Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

बैलों की जोड़ी

अली अब्बास हुसैनी

बैलों की जोड़ी

अली अब्बास हुसैनी

MORE BYअली अब्बास हुसैनी

    स्टोरीलाइन

    यह तीन ऐसे दोस्तों की कहानी है जो राम जी सेठ से बैलों की जोड़ी हथियाने का मंसूबा बनाते हैं। दरअस्ल सेठ जी को पशुओं को पीटे जाने से बहुत तकलीफ़ होती है। पशुओं को मारे जाने से दुखी होकर उन्होंने गाँव की एक पंचायत में कहा था कि जो भी अपने पशुओं के साथ अच्छा सुलूक करेगा उसे वह इनाम के रूप में दो बैलों की जोड़ी देंगे।

    राम जी सेठ के आने की ख़बर ने छेदीपुर में एक हल चल सी डाल दी थी। बूढ़ा बाला, औरत-मर्द सब ही दिन में कई-कई बार एक दूसरे से उनके मुतअल्लिक़ गुफ़्तगू करते थे। झगड़ू कोरी ने मुक़दमे बाज़ी कम कर दी थी और दिन में कई-कई बार माला जपने लगा था। खिलाऊ बनिए ने सूदी रूपया चलाना बंद कर दिया था और देवी जी की पूजा को सुबह-ओ-शाम जाने लगा था।

    दीना कोरी खेत गोड़ते-गड़ते कुदाल के डंडे को सीधा करके खड़ा हो जाता था और सुख्खू अहिर को बग़ल वाले खेत में आवाज़ देकर पूछता था,काहे हो सुखो सच हो कि सेठ जी आवत हैं! सुख्खू जो अपने खेत में से घास साफ़ करता होता था खुरपी हाथ से रख देता और दोनों हथेलियाँ एक दूसरे से रगड़ कर हाथ की मिट्टी गिराकर दीना के खेत की मेंड़ पर आकर बैठ जाता था और सेठ जी के मुतअल्लिक़ तरह-तरह की बातें होने लगती थीं, लौंडे बाज़ारों में गोलियाँ खेलते-खेलते रुक जाते थे और सेठ की आमद गोलियों से भी ज़ाइद दिलचस्पी इख़्तियार कर लेती थी। अहिरों के लड़के गोरू बछरू गाँव के मैदानों में चराते हुए जब बिरहा गाते होते थे तो अक्सर ये होता था कि दरमियान ही से रुक जाते थे और सेठ जी का ज़िक्र छिड़ जाता था। गिरहस्तिनों की दिलचस्पी का पूछना ही क्या है। उनमें से बाज़ सत्तरी बहत्तरी भी हो चुकी थीं मगर आज तक उन्होंने ज़मींदार की सूरत ही देखी थी, हर रोज़ सुबह-सवेरे एक दूसरे के घर में जल्दी-जल्दी जाती थीं और राम जी, सेठ के मुतअल्लिक़ कोई नई ख़बर सुना आती थीं। जवान कुएं पर पानी भरते वक़्त एक दूसरे से पच्चीसियों मर्तबा की सुनाई हुई बातें फिर चटख़ारे ले लेकर दोहराती थीं। उन्हें शब भर में कुछ कुछ सोच लेने या ख़्वाब देख लेने का मौक़ा मिल ही जाता था। बड़ी बूढ़ियाँ जिनकी टाँगें जवाब दे चुकी थीं और जिनके बाज़ू शल हो चुके थे वो दिन भर घर में बैठी सेठ जी ही का चरख़ा काता करती थीं और अगर कोई सुनने वाला मिलता तो किसी नवासी या पोती को ज़बरदस्ती पकड़ कर सामने बिठा लेती थीं और उसकी चोटी खोल डालती थीं, फिर घंटों उकडूँ बैठी जुएं देखती जातीं और राम जी सेठ और उनके पुरखों के बारे में जहाँ तक फ़र्सूदा तख़य्युलात काम देते नए-नए अफ़साने गढ़ती रहती थीं।

    ग़रज़ छेदीपुर से मुर्दा गाँव में हफ़्तों से हलचल थी। बेचैनी थी। इज़्तिराब था। ज़िंदगी थी और ये सब सिर्फ़ इसलिए कि राम जी सेठ करोड़पति थे। जैनी थे। छेदीपुर के मालिक थे और अपनी साठ बरस की उम्र में पहली दफ़ा वहाँ रहे थे।

