बासौदे की मरयम
स्टोरीलाइन
यह एक दिल को छू लेने वाली जज़्बाती कहानी है। मरयम घर में किसी बुजु़र्ग की हैसियत से रहती है और उसका बेटा मम्दू बासौदे में रहता है। मरयम की ख़्वाहिश हज पर जाने की है। इसके लिए वह इक्ट्ठा करती है। हज पर जाने की सारी तैयारियाँ हो चुकी हैं, बस टिकट का इंतेज़ार है। तभी मम्दू की बीमारी का ख़त आता है। मरयम अपना सारा माल-ओ-मताअ इकट्ठा करके रोती-सुबकती बासौदा रवाना हो जाती है। मम्दू को लेकर वह इस डॉक्टर उस अस्पताल भटकती है और फिर मम्दू को लेकर घर वापस आ जाती है। आख़िरकार मम्दू मर जाता है। मरयम एक बार फिर से हज पर जाने की तैयारियाँ शुरू कर देती है, लेकिन इस बार भी मरयम हज पर नहीं जा पाती है कि उसके लिए खु़दा का बुलावा आ जाता है।
मरयम के ख़याल में सारी दुनिया में बस तीन ही शहर थे। मक्का, मदीना और गंज बासौदा। मगर ये तीन तो हमारा आपका हिसाब है, मरयम के हिसाब से मक्का, मदीना एक ही शहर था। अपने हुजूर का शहर। मक्के-मदीने सरीप में उनके हुजूर थे और गंज बासौदे में उनका मम्दू।
मम्दू उनका छोटा बेटा था। उसके रुख़्सार पर “इत्ता बड़ा” नासूर था। बाद में डॉक्टरों ने नासूर काट-पीट कर रुख़्सार में एक खिडकी बना दी थी जिसमें से ममदू की ज़बान पानी से निकली हुई मछली की तरह तड़पती रहती थी। मुझे याद है पहली बार मरयम ने अम्माँ को सर्जरी का ये लतीफ़ा सुनाया तो मैं खी-खी करके हँसने लगा था। अगर मरयम अपने खुरदुरे हाथों से खींच-खाँच के मुझे अपनी गोद में न भर लेतीं तो मेरी वो पिटाई होती कि रहे नाम अल्लाह का।
“ऐ दुलहिन! बच्चा है। बच्चा है री दुलहिन! बच्चा है।”, मगर अम्माँ ने ग़ुस्से में दो चार हाथ जड़ ही दिए जो मरयम ने अपने हाथों पर रोके और मुझे उठा कर अपनी कोठरी में क़िला-बन्द हो गईं। मैं मरयम के अंधेरे क़िले में बड़ी देर तक ठुस-ठुस कर के रोता रहा। वो अपने और मेरे आँसू पोंछती जाती थीं और चीख़-चीख़ कर ख़फ़ा हो रही थीं।
“ऐ री दुलहिन, ये अल्लाह की दैन हैं... नबी के उम्मती हैं। इन्हें मारेगी, कूटेगी तो अल्लाह के नबी खुश होंगे तुझसे? तौबा कर दुलहिन! तौबा कर।”
फिर वो तरह-तरह से खिड़की और मछली वाला लतीफ़ा सुना-सुना कर मुझे बहलाने लगीं,
“तो बेटा डांगदरों ने क्या किया कि हरामियों ने मम्दू के गाल में खिडकी बना दी और खिडकी में से थिरक-थिरक, थिरक-थिरक...”, मरयम का दिल बहुत बड़ा था और क्यों न होता, उसमें उनके हुजूर का मक्का-मदीना आबाद था और सैंकड़ों बासौदे आबाद थे। जिनमें हज़ारों लाखों गुल-गुथने मम्दू अपनी गोल-मटोल मुट्ठियों से मरयम की दूधों भरी ममता पर दस्तक देते रहते थे।
“अन्ना बुआ! दरवाज़ा खोलो। अल्लाह की दैन आए हैं। नबी के उम्मती आए हैं।”
मरयम ने मेरे अब्बा को दूध पिलाया, वो मेरी खलाई और मेरी पनाह थीं, वो मेरे भाँजे-भाँजियों की अन्ना थीं और अभी ज़िन्दा होतीं तो उन्हीं भाँजे-भाँजियों के बच्चे अपने चार्ज में लिए बैठी होतीं। मेरी तीन पुश्तों पर मरयम का एहसान है।
