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बैन

MORE BYअहमद नदीम क़ासमी

    स्टोरीलाइन

    एक पीर के इश्क में दीवानी होकर मर जाने वाली लड़की की कहानी। अपने पैदाइश के वक़्त से ही वह अपने माँ-बाप की चहीती थी। उसकी हर चीज़ अनोखी और दूसरों से अलग थी। वह थोड़ी बड़ी हुई तो दूसरे बच्चों की तरह खेलने की बजाए उसने कु़रआन और दीन सीखना शुरू कर दिया। फिर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई अपनी दीनदारी के लिए वह पूरे इलाके़ में मशहूर हो गई। मगर कौन जानता था कि एक दिन यही दीनदारी उसकी जान ले लेगी।

    बस कुछ ऐसा ही मौसम था मेरी बच्ची, जब तुम सोलह सतरह साल पहले मेरी गोद में आई थीं। बकाइन के ऊदे ऊदे फूल इसी तरह महक रहे थे और बेरियों पर गिलहरीयाँ चोटी तक इसी तरह भागी फिरती थीं और ऐसी हवा चल रही थी जैसे सदियों के सूखे किवाड़ों से भी कोंपलें फूट निकलेंगी। जब तुम मेरी गोद में आई थीं तो दीये की काली पीली रोशनी में ऊँघता हुआ कोठा चमकने सा लगा था और दाया ने कहा था कि हाए-री, इस छोकरी के तो अंग अंग में जुगनू टिके हुए हैं! उस वक़्त मैंने भी दर्द के ख़ुमार में अपने जिस्म के उस टुकड़े को देखा था और मुझे तो याद नहीं पर दाया ने बाद में मुझे बताया था कि मैं मुस्कुरा कर तुम्हारे चेहरे की दमक में अपने हाथों की लकीरों को यूं देखने लगी थी जैसे कोई ख़त पढ़ता है।

    अगली रात जब तुम्हारे बाबा ने मौक़ा पा कर तुम्हें देखा था तो उदास हो गया था और मैंने कहा था, तुम तो कहते थे बेटा हो या बेटी सब ख़ुदा की देन है, फिर अब क्यों मुँह लटका लिया है और उसने कहा था, तू नहीं जानती ना भोली औरत, तू माँ है ना। तू कैसे जाने कि ख़ुदा इतनी ख़ूबसूरत लड़कियां सिर्फ ऐसे बंदों को देता है जिनसे वो बहुत ख़फ़ा होता है। उस वक़्त मेरा जी चाहा था कि मैं तुम्हारे बाबा की आँखें उस की खोपड़ी में से निकाल कर बादामों की तरह तोड़ दूं क्यों कि मेरी जान, वो तो तुम्हें इस तरह देख रहा था जैसे चिड़िया साँप को देखती है, वो तुम्हारी ख़ूबसूरती देखकर डर गया था और फिर उसने अपनी उम्र के सोलह सतरह साल तुमसे डरते डरते गुज़ार दिए। वो अब भी डरा और सहमा हुआ, बाहर गली में बिछी हुई चटाईयों पर लोगों में घिरा बैठा है और आसमानों को यूं देख रहा है जैसे कोई उस की तरफ़ रहा है।

    तुम मुझ पर तो नहीं गई थीं मेरी बच्ची, में तो गांव की एक आम लड़की थी। मेरा नाक नक़्शा बिलकुल सीधा सादा था। हाँ तुम अपने बाबा पर गई थीं जो बहुत ख़ूबसूरत था। वो तो अब भी ख़ूबसूरत है पर अब उस की ख़ूबसूरती सोलह सतरह साल की गर्द से अट गई है। अब भी इस की बड़ी बड़ी चीरोएं बादामी आँखें हैं और अब भी इस के चेहरे और मूंछों के रंग में सोना है पर जब तुम पैदा हुई थीं ना तो वो बिलकुल मूरत था। तुम आईं तो वो डर गया था मगर उस डर ने उस की शक्ल नहीं बदली। बस ज़रा सी बुझा दी। तुम्हारे आने के बाद मैंने उस के मोतीयों के से दाँत बहुत कम देखे। उस के पंखुड़ी होंट हमेशा यूं भिंचे रहे जैसे खुले तो कुछ हो जाएगा। अभी कुछ देर पहले जब वो आया और उसने तुम्हें देखा तो मुझे ऐसा लगा जैसे किसी बहुत बड़े महल की बुनियादें बैठ रही हैं। वो यहां खड़े खड़े ही एक दम अंदर से बूढ़ा हो गया। जब वो पल्टा तो मैं डरी कि वो गली तक पहुंचने से पहले ही ढेर हो जाएगा मगर अभी अभी मैंने दीवार पर से झाँका है तो वो गली में बैठा है और जमा होते हुए लोगों को यूं डर डर कर, चौंक चौंक कर देख रहा है जैसे उस की चोरी पकड़ी गई है।

    तुम जब तीन चार साल की हो कर भागने दौड़ने लगीं तो देखने वालों को यक़ीन नहीं आता था कि मिट्टी का बना हुआ इन्सान इतना ख़ूबसूरत भी हो सकता है। एक-बार तुम गिर पड़ीं और तुम्हारे माथे पर चोट आई तो में तो रोते-रोते निढाल हो गई पर तुम्हारे बाबा ने चहक कर कहा था ख़ुदा जो भी करता है ठीक करता है। हमारी राणो बेटी के माथे पर चोट के निशान ने उस की ख़ूबसूरती को दाग़दार कर दिया है। पर ख़ुदा को तो कुछ और मन्ज़ूरथा। चोट का निशान तो बाक़ी रह गया मगर ये निशान बिलकुल नए नए चांद का सा था। लाल लाल सा भी और सुनहरा सुनहरा सा भी, जो अब मेरी जान, पीला पीला सा लग रहा है।

    फिर जब तुम पाँच साल की हुईं तो मैंने क़ुरआन शरीफ़ पढ़ाने के लिए तुम्हें बी-बी जी के पास बिठा दिया। तब पता चला कि तुम्हारी आवाज़ भी तुम्हारी तरह ख़ूबसूरत है। बी-बी जी के घर की दीवारों के अंदर से क़ुरआन शरीफ़ पढ़ने वाली बच्चियों की आवाज़ें आती थीं तो उनमें से मेरी राणो बेटी की आवाज़ साफ़ पहचानी जाती थी। तुम्हारी आवाज़ में चांदी की कटोरीयाँ बजती थीं। ऐसी खनक कि तुम चुप भी हो जाती थीं तो जब भी चार तरफ़ से झनकार सी उठती रहती थी। फिर यूं हुआ कि पहले तुम आयत पढ़ती थीं और तुम्हारे बाद तुम्हारी हम सबकों की आवाज़ें आती थीं। यूं जब तुम अकेली पढ़ रही होती थीं तो गली में से गुज़रने वालों के क़दम रुक जाते थे और चिड़ियों के ग़ोल मुंडेरों पर उतर आते थे। एक-बार मज़ार साईं दूल्हे शाह जी के मुजाविर साईं हज़रत शाह इधर से गुज़रे थे और तुम्हारी आवाज़ सुनकर उन्होंने कहा था ये कौन लड़की है जिसकी आवाज़ में हम फ़रिश्तों के परों की फड़फड़ाहट सुन रहे हैं और जब तुम्हें मालूम हुआ था कि साईं हज़रत शाह ने तुम्हारे बारे में ये कहा है तो तुम इतनी ख़ुश हुई थीं कि रोने लगी थीं।

    तब यूं हुआ कि औरतें पानी से भरे हुए बर्तन लातीं और तुम्हारी तिलावत ख़त्म होने का इंतिज़ार करती रहतीं। तुम क़ुरान-ए-पाक बंद कर के उठतीं और तुफ़ैल साईं दूल्हे शाह जी कहती हुई उन बर्तनों पर छूह करतीं और औरतें ये पानी अपने अज़ीज़ों को पिलातीं तो बीमार अच्छे हो जाते, बुरे नेक हो जाते, बे नमाज़ी नमाज़ी हो जाते।

    उन दिनों मुझे यूं लगने लगा जैसे तुम नूर की बनी हुई तो ख़ैर हमेशा से हो, पर अब तुम बी-बी जी के हाँ से वापिस घर में आतीं तो तुम्हारे चेहरे पर मेरी नज़रें ना जम पातीं, जैसे सूरज पर नज़र नहीं जमती।