    इस इज़्तराब में सेठ जी की आमद ने कोई कमी की। इसलिए कि गाँव के बच्चे-बच्चे को ये ख़्वाहिश थी कि वो सिर्फ़ उन्हें कई बार दूर-ओ-नज़दीक से देख ही ले बल्कि उनसे किसी किसी तरह गुफ़्तगू भी कर ले और उनसे दो चार पैसे भी ले ले। सारी उम्र में सेठ जी पहली दफ़ा गाँव आए थे और मुमकिन था कि यही आख़िरी दफ़ा भी हो। इसलिए उनसे मुंतफ़ेअ होना अपने पर नहीं बल्कि गाँव पर और ज़मींदार होने की हैसियत से ख़ुद उनपर भी ज़ुल्म होता।

    इस इंतशार में सेठ जी ने ख़ुद और भी इज़ाफ़ा कर दिया। उन्होंने एक दिन सुख्खू के लड़के को गाँव के साँड को लाठियों से मार कर अपने खेत से निकालते देख लिया। उन्हें ऐसा मालूम हुआ जैसे लाठियाँ उस साँड के पुट्ठों पर पड़ीं बल्कि ख़ुद उनके दिल पर। तिलमिला उठे दौड़ कर उस लड़के के कान पकड़े और छावनीतक उसी तरह कान पकड़े उसे लाए। दिन भर अपने हाँ एक कमरे में बंद रखा और शाम के वक़्त कहीं छोड़ा मगर दिन भर में उस लौंडे को आध सेर की कचौरियाँ दीं और तीन पाव जलेबियाँ। फिर तरह-तरह के फल सेब, अनार, अंगूर जो उनके लिए ख़ास तौर पर हर रोज़ शहर से मोटर पर आते थे, ख़ूब खिलाए। उसने शाम को जो अपने हम सिनों से ये नए क़िस्म की सज़ा बयान की तो दूसरे ही दिन से मुजरिमों में बाहम मुक़ाबला होने लगा।

    जहाँ सेठ जी घर से बाहर निकले और कोई कोई लौंडा उनके सामने से अपने बूढ़े बैल को पीटता या सीधी-सादी गाय की दुम ऐंठता और गालियाँ देता गुज़रता दिखाई देता था। ये बा'ज़ बद-नसीबों को तो सिर्फ़ डाँट कर या कान गरमा कर छोड़ देते थे लेकिन बा'ज़ ख़ुश-नसीब ऐसे भी होते थे कि वो छावनी तक गिरफ़्तार करके लाए जाते थे। ये शरीर सेठ जी के सामने रो-रो कर मगर तन्हाई में बग़लें बजाकर उनकी सारी सज़ाएं भुगत लेते और सेरों दूध, मिठाई और ताज़े फल दिन भर एक आरास्ता-पैरास्ता कमरे में बैठ कर इस इतमीनान से खाते थे जैसे ये तमाम नेअमतें उन्हीं के लिए मख़्सूस कर दी गई हों।

    जब दस-बारह रोज़ तक मुतवातिर सज़ा देते-देते सेठ जी थक गए और जुर्म में कोई कमी हुई तो उन्होंने गाँव भर के लोगों को बुला भेजा। छावनी के तवील-ओ-अरीज़ सेहन में जब सब लोग आकर उकड़ूँ बैठ गए तो सेठ जी अपने तख़्त से उतर कर खड़े हो गए और वास्कट की जेबों में दोनों अँगूठे डाल कर बोले,

