई...। ख़ामोश और बिजली के खम्बे की तरह साकिन और मुंजमिद सागर ने उसे काँधों से पकड़ कर झिंझोड़ दिया और वो सच-मुच रो पड़ी।

    “चुप क्यों हो? कैसा ख़ौफ़ है, जो तुम्हें बोलने देता है चलने।”

    “मेरा दिल घबरा रहा है।”

    वो हँस पड़ा।

    “तो ये कमबख़्त दिल ही तुम्हें परेशान किए हुए है! लेकिन ये है कहाँ? तुम तो कहती थीं कि वो तुमने मुझे दे दिया है। लाओ देखूँ तो... इसका मतलब ये है कि तुमने झूट बोला था।”, सागर ने हँसते हुए उसे बाज़ुओं पर उठा लिया और आगे बढ़ते हुए कहा, “आय हाय... मुझे ये पहले क्यों मा'लूम हुआ कि तुम्हारा जिस्म फूल की तरह हल्का है। ये फूल जो एक अर्से से मेरे दिमाग़ को मुअत्तर कर रहा है। और मेरे ख़यालों में एक तअ'त्तुर, गहराई, ख़ुश-ज़ौक़ी और एक आग भर रहा है। कमलेश, मैंने तुम्हें आग कहा है।”

    “तो मुझसे अलग हो जाओ। ये आग कहीं तुम्हें जला डाले।”

    “नहीं ये आग ठंडी है। इसके शो'लों में एक मीठी राहत और अबदी सुकून है। इसके पास आता हूँ तो यूँ महसूस होता है जैसे एक कड़वी जद्द-ओ-जहद के बा'द कुछ सुकून सा मयस्सर हो गया है। तुम्हारी आँखों, होंटों और बालों में एक ऐसी कशिश है कि मैं तुमसे दूर नहीं जा सकता। तुम्हारी आँखें देखकर मुझे नदीम की शाइ'री फीकी और फ़िराक़ का फ़लसफ़ा बे-जान नज़र आता है। और जब कभी-कभी तुम्हारे सपीद और हसीन माथे पर तेवर जाते हैं तो मुझे मख़दूम की “औ'रत की बग़ावत” किसी बच्चे की ज़िद मा'लूम होने लगती है। तुम्हारे तसव्वुर ही में एक ऐसी दा'वत और तरग़ीब है कि मैं रिश्ते काटने पर मजबूर हो जाता हूँ।”

    कमलेश ने अपना सर उसके सीने पर रख दिया और बोली, “मुझे उतार दो। थक जाओगे।”

    “अभी सुस्ताने का मुक़ाम नहीं आया। मेरे इरादों में थकावट उस दिन पैदा होगी जब तुम्हें घर की याद सताएगी। और मुझे मजबूर करोगी कि तुम्हें घर छोड़ आऊँ लेकिन घर हमारे लिए उस वक़्त तक तंग है जब तक हमें सोचने और समझने की आज़ादी नहीं दी जाती।”

    “घर की बात करते हो?”

    “हाँ उस घर की जिसके ख़याल से तुम्हारी रूह काँप रही है।”

    “मेरी रूह की भी एक ही कही... ये सड़ियल उस वक़्त भी काँपने लगी थी। जब मैंने तुम्हें पहली बार कॉलेज के तालाब में नहाते हुए देखा था। कमर पर एक ज़ख़्म का निशान था ना!”

    “हाँ, लेकिन अब वो अपनी जगह से हट कर एक और जगह गया है।”

    “तुम्हारा मतलब दिल से होगा!”, उसकी आवाज़ में एक शोख़ी घुली हुई थी।

    “हाँ। तुम्हें ग़ालिबन पहले बताया हुआ है।”

    “नहीं... ऐसे निशान हर मर्द के दिल पर हैं और चलते फिरते... औ'रतों को देखकर दिन में हज़ार बार पड़ते और मिटते हैं।”

    “लेकिन इस दिल पर तो तुम्हारे काटने के निशान हैं जो बहुत गहरे हैं।”

    “काटने के...? तुमने मुझे क्या समझ रखा है।”

    “एक ऐसी जिन्स, जो निगाहों से काटती है। और उन निगाहों में ज़हर होता है। तरग़ीब का ज़हर... आमादगी का एक ऐसा जज़्बा जो सामने आते ही सर से पाँव तक छा जाता है।”

    “हटो मुझे उतार दो। ये झूटा इल्ज़ाम है।”, वो उसके बाज़ुओं से कूद गई। और सागर ने चलते चलते उसका गाल नोच लिया। वो उसके हाथ को मरोड़ते हुए बोली, “मुझमें कोई ज़हर-वहर नहीं और मुझे किसी की शाइ'री से मंसूब किया करो।”

    “हा... चच यूँ कहो। तुम्हारे बग़ैर शाइ'री की ज़रूरत ही बाक़ी नहीं रहती। तुम हो तो शाइ'री के दम-ख़म हैं और ये दिल है, ग़म है, दर्द है, चोट है, तलाश और ठोकरें, क़त्ल और ख़ून और जंग... दुनिया की जब सबसे पहले जंग हुई होगी तो वो तुम्हारी वज्ह से हुई होगी। औ'रत का वजूद ही जंग के लिए होता है। ये रहे तो ये जंग ख़त्म होजाती है। जंग का मक़्सद ख़त्म हो जाता है। जंग का नाम ख़त्म हो जाता है। उसकी ज़रूरियात और फ़रमाइशें ही मर्द की जद्द-ओ-जहद का आग़ाज़ करती हैं। बनाने वाले ने बनाने से पहले जब उसका तसव्वुर किया होगा, तो वो अपने हसीन ख़याल पर झूम उठा होगा। और वो हसीन ख़याल आज अन-गिनत ख़यालों और ख़्वाबों का मर्कज़ बना हुआ है। ये ख़याल सदियों का पुराना है अगरचे इससे गुरेज़ करने के लिए लाखों मिशनरियों और बे-शुमार किताबों की इमदाद हासिल की गई लेकिन ये जंग टली। ख़ुदकुशी का जज़्बा गया, तलाश और फ़रार की आरज़ू शिकस्त हुई।”

    “सागर!”

    सागर की बातें ख़ामोशी के समंदर में लहरों के गीतों से मुशाबेह थीं। ये गीत तरन्नुम और बहुत गहरे थे। कमलेश का जी चाहा कि रास्ते में कहीं बैठ जाएँ। सागर की बातों से उसे यूँ महसूस हो रहा था जैसे वो कोई मा'मूली लड़की थी। दुनिया की क़दीम तारीख़ों में औ'रत ही हर जगह मौजूद रही थी। इसलिए वो बजा तौर पर फ़ख़्र कर सकती थी। लेकिन सागर जो इतनी देर से बोलता चला रहा था, ख़ामोश क्यों नहीं होता। क्यों उससे जवाब-तलब करे। लेकिन उसकी बातें मीठी और दिल-फ़रेब थीं। इसलिए कुछ बोली। उसे टोका।

    उसके बोलने से कमलेश के दिल में एक ऐसी उमंग और ख़ुशी भर जाती थी कि उसे अपने आप में एक नयापन नज़र आने लगता था। सागर उसे सुर्ख़ फूल कह कर उसके जज़्बात को गुदगुदाया करता था। और उसका जी चाहता था कि पतली ख़मीदा डंडी पर लचकती हुई अपनी पंखुड़ियाँ समेट कर एक गहरे और सात रंगों वाले ख़याल में डूब जाए। इस सात रंगों वाले ख़याल में एक नई दुनिया थी, नई ज़िंदगी थी और नया माहौल था। एक ऐसा माहौल जिसमें डर था, फ़िक्र था, ख़ौफ़ था और बाप। और बाप की खांसी और फटकार थी। वो रास्ते भी नए थे। साफ़ हमवार और घूमते हुए और ज़िंदगी की मानिंद ज़िंदा और फ़रोज़ाँ...।

    उसका जी चाहता कभी सागर से पूछे कि ये रास्ते और रंग जो ख़यालों में बनते और बिगड़ते हैं, बाहर निकल कर इस रंग-ओ-बू की दुनिया में क्यों नहीं जाते। कितनी ज़िंदगियाँ इन्ही ख़यालों में गुम हैं। सदियों से उनकी उम्मीदें और आरज़ूएँ मुंतज़िर हैं कि कभी कोई अजूबा क्यों नहीं हो जाता।

    आकाश की नीली पहनाइयों में ढकी हुई चाँदनियाँ ज़मीन पर बिखर जाएँ। शफ़क़ के सोने ज़मीन वालों को अपने रंग में रंग दें। और दुनिया कुछ ऐसी दुनिया बन जाए कि पहली दुनिया याद रहे। ख़यालों में से उतर जाए और ख़ौफ़, डर और तमाम रुकावटें हमेशा हमेशा के लिए दब जाएँ। लेकिन सागर फ़लसफ़ी था। उसकी हर बात काटता था। उसके हर सवाल का अ'जीब सा जवाब देता था। उसकी मंतिक़ में एक ऐसी जमालियत और महवियत थी कि वो अपना सवाल और इंकार भूल जाती थी। उसे उसकी हर बात तस्लीम करनी पड़ती थी। वो उसके आगे हार कर बैठ जाती थी।

    गर्मियों की छुट्टियों के बा'द जब वो फिर कॉलेज में आई तो उससे सागर के साथ आँखें मिलाई जा सकीं। साईंस की लैबारटरी में काम करते हुए उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे सारे हाल में सिर्फ़ उसी का साँस चल रहा था। और तो कोई साँस लेता भी था। वो बाईं तरफ़ सर उठाती तो प्रोफ़ैसर डी. डी. की निगाहें लगी हुई थीं। दाईं जानिब शरारती लड़के शीशे की ट्यूबें तोड़ रहे थे। और सामने सागर था, सागर की आँखें थीं, सागर के हाथ थे और सागर का ख़ाकी गारनिश कलर सूट था और ताज़ा ख़ून से मुशाबेह सुर्ख़ बोती... वो निगाह उठाती तो उसके हाथ काँप जाते थे। जैसे सागर उसका इमतिहान ले रहा था, और वो अपनी इस कमज़ोरी को छिपाने के लिए उँगलियों से काम ले रही थी।

    वो उँगलियाँ, जो गर्दन, सर, बाज़ू, कमर और टाँगों पुर-बार बार पहुँच कर खुजाने लगती थीं। ये एहसास की खुजली थी। एक ऐसी ज़हनी कोफ़्त थी जो उसे तमाम अपरेटस तोड़ फोड़ कर बाहर भाग जाने पर मजबूर कर रही थी। और इसका सबब सिर्फ़ इतना था कि पहाड़ पर से वापिस आकर छुट्टियों के बा'द उसने अपने जाने-पहचाने सागर को नमस्ते कही थी। या ऐसी निगाहों से ताका था जिनका मतलब “हेलो” से लिया जा सके। और अब वो छुपना चाहती थी। सागर की निगाहों से बचना चाहती थी। लेकिन जब वो हाथ धोने के लिए टब की तरफ़ चली तो सागर ने उसे जा लिया। और उसके लिए पानी की टोंटी खोलते हुए बोला, “नमस्ते कमलेश कुमारी।”

    “नमस्ते!” वो नमस्ते कहते हुए भी शर्मा गई, और उसे यूँ महसूस हुआ जैसे कानों पर किसी ने गर्म-गर्म अँगारे रख दिए हों। वो साबुन के झाग में ज़ोर-ज़ोर से उँगलियाँ रगड़ने लगी।

    “कल शांता कह रही थी कि तुम पहाड़ पर से वापिस गई हो। और मैं सारा दिन तुम्हारा इंतिज़ार करता रहा कि छुट्टी के आख़िरी ही दिन पिकनिक का कोई प्रोग्राम बन जाए। लेकिन तुम तो जैसे इन तीनों महीनों में सब कुछ भूल चुकी हो... कभी सागर का भी ख़याल आता रहा?”

    “हाँ वो सागर जो मुझसे मिले बग़ैर अपने नाना के हाँ पारा चनार चला गया था।”

    “अरे तुम उस सागर को पहचानती हो!”

    “जी ख़ूब पहचानती हूँ।”

    “उस सागर को वहाँ एक दिन भी क़रार आया।”

    “और मैं इस ख़ौफ़ से मरती रही कि कहीं तुम्हारी बे-क़रारी तुम्हें मेरे पीछे-पीछे खींच लाए। देखो सबकी निगाहें हम पर लगी हुई हैं। मुझे उस बैठी हुई आँख वाले लतीफ़ और मोटे गाऊदी निरंजन से बहुत ख़ौफ़ मा'लूम होता है।”

    सागर ने घूम कर देखा और बोला, “किसी की परवाह मत करो।”

    “ज़िंदगी से ये रंज, फ़िक्र और डर निकल भागे तो रूह को कुछ सुकून और शांति मिल सके।”

    सागर हँसने लगा। बोला, “अगर ऐसा हो गया तो दुनिया में सिर्फ़ हिजड़े ही बाक़ी रह जाएँगे।”

    “क्यों?”

    “इसलिए कि इनके बग़ैर इंसान का इंसान से रिश्ता कट जाता है। सब एक दूसरे के लिए अजनबी बन जाते हैं। उस वक़्त ख़ून में जकड़े हुए रिश्ते भी एक दूसरे को पहचानने से इंकार कर देंगे। इस रंज ने इंसानियत और फ़िक्र ने तरक़्क़ी-याफ़्ता आलम और डर ने बंदूक़ और तोप के बा'द एटॉमिक बम ईजाद कर लिया है और इन सबकी बुनियाद गोश्त-पोस्त का लोथड़ा... दिल है। ये दिल जो तुम्हें मेरे क़रीब लाया है!”

    ये कह कर सागर ने उसे मुँह बनाकर चिड़ा दिया और बाहर निकल गया। और वो सोचती और मुस्कुराती रह गई। लैबारेटरी से बाहर आकर सागर सोच में पड़ गया। ये सोच अचानक पैदा हुई और उसी दम उसका चेहरा मुरझा गया। उसके चेहरे पर एक ऐसी शदीद संजीदगी का तअस्सुर लिप गया कि देखने वालों के लिए वो सागर रहा। बल्कि यूँ मा'लूम होता था कि अगर उसके हाथ से किताबें रखवा दी जाएँ तो हारा हुआ जुवारी था, या जैसे गिरफ़्तार-शुदा ब्लैक मारकेटी हो या जैसे शराबी का ख़ुमार टूट गया हो और वो ताज़ा शराब ख़रीदने के लिए ख़ाली जेब टटोल रहा हो...

    उसने मुड़कर देखा। लैबारेटरी में कमलेश किताबें खिड़की पर रखकर गर्दन में उलझा हुआ साड़ी का आँचल दुरुस्त कर रही थी और दूसरी जानिब मुँह फेरा तो प्रोफ़ैसर घोष लैक्चर रुम में दाख़िल हो रहे थे। वो जल्दी से पाँव मारता हुआ कमरे में सबसे आख़िरी बेंच पर जा बैठा और जब प्रफेसर घोष ने डैस्क पर कुहनियाँ रखकर तमाम तालिब-ए-इ'ल्मों का जाएज़ा लिया तो इसकी निगाहें सागर पर कुछ वक़्फ़े के लिए जम कर रह गईं। जैसे पूछ रही हूँ। आज सागर सबसे पीछे क्यों है...।

    कमलेश का ये पीरियड ख़ाली था, उसे अब यक़ीनन घर चले जाना था। वो घर चली गई होगी। उसने मुँह फेरा। कॉलेज का सेहन ख़ामोश और ख़ाली था और यूँ मा'लूम होता था जैसे अभी-अभी कोई गुज़र कर लाइब्रेरी की दीवार के साथ-साथ घूम गया हो। और प्रोफ़ैसर के खाँसने की आवाज़ आई जैसे वो अपना लेक्चर शुरू’ करने वाला हो। सागर ने एक-बार सर उठाकर प्रोफ़ेसर की तरफ़ देखा और फिर सर झुकाकर बैठ गया। उसके दिमाग़ में बे-शुमार ख़यालात चक्कर लगा रहे थे। उल्टे सीधे ख़यालात जो सर रखते थे पाँव। बे-हंगम से, आवारा से और बे-रब्त से।

    उसका जी चाहता था। उठकर प्रोफ़ैसर के गले से लिपट जाए और उसे बे-इख़्तियार चूमने लगे और मुहब्बत भरे लहजे में पूछे... औ'रत के जब लब कपकपाते हैं, जब वो आँखें मिलाने से गुरेज़ाँ नज़र आती है, जब वो मिलने से ए'तिराज़ करती है और जब वो ख़ौफ़ और डर का मुज़ाहरा करती है तो उस वक़्त उसकी दिली कैफ़िय्यतों का पस-ए-मंज़र क्या होता है?

    क्या औ'रत की हक़ीक़त सिर्फ़ इतनी है कि उसे चाँदी का चमकता हुआ कप समझ कर मैदान से या घर से या गलियों में से... जीता जाए, माँगा जाए या छीना जाए। क्या औ'रत मर्द की दिली मसर्रतों का मस्ती भरा नग़्मा नहीं। जो उसके होंटों पर सत्ह बहर की लहरों की मानिंद कभी-कभी थरथराता है। इंसानी ज़िंदगी में वो लम्हे कितने हैं जो हक़ीक़ी ख़ुशी के आईना-दार होते हैं। बहुत कम और... शाज़ इन लम्हों का वजूद औ'रत से शुरू’ होता है। औ'रत के ख़याल से होता है और औ'रत की उम्मीद से होता है। दौलत या जाएदाद से नहीं और यही औ'रत आज समाज के अंदर एक ठीकरी, अख़बार, बर्फ़ और ताज़ा पालिश की हुई नीलाम घर की कुर्सी की तरह बे-क़ीमत, मायूस और सर्द पड़ी है, ठोकरें खा रही है और जी रही है। तोड़ी और फोड़ी जा रही है, और चल रही है।

    उसे घरों, गलियों, बाज़ारों और सड़कों, क्लबों और स्टेजों से ऊपर क्यों नहीं उठा दिया जाता। उसका मक़ाम बुलंद होना चाहिए। हमारे ख़यालों और इरादों से भी बहुत ऊँचा। वहाँ होना चाहिए जहाँ सात रंग एक दूसरे के बहुत क़रीब जाते हैं जिन्हें हम देख सकते हैं, गंदे और नापाक हाथों से छू नहीं सकते। बहुत तंग-नज़र और जल्द फ़ना हो जाने वाले होते हैं। वो लोग जो औ'रत को बाज़ार में चल सकने वाला सिक्का या एहसासात की खुजली का नाम देते हैं...।

    प्रोफ़ैसर ने कंपनी की तारीख़ ज़ोर से डैस्क पर पटख़ दी और सागर के पास आकर बोला, “तुम्हारा ज़हन किधर है?... तुम क्या सोच रहे हो?”

    सागर घबराकर उठ खड़ा हुआ और किताबें उठाकर बोला, “मेरे सर में सख़्त दर्द है जनाब मुझे ग़ैर-हाज़िर रहने की इजाज़त दीजिए।”

    प्रोफ़ैसर घोष ने उसे घूर कर देखा और कहा, “अच्छा जाओ।” और अगली क़तार में बैठे हुए निरंजन ने मुस्कराकर लतीफ़ को आँख मारी और सागर शुक्रिया कह कर बाहर निकल आया। दफ़्तर के बाहर प्रोफ़ैसर शर्मा और लैबारेटरी अस्सिटैंट खड़े हँस रहे थे। और लगन लाल बोलचंदानी जो हर साल कॉलेज की “डीबेट” मैं फ़र्स्ट आता था, डाकिए से मनी आर्डर पर आए हुए रुपये गिन रहा था। सागर साईकल शैड में जा घुसा और देखा कि उन्नीसवाँ नंबर ख़ाली था। कमलेश अपना साईकल उठाकर चली गई थी। उसने अपना साईकल निकाला और किताबें कैरीयर पर स्प्रिंग के नीचे रखीं तो गद्दी के नीचे कोई काग़ज़ चुर-मुर चुर-मुर बोला। उसने हाथ मारा तो ये विलियम पेचट के नावल Cries from the Shadows का एक वरक़ था। इस वरक़ पर फ़रीची के तारीख़ी अ'ज़्म का ज़िक्र था। जब वो अपने महबूब कर्ट्स की उस ख़्वाहिश को ठुकरा देती है कि वो रात पिछ्ला पहर उसके साथ घर से बाहर आकर उस सामने नज़र आने वाले बाग़ में गुज़ार दे जहाँ चाँद अपनी ठंडी और मीठी चाँदनी बरसा रहा था। लेकिन फ़रीची ने उसे झिड़क दिया कि कल अगर उसने लौरंस को शिकस्त दे दी तो वो मैदान-ए-जंग ही में उसके साथ हमेशा के लिए वाबस्ता हो जाएगी। ये कह कर उसने खिड़की बंद कर दी और कर्ट्स अपनी तलवार की धार पर उँगलियाँ फेरता हुआ वहाँ से चला गया।

    सागर ये वरक़ देखकर मुस्कुराया और उसे तह करके जेब में रख लिया। आज शाम को पुलिस ग्रांऊड में हाकी का मैच था और विलियम पेचट के नावल का ये वरक़ कमलेश के वहाँ मिलने का पैग़ाम देता था। मिलने की दा'वत देता था। और इंतिज़ार की वो घड़ियाँ बख़्शता था जो सागर के पास पहले ही बहुत काफ़ी थीं। लेकिन अब के ये घड़ियाँ इस क़दर तवील हुईं कि सागर को ताज़ा पालिश किए हुए बूट और प्रैस की हुई दोरंगी यूनीफार्म बोझल सी मा'लूम होने लगी। वो बार-बार खिड़की से झाँक-झाँक कर देखता और बड़बड़ाता कि जाने मजीद और ज़ाकिर को क्या हो गया था। शायद वो अकेले ही ग्रांऊड में चले गए होंगे। लेकिन उन्हें आना ज़रूर चाहिए था। वो अकेले कभी जाते थे। वो बार बार हाकी की ब्लेड पर ऐसी निगाह डालता जैसे आज वो किसी बहुत बड़े मुक़ाबले में शरीक हो रहा हो और मुक़ाबले के लिए उसे कोई बहुत क़ीमती इनाआ'म मिलने वाला हो। जैसे वो हाकी के मैदान में नहीं बल्कि अगले वक़्तों के किसी राजा की स्वयम्बर सभा में शुजाअ'त का जौहर दिखाने जा रहा हो।

    जब तमाशाइयों के पुर-शोर आवाज़ ने... हुर्रा सागर... शाबाश ज़ाकिर... बक अप मजीद और मोहन सिंह जा मिलो... और तालियाँ और फिर शोर... एक क़यामत का शोर... गोल गोल गोल... और फ़िज़ा में नाचती हुई... सीटियाँ थम गईं और एक तवील विसल बजी और खिलाड़ी आगे पीछे दो क़तारों में जुड़ गए। और एक साहिब ने जो पोशाक और खाँसने और देखने के अंदाज़ से कोई हाकिम-ए-आ'ला मा'लूम होते थे, बारी बारी सबको इनआ'मात तक़सीम कर दिए और सागर चाँदी का चमकता हुआ एक बहुत बड़ा कप उठाए दोस्तों के घेरे से बाहर निकला तो कमलेश उसका साईकल उठाए एक तरफ़ खड़ी घंटी टिनटिना रही थी और उसे देखते ही एक लतीफ़ और प्यारी मुस्कुराहट उस आग के पतले-पतले होंटों पर नुमूदार हुई और सागर उधर ही लपका, “हेलो कमलेश!”

    “शुक्र है तुम्हारे दोस्तों ने तुम्हें मुझ तक पहुँचने के लिए रास्ता दे दिया। और मैंने कहा मुबारक हो!”

    “शुक्रिया...”, वो एक तरफ़ दरख़्तों से घिरी हुई सड़क पर हो लिए। कमलेश चमकती हुई बोली, “मैंने कहा, आज के मैच में तो आपने कमाल कर दिया। वो हाथ दिखाए कि भई क्या बात है, मैं तो दंग रह गई।”

    ”मैंने कहा... शुक्रिया”, सागर ने उसकी नाचती हुई आँखों को क़द्र-ए-हैरत से घूरा। और वो आँखें चुराते हुए बोली, “लो सँभालो अपनी साईकल!”

    “लो पकड़ो ये कप और बैठ जाओ आगे!”

    कमलेश कप लेकर आगे बैठ गई, और सागर साईकल को ख़यालों की तरह उड़ाता हुआ शहर से बाहर दूर-दूर तक लेटे हुए सर-सब्ज़ बाग़ों के दरमियान ले आया। कमलेश ने कप उछालते हुए पूछा, ”तुम्हारे पास ऐसे बे-शुमार इनाआ'म हैं। जी नहीं भरा अभी।”

    “सबसे बड़ा इनाआ'म तो अभी जीतना है।”

    “वो कौन सा?”

    “है एक!”

    “मैं भी तो सुनूँ।”

    “बता दूँ?”

    “हाँ!”

    “नहीं बताता।”

    “ख़ैर बताओ।”

    “ख़ैर बताए देता हूँ।”

    “मैंने कहा। मैं नहीं सुनना चाहती।”

    “मैंने कहा। तुम्हें सुनना पड़ेगा।”

    “मैंने कहा। मैं नहीं सुनना चाहती।”

    “मैंने कहा मैं यहीं छोड़ दूँ क्या साईकल को... लो ये गया।”

    कमलेश साईकल के हैंडल से चिमट कर चिल्लाई, “उई। हाय। मत गिराना। लो बस बता दो। मैं सुनने के लिए तैयार हूँ...”, और सागर ने हँसते हुए कहा, “अब आई होना सीधे रास्ते पर। सुनो वो इनाआ'म...!”

    “हाँ वो इनाआ'म...”

    “वो क़ीमती और ख़ूबसूरत इनाआ'म... तुम हो!”

    कमलेश ने सर हिलाया, “वाह ये इनाआ'म तो तुम्हें मिलने से रहा।”

    ये सुनकर सागर ने रेत का एक टीला देखकर साईकल गिरा दी और मस्नूई ग़ुस्से से बोला, “क्यों...? मैं तुम्हें छीन कर ले जाऊँगा। हरीफ़ के क़त्ले कर दूँगा।

    कमलेश अपनी पसलियाँ-सँभालते सँभालते चौंक पड़ी और टीले की परली तरफ़ माथे पर हाथ रखकर शफ़क़ के सोने में घूरा। फिर यूँ घबराकर सागर की तरफ़ देखा जैसे अनजाने में किसी ने डस लिया हो।

    “सागर!”

    “क्यों क्या हुआ?”

    “वो देखो!”

    “देख रहा हूँ।”

    “मेरा मामूँ है।”

    सागर ने उठकर देखा और एक ठंडा साँस भरते हुए कहा, “मा'लूम तो वही होते हैं।”

    “मुझे छिपा लो। क्या कोई ओट नज़र नहीं आती?”

    “उसकी क्या ज़रूरत है? छुपानी वो बात चाहिए जिसे हम आइंदा करें, क्या अब जो कुछ पेश आएगा, उसके बा'द मुझसे दूर हो जाओगी?”

    कमलेश ने दोनों हाथों में मुँह छिपा लिया और सिसकने लगी।

    “उन्होंने हमें पहचान लिया है।”

    “नहीं, उन्होंने हमें नहीं पहचाना। सही तौर पर पहचानते तो शायद इधर आते।”

    और कमलेश के मामूँ का साया जूँ-जूँ आगे बढ़ता आया, उसकी सिसकियाँ बुलंद होती गईं। और जब वो बिल्कुल क़रीब गया तो कमलेश एक तरफ़ सर झुका कर खड़ी हो गई। और इसके मामूँ के चेहरे पर एक ऐसा ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब नुमूदार हुआ कि दोनों के साँस रुक गए और रूहें हल्क़ पर आकर अटक गईं। और एक ज़न्नाटे-दार थप्पड़ सागर के मुँह पर पड़ा। सागर गिरते-गिरते सँभला। उसने एक और थप्पड़ उठाया। कमलेश ने कमाल-ए-बेचारगी और मुल्तजी निगाहों से मामूँ की तरफ़ देखा और उसके मामूँ का उठाया हुआ हाथ गिर गया। और वो जैसे नफ़रत भरी पीक फेंकते हुए बोला, “मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद थी कि ज़मींदार साहिब का पोता हमारे घर डाका डालेगा।”

    उसने मुड़कर कमलेश को एक धक्का लगाया वो रेत पर मुँह के बल गिर पड़ी। रेत उसके मुँह, नाक और आँखों में घुस गई। वो थूकने लगी और आँखें मलने लगी और उसके मामूँ ने उसे बाज़ू से पकड़ा और घसीटता हुआ ले चला। सागर ख़ामोश खड़ा देखता रहा। और कमलेश रेत भरी आँखों से मुड़-मुड़ कर इस तरह देखती गई जैसे क़स्साब भेड़ को बूचड़खाने की तरफ़ घसीटे ले जा रहा हो। और वो दूर होते-होते आँखों से बिल्कुल ओझल हो गई। और शाम की सुरमई फ़िज़ा में घरों को लौटते हुए ढोर डंगरों के गले में बँधी हुई घंटियों की सदा गूँजने लगी। सागर ने साईकल उठाया और चाँदी का कप लड़खता हुआ टीले के नीचे चला गया।

    घंटियों की सदा में एक वहशत-नाक उदासी थी। वो ख़ुद भी उदास था। सारी फ़िज़ा ही उदासी से भरी हुई नज़र आती थी। वो चल रहा था और यूँ महसूस हो रहा था जैसे उसके पाँव मनों भारी हो गए हों। जी चाहता था, वहीं बैठ जाए... जी चाहता था ज़ोर ज़ोर से चिल्लाए... और जी चाहता था कपड़े फाड़ कर नंग-धड़ंग शहर की तरफ़ भागता हुआ चला जाए लेकिन उससे कुछ भी हो सका।

    वो चलता गया। अपने आप को घसीटता हुआ, अपनी नाश को ख़ुद काँधों पर उठाए... चेहरे और दिल पर ग़म का एक शदीद तअस्सुर लिए... अपने घर चला गया। लेकिन वहाँ पहुँच कर भी उसे सुकून नसीब हुआ। दिल के अंदर जैसे एक आग सी लगी हुई थी। जिसकी तपिश से उसके एहसासात झुलसे जा रहे थे। बहुत रात गए तक वो बिस्तर पर करवटें बदलता रहा। सोचता रहा। कुढ़ता रहा और बल खाता रहा। मअ'न क्लाक ने दो बजाए और वो बिस्तर से उठकर कुर्सी पर बैठा। बग़ल के कमरे में से इसके पिताजी के ख़र्राटे भरने की आवाज़ रही थी। और ये आवाज़ उस ख़ामोशी में यूँ मा'लूम होती थी, जैसे उसके एहसास पर हल्की हल्की ज़र्बें लगाई जा रही हों। उसने अपने आपको कुर्सी की पुश्त पर गिरा दिया, और एक जमाई ली और गुनगुनाने लगा।

    था जुनूँ मुझको मगर क़ाबिल-ए-ज़ंजीर था।

    गुनगुनाते हुए वो चौंक पड़ा। गली में किसी के चलने की आवाज़ रही थी और पाँव की चाप नज़दीक आते-आते उसके दरवाज़े पर आकर रुक गई और उसका साँस भी रुक गया कि जाने एक लम्हे बा'द कौन नुमूदार होता है। किसकी आवाज़ आती है। दरवाज़े पर एक हल्की सी ठक हुई और उसने बढ़कर दरवाज़े की चटख़्नी हटा ली। भोसले रंग के एक पुतले कम्बल में लिपटी हुई कमलेश खड़ी सर्दी से दाँत किटकिटा रही थी और उसे देखकर सागर को यूँ महसूस हुआ जैसे किसी ने उसकी ग़लती मुआ'फ़ कर दी हो। उसका दिल और ज़हन एक दम साफ़ हो गया और उसने उसे अंदर खींचते हुए पूछा, “मा'लूम होता है तुम घर छोड़कर आई हो!”

    कमलेश ने कम्बल से एक थैली निकाल कर मेज़ पर पटख़ दी जिसमें से जे़वरात और रूपयों के बजने की आवाज़ आई। और वो मरी हुई आवाज़ में बोली, “वक़्त तेज़ी से सरक रहा है। मा'लूम मेरे आने के बा'द वहाँ क्या हो रहा होगा। कुछ हो गया तो वो सीधे यहाँ आएँगे।”

    सागर एक लम्हे के लिए रुका और फिर दूसरे कमरे में चला गया। कमलेश ने दीवार पर लटका हुआ उसका ओवर कोट और फ़्लीट उतारी और थैली कोट की जेब में डाल दी। थोड़ी देर बा'द सागर नोटों के चंद बंडल उठाए हुए अंदर दाख़िल हुआ और वो भी कोट में डाल दिए और दोनों बाहर निकल आए। बाहर हवा चल रही थी और सर्दी बढ़ रही थी। कमलेश और दाँत किटकिटाने लगी।

    “सागर!”

    सागर ने उसके शाने पर हाथ रखकर पीछे मुड़ कर देखा। पीछे छोड़ी हुई इमारतें तारों की मद्धम रौशनी में बहुत ख़ौफ़-नाक दिखाई देती थीं। मुहल्ले के गली कूचों से निकल कर जब वो सड़क पर गए तो उन्होंने एक दूसरे की तरफ़ देखा और हँस पड़े। उस हँसी में बे-पनाह तंज़ था। जैसे वो इस फ़रार पर हक़-ब-जानिब थे। ये रस्ता इख़्तियार करके उन्होंने अपनी मुसीबतों और पाबंदियों के रस्से काट डाले थे। और अब वो मुतमइ'न थे। पीछे मुड़कर उन्होंने फिर देखा और फिर हँसे। और फिर सीधी जाने वाली सड़क की तरफ़ देखा जहाँ दूर एक फ़ासले पर स्टेशन की रंग-बिरंगी बत्तियाँ चमक रही थीं। और अचानक कहीं पास से बहुत से आदमियों के हँसने की आवाज़ आई। दोनों ने घबराकर इधर-उधर देखा। और सड़क के पार ग्रैंड होटल के गेट की मद्धम रौशनी के इर्द-गिर्द चंद यंकी मंडलाते हुए दिखाई दिए। सड़क पर चलते चलते कमलेश सागर की दूसरी तरफ़ गई और उसका पाँव साड़ी में उलझ कर लड़खड़ाया और एक यंकी Yankee वहीं से चीख़ा।।

    “य... य!” और उन्होंने अपनी टार्चों की रौशनियाँ उन पर फैंकीं। सागर उन रौशनियों के दरमियान ग़ुस्से से बल खा रहा था और कमलेश ने चकाचौंद से घबराकर आँखों पर दोनों हाथ रख लिए थे। सागर बोला, “जल्दी चलो कमलेश... ये उल्लू के पट्ठे नशे में बद-मस्त मा'लूम होते हैं।”

    सागर के तेज़-रफ़्तार क़दमों के साथ साथ कमलेश भागने लगी... टप-टप-टप उसका साँस चलने लगा और यंकी दौड़कर उनके सामने गए।

    “किधर जाना है!”

    “गर्ली... राउंड गर्ली... ब्वॉय!”

    सागर ने मुट्ठियाँ कस लीं और अचानक उसके पीछे से गर्दन पर एक ज़बरदस्त मुक्का पड़ा। वो लड़खड़ाकर गिर पड़ा। कमलेश की चीख़ निकल गई। और फिर बे-शुमार चीख़ें निकलीं और ला-ता'दाद मुक्के और घूँसे आज़माए गए। फिर एक कड़ी जद्द-ओ-जहद के बा'द ये चीख़ें रुक गईं। कमलेश को वो यंकी उठाकर होटल में ले गए और सागर ज़ख़्मों और दर्द से निढाल हो कर सड़क के दरमियान गिर पड़ा। उसकी जेब से थैली छनकती हुई बाहर पड़ी, और उसका हाथ निहायत बेचारगी से पास पड़ी हुई फ़ौजी टोपी पर दो-चार बार पड़ा। फिर एक धुआँ-धार शोर सा उसके दिमाग़ में घुस गया और उसे दम घुटता हुआ महसूस होने लगा। फ़िज़ा में एक सुकूत था, मौत थी और मुंजमिद कर देने वाली हवा साएँ साएँ कर रही थी और... दूर एक ख़ास फ़ासले पर स्टेशन की मद्धम और रंगदार बत्तियाँ अभी तक चमक रही थीं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए