औरत
स्टोरीलाइन
औरत के मान सम्मान और बदले को बुनियाद बना कर लिखी गई कहानी है। तसद्दुक़ और क़ुदसिया आपस में मुहब्बत करते हैं लेकिन किसी कारणवश दोनों की शादी नहीं हो पाती और काज़िम क़ुदसिया का शौहर बन जाता है। शादी के बाद क़ुदसिया तसद्दुक़ को बिल्कुल भुला देती है। तसद्दुक़ पर इस घटना की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया ये होती है कि वो ग़लत-रवी का शिकार हो जाता है। काज़िम प्रायः तसद्दुक़ को बहाना बना कर क़ुदसिया पर तंज़ करता रहता है जिसे क़ुदसिया नज़र-अंदाज कर देती थी। एक दिन जब तसद्दुक़ क़ुदसिया से मिलने आता है तो काज़िम क़ुदसिया को ज़हरीली नागिन के नाम से मुख़ातिब करते हुए पूछता है कि बताओ उससे क्या बातें हुईं। क़ुदसिया कहती है कि जब आप अपनी रातें आवारा औरतों के साथ गुज़ारते हैं, तो मैं तो नहीं पूछती कि क्या बातें हुईं। इस पर काज़िम बिफर जाता है। क़ुदसिया पुलिस स्टेशन फ़ोन कर देती है कि काज़िम मुझे क़त्ल करना चाहता है और फिर पिस्तौल से ख़ुद को गोली मार लेती है। क़त्ल के जुर्म में पुलिस काज़िम को गिरफ़्तार कर लेती है।
“तसद्दुक़ भाई! ये कंघी से ना-आश्ना बिखरे हुए बाल, ये कसीफ़ पोशाक और ये बढ़ा हुआ ख़त, मैं पूछती हूँ आपको क्या हो गया है?”, क़ुदसिया ने तसद्दुक़ को हैरत से देखते हुए कहा। जो एक मुद्दत के बा’द उसके सामने था।
“क़ुदसी! अंजान न बनो। मैं अपने मुज़्तरिब दिल को तस्कीन देने आख़िरी बार आया हूँ और अभी चला जाऊँगा। हाँ एक-बार फिर अपने उन्हीं दिल-नवाज़ जुमलों से मेरे कानों में रस टपकाओ कि तसद्दुक़ मैं तुम्हारी हूँ।“
“क्या कह रहे हैं आप? सोचिए तो छूटे गाँव से क्या नाता?”
“नहीं क़ुदसी! एक-बार फिर वही कह दो ए’तिराफ़-ए-मोहब्बत की तजदीद मेरी तारीक ज़िंदगी में रौशनी की एक किरन होगी।”, उसके पाँव लड़खड़ा रहे थे। और मुँह से शराब की तेज़ बू आ रही थी।
“आपने शराब कब मुँह से लगाई?”, क़ुदसिया ने जानते हुए पूछा।
“तुम मेरी दुखती रगों को न छुओ क़ुदसी! लेकिन अगर तुम अपने मा’लूम करने के तिफ़्लाना जज़्बे को तस्कीन देने पर ही मुसिर हो तो सुन लो मेरी ज़िंदगी की चँद तवील चीख़ें।”
“आप अपनी गुफ़्तगू को दर्दनाक बना कर अपनी लग़्ज़िशों पर पर्दा नहीं डाल सकते?”, वो ग़ुस्से से बोली।
“तुम जी खोल कर कह लो, जो कुछ भी कह सकती हो। मुझे ए'तिराफ़ है कि मैंने तुम्हें भूलने के लिए शाहदान बाज़ारी की पुर-पेच ज़ुल्फ़ों में गुम हो जाना चाहा। शराब पी और कुछ देर के लिए तुमको भूल गया। लेकिन शराब का आरिज़ी नशा तुम्हारी याद के दाइमी नशे पर फ़त्ह न पा सका और फिर वही याद जान-लेवा...”