मैंने एक बार मरयम के क़िले में घुस कर उनकी पुटलिया से गुड़ की भेली चुरा ली। मरयम बच्चों को बिगाड़ने वाली मशहूर थीं। मगर मजाल है जो जराइम में किसी की हिमायत कर जाएँ। उन्होंने फ़ौरी तौर पर अम्माँ से मेरी रिपोर्ट कर दी और अम्माँ, ख़ुदा उन्हें ख़ुश रखे, जागीरदार की बेटी, खरी पठानी अपनी औलाद से कोई घटिया फ़ेल मंसूब होते देख ही नहीं सकतीं। उन्होंने जलाल में आ कर उलटा मरयम से अन-बोला कर लिया।
अब्बा को पता ही न था कि घर में सर्द जंग जारी है। वो इस तरह इशा की नमाज़ के बाद पंद्रह बीस मिनट के लिए मरयम के पास बैठ कर उनका हाल-अहवाल पूछते, मरयम के पाँव दाबने की कोशिश करते और उनकी प्यार भरी झिड़कियों की दौलत समेट कर अपने कमरे में सोने चले जाते।
तीन चार दिन मेरी ये दो जन्नतें एक दूसरे से बर्गश्ता रहीं और मैं गुनहगार अज़ाब झेलता रहा। अम्माँ ने मरयम की देख-भाल में कोई कोताही तो न की मगर मरयम का सामना हो जाता तो अम्माँ के नाज़ुक ख़द-ओ-ख़ाल आप ही आप संग-ओ-आहन बन जाते। मरयम ज़ियादा-तर अपनी कोठरी में महसूर रहीं और शायद रोती रहीं। आख़िर चौथे-पाँचवें दिन मैं फूट बहा और पिटाई के ख़ौफ़ से बे-नियाज़ हो कर अम्माँ की गोद में सर रख कर मैंने इक़बाल-ए-जुर्म कर लिया। अम्माँ के पाँव तले की ज़मीन निकल गई। बस एक ग़ज़ब की निगाह की, मुझे एक तरफ़ धकेल कर उठ खड़ी हुईं और बिजली की सी तेज़ी से मरयम के क़िले में दाख़िल हो गईं।
“अन्ना बुआ! तुम्हारा मँझला तो चोर निकला। बुआ! हमें मुआफ़ कर दो। मैंने किवाँड़ की आड़ से देखा कि मरयम लरज़ते हाथों से अम्माँ के दोनों हाथ थामे उन्हें चूम रही हैं। कभी हँसती हैं, कभी रोती हैं और कभी अम्माँ को चपत लगाने का ड्रामा करती हैं। बस री दुलहिन! बस कर, चुप री दुलहिन! चुप कर। देख, मैं मार बैठूँगी।”
मरयम सीधी-सादी मेवा तन थीं। मेरी ख़ाला से मरते दम तक सिर्फ़ इसलिए ख़फ़ा रहीं कि अक़ीक़े पर उनका नाम फ़ातिमा रख दिया गया था। “री दुलहीन! बीबी फातमा तो एकई थीं। नबी जी सरकार की सहजादी थीं, दुनिया आखिरत की बाच्छा थीं। हम दोजख़ के कुन्दे भला उनकी बरोबरी करेंगे। तौबा तौबा इस्तग्फार...।”
मोहर्रम में नौवीं और दसवीं की दर्मियानी शब ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ू से ताज़िये, सवारियाँ और अखाड़े देखतीं, ख़ूब-ख़ूब पापड़ पकौड़े खातीं ख़िलातीं और दसवीं को सुबह ही से “वजू बना के” बैठ जातीं, हम लड़कों को पकड़-पकड़ कर दिन भर शहादत-नामा सुनतीं या कलमा-ए- तय्येबा का विर्द करतीं, और ख़ुदा मग़्फ़िरत करे, कलमा शरीफ़ भी जिस तरह चाहतीं पढ़तीं, “ला इलाहा इल लिल्ला नबी जी रसूल लिल्ला हुजूर जी रसूल लिल्ला।”
इमाम हुसैन का नाम ले लेकर बैन करतीं, रो-रो कर आँख सुजा लेतीं और बैन करते-करते गालियों पर उतर आतीं, “रे हरामियों ने मेरे सहजादे को मार दिया। रे नास-मिटों ने मेरे बाछ्छा को मार दिया।”
मोहर्रम में वो हम लड़कों को हसन, हुसैन के फ़क़ीर बनाती थीं। हमारे कुर्ते हरे रंग देतीं। गर्दनों में कलावे डाल देतीं और छोटी-छोटी बटवनियाँ सी कर उनमें दो-दो आने के पैसे डाल, सेफ़्टी पिनों से हमारे गरिबानों में टाँक देती थीं।
हक़ मग़्फ़िरत करे, हमारे दादा मरहूम थोड़े से वहाबी थे। अब्बा भी उनसे कुछ मुतअस्सिर हैं पर मोहर्रम के दिनों में मरयम के आगे किसी की वहाबियत नहीं चलती। दस रोज़ के लिए तो बस मरयम ही डिक्टेटर होतीं। मगर ये डिक्टेटरी भी ‘जियो और जीने दो’ के उसूल पर चलाती थीं ,हमें फ़क़ीर बना कर चुपके से समझा देती थीं, “देख रे बेटा! बड़े मियाँ जी के सामने मत जाना।”
और बड़े मियाँ जी भी, ख़ुदा उन पर अपनी रहमतों का साया रक्खे, कमाल बुज़ुर्ग थे। ज़ाहिर तो ये करते थे जैसे मरयम की इन बातों से ख़ुश नहीं हैं। पर एक साल मोहर्रम के दिनों में मरयम बासौदे चली गईं, हमारे घर में ना शहादत-नामा पढ़ा गया, ना हाय हुसैन हुई ना हम फ़क़ीर बने। आशूरे पर हम लड़के दिन भर हॉकी खेलते रहे। अस्र की नमाज़ पढ़ कर दादा मियाँ घर लौट रहे थे। हमें बाड़े में उधम मचाते देखा तो लाठी टेक कर खड़े हो गए।
“अबे किरिश्टानो! तुम हसन-हुसैन के फ़क़ीर हो? बुढ़िया नहीं है तो जाँघिये पहन कर उधम मचाने लगे। ये नहीं होता कि आदमियों की तरह बैठ कर यासीन शरीफ़ पढ़ो।”
यासीन शरीफ़ पढ़ो हसन, हुसैन के नाम पर, यासीन शरीफ़ पढ़ो बड़े मियाँ जी के नाम पर यासीन शरीफ़ मरयम के नाम पर और उनके मम्दू के नाम पर कि उन सबके ख़ूबसूरत नामों से तुम्हारी यादों में चराग़ाँ है।
मगर मैं मम्दू को नहीं जानता। मुझे सिर्फ़ इस क़दर इल्म है कि मम्दू बासौदे में रहता था और डागदरों ने उसके गाल में खिड़की बना दी थी और उस खिड़की के पट मरयम की जन्नत में खुलते थे, और मैं ये भी जानता हूँ कि जब मरयम बड़े सोज़ से ‘ख्वाजा पिया जरा खोलो केवड़ियाँ’ गाती थीं तो अम्माँ की कोयलों जैसी आवाज़ उनकी आवाज़ में शामिल होकर मुझ पर हज़ार जन्नतों के दरवाज़े खोल देती थी।
मैं अम्माँ के ज़ानू पर सर रख कर लेट जाता और ख़्वाजा पिया को सुरों के मासूम झरोके से दर्शन बाँटते देखा करता। सुना है मेरी अम्माँ मौज में होती हैं तो अब भी गाती हैं। ख़ुदा उन्हें हँसता गाता रखे। पर मरयम की आवाज़ थक कर सो चुकी है या शायद एक लंबे सफ़र पर रवाना हो चुकी है और मक्के-मदीने सरीप की गलियों में फूल बिखराती फिर रही है या बासौदे के क़ब्रिस्तान में मम्दू को लोरियाँ सुना रही है।
सफ़र मरयम की सब से बड़ी आरज़ू थी, वो हज करना चाहती थीं। वैसे तो मरयम हमारे घर की मालिक ही थीं मगर पता नहीं कब से तनख़्वाह ले रही थीं। अब्बा बताते हैं कि वो जब स्कूल में मुलाज़िम हुए तो उन्होंने अपनी तनख़्वाह मरयम के क़दमों में ला कर रख दी। मरयम फूल की तरह खिल उठीं। अपनी गाढ़े की चादर से उन्होंने एक चवन्नी खोल कर मुलाज़िमा को दी कि जा भाग कर बजार से ज़लेबियाँ लिया। मरयम ने ख़ुद उन जलेबियों पर कलमा शरीफ़ पढ़ा और तनख़्वाह और जलेबियाँ उठा कर बड़े ग़ुरूर के साथ दादा मियाँ के सामने रख आईं। ‘‘बड़े मियाँ जी! मुबारकी हो। दूल्हे मियाँ की तनखा मिली है।”
फिर उस तनख़्वाह में से वो भी अपनी तनख़्वाह लेने गईं। जो पता नहीं उन्होंने एक रुपया मुक़र्रर की थी कि दो रुपये।
मरयम का ख़र्च कुछ भी नहीं था। बासौदे में उनके मरहूम शौहर की थोड़ी सी ज़मीन थी जो मम्दू के गुज़ारे के लिए बहुत थी और बकरियाँ थीं जिनकी देख भाल मम्दू करता था। बड़ा लड़का शताब ख़ाँ रेलवाई में चौकीदार था और मज़े करता था। बरसों किसी को पता ना चला कि मरयम अपनी तनख़्वाहों का करती क्या हैं। फिर एक दिन वो ढे़र सारे कुल दार रुपये, मैले-कुचैले नोट और रेज़गारी उठाए हुए अब्बा के पास पहुँचीं और इन्किशाफ़ किया कि वो हज करने जा रही हैं। किराए की ये रक़म उनके बरसों की कमाई थी। ये मक्का-मदीना फ़ंड था जो मरयम ख़बर नहीं कब से जमा कर रही थीं। अब्बा ने गिन कर बताया कि नौ सैंकड़े, तीन बीसी सात रुपये कुछ आने हैं। मरयम को इससे ग़रज़ नहीं थी कि ये कितने हैं, वो तो सीधी सी बात पूछ रही थीं कि उनसे मक्के-मदीने का टैक्स मिल जाएगा या नहीं। अब्बा ने बताया कि बेशक मिल जाएगा।
मरयम ने तैयारियाँ शुरू कर दीं। वो उठते-बैठते, चलते-फिरते गुनगुनाती रहतीं कि ‘ख्वाजा पिया जरा खोला केवड़ियाँ।’ उन पर मक्के-मदीने की खिड़कियाँ खुली हुई थी और उन खिड़कियों से नबी जी के मुक़द्दस पैराहन की ख़ुशबू चली आ रही थी। किसी ने छेड़ने को कह दिया कि तुम को ढ़ँग से नमाज़ पढ़नी तो आती नहीं, क़ुरआन शरीफ़ तो याद नहीं है, फिर हज कैसे करोगी?
मरयम बिफर गईं, “रे मुसलमान की बिटिया, मुसलमान की जोरू हूँ। नमाज पड़ना काहे नईं आती। रे कलमा सरीप सुन ले, चारों कुल सुन ले। और क्या चैय्ये तेरे को?’’ हाँ और क्या चैय्ये तेरे को?, फिर उनके दिल में तो नबी जी के प्यार का चमन भी खुला हुआ था कि यही बहुत था।
मगर एक दिन शताब ख़ाँ का ख़त आया कि मम्दू की हालियत खराब है, बकरियाँ बेच-बाँच के इलाज मालिजा कराया, जमीन गिरवी रख दी। अब बिल्कुल पैसे नईं हैं। सूरत देखना चाहती है तो ख़त को तार समझना। मरयम की आँखों में मक्का-मदीना धुँदला गया। उन्होंने नौ सैंकड़े, तीन बीसी, सात रुपये चादर में बाँधे और रोती-पीटती बासौदे की बस में जा बैठीं। अब्बा साथ जाना चाहते थे, उन्हें सख़्ती से मना कर दिया।
मम्दू तो उनकी ज़िम्मेदारी था, वो किसी और को क्यों इसमें शरीक करतीं। मरयम का ये उसूल बड़ा सफ़्फ़ाक था। उन्होंने बासौदे ख़ैरियत से पहुँचने का ख़त तो लिखवा दिया पर मम्दू के बारे में एक लफ़्ज़ नहीं लिखवाया। महीने गुज़र गए, किसी ने बताया कि वो मम्दू को इलाज के लिए इंदौर ले गई हैं, फिर पता चला कि बम्बई में साबू सिद्दीक़ की सराय में नज़र आई थीं, फिर पता चला कि मम्दू मर गया है। फिर एक लुटी-लुटाई मरयम घर लौट आईं।
मैं स्कूल से घर पहुँचा तो देखा कि मरयम सहन में बैठी अपने मरे हुए बेटे को कोस रही हैं, “रे हरामी तेरा सत्यानास जाए रे मम्दू! तेरी ठिठुरी निकले। ओ रे बद-जनावर तेरी कबर में कीड़े पड़ें। मेरे सबरे पैसे खर्च करा दिए। ए री दुलहिन! मैं मक्के-मदीने कैसे जाऊँगी। बता री दुलहिन! अब कैसे जाऊँगी।”
अब्बा ने कहा, “मैं तुम्हें हज कराऊँगा।”
अम्माँ ने कहा, “अन्ना बुआ हम अपने जहेज़ वाले कड़े बेच देंगे, तुम्हें हज कराएँगे।”
मगर मरयम चुप ना हुईं, दो दिन तक रोती रहीं और मम्दू को कोसती-पीटती रहीं। लोगों ने समझाया कि आख़िर दूल्हे मियाँ भी तुम्हारा ही बेटा है, वो अगर तुम्हें हज करवाता है तो ठीक है, मान क्यों नहीं जातीं? मगर मरयम तो बस एहसान करना जानती थीं, किसी बेटे का एहसान भी अपने सर क्यों लेतीं। उन्होंने तो अपनी कमाई के पैसों से हज करने की ठानी थी।
मम्दू के मरने के बाद मरयम शायद एक दफ़ा और बासौदे गईं अपनी ज़मीन का तिया-पाँचा करने, फिर उसके बाद बासौदे का ज़वाल शुरू हो गया। मरयम के चौड़े-चकले मेवाती सीने में बस एक ही शहर बसा रह गया। उनके हुजूर का सहर। वो उठते-बैठते नबी जी, हुजूर जी करती रहतीं। कभी तो यूँ लगता कि उन्हें क़रार सा आ गया है। शायद इसलिए कि उनके भोले-भाले मंसूबा-कार ज़ेहन ने एक नया मक्का-मदीना फ़ंड खोल लिया था।
अब्बा ने बड़े शौक़ से लिहाफ़ सिलवा कर दिया, मरयम चुपके से जा कर बेच आईं, ईद आई, मरयम के भी कपड़े बने, ख़ुदा मालूम कब, कितने पैसों में वो कपड़े बेच दिए। अब्बा-अम्माँ समेत, हम सब को जो एक-एक आना ईदी देती थीं, फ़ौरी तौर पर बंद कर दी। पैसा-पैसा करके फिर मक्का मदीना फ़ंड जमा हो रहा था। सब मिला कर अभी पाँच सौ साठ रुपये ही जमा हुए थे कि मरयम का बुलावा आ गया। मुझे मालूम नहीं कि कब और किस तरह चल बसीं। मैं गर्मियों की छुट्टियों में अपनी ख़ाला के गाँव गया हुआ था, वापस आया तो अम्माँ मुझे देख कर फूट-फूट कर रोने लगीं, “मंजले! तेरी अन्ना बुआ गुज़र गईं। लड़के! तुझे बिगाड़ने वाली गुज़र गईं।”
अब्बा ने मुझे हुक्म दिया कि मैं मरयम की क़ब्र पर हो आऊँ, मैं नहीं गया। मैं क्यों जाता, ठंडी मिट्टी के ढ़ेर का नाम तो मरयम नहीं था। मैं नहीं गया। अब्बा नाराज़ भी हुए मगर मैं नहीं गया।
लोगों ने बताया कि मरयम ने मरते वक़्त दो वसीयतें की थीं। एक वसीयत तो ये थी कि तज्हीज़-ओ-तक्फ़ीन उन्हीं के पैसों से की जाए और बाक़ी के पैसे शताब ख़ान को भेज दिए जाएँ। दूसरी वसीयत का सिर्फ़ अब्बा को इल्म था। अम्माँ के कान में उन्होंने मरते वक़्त कुछ कहा था जो अम्माँ किसी को नहीं बताना चाहती थीं।
मैं यहाँ आ गया। पंद्रह बरस गुज़र गए। 65 ई. में अब्बा और अम्माँ ने फ़रीज़ा-ए-हज अदा किया। अम्माँ हज कर के लौटीं तो बहुत ख़ुश थीं। कहने लगीं, “मंजले मियाँ! अल्लाह ने अपने हबीब के सदक़े में हज करा दिया। मदीना-ए-तय्येबा की ज़ियारत करा दी और तुम्हारी अन्ना बुआ की दूसरी वसीयत भी पूरी कराई। अज़ाब-सवाब जाए बड़ी बी के सर। मियाँ हमने तो हरे गुंबद की तरफ़ मुँह करके कई दिया कि या रसूल अल्लाह! बासौदे वाली मरयम फ़ौत हो गईं। मरते वख़त कह रई थीं कि नबी जी सरकार! मैं आती ज़रूर मगर मेरा मम्दू बड़ा हरामी निकला। मेरे सब पैसे ख़र्च करा दिए।”
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