    ख़ुदा और रसूल सिल्ली अल्लाह अलैहि-ओ-सल्लम के बाद तुम साईं दूल्हे शाह जी का नाम जपती रहती थीं। इसी लिए तो तुम्हारा बाबा एक-बार तुम्हें साईं दूल्हे शाह जी के मज़ार पर सलाम भी करा लाया था।

    क़ुरआन शरीफ़ तुमने इतना पढ़ा मेरे जिगर की टुकड़ी, कि अब भी जब चारों तरफ़ सन्नाटा और सिर्फ इधर उधर से सिसकी की आवाज़ आती है, मैं तुम्हारे आस-पास, तुम्हारी ही आवाज़ में क़ुरआन शरीफ़ की तिलावत सुन रही हूँ। तुम्हारे होंट तो नहीं हिल रहे, पर मैं अपने दूध की क़सम खा कर कहती हूँ कि ये आवाज़ तुम्हारी है। ज़मीन पर ऐसी नूरानीआवाज़ मेरी रानों के सिवा और किस की हो सकती है।

    एक दिन जब तुम्हारे चाचा दीन-ए-मोहम्मद की बीवी अपने बेटे के लिए तुम्हारा रिश्ता पूछने आई तो तब मुझे मालूम हुआ कि तुम शादी की उम्र को पहुंच गई हो। माएं तो बेटी के सर पर चुन्नी लेते ही समझ जाती हैं कि वक़्त रहा है, पर तुम्हारे बारे में तो मैं सोच ही ना सकी। तुम ने सोचने की मोहलत ही ना दी। मैंने तुम्हारे बाबा से अपनी इस बे-ख़बरी की बात की तो वो बोला तू तो सदा की बे-ख़बर है पर में ऐसा बे-ख़बर नहीं हूँ। बस ये है कि मुझे लड़की से डर लगता है, उस से भी तो बात करो। उसने तो जैसे अपना सब कुछ मौला की राह में तज दिया है।

    तब पहली बार मुझे भी तुम से ख़ौफ़ आया। मैंने सोचा अगर मैंने तुमसे रिश्ते की बात की तो कहीं तुम जलाल में ना जाओ, मगर फिर उसी शाम को साईं हज़रत शाह का एक ख़ादिम आया और उसने बताया कि कल से साईं दूल्हे शाह का उर्स है जो तीन दिन तक चलेगा और साईं हज़रत शाह ने ख़्वाब में साईं दूल्हे शाह जी को देखा है और ये फ़रमाते सुना है कि मेरी चेली रानो को बुला कर तीन दिन तक उस से मेरे मज़ार पर क़ुरआनशरीफ़ की तिलावत कराओ वर्ना सबको भस्म कर दूँगा। तुम जानती थीं बेटी कि साईं दूल्हे शाह जी बड़े जलाल वाले साईं थे। ज़िंदगी में जिसने भी उनके ख़िलाफ़ कोई बात की उसे बस एक नज़र भर कर देखा और राख कर डाला। मरने के बाद भी उनकी दरगाह में या उस के आस-पास कोई बुरा काम या बुरी बात हो जाये तो उनका मज़ारे शरीफ़ सिरहाने की तरफ़ से खुल जाता है और उस में से उनका दस्त-ए-मुबारक बुलंद होता है। बुरा काम या बुरी बात करने वाला जहां भी हो खिंचा चला आता है। अपनी गर्दन साईं जी के दस्त-ए-मुबारक में दे देता है और फिर वहीं ढेर हो जाता है। साईं जी का दस्त-ए-मुबारक वापिस मज़ारे शरीफ़ में चला जाता है और मज़ारे शरीफ़ की दराड़ें यूं जुड़ जाती हैं जैसे कभी खुली ही नहीं थीं।