क़ुदसिया की पेशानी पर शिकनें पड़ गईं। वो उसकी बात काट कर तेज़ी से बोली, “होश की दुनिया में क़दम रखिए।”
फिर तसद्दुक़ की तरफ़ से मुँह फेर कर आतिश-दान पर रखी हुई अपने शौहर काज़िम की तस्वीर को देखते हुए कहने लगी, “मुद्दत हुई मैं अपने आपकी याद को माज़ी के मलबे में दफ़्न कर दिया क्योंकि पाकीज़ा मुहब्बत भी कोई न कोई क़ुर्बानी चाहती है। लेकिन आप ने मुहब्बत की नाकामी का ढोंग रचा कर अय्याशी करना शुरू’ कर दी। नफ़्स का बिचारी मर्द मुहब्बत में नफ़्सानी ख़्वाहिशात की तस्कीन न पा कर आपे से बाहर हो गया।”
तसद्दुक़ क़ुदसिया का सुर्ख़ चेहरा देखकर मबहूत रह गया। क्या वो यही सुनने के लिए आया था। क्या उसने इस दिन के लिए अपनी इ’ज़्ज़त-ओ-दौलत का ख़ून किया था। क्या वो इस औ’रत का नाम लेकर जी रहा था।
“बस करो, मैं ये वा’ज़ सुनने नहीं आया हूँ। बल्कि अपनी ज़ख़्मी रूह पर तुम्हारे इक़रार-ए-मुहब्बत का फाहा रखने की उम्मीद पर आया हूँ।”, कहते-कहते उसकी आवाज़ आँसूओं में डूब गई। एक लम्हा रुक कर पिघला देने वाली आवाज़ में बोला, “क़ुदसी क्या शहद की नहर का एक क़तरा भी मेरी तल्ख़ ज़िंदगी को नहीं बख़्शा जा सकता?”
क़ुदसिया ने मुँह फेर कर ख़ुश्क लहजे में कहा, “आप मुझे ख़यानत का मुर्तकिब देखना चाहते हैं।”
वो अपने इम्कान से कहीं बढ़कर बोल गई।
“क्या तुम अपने वो अल्फ़ाज़ भूल गई कि मेरी रूह तुम्हारी है।”, तसद्दुक़ ने माज़ी के तरकश का आख़िरी तीर छोड़ दिया। क़ुदसी का सफ़ेद चेहरा सुर्ख़ हो गया। जैसे वो सीने के अंदर फूटने वाले जज़्बात के सोतों को वहीं दबा देने की कोशिश कर रही हो। उसकी आँखों पर ग़म-आलूद धुंद छाई हुई थी।
“कहा होगा। लेकिन तजुर्बे ने क़बूल की तरदीद कर दी। काज़िम मेरे जिस्म का मालिक है और जिस्म की हुक्मरान रूह, तो जिस्म-ओ-रूह को अलग कर देने से कुछ भी नहीं रह जाता।”
क़ुदसिया तसद्दुक़ की तबाही से वक़्ती तौर पर मुतअस्सिर हो कर अपनी ज़बान को धोका दे रही थी।
“क्या ये तुम्हारा फ़ैसला है।”, तसद्दुक़ ने उम्मीद भरी आवाज़ में कहा।
“हाँ!”, उसके हल्क़ को चीरता हुआ निकला। वो उस वक़्त महसूस कर रही थी कि उसने अपनी दुखों से भरी हुई ज़िंदगी की आख़िरी रंगीनी भी खो दी। उसकी आँखें ख़ुश्क थीं और दिल ख़ून के आँसू रो रहा था।
“काश मैं तुम्हारे मकरूह बातिन से फ़रेब की सुनहरी चादर पहले ही सरका सकता।”, तसद्दुक़ के सब्र का पैमाना छलक पड़ा। उसने क़ुदसिया को पहली बार कड़ी नज़रों से देखा। उसकी दोनों मुट्ठियायाँ भिंची हुई थीं। जैसे वो बेवफ़ा क़ुदसिया का सब कुछ मसल कर फेंक देना चाहता था। क़ुदसिया ने उसकी तरफ़ देखा तो ऐसा महसूस किया कि उसके अल्फ़ाज़ की ख़लीज जो दोनों के दरमियान हाइल थी ख़ुद-ब-ख़ुद पटती जा रही है और वो फिर उसकी तरफ़ बढ़ रही है।
“अब मुझे तुमसे नफ़रत है।”, वो फिर अल्फ़ाज़ की ओट में हो गई। तसद्दुक़ ने एक लम्हे तक क़ुदसिया को घूरा और फिर जाते-जाते कह गया, “तू ने मुझे मुहब्बत का फ़रेब देकर मेरी तबाही देखी। अब तू मेरी कामयाब ज़िंदगी से जलना डायन!”
उसके पीछे क़ुदसिया की कमज़ोर बाँहें इस अंदाज़ में फैली हुई थीं जैसे वो सब कुछ खो बैठी थी। शहद की नहर तसद्दुक़ को अपनी हलावत बख़्श चुकी थी।
तसद्दुक़ और क़ुदसिया ख़ाला-ज़ाद बहन भाई थे। क़ुदसिया को बचपन ही में तसद्दुक़ से मंसूब कर दिया गया था। वो दोनों एक साथ पले बढ़े, एक-दूसरे के दुख-दर्द में शरीक रहे और क्यूँ न रहते जब कि वो समझते थे कि चँद बरसों के बा’द उन्हें शादी की ज़ंजीरों में जकड़ दिया जाएगा। लेकिन! शादी की मुक़र्ररा तारीख़ से कुछ दिन क़ब्ल ज़माने के सर्द-गर्म बूढ़ों में एक ज़रा सी बात पर झगड़ा हुआ और इतना बढ़ा कि मंगनी के तोड़ पर आ कर ख़त्म हुआ। अठारह बरस का अ’हद आनन-फ़ानन में फ़रामोश कर दिया गया। क़ुदसिया और तसद्दुक़ के ख़्वाब-ए-मुहब्बत की ता’बीर दो दिलों की कभी न ख़त्म होने वाली एक कशिश थी।
इस झगड़े के फ़ौरन बा’द ही क़ुदसिया का रिश्ता एक अमीर-कबीर शख़्स के साथ कर दिया गया। बाजे बजे, आतशबाज़ी में आग लगाई गई, देगें खनकीं और बेबस क़ुदसिया को सुर्ख़ जोड़े में दुल्हन बना कर रुख़्सत कर दिया गया। बेचारी क़ुदसिया दिल ही दिल में घुटती और मुँह से कुछ न कहती। शौहर भी मिला तो इन्तिहा दर्जा का शक्की और कम-ज़र्फ़। बात-बात पर तसद्दुक़ के ताने, ज़रा देर भी ख़ामोश बैठी तो कहा गया अरी कमबख़्त किस का सोग मनाया जा रहा है। क़ुदसिया सुनती और ख़ून के से घूँट पी कर रह जाती। उसने लाख चाहा कि वो काज़िम के दिल से ये वाहियात ख़याल निकाल दे। लेकिन वहाँ तो उसकी हर सफ़ाई उसे और भी गुनहगार बना देती।
उधर तसद्दुक़ पर भी शादी के लिए ज़ोर दिया गया। लेकिन उसने वालिदैन के फ़ैसले के आगे सर न झुकाया। बल्कि क़ुदसिया से ज़बरदस्ती अलग कर देने की सज़ा में उसने बाप की दौलत धड़ल्ले से इधर-उधर उड़ाना शुरू’ कर दी। वो हफ़्तों घर में सूरत न दिखाता। हर तरफ़ तसद्दुक़ ही के चर्चे थे। बूढ़ा बाप अपने इकलौते बेटे की बर्बादी देखता और कुढ़ता। लेकिन तसद्दुक़ से सामना होने पर वो उस पर इसकी बर्बादी का इल्ज़ाम रखता। तसद्दुक़ पर बाप की सरज़निश बिल्कुल उल्टा असर करती। अगर बाप कभी उसके सामने अपनी ग़लती का ए’तिराफ़ कर लेते तो शायद कुछ न होता। लेकिन बड़े बूढ़े तो अपनी ग़लती को मानना ही अपनी हतक तसव्वुर करते हैं।
तसद्दुक़ की ग़लत-रवी की ख़बरें हर-रोज़ नमक मिर्च लगा लगा कर काज़िम क़ुदसिया से बयान करता। एक रोज़ तो काज़िम ने बाहर से आते ही बड़े तंज़ से कहा, “लो जी आज तो तुम्हारे चहेते ज़ोहरा जान के कमरे के नीचे शराब में मस्त नाली में मुँह डाले देखे गए हैं। वो तो कहो कि पुलिस के आने से पहले उनके अब्बाजान उन्हें घर उठवा ले गए। वर्ना तुम जानो।”