    भाइयो! बहनो! (इसपर सुख्खू अहिर ने दीना कोरी को एक कुहनी मारी और दीना कोरी ने सहदेव पासी को एक कुहनी रसीद की। तीनों ने मुस्कुराकर एक दूसरे को देखा और भीगी बिल्ली की सूरत बनाली)। भाइयो! बहनो! सेठ जी ने फिर खाँस कर कहा, मैंने तुम लोगों को इसलिए बुलाया है कि मैं तुमसे एक ख़ास बात कहना चाहता हूँ। (अब तो मजमा में हद से ज़ाइद दिलचस्पी के आसार पैदा होने लगे। हर एक ने गर्दन बढ़ा-बढ़ा कर सेठ जी को देखना शुरू कर दिया, मैं तुमसे एक ख़ास बात कहना चाहता हूँ। सेठ जी ने मजमे की इफ़रात तवज्जो से मुतअस्सिर होकर फिर कहा,और वो ये है कि मैं देखता हूँ कि तुम लोग जानवरों के साथ बहुत बुरा सुलूक करते हो। (सहदेव, सुख्खू और दीना ने सेठ जी की तरफ़ देख कर इस तरह ज़ोर-ज़ोर से सर हिलाया जैसे वो भी इल्ज़ाम लगाने में सेठ जी के शरीक हैं और सारा गाँव मुल्ज़िम)। सेठ जी तीन देहातियों को अपना हम-ख़्याल देख कर ज़रा सा मुस्कुराए और फिर बोले,भाइयो, बहनो, इन जानवरों के हाँ भी उसी तरह आत्मा है जिस तरह कि तुम्हारे हाँ है। (इसपर सहदेव, सुख्खू और दीना ने और ज़ोर-ज़ोर से सर हिलाया। इनके भी दर्द होता है। इनको भी तकलीफ़ होती है। मगर तुम लोग उन्हें मारते पीटते हो। उन्हें हर तरह का दुख देते हो। मैंने इसीलिए तुमसे ये बुरी आदत छुड़ाने के वास्ते ये तै किया है कि तुममें जो सबसे ज़्यादा जानदारों के साथ नेकी करेगा, उनको आराम पहुंचाएगा, उन्हें सुख देगा (मजमे की दिलचस्पी हद से ज़ाइद बढ़ गई और गर्दनें इतनी आगे बढ़ गईं कि हर एक सर गेंदे का फूल मालूम होने लगा) मैं उसे अपने जाने से पहले अपने बैलों में से सबसे अच्छी जोड़ी दूंगा!

    मजमे भर का मुँह इस ऐलान पर खुल गया और सबने एक साथ इतनी लम्बी साँस ली कि सेठ जी की क़मीस का दामन इस तरह हिलने लगा जैसे ख़ासी तेज़ हवा चल रही हो। सहदेव ने सुख्खू से आहिस्ते से कहा,ई बैलन की जोड़ी तो हमारी हो गई! उसने कहा,अबे चल, तोहरे से बहुत देखाहन! वो बोला, अच्छा, अच्छा, देखी हो!

    छावनी के अंदर तो चुपके-चुपके ही बातें होती रहीं मगर वहाँ से निकल कर जब सहदेव, सुख्खू और दीना ताड़ीख़ाने पर पहुँचे तो फिर यही बहस छिड़ गई कि बैलों की जोड़ी कौन जीतेगा। सुख्खू ने जब सहदेव का दावा बयान किया तो सब लोग हँसी से बेताब हो गए। हर शख़्स उससे वाक़िफ़ था कि सहदेव से ज़्यादा कोई भी पाजी, कठोर और ज़ालिम गाँव भर में था। अब ऐसा आदमी और उसका मुद्दई है कि वो जानवरों के साथ नेकी करने का इनाम हासिल करेगा। हँसने वाली बात ही थी। मगर सहदेव इसीपर मुसिर था कि बैलों की जोड़ी उसी को मिलेगी। बहस बढ़ती ही गई और जब दो चार लबनियाँ हर एक ने चढ़ा लीं तो ज़रा जोश और बढ़ा और शर्तें लगने लगीं।

    सहदेव यही कहता जाता था कि मैं ही जीतूँगा। मुझसे शर्त लगाओ। मगर जितना उसका इंकार बढ़ता उतनी ही सबका इसरार बढ़ता जाता था। यहाँ तक कि बीस आदमियों ने तिगुने और चौगुने पर शर्त लगाई कि चाहे कोई जीत ले मगर सहदेव किसी तरह ये इनाम नहीं जीत सकता।

    दूसरे ही दिन से जानवरों के साथ नेकी का सुलूक गाँव में वबा की तरह फैला। झगड़ू ने सेठ जी को अपनी तरफ़ से जाते देख कर खिलावन कुम्हार की बिल्ली जल्दी से गोदी में उठा ली और जितना वो ग़ुर्रा-ग़ुर्रा कर पंजे माती रही उतना ही वो उसे प्यार करता रहा और अपना सूखा हुआ मुँह तरह-तरह से टेढ़ा करके चुमकारता रहा। सेठ जी भी झगड़ू के हाथ से ख़ून बहते देख कर ठिटक कर खड़े हो गए और घबराकर बोले, अबे भई उसे छोड़ दो। ये इस वक़्त कुछ ख़फ़ा है। देखो तुम्हारे हाथ से ख़ून निकल रहा है।

    झगड़ू ने बिल्ली तो जल्दी से छोड़ दी मगर मुस्कुरा कर बोला, हुजूर हम का करन, हमका बिलाई देख प्रेम आवत है।

    सेठ जी ने अपना रेशमी रूमाल जेब से निकालते हुए कहा, ये चीज़ ही मोहब्बत के क़ाबिल है, मगर उस वक़्त कुछ ख़फ़ा थी जो तुम्हें पंजे मार गई। और झगड़ू का ज़ख़्मी हाथ रूमाल से लपेट कर एक रूपया उसे दे कर आगे बढ़ गए।

    झगड़ू तो एक रूपया पाकर कुछ ज़्यादा ख़ुश हुआ लेकिन इतनी सी बात जब गाँव में मशहूर हुई तो हर घर में बिल्ली ही दिखाई देने लगी। सुख्खू दूसरे गाँव से छः अदद पकड़ लाया और उनको दूध पिलाने के लिए जिस अहिर से दूध माँगता वो सेरों मुफ़्त दे देता था। बड़ों की देखा-देखी लौंडों ने ये हरकत शुरू की कि वो चौपायों को बजाय मैदानों में ले जाने के गाँव ही में घुमाते फिरते और जिसके खेत में जी चाहता हका देते। जानवर सारा-सारा खेत खा जाते मगर कोई चूँ करता। सेठ जी के कानों तक अगर किसी की शिकायत पहुँचती भी तो उनकी ये हरकत जानवरों के साथ नेकी पर महमूल करते और मज़लूम ज़ालिम-ओ-मुजरिम क़रार पा जाता और दाद-रसी की जगह डाँट पाता था।

    मगर ये तमाम बातें सहदेव की चालों के सामने बाज़ी-ए-तिफ़्लाँ थी। वो दो चार दिन चुपका-चुपका ये सब खेल तमाशे देखा किया और कुछ सोंचा किया। बिल-आख़िर एक दिन जब कि सेठ जी अपने अमरूदों के बाग़ की तरफ़ से होकर गुज़रे तो उन्होंने सहदेव को मअ एक अदद झोली के ज़मीन पर झुका हुआ पाया। वो उन्हें अपनी तरफ़ आता देख कर और भी ज़्यादा मुंहमिक बन गया। उनकी तरफ़ उसने रुख़ किया और उनके सलाम के लिए उठा। सेठ जी का इस्तिजाब बढ़ा। ये क़रीब गए और क़रीब गए। मगर जैसे ही सहदेव से दो क़दम के फ़ासले पर पहुँचे उसने ज़मीन से नज़र उठाए बग़ैर उन्हें डाँटा, हाँ, हाँ कहाँ चला आवत हो? सुझाई ना देत है? सेठ जी ठिटक कर खड़े हो गए और उन्होंने ग़ुस्से भरी निगाह ज़मीन के उस हिस्से पर डाली जहाँ सहदेव दोनों हाथ फैलाए इस तरह झुका था जैसे वो जान देने के लिए तैयार है मगर इस पर राज़ी नहीं कि उनके क़दम इस हिस्सा ज़मीन पर पड़ें। उन्होंने देखा कि बहुत सी च्यूँटियाँ वहाँ जमा हैं और सहदेव के छिड़के हुए आटे को ख़ुश-ख़ुश अपने नन्हे-नन्हे मुँह में दबा-दबा कर क़रीब ही के एक सुराख़ में ले जा रही हैं। सेठ जी ये समां देखते ही अपना ग़ुस्सा भूल गए और वहीं ज़मीन पर बैठ कर सहदेव की झोली से आटा निकाल कर ख़ुद भी देर तक च्यूंटियों को खिलाते रहे और सहदेव से बिल्कुल दोस्ताना लब-ओ-लहजे में गुफ़्तगू करते रहे। इतना ही नहीं बल्कि उस दिन कई घंटे सहदेव के साथ घूमा किए और दोपहर तक लाखों च्यूँटियों को तलाश करके आटा खिलाया और जब इसपर भी सहदेव की झोली ख़ाली हुई तो तालाब पहुंचे और उसके मशवरे से पानी मिलाकर बक़िया आटे की गोलियाँ बनाईं और उनको मछलियों की नज़र कर दिया।

    अब उस दिन से रोज़ाना सुबह को उनका ये मामूल हो गया कि वो घर से अपनी जेबों में कुछ अनाज भर के या रूमाल में थोड़ा सा आटा बाँध के निकलते और सहदेव के साथ उसी कार-ए-ख़ैर में दस बजा देते। सहदेव उनका रफ़ीक़, यार ग़ार, मुसाहिब और पक्का दोस्त बन गया। वो हर रोज़ कोई ज़ख़्मी मेंडक, कोई मजरूह केचुआ या कोई लँगड़ा कीड़ा तलाश कर के ले आता और बक़िया दिन सेठ जी के साथ मरहम पट्टी में मशग़ूल रहता था।

    गाँव वालों ने जो ये हालत देखी तो वो समझ गए कि बस अब बैलों की जोड़ी हाथ से गई और सहदेव से बदमाश को मिल गई। हर एक पेच-ओ-ताब खाने लगा। उनमें वो लोग जिन्होंने सहदेव से शर्त लगाई थी वो पेश-पेश थे। वो इस आसानी से हार मानने के लिए तैयार थे। फिर सहदेव का अकड़ा-अकड़ा के चलना उनसे देखा जाता था। चुनाँचे उन लोगों ने आपस में सलाह की और गाँव के पुरोहित के पास पहुँचे और उनसे सहदेव की चालों का हाल बयान कर दिया।

    पंडित जी यूँ तो ऐसे कामों में हाथ डालने से परहेज़ करते थे मगर सहदेव से उन्हें भी परखाश थी, गाँव में अकेला वही एक ऐसा था जो उनकी रहबरी का क़ाइल था। वो हमेशा उनसे इस तरह आज़ादी से गुफ़्तगू करता था जैसे पंडित जी के हाथ में तो स्वर्ग थी और नरख। इसलिए उन्होंने इस मौक़े से फ़ायदा उठाया और गाँव वालों की शिकायत लेकर सेठ जी के पास पहुँचे और उनसे सारी कथा कह डाली। वो पेच-ओ-ताब खाकर उस वक़्त तो चुप हो रहे मगर जब दूसरे दिन सहदेव ने हस्ब-ए-मामूल अमरूद के बाग़ के पास उन्हें सलाम किया तो उन्होंने मुँह फेर लिया और आगे बढ़ गए। वो इसपर भी जब माना और उनके पीछे हो लिया तो सेठ जी डाँट कर बोले,अबे बदमाश मेरे पास से दूर हो! तू मुझे बेवक़ूफ़ बनाता है। मुझे तेरे सारी चालें मालूम हो गईं।

    सहदेव चुपका वहाँ से पलट आया मगर इस अंदाज़ से कि ये मालूम होता था कि जैसे वो बिल्कुल मासूम है और अपनी सीरत पर बेजा इल्ज़ाम लगाए जाने से अज़ हद आज़ुर्दा। दिल में वो समझ गया कि यारों ने चुग़ली खाकर बने बनाए खेल को बिगाड़ दिया और सोने की चिड़िया हाथ से निकल गई। फिर भी वो इतनी आसानी से जीती हुई बाज़ी हारने के लिए तैयार था। वो यही सोच रहा था कि बिगड़ी बात क्योंकर बने कि सुख्खू, दीना और झगड़ू खीसे निकाले दिखाई दिए और हर एक ने मुस्कुरा मुस्कुरा के राम-राम किया। सहदेव इस मुस्कुराहट का सबब समझ कर दिल में तो बहुत कुढ़ा मगर उसके चेहरे पर भी जवाबी मुस्कुराहट मौजूद रही और जब सुख्खू ने ताड़ी-ख़ाना चलने की तजवीज़ की तो वो फ़ौरन तैयार हो गया।

    उस दिन ताड़ी-ख़ाने में सहदेव की बड़ी गत बनी। जो आता वो फ़िक़रे कसता था। जो जाता वो शर्तें याद दिला जाता था। हर एक उसीका जाम-ए-सेहत पीता था। कोई सहदेव की च्यूंटियों का नाम लेकर एक कुल्ल्हड़ पीता, कोई उसके मेंढ़कों के नाम पर एक कुज्जीकोई उसके केचुओं के नाम के साथ एक कूज़ा और कोई मनचला सहदेव के बैलों की जोड़ी कहके उसकी तरफ़ ताज़ीमन झुकता और पूरी लबनी मुँह से लगा लेता था। सहदेव ये सब सुनता और मुस्कुराता रहा था। जब लोग अच्छी तरह पी कर बद-मस्त हो गए तो वो मुस्कुराता हुआ खड़ा हो गया और बोला, का है आज कौन सरत लगावत है कि हम अब हूँ सेठ जी की जोड़ी जीतीहें?

    सबने हाथ उठा दिए और एक दूसरे पर सबक़त करने लगा। सहदेव ने उस दिन दस शर्तें और लगाईं और सीटी बजाता घर चल दिया।

    उस दिन से सहदेव तो ताड़ी-ख़ाने आया और सेठ जी के पास गया। दिन भर अपने कुत्ते को साथ लिए इधर उधर घूमा करता था। कभी ख़ुद दरख़्त पर बैठा होता था और कुत्ता नीचे ज़बान निकाले पहरेदारी करता होता था। कभी ख़ुद भी मैदानों में दौड़ता होता था और कुत्ता भी साथ-साथ। कभी ख़ुद तालाब में नहाता रहता था और कुत्ता कपड़ों के पास लेटा उनकी हिफ़ाज़त करता होता था। लोग कहते,कुछ हु नाहीं। हार गईल है। अब जी बहलावत है! पर अब सब किए का होत है?

    उसी हालत में दिन गुज़रते गए और वो दिन भी ही गया जिसकी शाम को सेठ जी शहर वापस जाने वाले थे। सहदेव सुबह-सवेरे ही उस दिन कुत्ते को साथ लेकर घर से निकल गया और सेठ जी को उनकी तफ़रीह के सिलसिले में बाग़ के पास मिला।

    उसने सेठ जी को बहुत झुक कर सलाम किया। उन्होंने क़ियाम के आख़िरी दिन ग़ुस्सा और नफ़रत का इज़हार मुनासिब समझा और जवाबे सलाम दे दिया मगर सहदेव की इससे तस्कीन हुई। उसने बहुत ही आहिस्ते से पूछा,सेठ जी, आज जात हो। बैलन की जोड़ी केहका मिली? सेठ जी जैनी सही फिर भी ज़मींदार थे। ग़ुस्से से बोले, तुझसे मतलब? तुझे मिलेगी!

    वो मुस्कुराया। फिर बोला, मुदा मलाक हमसे कोहू जियादा प्रेमी और दयालु नाहीं। हुजूर देखीं। कुत्ता कैसा पाजी है, पर हम एहू से प्रेम करत हैं!

    सेठ जी ने कुत्ते की तरफ़ देखा। अच्छा ख़ासा, मोटा ताज़ा सियाह रंग का देसी कुत्ता था। उस वक़्त सेठ जी को बड़ी मोहब्बत से देख रहा था और दुम को मोरछल की तरह हिला रहा था। ये बदमाश इस तरह के अच्छे कुत्ते को और पाजी कह रहा था। बोले,

    तू ख़ुद पाजी है। ये कुत्ता अच्छा ही है। तू इससे अगर मोहब्बत करता है तो कौन-सी नई बात है।

    सेठ जी के मुँह से ये अल्फ़ाज़ निकले ही थे कि सहदेव की ज़बान कुछ ख़ास तरह से घूमी और उसके मुँह से एक हल्की सी आवाज़ निकली। मअन सहदेव के नेक कुत्ते में इंक़लाब हुआ। वो मोहब्बत की जगह ग़ुस्से का मुजस्समा बन गया और उसने गुर्राकर सेठ जी की दाहिनी टाँग पकड़ ली।