    किस की मजाल थी कि साईं दूल्हे शाह जी का हुक्म टालता। दूसरे दिन सुबह को हम तीनों एक ऊंट पर कुजावे में बैठे थे और दरगाह साईं दूल्हे शाह जी की तरफ़ जा रहे थे। मैं कुजावे के एक तरफ़ थी और तुम मेरी जान, दूसरी तरफ़ थीं और दरमयान में ऊंट के पालान पर तुम्हारा बाबा बैठा था। ऊंट जूंही उठा था और चलने लगा था तो तुमने क़ुरआनशरीफ़ की तिलावत शुरू कर दी थी और मेरी पाक और नेक बच्ची, मैंने अपनी आँखों से देख लिया था कि हमारा ऊंट जहां से भी गुज़रता था, लोग दूर दूर से खिंचे चले आते थे। वो हमारे साथ साथ चल रहे थे और रो रहे थे और सुब्हान-अल्लाह कह रहे थे और कुजावे के ऊपर चिड़ियों और अबाबीलों और कबूतरों के झुण्ड के झुण्ड आते थे और ग़ोता लगा कर जैसे मेरी बच्ची की आवाज़ का शर्बत पी कर नाचते तैरते हुए दूर निकल जाते थे और मैं सोचती थी कि ये हम गुनहगारों की किस नेकी का बदला है कि ख़ुदा ने हमें ऐसी बेटी बख़शी है जो ज़मीन पर क़ुरआन शरीफ़ की तिलावत करती है तो उस की आवाज़ आसमान तक जाती है। आसमान का ख़्याल मुझे यूं आया था कि एक-बार तुम्हारे बाबा ने पालान पर से झुक कर के मेरे कान में हौले से कहा ऊपर देखो, ये कैसे नूरानी परिंदे हैं जो हमारे साथ साथ उड़ रहे हैं। मैंने इन इलाक़ों में ऐसा परिंदा कभी नहीं देखा कि उनके परों में सितारे चमकते हों। ये तो आसमानों से उतर कर आने वाले फ़रिश्ते मालूम होते हैं और मेरी आँखों का नूर बची, मैं तुम्हारी जाहिल माँ भी क़सम खा कर कह सकती हूँ कि वो फ़रिश्ते ही थे। कुछ ऐसे जैसे नन्हे मुन्ने बच्चों के पर लग गए हों और वो हवा में हुमकते फिरते हों। वो मेरी पहुंची हुई बेटी से तिलावत सुनने आए थे।

    फिर जब दरगाह साईं दूल्हे शाह जी के पास हमारा ऊंट बैठा था तो जैसे तुम भूल गई थीं कि तुम्हारे साथ तुम्हारे माँ बाप भी हैं. तुम मज़ारे शरीफ़ की तरफ़ यूं खिंची चली गई थीं जैसे साईं दूल्हे शाह जी तुम्हारी उंगली पकड़ कर तुम्हें अपने घर लिए जा रहे हों। मज़ारे शरीफ़ को बोसा देकर और उस के एक तरफ़ बैठ कर तुम ने क़ुरआन शरीफ़ की तिलावत कर दी थी और तुम्हारी आवाज़ की मिठास चखने के लिए उर्स पर आने वाले लोग मज़ारे शरीफ़ पर टूट पड़े थे। हम दोनों ने मज़ारे शरीफ़ को अपनी पोरों से छुवा और फिर अपनी पोरें चूम लें। फिर हम साईं हज़रत शाह की ख़िदमत में उनके ज़ानुओं को छूने और दस्त-ए-मुबारक को चूमने पहुंचे थे और उन्होंने फ़रमाया था अपनी बेटी को साईं जी के क़दमों में बिठा कर तुमने अपने अगले पिछले गुनाह माफ़ करा लिये हैं। तुम इंशाअल्लाह जन्नती हो। ये सुनकर ख़ुशी से हमारी साँसें फूल गई थीं। फिर मैंने अंदर जा कर बीबियों को सलाम किया था और तुम्हें मेरी जान,साईं दूल्हे शाह जी और साईं हज़रत शाह और उनके घराने की बीबियों की अमानत में देकर हम दोनों ये कह कर वापिस गांव गए थे कि उर्स के तीन दिन गुज़रने के बाद अगले रोज़ हम अपनी इस ने’अमत को लेने हाज़िर हो जाऐंगे जो ख़ुदा ने और उस के हबीब पाक ने हम-ग़रीबों, गुनहगारों को हमारी किसी सीधी-सादी नेकी से ख़ुश हो कर बख़शी है।

    मेरी बच्ची, मेरी जिगर की टुकड़ी, मेरी साफ़ सुथरी रानो बेटी! फिर जब तीन दिनों के बाद हम दोनों साईं दूल्हे शाह जी के मज़ारे शरीफ़ पर गए थे तो तुम वहीं बैठी थीं जहां हम तुम्हें बिठा गए थे, मगर क्या ये तुम ही थीं, तुम्हारी आँखों की पुतलियां फैल गई थीं, तुम्हारे होंटों पर जमे हुए ख़ून की पपड़ीयाँ थीं, तुम्हारे बाल उलझ रहे थे। चादर तुम्हारे सर से उतर गई थी मगर अपने बाबा को देखकर भी तुम्हें अपना सर ढांपने का ख़्याल नहीं आया था। तुम्हारा रंग मिट्टी मिट्टी हो रहा था और हमें देखते ही तुम चिल्ला पड़ी थीं मुझसे दूर रहो बाबा, मेरे पास ना आना अम्मां। मैं अब यहीं रहूंगी। मैं उस वक़्त तक यहीं रहूंगी जब तक साईं दूल्हा शाह जी का मज़ारे शरीफ़ नहीं खुलता और उस में से उनका दस्त-ए-मुबारक नहीं निकलता। जब तक फ़ैसला नहीं होता में यहीं रहूंगी। जब तक इन्साफ़ नहीं होगा मैं यहीं रहूंगी और मज़ारे शरीफ़ खुलेगा। आज नहीं तो कल खुलेगा। एक महीना बाद, एक साल बाद, दो साल बाद सही, पर मज़ारे शरीफ़ ज़रूर खुलेगा और दस्त-ए-मुबारक ज़रूर निकलेगा।तब मैं ख़ुद ही अपने बाबा और अपनी अम्मां के क़दमों में चली आऊँगी और सारी इमरान की जूतीयां सीधी करूँगी और उनके पांव धो धो कर पियूँगी। पर अब मैं नहीं आऊँगी, अब मैं नहीं सकती। मैं बंध गई हूँ। मैं मर गई हूँ। फिर तुम्हें एक दम बहुत सा रोना गया था मगर तुमने एक दम अपने आँसू रोक लिये थे और तुम भीगी हुई आवाज़ में तिलावत करने लगी थीं। आस-पास खड़े हुए बीसियों लोग हमारे साथ ज़ार ज़ार रोने लगे थे और कहने लगे थे असर हो गया है, दिन रात मज़ारे शरीफ़ पर रहने से इस पर-असर हो गया है।

    तुम्हारे बाबा ने फ़रियाद की थी। असर हो गया है? दिन रात क़ुरआन शरीफ़ की तिलावत करने वाली लड़की पर कोई असर कैसे हो सकता है और अगर तुम कहते हो कि असर हो गया है तो साईं हज़रत शाह कहाँ हैं? वो रोता हुआ साईं हज़रत शाह की तरफ़ चल पड़ा था और मैं बिलकती हुई उस के पीछे पीछे थी, मगर हमें खादिमों ने बताया था कि साईं जी तो उर्स के फ़ौरन बाद एक हुजरे में बंद हो कर बैठ जाते हैं और कई दिनों तक वज़ीफ़ा फ़रमाते हैं और किसी से नहीं मिलते. फिर मैंने अंदर बीबियों के पास जाना चाहा था मगर बड़े दरवाज़े पर ख़ादिमाओं ने बताया था कि रानो की हालत से बीबियाँ पहले ही बहुत परेशान हैं और उन्हें ज़्यादा परेशान करना गुनाह है।

    हम उजड़े पिजड़े माँ बाप, मज़ारे शरीफ़ से एक तरफ़ हट कर बैठ गए थे और रो रहे थे और लोग हमें रोता देखकर रो रहे थे कि साईं हज़रत शाह का ख़ास ख़ादिम आया था और उसने बताया था कि साईं जी को बहुत रानो की इस हालत का बड़ा दुख था और उन्होंने फ़रमाया था कि ये लड़की अचानक जिन भूत के क़बज़े में चली गई है और साईं हज़रत शाह एक ख़ास वज़ीफ़ा फ़रमा रहे हैं कि ये जिन्न उतरे तो इस अमानत को इस के माँ बाप तक पहुंचाया जाये। फिर हुक्म हुआ था कि तुम जाओ और रानो को दरगाह शरीफ़ की निगरानी में रहने दो।

    अब तुम जाओ। हमारे सरों पर तुम्हारी आवाज़ आई थी और हमने सर उठा कर देखा था कि तुम्हारी आँखें तालाबों की तरह भरी हुई थीं। अब तुम जाओ मेरे बाबा, जाओ मेरी अम्मां। अब तुम जाओ मज़ारे शरीफ़ ज़रूर खुलेगा। दस्त-ए-मुबारक ज़रूर निकलेगा। फ़ैसला ज़रूर होगा। फ़ैसला हो जाये तो मैं सीधी तुम्हारे पास पहुँचूँगी। साईं दूल्हे शाह जी ख़ुद मुझे तुम्हारे पास छोड़ जाऐंगे। अब तुम जाओ। ये कह कर तुम मज़ारे शरीफ़ की तरफ़ पलट गई थीं और तुम चलते हुए यूं डोल रही थीं जैसे कटी हुई पतंग डोलती है।

    मैं तुम पर से सदक़े जाऊं मेरी बेटी। हम तुम्हारे माँ बाप उस के बाद भी बार-बार तुम्हारे पास पहुंचे मगर अब तो तुम हमें पहचानती भी नहीं थीं। हम तुम्हें पुकारते थे तो तुम हमारी तरफ़ यूं ख़ाली ख़ाली आँखों से देखती थीं जैसे हैरान हो रही हो कि ये आवाज़ किधर से आई है। तुम्हारा रंग ख़ाकसतरी हो गया था। तुम्हारे होंट अकड़ कर फट गए थे। तुम्हारे बालों में गर्द था और तिनके थे और टूटे हुए ख़ुशक पत्ते थे। एक-बार जब हम तुम्हारे लिए कपड़ों का नया जोड़ा लेकर गए और हमने ये कपड़े तुम्हारे सामने रख दिए तो तुम ये कपड़े हाथ में लेकर उठीं और एक तरफ़ चल पड़ीं तुम्हारा एक भी क़दम सीधा नहीं उठता था। फिर तुम ग़ायब हो गई थीं और हम ख़ुश हुए थे कि तुम कहीं कपड़े बदलने गई हो, मगर फिर एक दम एक तरफ़ से शोर उठा था। तुम उसी रफ़्तार से वापिस रही थीं और तुम्हारे पीछे दरगाह शरीफ़ के चंद ख़ादिम थे जिन्होंने बताया था कि तुमने नए कपड़ों का ये जोड़ा और दरगाह शरीफ़ के लंगर की देग के नीचे भड़कती आग में झोंक दिया था।

    तिलावत तो तुम अब भी कर रही थीं मगर आवाज़ में चांदी की कटोरीयाँ नहीं बजती थीं। फिर तुम पढ़ते पढ़ते मज़ारे शरीफ़ के सिरहाने की तरफ़ झुक जाती थीं जैसे कोई झुर्री, कोई दराड़ ढ़ूढ़ने की कोशिश में हो फिर तुम टूट कर रो देती थीं और तिलावत को रोक कर हौले हौले जैसे ख़ुद को समझाती थीं। मज़ारे शरीफ़ ज़रूर खुलेगा। दस्त-ए-मुबारक ज़रूर निकलेगा। फ़ैसला ज़रूर होगा। इन्साफ़ ज़रूर होगा। फिर तुम आँखें बंद कर लेती थीं और तिलावत में मसरूफ़ हो जाती थीं।

    एक-बार हम साईं हज़रत शाह की ख़िदमत में भी हाज़िर हुए थे और अर्ज़ किया था कि जिन्न भूत कलाम-ए-पाक पढ़ने वालों के पास भी नहीं फटकते। दूर से बैठे हंसते रहते हैं और झूमते रहते हैं और अगर हमारी हीरा बेटी पर ऐसे काफ़िर जिन्न गए हैं जो क़ुरआनशरीफ़ की तिलावत का भी लिहाज़ नहीं करते, तो ये आपकी दरगाह शरीफ़ ही के जिन्न हैं। आपके हुक्म से उतर जाऐंगे। ख़ुदा के नाम पर, रसूले पाक के नाम पर, पीर दस्तगीर के नाम पर, साईं दूल्हे शाह जी के नाम पर हमारे साथ मज़ारे शरीफ़ पर चलिये और ये जिन्न उतारिये. और साईं हज़रत शाह ने फ़रमाया था कि हम जिन्न तो उतार देते मगर तुमने ठीक कहा, ये कोई बड़ा काफ़िर जिन्न है और काफ़िर जिन्न हमारे क़बज़े में नहीं हैं। हम यहां दुआ कर रहे हैं, तुम घर जा कर दुआ करो। हमारा वज़ीफ़ा जारी रहेगा।

    जब हम टूटे फूटे वापिस रहे थे तो बीबियों की एक बूढ़ी ख़ादिमा ने मुझे एक तरफ़ ले जा कर बताया था कि उर्स के तीसरे दिन साईं हज़रत शाह मज़ार की तरफ़ आए थे तो तुम्हारी बदनसीब बेटी ने मज़ारे शरीफ़ पर से गोल गोल लहरीए पत्थर उठा कर झोली में भर लिये थे और चीख़ चीख़ कर कहा था कि साईं! मज़ारे शरीफ़ से दस्त-ए-मुबारक तो जब निकलेगा, निकलेगा अगर तुम एक क़दम भी आगे बढ़े तो मैं साईं दूल्हे शाह जी के दिये हुए इन पत्थरों से तुम्हारा नास कर दूँगी। ख़ादिम तुम्हारी बेटी को पकड़ कर मारने पीटने के लिए आगे बढ़े थे तो साईं जी ने उन्हें रोक कर कहा था कि नादानो ये लड़की नहीं बोल रही है इस के अंदर का काफ़िर जिन्न बोल रहा है। जब तक ये मज़ारे शरीफ़ पर क़ाबिज़ है हमें और हमारे ख़ानदान के किसी मर्द औरत को इधर नहीं आना चाहिए वर्ना क्या ख़बर ये जिन्न क्या कर बैठे।

    फिर रात दरगाह शरीफ़ का एक ख़ादिम आया कि तुम्हारी बेटी तुम्हें बुला रही है। पर रातों रात गिरते पड़ते वहां पहुंचे तो तुम मज़ारे शरीफ़ की पायेंती लेटी हुई थीं। चराग़ की रोशनी में हमने देखा कि तुम्हारी नज़र टिक गई थीं और तुम्हारे होंट ज़रा ज़रा से हिल रहे थे। ज़ाहिर है तुम उस वक़्त भी तिलावत ही कर रही थीं। फिर जब मैंने तुम्हारा सर अपनी गोद में रखा और तुम्हारे बाबा ने तुम्हारा हाथ अपने हाथों में लेकर रोना शुरू कर दिया तो निहायत ही कमज़ोर आवाज़ में तुमने कहा था मेरी अम्मां, मेरे अब्बा कौन जाने मज़ारे शरीफ़ क्यों नहीं खुला। इन्साफ़ तो नहीं हुआ पर चलो फ़ैसला तो हो गया। चलो मैं ही गुनहगार सही। साईं दूल्हे शाह जी, आपने तो बड़ा इंतिज़ार कराया। अब क़ियामत के दिन जब हम सब ख़ुदा के सामने पेश होंगे। जब हम ख़ुदा के सामने पेश होंगे। ख़ुदा के सामने। ख़ुदा! उस के बाद तुम चुप हो गई थीं और तब से चुप हो।

    फिर हम तुम्हें यहां घर में उठा लाए और जब अभी अभी सवेरे साईं हज़रत शाह का ख़ास ख़ादिम साईं जी की तरफ़ से तुम्हारे लिए कफ़न लाया तो तुम पर से उतरा हुआ जिन्न जैसे तुम्हारे बाबा पर गया। उसने कफ़न हाथ में लिया और उसे इस चूल्हे में झोंक दिया जिस पर तुम्हें ग़ुसल देने के लिए पानी गर्म किया जा रहा था।

    अब मेरे जिगर की टुकड़ी, मेरे नेक और पाक, मेरी साफ़ और सुथरी रानो बेटी! आओ मैं तुम्हारे माथे के बुझे हुए चांद को चूम लूं। देखो कि बकाइन के ऊदे ऊदे फूल महक रहे हैं और बेरियों पर गिलहरीयाँ तने से चोटी तक भागी फिर रही हैं और ऐसी हवा चल रही है जैसे सदीयों के सूखे किवाड़ों से भी कोंपलें फूट निकलेंगी और चार तरफ़ तुम्हारी तिलावत की गूंज है और साईं हज़रत शाह के भेजे हुए कफ़न के जलने की बू अब तक सारे में फैल रही है और मेरे अंदर इतना बहुत सा दर्द जमा हो गया है जैसे तुम्हें जन्म देते वक़्त जमा हुआ था।

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