स्टोरीलाइन
यह एक प्रेम कहानी है, जो आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई है। एक ऐसी प्रेम कहानी जिसमें प्रेम तो है, लेकिन इज़हार नहीं। वह पूरब और पश्चिम के ज़मींदारों से बचने के लिए एक रात उसके घर छुपने आती है। उसका मामूं-ज़ाद उससे शादी करना चाहता है लेकिन वह उसे पसंद नहीं करता है। वहाँ रहते हुए वह हर रोज़ अपने अनाम प्रेमी के नाम ख़त लिखवाती है और फिर चालीस रोज़ बाद जाते हुए उन अनाम ख़तों की पोटली उसी के हाथों में थमा जाती है।
मौलवी-साहब पढ़े लिखे और अ’क़्ल-मंद आदमी थे। निहायत होशियारी से इस मुश्किल से निकल गए। उन्होंने कहा, “मैंने हलाल ज़रूर की थी मगर मुझे नहीं मा’लूम किसकी थी। सजावल मोची मुझे बुला कर ले गया था, उसी ने खाल भी उतारी थी उसे ही पता होगा।”
हुक्म हुआ, “सजावल मोची को हाज़िर किया जाए।”
सजावल मोची के पाँव तले से ज़मीन निकल गई। उन कमी कमीनों के पाँव तले ज़मीन ही कितनी होती है।
पूरब वालों ने धमकी दी, “ठीक-ठीक बात करना वर्ना पलट कर गाँव का रुख़ न करना।”
पच्छिम वालों ने पैग़ाम भेज देना काफ़ी समझा।
“ज़ियादा बुक़रात सुक़रात बनने की कोशिश न करना वर्ना नतीजे के तुम ख़ुद ज़िम्मेदार होगे।”
सजावल की समझ में न आया क्या करे क्या न करे। उसने तावान के तौर पर अपनी गिरह से पूरी रक़म अदा कर देना चाही, मगर इस्तिग़ासा ने कहा, “हमें पैसों की ज़रूरत नहीं। ये शरीके का मुआ’मला है हम उन्हें अंदर करवा कर दम लेंगे।”
उसे बार-बार एक ही रास्ता सुझाई देता। घर के सामान और लोगों को साथ लेकर रातों रात कहीं हिजरत कर जाए मगर इस तरह उसके मफ़रूर क़रार दिए जाने का डर था।
मैंने उसकी हिम्मत बँधाई, किताब में लिखा है, “साँच को आँच नहीं।”
उसने कहा, “तुम्हारा इ’ल्म मेरे काम नहीं आ सकता काका। वो किताबी बातों पर अ’मल नहीं करने देंगे न उन्होंने किताबें पढ़ी हैं।”
वो बोली, “अब्बा... अगर तुमने झूटी गवाही दी तो तुम ख़ुदा को और मैं अपनी सहेलियों को क्या मुँह दिखाऊँगी।”
कहने लगा, “तू नहीं जानती बेटी ख़ुदा तो फिर मुआ'फ़ कर देता है मगर ये ज़ालिम लोग कभी मुआ'फ़ नहीं करेंगे। मुझसे साफ़ सीधा सच न बुलवाओ, दरमियान का कोई तीसरा रास्ता बताओ।”
हम तीनों सर जोड़ कर बैठे मगर हमें दरमियान का कोई तीसरा रास्ता सुझाई न दिया। इसी बहस-ओ-तकरार और शश-ओ-पंज में बहुत से दिन गुज़र गए और तारीख़ का दिन आ गया।
वो मुतज़बज़ब सा किसी तीसरे रास्ते के बारे में सोचता हुआ चला गया। मगर जब वो बयान देने लगा तो उसके मुँह से वही कुछ निकला जो उसने देखा सुना था।
वो ख़ुद भी हैरान था कि कब और कैसे उसने सच के ज़हर का प्याला मुँह से लगा लिया। बाहर आकर उसने उनसे माफ़ी माँगना चाही मगर उन्होंने भेड़ियों जैसे मुँह फाड़ कर कहा, “तुम्हारे अपने घर में भी भेड़ है। अब देखते हैं तुम उसे कैसे बचाते हो।”
वो सर से पाँव तक काँप गया। उसने सोचा था बहुत हुआ तो सीप बंद कर देंगे या ज़ियादा से ज़ियादा गाँव से निकाल देंगे मगर उसने ये कुछ नहीं सोचा था। यूँ ये कोई ऐसी अनहोनी या बई’द-अज़-क़यास बात भी नहीं थी। वो अपने बराबर के शरीकों की भेड़ दिन दहाड़े ज़ब्ह करके हड़प कर सकते थे। वो तो एक ग़रीब कम्मी था जिसका कोई जवान बेटा न भाई। उसकी समझ में एक ही बात आई कि भागम-भाग किसी तरह उनसे पहले गाँव पहुँच जाए।
अगले रोज़ गाँव में सुब्ह तो हुई मगर हर तरफ़ गहरी ख़ामोशी थी। लगता था चिड़ियाँ आज घोंसलों से बाहर नहीं आयीं। फ़ाख़्ताएँ घुग्घू घोह अलापना, बत्तखें जौहड़ों में तैरना और कव्वे मुंडेरों पर बैठ कर बिछड़े हुओं के संदेसे देना भूल गए। गलियों में उदासी की धूल उड़ने लगी, दरख़्त सरगोशियाँ करते, आहें भरते और गलियों के आर-पार की कच्ची-पक्की दीवारें एक-दूसरे के गले से लग कर बैन करना चाहतीं।
हँस कर बात करना उसकी आदत थी और उसने जिस किसी से भी बात की थी वो सर में ख़ाक डाले गिरेबान फाड़े गलियों में ठोकरें खाता फिरता था। तन्नूरों ने उस रोज़ अध-जली रोटियों को जन्म दिया। पनघट के कुवें की चर्ख़ी से रोने की सी आवाज़ निकली और बोका इतना वज़नी हो गया कि निकालना मुश्किल हो गया। लगता था पंज फूलाँ रानी के बदन की रौशनी से महरूम हो कर पूरी बस्ती वीरान और तारीक हो गई है।
उसके घर वालों का कहना था कि ननिहाल से उसका मामूँ आया और रातों रात उसे साथ ले गया क्योंकि मुमानी सख़्त बीमार थी मगर किसी को इस बात पर यक़ीन न आया। सब जानते थे कि वो अपने मामूँ-ज़ाद से ब्याह करने से इंकार कर चुकी थी और उसके ननिहाल वाले एक अ’र्से से ख़फ़ा थे मगर किसी को इस बात की भी समझ नहीं आती थी कि वो गई किस के साथ थी।
वो जिस-जिसके साथ भाग सकती थी, वो सब तो ठंडी आहें भरते, गलियों की ख़ाक छानते फिरते थे। उसकी हम-जोलियों में से सिर्फ़ शैदो मिहतरानी को जो घरों में सफ़ाई का काम करने जाती थी मा’लूम था कि उसकी जून बदल गई थी और खेतों खलियानों में हिरनी की तरह क़ुलाँचें भरने, पेड़ों पर पेंगें झूलने और तितली की तरह हवा के दोश पर उड़ती फिरने वाली चंचल लड़की रातों रात एक मरियल सी भेड़ में तबदील हो गई थी और ख़ूँख़ार भेड़ियों के ख़ौफ़ से एक बड़ी हवेली के छोटे से तारीक कोने में दुबकी हुई थी।
मैं जगह-जगह घूमता और उसके लिए अफ़्वाहें और ख़बरें जमा’ करता। उसकी ख़ातिर क़त्ल करने और फाँसी चढ़ जाने वालों की डींगें सुनता। गाँव के लोगों की बातें और गभरूओं की शक्लें देखकर मुझे हँसी आती और ये सोच कर मेरा सीना फ़ख़्र से तन जाता कि जिस रौशनी के ओझल होने की वज्ह से सारा गाँव तारीकी में डूब गया था वो दिन रात हमारे घर के पसार और कोठड़ी में जगमगाती और नूर बरसाती थी। ख़ुशी के मारे मेरे अंदर मेरा हम-उ’म्र कान पर हाथ रखकर बुलंद आवाज़ में ढोले गाता।
“छत्ती बम्बी ऐ टाहली। हेठ ऐ भेड़ाँ दा वाड़ा
भेड़ाँ नें डब्ब-खड़ब्बियाँ...”
मगर फिर ये सोच कर कि ख़ूँख़ार भेड़िये उसकी बू सूँघते हुए उस तक पहुँच गए तो क्या होगा। मैं परेशान हो जाता और अंदर ही अंदर ग़ुस्से की सिल पर इंतिक़ाम की छुरियाँ रगड़ने लगता। एक साथ बहुत से घोड़ों पर सवार हो कर बाघ-बग्घियों के गिर्द घेरा डाल लेता।
वो मुझसे गलियों, चौपालों और थड़ों पर होने वाली बातें सुनती। बादशाहों और ख़ूबसूरत रानियों की कहानियाँ सुनती सुनाती और भेड़ियों के तेज़ दाँतों और नुकीले पंजों के ख़ौफ़ को एक तरफ़ रखकर हँसी मज़ाक़ की बातें करती। उसके हँसने का मंज़र अ’जीब होता। मेरी आँखें चुंधिया सी जातीं। मेरे अंदर से दुगुनी उ’म्र का मर्द निकल कर उसके क़दमों में बैठ जाता और कहता,
“इज़्न दो। मैं सारी दुनिया के भेड़ियों के पेट फाड़ आऊँ।”
वो मेरा हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा लेती और मद्धम सुरीली आवाज़ में अब्दुल सत्तार की यूसुफ़ ज़ुलैख़ा गुनगुनाने लगती।
“है मैं ऐसे मार मुकाइयाँ देसों दूर कराइयाँ।”
फिर एक-एक कर के मेरी स्कूल की किताबें और घर में मौजूद पंजाबी सै-हर्फ़ियाँ और बारह-माहे ख़त्म हो गए मगर चारों तरफ़ फैली हुई ख़ौफ़ की सियाह-रात ख़त्म न हुई।
वो सारा दिन अंदर छुपी रहती। रात के वक़्त थोड़ी देर के लिए बाहर आती। उसने छाबे और चंगेरीं बना बना कर घर की सारी पड़छत्तियाँ भर दीं। बिस्तर की चादरों-तकियों के ग़िलाफ़ों पर फूल काढ़ काढ़ कर उसने पूरे घर को गुलज़ार बना दिया। उसके घर वाले चोरों की तरह छुप कर रात की तारीकी में उसे मिलने आते और तसल्ली दे जाते। वो मुझसे कहती, “अगर तुम न होते तो मैं घुट कर मर जाती। तुमसे बातें कर के मेरा दिल बहला रहता है।”
वो अपने अब्बा के सच बोलने पर ख़ुशी का इज़हार करती और फ़ख़्र से कहती, “अब्बा ने मेरा मान रख लिया है। अँधेरा तो छट जाएगा मगर कालिक कभी न उतरती।”
वो मुझे यक़ीन दिलाती कि वो उदास और परेशान नहीं है मगर मैं उसे क़ैद जैसी ज़िंदगी गुज़ारते देखकर उदास हो जाता। दिल ही दिल में ग़ुस्से से खौलता और तरह तरह के ख़तरनाक मंसूबे बनाता रहता।
फिर उसने मुझसे ख़त लिखवाना शुरू’ कर दिए।
वो बोलती जाती और मैं लिखता जाता। गर्मियों की सिख़र दोपहरों में और बा’ज़-औक़ात रात को लालटेन की रौशनी में हम-पहरों इकट्ठे बैठ कर उसके नाम चिट्ठियाँ लिखते। ये बड़ी अनोखी, दिलचस्प और ख़ूबसूरत बातें होतीं जो मैंने कहीं पढ़ी सुनी नहीं थीं। उसकी बे-वफ़ाइयों, बे-ख़बरियों और संग-दिलियों की शिकायतें और शिकवे होते उसके फ़िराक़ में उपलों की तरह सुलगने, पानी के बग़ैर मछली की तरह तड़पने और साबुन की गाची की तरह खुरने का ज़िक्र होता।
वो उसे बार-बार ताकीद करती कि वो जल्द-अज़-जल्द आए और उसे भेड़ियों के ख़ौफ़ और क़ैद की सी ज़िंदगी से रिहाई दिलाए। लिख-लिख कर मेरे हाथ थक जाते मगर उसकी बातें ख़त्म न होतीं। मैं जब तक लिखता रहता वो सामने बैठ कर पंखा करती रहती। फिर ख़त को तह करके अपने पास रख लेती और अगले रोज़ शैदो के आने और ख़त ले जाने का इंतिज़ार करने लगती।
कभी-कभी मुझे उस पर, जिसे मैंने उस वक़्त तक देखा हुआ नहीं था, ग़ुस्सा आता। आख़िर वो उसके किसी ख़त का जवाब क्यों नहीं भेजता था मगर फिर सोचता क्या पता जवाब आता हो, मगर वो मुझे बताती न हो उसे पढ़ना तो आता ही था। और इसमें कोई शक नहीं था कि वो मुझसे उसका नाम और पता और उसके बारे में बहुत सी दूसरी बातें छुपाती थी। शायद उसे ऐसा ही करना चाहिए था या शायद उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। मेरी समझ में कुछ न आता।
उसके घर वालों का हमेशा से इसरार था कि घर की बात है। क़र्ज़ लिए बग़ैर फ़र्ज़ अदा हो जाएगा। उसे उसके ननिहाल में ब्याहा जाए मगर उसे अपने मामूँ-ज़ाद से चिड़ थी। कहा करती, “है तो वो मेरे मामूँ का बेटा मगर ख़ुदा मुआ'फ़ करे शक्ल से बिल्कुल भेड़ कट लगता है।”
मेरे घर वालों ने उसके अब्बा की फटी पुरानी पगड़ी पाँव से उठा कर उसे लौटाते हुए तसल्ली दी थी मगर साथ ही हिदायत भी की थी कि वो जल्द-अज़-जल्द कोई मुस्तक़िल इंतिज़ाम कर ले। जूँ-जूँ वक़्त गुज़रता जा रहा था उसके वालिदैन का इसरार कि वो ननिहाल में शादी करने पर रज़ा-मंद हो जाए, बढ़ता जा रहा था मगर वो अपनी बात पर अड़ी हुई थी।
फिर एक दिन मेरी छुट्टियों का हिसाब कर के वो निहायत परेशान हुई कहने लगी, “तुम चले जाओगे तो मैं एक दिन भी इस काल कोठड़ी में ज़िंदा नहीं रह सकूँगी।”
मुझसे अक्सर अपनी सहेलियों, उनकी मसरूफ़ियतों और कपड़ों गहनों के बारे में पूछती। शैदू आती तो उससे देर तक सरगोशियाँ करती। गाँव के तालाबों, टीलों, फसलों, खेतों और धूप में चरते हुए मवेशियों के बारे में पूछती। बैठी-बैठी अचानक मुझसे पूछ लेती, “जुलाहों के घर के सामने वाली गुलबा सी पर फूल लगते हैं?”
“मस्जिद की मुंडेर पर कबूतर बैठते हैं?”
“पनघट के कुएँ की चर्ख़ी से गेड़ते हुए रों-रों की आवाज़ सुनाई देती है?”
कभी-कभी मुझे वो चिट्ठियाँ ज़बानी सुनाती जो उसने मुझसे लिखवा कर वक़्तन-फ़वक़्तन शैदू मेहतरानी के हाथ उसे भिजवाई होतीं। मैं हैरान होता। उसकी याद-दाश्त और हाफ़िज़े की दाद देता। वो चिट्ठी का मज़मून सुनाती और मुझे याद आता कि मैंने बिल्कुल यही कुछ लिखा था मगर लिखते वक़्त मेरे वहम-गुमान में भी न था कि उसे वो सब बातें अज़-बर हो जाती होंगी।
फिर एक रात उसकी माँ मिलने आई तो दोनों माँ-बेटी देर तक बातें करती रहीं और अगले रोज़ मुझे ये जान कर बेहद हैरत हुई कि वो अपने मामूँ-ज़ाद से शादी करने पर रज़ा-मंद हो गई थी। मैंने पूछा तो रो दी। कहने लगी, “क्या करती?”
“और वो”, मैंने पूछा, “जिसे हमने इतने ख़त लिखे।”
कहने लगी, “उसका ज़िक्र और इंतिज़ार अब फ़ुज़ूल है। वा’दा करो तुम भी अब उसका ज़िक्र कभी नहीं करोगे।”
मैंने वा’दा कर लिया मगर मैं हैरान था और परेशान भी। अब किसी रोज़ चुपके से उसका मामूँ-ज़ाद जो उसे एक आँख नहीं भाता था, आएगा और उसे ले जाएगा। शहनाई बजेगी न ढोलक। उसे मेहंदी लगाई जाएगी न उसकी सहेलियाँ गीत गाएँगी और सबसे बढ़कर वो सदमा जो एक न एक दिन पूरे गाँव को मिलकर सहना था अब मुझ अकेले को बर्दाश्त करना होगा।
और फिर एक रात...
जब चाँद डूब चुका था। हवा बंद थी और बाहकों से रेवड़ों की रखवाली करने वालों की घिघियाई हुई आवाज़ें आ रही थीं, गली में आहट हुई और पाँच छः मुसल्ला घूड़-सवार घर के दरवाज़े के सामने आकर रुके। पिछले कई दिनों से मुख़्तलिफ़ अतराफ़ से डाके पड़ने की ख़बरें आ रही थीं। हमारे औसान ख़ता हो गए मगर अब्बा ने आगे बढ़कर दरवाज़ा खोल दिया। पता चला कि बारात थी।
पूरे चालीस रोज़ बा’द ख़ौफ़नाक, तवील और बाघ बघेली रात ख़त्म हुई थी या शायद शुरू’ हुई थी।
थोड़ी देर में उसके माँ-बाप, नंबरदार और मौलवी-साहब भी आ गए, मुझे छत पर निगरानी के लिए भेज दिया गया।
जब निकाह हो रहा था, अचानक मेरा जी चाहा सबसे ऊँची मुंडेर पर खड़े हो कर हौका दूँ। “गाँव वालो... जागो... गाँव लुट गया।”
रुख़्सत होने से पहले उसने मुझे अंदर बुलवाया।
गले लगा कर देर तक रोती रही। फिर जाते हुए सिसकी रोक कर आहिस्ता से बोली,
“तुम्हारे कपड़ों के ट्रंक में एक पोटली रखी है, उसे सँभाल कर रखना।”
दूसरे रोज़ सुब्ह हुई।
चिड़ियाँ चहचहाईं।
कव्वे बिछड़े हुओं के संदेसे लेकर मुंडेरों पर आ बैठे।
जुलाहों के घर के सामने वाली गुलबासी पर फूल खिले।
पनघट के कुएँ की चर्ख़ी से कुरलाने की आवाज़ गूँजी।
और सीढ़ियों के दरमियान बैठ कर अपने नाम अपने हाथ के लिखे हुए ख़ुतूत पढ़ते हुए मेरी आँखों से आँसू बह निकले।
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