    सेठ जी थर-थर काँपने लगे और बे-साख़्ता चीख़ कर बोले, दुत! दुत! अरे मुझे बचाओ! सहदेव अपनी जगह खड़ा मुस्कुराता रहा। सेठ जी ने उसकी तरफ़ देखा और ग़ुस्सा होकर बोले,बदमाश, लुच्चा! पाजी! तुझे कभी भी... इतना ही कहने पाए थे कि फिर सहदेव के मुँह से हल्की सी सीटी निकली और कुत्ते के दाँत सेठ जी की भरी-भरी पिंडली में और सख़्ती से चुभने लगे। उन्होंने टाँग ज़ोर-ज़ोर से झटकी। कुत्ता जोंक की तरह लटका रहा। उन्होंने हसरत से इधर-उधर नज़र की। दूर तक सिवाए इस शरीर सहदेव के और कोई दिखाई देता था। तकलीफ़ से बेचैन होकर उसी से गिड़गिड़ा कर बोले, राम के वास्ते इससे मुझे छुड़ा दे। वो मतानत से बोला, हुजूर फिजूल दुखित होत हैं। बड़ा खिलाड़ी है हुजूर से खेलत है! और फिर वही सीटी बजा दी। सेठ जी तड़पने लगे। वो शरीर बोला, हाँ-हाँ, हुजूर, जिन परेसान होईं। हें-हें, अरे कुत्ता के चोट लग जाई। चरन छुअत है और हुजूर ओहिका लात मारत हैं। और फिर सीटी बजा दी। सेठ जी की तकलीफ़ से आँखें निकली पड़ती थीं, बड़ी मिन्नत से बोले,

    राम के वास्ते बात बना। इस कुत्ते मरदूद को एक लात मार कर मुझे चढ़ा दे! सहदेव ने हद दर्जा मुतअज्जिब सूरत बनाकर कहा,ई कुत्ता हम मारें। इतनी बड़ी होशियार हुजूर का सामने। तब हुजूर हमका बैलन की जोड़ी मिल चुकी! और फिर वही सीटी बजा दी। सेठ जी चीख़ने लगे, हाय मरा, हाय मरा... अरे ज़ालिम... मुझे छुड़ा दे... जोड़ी तुझी को दूँगा... सच कहता... हूँ!

    सहदेव ने कहा, गंगा कसम?

    सेठ जी ने बेबसी से कहा,गंगा क़सम तुझी को बैलों की... जोड़ी... दूँगा!

    ये सुनते ही सहदेव ने कुत्ते को इतनी सख़्त लात झाड़ी कि वो पें-पें करता दूर भाग गया और ख़ुद गिरते हुए सेठ जी को गोद में उठा कर गाँव की तरफ़ चला।

    थोड़ी देर बाद सेठ जी मोटर पर सवार होकर शहर की तरफ़ रवाना हुए और उनकी सबसे अच्छी बैलों की जोड़ी ताड़ी-ख़ाने की जानिब चली। कुत्ता आगे-आगे भौंकता जा रहा था। बैल अपनी-अपनी ख़ूबसूरत गर्दनें झुकाए बीच में थे और सहदेव पीछे-पीछे। मगर इस शान से कि बाएँ हाथ में तो एक बैल की दुम थी और दाहिना हाथ मूँछों पर था। ये हाथ उस दिन सिर्फ़ दो बार उस मक़ाम से खिसका। एक तो ताड़ी-ख़ाने पहुँच कर तीस हारे हुए हरीफ़ों से शर्तों के रूपये वसूल करने के लिए या फिर झगड़ू, सुख्खू और दीना को राम-राम करने के वास्ते।

    झगड़ू और सुख्खू तो कुछ खिसिया से गए मगर दीना मुस्कुरा कर बोला,हाँ रे,तें हँस ले। पर हमका जानत रहिन की (कि) सेठ जी सहर माँ रहे फिर भी बिल्कुल बैल (बेवक़ूफ़) हन!

    सहदेव ने मुस्कुरा कर पूछा, और तूँ (तुम?)

    दीना इस पर चुप हुआ मगर झगड़ू ने हारे हुए शातिर की तरह हद दर्जा तल्ख़ लब-ओ-लहजे में अपने साथी के लिए कहा,ई? अरे ऐहू (ये भी) बैल हन। हम लोग इन ही का (इन्हीं के) संघत में ख़राब गइन। बस इनका और सेठ जी का खूब जोड़ी बनी। दोनों का दोनों बैल हन! (वो) देहातन (देहातियों) का घामड़ समझिन और तुमका अपना सा मूर्ख।

    स्रोत :

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए