बजूका
स्टोरीलाइन
किसान के जीवन की पृष्ठभूमि पर लिखी गई एक मर्मस्पर्शी कहानी है। इस कहानी की विशेषता यह है, कि इसका नायक भी प्रेमचंद के ‘गोदान’ उपन्यास का होरी ही है। प्रेमचंद अपने उपन्यास में होरी को अंत में मार देते हैं, जबकि यहाँ होरी के बुढ़ापे को, उसके पूरे परिवार और उनकी तत्कालीन परिस्थिति को दिखाया गया है। बुढ़ापे में कृषक होरी के सामने कौन सी नई समस्या आती है, उसी को इस कहानी में बयान किया गया है।
प्रेमचंद की कहानी का ‘‘होरी’’ इतना बूढ़ा हो चुका था कि उस की पलकों और भवों तक के बाल सफ़ेद हो गए थे कमर में ख़म पड़ गया था और हाथों की नसें सांवले खुरदुरे गोश्त से उभर आई थीं।
इस असना में उस के हाँ दो बेटे हुए थे जो अब नहीं रहे। एक गंगा में नहा रहा था कि डूब गया और दूसरा पुलिस मुक़ाबले में मारा गया। पुलिस के साथ उस का मुक़ाबला क्यूँ हुआ इस में कुछ ऐसी बताने की बात नहीं। जब भी कोई आदमी अपने वुजूद से वाक़िफ़ होता है और अपने इर्द गिर्द फैली हुई बे-चैनी महसूस करने लगता है तो उस का पुलिस के साथ मुक़ाबला हो जाना क़ुदरती हो जाता। बस ऐसा ही कुछ उस के साथ हुआ था... और बूढ़े होरी के हाथ हल के हत्थे को थामे हुए एक बार ढीले पड़े ज़रा काँपे और फिर उनकी गििरफ़्त अपने आप मज़बूत हो गई। उसने बैलों को हाँक लगाई और हल का फल ज़मीन का सीना चीरता हुआ आगे बढ़ गया।
उन दोनों बेटों की बीिवयाँ थीं और आगे उनके पाँच बच्चे, तीन गंगा में डूबने वाले के और दो पुलिस मुक़ाबले में मारे जाने वाले के। अब इन सबकी परवरिश का बार होरी पर आन पड़ा था, और उस के बूढ़े जिस्म में ख़ून ज़ोर से गर्दिश करने लगा था।
उस दिन आसमान सूरज निकलने से पहले कुछ ज़ियादा ही सुर्ख़ था और होरी के आँगन के कुएँ के गिर्द पाँचो बच्चे नंग धड़ंग बैठे नहा रहे थे। उस की बड़ी बहू कुएँ से पानी निकाल निकाल कर उन पर बारी बारी उंडेलती जा रही थी और वो उछलते हुए अपना पंडा मलते पानी उछाल रहे थे। छोटी बहू बड़ी बड़ी रोटियाँ बना कर चंगेरी में डाल रही थी और होरी अन्दर कपड़े बदल कर पगड़ी बाँध रहा था। पगड़ी बाँध कर उसने ताक़चे में रक्खे आईने में अपना चेहरा देखा... सारे चेहरे पर लकीरें फैल गईं। उसने क़रीब ही लटकी हुई हनुमान जी की छोटी सी तस्वीर के सामने आँखें बन्द कर के दोनों हाथ जोड़ कर सर झुकाया और फिर दरवाज़े में से गुज़र कर बाहर आँगन में आ गया।
“सब तय्यार हैं? उसने क़द्रे ऊँची आवाज़ में पूछा।”
“हाँ बापू...” सब बच्चे एक साथ बोल उठे। बहुओं ने अपने सुरों पर पहलू दुरुस्त किए और उनके हाथ तेज़ी से चलने लगे। होरी ने देखा कि कोई भी तय्यार नहीं था। सब झूट बोल रहे थे। उसने सोचा ये झूट हमारी ज़िन्दगी केलिए कितना ज़रूरी है। अगर भगवान ने हमें झूट जैसी ने’मत न दी होती तो लोग धड़ा धड़ मरने लग जाते। उस के पास जीने का कोई बहाना न रह जाता। हम पहले झूट बोलते हैं और फिर उसे सच करने की कोशिश में देर तक ज़िन्दा रहते हैं।
होरी के पोते पोतियाँ और बहुएँ... अभी अभी बोले हुए झूट को सच साबित करने में पूरी तनद ही से जुट गईं। जब तक होरी ने एक कोने में पड़े कटाई के औज़ार निकाले... और अब वो सचमुच तय्यार हो चुके थे।
उनका खेत लहलहा उठा था। फ़स्ल पक गई थी और आज कटाई का दिन था। ऐसे लग रहा था कि जैसे कोई त्यौहार हो। सब बड़े चाव से जल्द अज़ जल्द खेत पर पहुँचने की कोशिश में थे कि उन्होंने देखा सूरज की सुनहरी किरनों ने सारे घर को अपने जादू में जकड़ लिया है।
होरी ने अँगोछा कंधे पर रखते हुए सोचा। कितना अच्छा समय आ पहुँचा है न अह्ल-ए-मद की धौंस न बनिए का खटका न अंग्रेज़ की ज़ोर ज़बरदस्ती और न ज़मींदार का हिस्सा... उस की नज़रों के सामने हरे हरे ख़ोशे झूम उठे।
“चलो बाबू।” उस के बड़े पोते ने उस की उंगली पकड़ ली बाक़ी बच्चे उस की टांगों के साथ लिपट गए। बड़ी बहू ने कोठरी का दरवाज़ा बन्द किया और छोटी बहू ने रोटियों की पोटली सर पर रखी।
बीर बजरंगी का नाम ले कर सब बाहर की चारदीवारी वाले दरवाज़े में से निकल कर गली में आ गए और फिर दाएँ तरफ़ मुड़ कर अपने खेत की तरफ़ बढ़ने लगे।
गाँव की गलियों गलियारों में चहल पहल शुरू’ हो चुकी थी। लोग खेतों को आ जा रहे थे। सब के दिलों में मसर्रत के अनार छूटते महसूस हो रहे थे। सबकी आँखें पक्की फ़स्लें देखकर चमक रही थीं। होरी को लगा कि जैसे ज़िन्दगी कल से आज ज़रा मुख़्तलिफ़ है। उसने पलट कर अपने पीछे आते हुए बच्चों की तरफ़ देखा। वो बालक वैसे ही लग रहे थे जैसे किसान के बच्चे होते हैं। साँवले मरियल से... जो जीप गाड़ी के पहियों की आवाज़ और मौसम की आहट से डर जाते हैं। बहुएँ वैसी ही थीं जैसे ग़रीब किसान की बेवा औरतें होती हैं। चेहरे घूँघटों में छिपे हुए और लिबास की एक एक सिलवट में ग़रीबी जुओं की तरह छिपी बैठी।
वो सर झुका कर आगे बढ़ने लगा। गाँव के आख़िरी मकान से गुज़र कर आगे खिले खेत थे। क़रीब ही रहट ख़ामोश खड़ा था। नीम के दरख़्त के नीचे एक कुत्ता बे-फ़िक्री से सोया हुआ था। दूर तबेले में कुछ गाएँ भैंसें और बैल चारा खा कर फुन्कार रहे थे। सामने दूर दूर तक लहलहाते हुए सुनहरी खेत थे... उन सब खेतों के बाद ज़रा दूर जब ये सब खेत ख़त्म हो जाएँगे और फिर छोटा सा नाला पार कर के अलग थलग होरी का खेत था जिसमें झूना पक कर अंगड़ाइयाँ ले रहा था।
वो सब पगडंडियों पर चलते हुए दूर से ऐसे लग रहे थे जैसे रंग बिरंगे कपड़े सूखी घास पर रेंग रहे हों... वो सब अपने खेत की तरफ़ जा रहे थे। जिसके आगे थल था। दूर दूर तक फैला हुआ जिसमें कहीं हरियाली नज़र न आती थी बस थोड़ी बे-जान मिट्टी थी। जिसमें पाँव रखते ही धँस जाता था। और मिट्टी यूँ भुरभुरी हो गई थी कि जैसे उस के दोनों बेटों की हड्डियाँ चिता में जल कर धूल बन गई थीं और फिर हाथ लगाते ही रेत की तरह बिखर जाती थीं। वो थल धीरे धीरे बढ़ रहा था। होरी को याद आया पिछले पचास बरसों में वो दो हाथ आगे बढ़ आया था। होरी चाहता था कि जब तक बच्चे जवान हों वो थल उस के खेत तक न पहुँचे और तब तक वो ख़ुद किसी थल का हिस्सा बन चुका होगा।
पगडंडियों का न ख़त्म होने वाला सिलसिला और उस पर होरी और उस के ख़ानदान के लोगों के हरकत करते हुए नंगे-पाँव...
सूरज आसमान की मशरिक़ी खिड़की में से झाँक कर देख रहा था।
चलते चलते उनके पाँव मिट्टी से अट गए थे। कई इर्द-गिर्द के खेतों में लोग कटाई करने में मसरूफ़ थे वो आते-जाते को राम-राम कहते और फिर किसी अनजाने जोश और वलवले के साथ टहनियों को दरांती से काट कर एक तरफ़ रख देते।
उन्होंने बारी बारी नाला पार किया। नाले में पानी नाम को भी न था... अन्दर की रेत मिली मिट्टी बिल्कुल ख़ुश्क हो चुकी थी और इस पर अजीब-ओ-ग़रीब नक़्श-ओ-निगार बने थे। वो पानी के पाँव के निशान थे... और सामने लहलहाता हुआ खेत नज़र आ रहा था। सब का दिल बिल्लयों उछलने लगा... फ़स्ल कटेगी तो उनका आँगन फूस से भर जाएगा और कोठरी अनाज से फिर खटिया पर बैठ कर भात खाने का मज़ा आएगा। क्या डकारें आएंगी पेट भर जाने के बाद उन सबने एक ही बार सोचा।
अचानक होरी के क़दम रुक गए। वो सब भी रुक गए। होरी खेत की तरफ़ हैरानी से देख रहा था। वो सब कभी होरी को और कभी खेत को देख रहे थे कि अचानक होरी के जिस्म में जैसे बिजली की सी फुरती पैदा हुई। उसने चंद क़दम आगे बढ़कर बड़े जोश से आवाज़ लगाई।
“अबे कौन है... ये... ये...?”
और फिर सबने देखा उनके खेत में से कोई जवाब न मिला। अब वो क़रीब आ चुके थे और खेत के दूसरे कोने पर दरांती चलने की सराप सराप चलने की आवाज़ बिल्कुल साफ़ सुनाई दे रही थी। सब क़द्रे सहम गए। फिर होरी ने हिम्मत से ललकारा।
“कौन है हराम का जना... बोलता क्यूँ नहीं? और अपने हाथ में पकड़ी दरांती सूंत ली।”
अचानक खेत के परले हिस्से में से एक ढांचा सा उभरा और जैसे मुस्कुरा कर उन्हें देखने लगा हो... फिर उस की आवाज़ सुनाई दी।
“मैं हूँ होरी काका... बजूका!” उसने अपने हाथ में पकड़ी दरांती फ़ज़ा में हिलाते हुए जवाब दिया।
सबकी मारे ख़ौफ़ के घुटी घुटी सी चीख़ निकल गई। उनके रंग ज़र्द पड़ गए और होरी के होंटों पर गोया सफ़ेद पपड़ी सी जम गई... कुछ देर के लिए सब सकते में आ गए और बिल्कुल ख़ामोश खड़े रहे... वो कुछ देर कितनी थी?
एक पल एक सदी या फिर एक युग... उस का उनमें से किसी को अन्दाज़ा न हुआ। जब तक उन्होंने होरी की ग़ुस्से से कांपती हुई आवाज़ न सुनी उन्हें अपनी ज़िन्दगी का एहसास न हुआ।
“तुम... बजूका... तुम। अरे तुमको तो मैं ने खेत की निगरानी के लिए बनाया था... बाँस की फांकों से और तुमको उस अंग्रेज़ शिकारी के कपड़े पहनाए थे जिसके शिकार में मेरा बाप हाँका लगाता था और वो जाते हुए ख़ुश हो कर अपने फटे हुए ख़ाकी कपड़े मेरे बाप को दे गया था। तेरा चेहरा मेरे घर की बे-कार हांडी से बना था और उस पर उसी अंग्रेज़ शिकारी का टोपा रख दिया था अरे तू बे-जान पुतला मेरी फ़स्ल काट रहा है?”
होरी कहता हुआ आगे बढ़ रहा था और बजूका बदस्तूर उनकी तरफ़ देखता हुआ मुस्कुरा रहा था। जैसे उस पर होरी की किसी बात का कोई असर न हुआ हो। जैसे ही वो क़रीब पहुँचे उन्होंने देखा... फ़स्ल एक चौथाई के क़रीब कट चुकी है और बजूका उस के क़रीब दरांती हाथ में लिए मुस्कुरा रहा है। वो सब हैरान हुए कि उस के पास दरांती कहाँ से आ गई... वो कई महीनों से उसे देख रहे थे। बे-जान बजूका दोनों हाथों से ख़ाली खड़ा रहता था... मगर आज... वो आदमी लग रहा था। गोश्त-पोस्त का उन जैसा आदमी... ये मंज़र देख कर होरी तो जैसे पागल हो उठा। उसने आगे बढ़कर उसे एक ज़ोरदा धक्का दिया... मगर बजूका तो अपनी जगह से बिल्कुल न हिला। अलबत्ता होरी अपने ही ज़ोर की मार खा कर दूर जा गिरा... सब लोग चीख़ते हुए होरी की तरफ़ बढ़े। वो अपनी कमर पर हाथ रखे उठने की कोशिश कर रहा था... सबने उसे सहारा दिया और उसने ख़ौफ़-ज़दा हो कर बजूका की तरफ़ देखते हुए कहा। “तू... तो मुझसे भी ताक़तवर हो चुका है बजूका! मुझसे...? जिसने तुम्हें अपने हाथों से बनाया। अपनी फ़स्ल की हिफ़ाज़त के वास्ते।”
बजूका हस्ब-ए-मामूल मुस्कुरा रहा था फिर बोला। “तुम ख़्वाह-मख़्वाह ख़फ़ा हो रहे हो होरी काका मैं ने तो सिर्फ़ अपने हिस्से की फ़स्ल काटी है। एक चौथाई...”
“लेकिन तुम को क्या हक़ है मेरे बच्चों का हिस्सा लेने का। तुम कौन होते हो?”
“मेरा हक़ है होरी काका... क्यूँकि मैं हूँ... और मैं ने इस खेत की हिफ़ाज़त की है।”
“लेकिन मैं ने तो तुम्हें बे-जान समझ कर यहाँ खड़ा किया था और बे-जान चीज़ का कोई हक़ नहीं। ये तुम्हारे हाथ में दरांती कहाँ से आ गई?”
बजूका ने एक ज़ोरदार क़हक़हा लगाया “तुम बड़े भोले हो... होरी काका!। ख़ुद ही मुझसे बातें कर रहे हो...! और फिर मुझको बे-जान समझते हो...?”
“लेकिन तुमको ये दरांती और ज़िन्दगी किस ने दी...? मैंने तो नहीं दी थी!”
“ये मुझे आपसे आप मिल गई... जिस दिन तुमने मुझे बनाने के लिए बाँस की फाँकें चीरी थीं। अंग्रेज़ शिकारी के फटे पुराने कपड़े लाए थे घर की बेकार हांडी पर मेरी आँखें नाक और कान बनाया था। उसी दिन इन सब चीज़ों में ज़िन्दगी कुलबुला रही थी और ये सब मिलकर मैं बना और मैं फ़स्ल पकने तक यहाँ खड़ा रहा और एक दरांती मेरे सारे वुजूद में से आहिस्ता-आहिस्ता निकलती रही... और जब फ़स्ल पक गई वो दरांती मेरे हाथ में थी। लेकिन मैं ने तुम्हारी अमानत में िख़यानत नहीं की... मैं आज के दिन का इन्तिज़ार करता रहा और आज तुम अपनी फ़स्ल काटने आए हो.... मैं ने अपना हिस्सा काट लिया इस में बिगड़ने की क्या बात...” बजूका ने आहिस्ता-आहिस्ता सब कहा... ताकि उन सबको उस की बात अच्छी तरह समझ में आ जाए।
“नहीं ऐसा नहीं हो सकता। ये सब साज़िश है। मैं तुम्हें ज़िन्दा नहीं मानता। ये सब छलावा है। मैं पंचायत से इस का फ़ैसला कराऊँगा। तुम दराँती फेंक दो। मैं तुम्हें एक तिनका भी ले जाने नहीं दूँगा...” होरी चीख़ा और बजूका ने मुस्कुराते हुए दराँती फेंक दी।
गाँव की चौपाल पर पंचायत लगी... पंच और सरपंच सब मौजूद थे। होरी... अपने पोते पोतियों के साथ पंच में बैठा था। उस का चेहरा मारे ग़म के मुरझाया हुआ था। उस की दोनों बहुएँ दूसरी औरतों के साथ खड़ी थीं और बजूका का इन्तिज़ार था। आज पंचायत ने अपना फ़ैसला सुनाना था। मुक़दमे के दोनों फ़रीक़ अपना अपना बयान दे चुके थे।
आख़िर दूर से बजूका ख़िरामाँ ख़िरामाँ आता दिखाई दिया... सबकी नज़रें उस तरफ़ उठ गईं वो वैसे ही मुस्कुराता हुआ आ रहा था। जैसे ही वो चौपाल में दाख़िल हुआ। सब ग़ैर इरादी तौर पर उठ खड़े हुए और उनके सर ता’ज़ीमन झुक गए। होरी ये तमाशा देख कर तड़प उठा उसे लगा कि जैसे बजूका ने सारे गाँव के लोगों का ज़मीर ख़रीद लिया है। पंचायत का इन्साफ़ ख़रीद लिया है। वो तेज़ पानी में बेबस आदमी की तरह हाथ पाँव मारता हुआ महसूस करने लगा।
आख़िर सरपंच ने अपना फ़ैसला सुनाया, होरी का सारा वुजूद काँपने लगा, उसने पंचायत के फ़ैसले को क़बूल करते हुए फ़स्ल का चौथाई हिस्सा बजूका को देना मन्ज़ूर कर लिया। और फिर खड़ा हो कर अपने पोटों से कहने लगा।
“सुनो... ये शायद हमारी ज़िन्दगी की आख़िरी फ़स्ल है। अभी थल खेत से कुछ दूरी पर है। मैं तुम्हें नसीहत करता हूँ कि अपनी फ़स्ल की हिफ़ाज़त के लिए फिर कभी बजूका न बनाना। अगले बरस जब हल चलेंगे... बीज बोया जाएगा और बारिश का अमृत खेत में से कोन्पलों को जन्म देगा। तो मुझे एक बाँस पर बाँध कर एक खेत में खड़ा कर देना... बजूका की जगह पर। मैं तब तक तुम्हारी फसलों की हिफ़ाज़त करूँगा जब तक थल आगे बढ़कर खेत की मिट्टी को निगल नहीं लेगा और तुम्हारे खेतों की मिट्टी भुरभुरी नहीं हो जाएगी। मुझे वहाँ से हटाना नहीं... वहीं रहने देना ताकि जब लोग देखें तो उन्हें याद आए कि बजूका नहीं बनाना। कि बजूका बे-जान नहीं होता... आपसे आप उसे ज़िन्दगी मिल जाती है और उस का वजूद उसे दरांती थमा देता है और उस का फ़स्ल की एक चौथाई पर हक़ हो जाता है। होरी ने कहा और फिर आहिस्ता-आहिस्ता अपने खेत की तरफ़ बढ़ा। उस के पोते और पोतियाँ उस के पीछे थे और फिर उस की बहुएँ और उनके पीछे गाँव के दूसरे लोग सर झुकाए हुए चल रहे थे।
खेत के क़रीब पहुँच कर होरी गिरा और ख़त्म हो गया उस के पोते पोतियों ने उसे एक बाँस से बाँधना शुरू’ किया और बाक़ी के लोग ये तमाशा देखते रहे। बजूका ने अपने सर पर रखा शिकारी टोपा उतार कर सीने के साथ लगा लिया और अपना सर झुका दिया।
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