क़ुदसिया जल्दी से कमरे में घुस गई कि काज़िम की ज़हरीली गुफ़्तगू न सुन सके। उस दिन रात-भर वो यही सोचती रही कि हाँ तसद्दुक़ ने मेरी ही ख़ातिर अपनी ये हालत बनाई है। अब मैं ही उसे दुनिया के सामने इन्सान की सूरत में पेश करूँगी। आख़िर उसने मौक़ा मिलने पर वही किया जो सोचा था।
तसद्दुक़ के जाने के बा’द क़ुदसिया निढाल हो कर पड़ रही। आज वो अपनी आख़िरी पूँजी भी खो चुकी थी। बचपन की मुहब्बत जो दीवानगी की हद तक पहुंँच चुकी हो,उसे भूल जाना कोई बच्चों का खेल न था। दूसरे हर वक़्त के तान-तशनीअ, बेहूदा इल्ज़ामात ने उसके दिल में एक तूफ़ान सा बरपा कर दिया था। काज़िम की बदमिज़ाजी और शक्कीपन उसके लिए आहिस्ता-आहिस्ता आने वाली मौत थी। लेकिन वो अब तक जी रही थी। सिर्फ इस ख़याल के सहारे कि अभी दुनिया में कोई उसे दीवाना-वार चाहने वाला भी मौजूद है। ये एहसास उसकी हस्ती के बंजर मैदान में गुलाब के फूल की तरह था। लेकिन आज उसने अपने हाथों उस यक्का-ओ-तन्हा फूल की पंखुड़ियाँ नोच कर ज़माने की हवा के हाथों सौंप दें थीं। आज उसकी ज़िंदगी बिल्कुल सूनी और बे-मक़्सद थी।
शाम को काज़िम ग़ुस्से में लाल पीला होता घर आया। उसे किसी ने बताया था कि आज तसद्दुक़ उसके घर से निकलते देखा गया।
“क्यों जी आज तुम्हारे “वो” कैसे आए थे?”
क़ुदसिया मारे ख़ौफ़ के सफ़ेद पड़ गई।
“कौन?”, उसने डरते-डरते सवाल किया।
“अरे इतनी जल्दी भूल गईं? हो न हरजाई?”
उसे शादी के बा’द पहली मर्तबा क़ुदसिया की तरफ़ से एक बात मिली थी। भला कैसे इस मौक़े’ को हाथ से जाने देता। क़ुदसिया के सारे जिस्म का ख़ून सिमट कर चेहरे पर आ गया। जैसे उसकी रगों में सैकड़ों सूईयाँ दौड़ने लगीं। ताहम वो अपने ग़ुस्से को ज़ब्त कर के बोली, “यूँही मिलने आ गए थे।”
“क्या-क्या बातें हुईं?”, वो एक गंदी हँसी हँस कर बोला।
“वो अब मेरा भाई है। आप नाहक़ शक करते हैं।”, वो बात को ज़ियादा तूल न देना चाहती थी।
“बकवास मत करो, मैं पूछता हूँ इतनी देर तक क्या होता रहा?”, काज़िम ने झपट कर उसकी सूखी हुई कलाई मरोड़ दी।
“जल्दी बोल, वर्ना अच्छा न होगा।”
शादी के बा’द गालियाँ तो अक्सर मिला ही करती थीं लेकिन ये मार बिल्कुल नई थी। माँ बाप की लाडली जिसे कभी किसी ने उँगली न छुवाई थी, आज बिला-वज्ह इतना ज़ुल्म सह रही थी। वो तकलीफ़ से ज़र्द पड़ गई। लेकिन उसकी ख़ुद्दारी ज़िंदा हो गई।
“जब आप अपनी रातें आवारा औ’रतों में बसर करते हैं तो मैं नहीं पूछती कि उनसे क्या बातें हुईं!”
आदम के पहलू से निकली हुई हव्वा की बेटी अपने अज़ली मुसावियाना हक़ की दावेदार थी। लेकिन इब्न-ए-आदम जो औ’रत की पैदाइश के मक़सद को पहलू से गिरा कर पाँव से कुचलने का आदी था भला ये जाएज़ नुक्ता-चीनी क्यूँकि बर्दाश्त कर सकता था। वो सरापा शो’ला बन गया। बीवी की इतनी हिम्मत कि वो उससे बाज़-पुर्स करे? ये मर्द की आमिराना ज़हनियत पर एक ज़ोरदार तमाँचा था। काज़िम सदाक़त की तल्ख़ी बर्दाश्त न कर सका और कोने में रखा हुआ बेद उसके हाथ में था। फिर क़ुदसिया पर मार पड़ने लगी। वो चीख़ी चलाई लेकिन उसकी आवाज़ पर कोई क्यूँ दौड़ता भला, किसी को क्या ग़रज़ थी कि किसी की बीवी या बा-अल्फ़ाज़-ए-दीगर मिल्कियत के मुत’अल्लिक़ बाज़पुर्स करता। मार खाते-खाते उस का जिस्म सुन पड़ गया। अब वो हैरत-अंगेज़ सुकूत के साथ लचकते हुए बेद को घूर रही थी और काज़िम बे-दर्दी से उसके जिस्म पर ख़ूनीं बर्क़ें डाल रहा था।
“बोल जल्दी ज़हरीली नागिन।”
वो ज़बान पर चढ़ी हुई गालियाँ फ़र्राटे से बकने लगा। लेकिन क़ुदसिया ख़ामोश थी जैसे वो पत्थर की हो गई थी। काज़िम अपने बाज़ुओं की क़ुव्वत आज़मा कर कमरे से बाहर निकल गया और दफ़अ’तन जैसे एक ही लम्हे में क़ुदसिया को होश आ गया। उसने बढ़कर कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया। वो आईने के सामने खड़ी थी। नुची-खुची जिल्द, उबली हुई आँखें और दुखता नीला जिस्म उसके कानों में जैसे तसद्दुक़ और काज़िम दोनों फुंकार रहे थे।
“तू शहद की नहर है।”
“तू ज़हरीली नागिन है।”
बाहर से काज़िम दरवाज़ा भड़-भड़ाने लगा। क़ुदसिया के दिल ने पुकार कर कहा, “तुझको जो जैसा समझे उससे वैसा ही सुलूक कर।”
“हेलो पुलिस स्टेशन?”, क़ुदसिया ने रिसीवर उठा कर फूली हुई साँसों के दरमियान कहा, “मदद। मदद काज़िम मुझे क़त्ल करना चाहता है। मुज़फ़्फ़र गंज कोठी नंबर 24।”
उसने रीसीवर फेंक दिया और दौड़ कर काज़िम का भरा हुआ पिस्तौल दराज़ से निकाल कर दरवाज़ा खोल दिया। काज़िम उसके हाथ में पिस्तौल देखकर ख़ौफ़ज़दा हुआ।
“आ जाओ अंदर।”, वो ज़हरीली नागिन की तरह फुंकारी। ये वही कमज़ोर और बेबस बीवी थी जो ज़रा देर क़ब्ल मार खा कर ख़ामोश रही लेकिन अब वो काज़िम के सामने एक “सच्ची औ’रत” के रूप में खड़ी थी।
“ज़ालिम मर्द अगर मैं चाहूँ तो इस वक़्त तेरा भरा हुआ दिमाग़ एक ही गोली से उड़ा दूँ। लेकिन नहीं मैं तेरी रूह से अपनी रूह को बहुत फ़ासले पर रखना चाहती हूँ। तू ने मेरे ज़ब्त की शीरीनी चखी। अब मेरे इंतिक़ाम के ज़ह्र को भी हल्क़ से उतार। याद रख औ’रत हीरे की कन्नी है जो चाहे उसे अपने जिस्म की ज़ीनत बनाए जो चाहे मौत का बाइस।”
क़ुदसिया ने जुर्रत से पिस्तौल की नाली अपने सीने से लगा ली। धाएँ की लर्ज़ा-ख़ेज़ आवाज़ से हर चीज़ काँप उठी और साथ ही आईने में क़ुदसिया का ख़ून-आलूदा अक्स। नागिन काज़िम को डस चुकी थी। वो घबरा कर सेहन की तरफ़ पल्टा और दीवाना-वार घर से भागा। फाटक पर लारी से उतरते हुए सुर्ख़ पगड़ी वालों ने उसके कपड़ों पर ख़ून के धब्बे देखकर घेर लिया और दूसरे लम्हे उसके हाथों में हथकड़ियाँ झनझना रही थीं।
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