स्टोरीलाइन
ऐसे शख़्स की कहानी जो दंगा-ग्रस्त शहर में एक सड़क के किनारे खड़ा सवारी गाड़ी का इंतज़ार कर रहा होता है। तभी उसकी बग़ल में ही एक दूसरा शख़्स भी आ खड़ा होता है। वह बार-बार उसकी तरफ़ देखता है और उससे बचाव के लिए अपनी जेब में ईंट का एक टुकड़ा उठाकर रख लेता है। तभी एक सवारी गाड़ी रुकती है और वे दोनों उसमें सवार हो जाते हैं। आगे जाने पर उस गाड़ी को बलवाई घेर लेते हैं। बलवाई जब उसे मारने के लिए हथियार उठाते हैं तो दूसरा शख़्स उसे बचाता हुआ कहता है कि वह उसका भाई है।
उस रोज़ गहमा गहमी और भीड़ भाड़ वाले शहर में अचानक उन्होंने महसूस किया कि कुछ गड़बड़ है। लोगों की रफ़्तार ग़ैरमामूली हो गई है। लोग कहने और कुछ छुपाने के अंदाज़ में मुख़्तलिफ़ टोलियों में बट कर सरगोशियाँ कर रहे हैं।
सूरज रूबा ज़वाल था। ताज़ा लहू की महक, सरासीमगी और वहशत का सन्नाटा इस अंदेशे को तक़वियत पहुंचा रहे थे कि शहर के किसी इलाक़े में कोई वारदात हो गई है।
दोनों बहुत देर से सड़क पर खड़े हुए किसी सवारी के मुंतज़िर थे। एक दुबला पतला, दूसरा तंदुरुस्त-ओ-तवाना... दोनों सड़क पर गुज़रती हुई मुख़्तलिफ़ सवारियों को रोकने की कोशिश कर रहे थे। दोनों को दूर दराज़ के किसी इलाक़े में जाना था।
सड़क पर टहलते हुए वो धीरे धीरे क़रीब आरहे थे। क़रीब आकर दूर जा रहे थे। अजीब पस-ओ-पेश में थे दोनों। एक दूसरे से रब्त पैदा किया जाये या नहीं... कहीं वो दूसरे फ़िरक़े का हुआ तो... वो ख़्वाह-मख़ाह एक्सपोज़ तो नहीं होजाएंगे। क्या एक दूसरे के ताल्लुक़ से गोमगो के आलम में मुब्तला रहना उनके हक़ में मुफ़ीद है?
दोनों जाएपनाह की तलाश में और अपनी मंज़िलों तक पहुँचने की उधेड़ बन में एक दूसरे की तरफ़ मुहतात निगाहों से देखते हुए इसी तरह की बातें सोच रहे थे।
चारों तरफ़ तनाव और ख़ौफ़ का माहौल छाया हुआ था लोग बचते बचाते अपने अपने महफ़ूज़ ठिकानों पर पहुँचने की जल्दी में थे। जो लोग ग़ैर महफ़ूज़ मक़ामात पर क़लील तादाद में थे, सकते के आलम में सहमे हुए थे, उनकी समझ में नहीं आरहा था कि क्या करें... अपने तहफ़्फ़ुज़ के लिए कौन सी राह इख़्तियार करें।
जो लोग महफ़ूज़ इलाक़ों में थे, वो तो एक थ्रिल सा महसूस कर रहे थे। अब बमों के धमाके सुनाई देंगे, आसमान की तरफ़ शोले उठेंगे... झमाके के साथ चारों तरफ़ रोशनी फैल जाएगी... क्या मज़ा आएगा।
कुछ मुक़ाबले की तैयारी में थे... छुपाए हुए हथियारों को कोनों खद्दरों और तहख़ानों से निकाल लिया गया था... मुतअद्दिद उंगलियां आने वाले ख़ूनी लम्हों से पंजा आज़माई के लिए तैयार थीं।
ये सब अब रोज़ का क़िस्सा था। कहीं कोई नाहंजार कोई शोशा छोड़ देता। देखते देखते पूरी फ़िज़ा पर एक सन्नाटा छा जाता। बेकार और ख़ुशहाल लोगों को कोई फ़र्क़ न पड़ता था। लेकिन काम धंदा वालों को मुसीबतें उठानी पड़तीं। उनके दफ़्तर और रोज़गार का मुआमला होता। ख़्वांचे और ठेले वाले तो रोज़ कुँआं खोदते थे और पानी पीते थे। नाहंजारों की ना-आक़ेबत अंदेशी की वजह से अगर कर्फ़यू नाफ़िज़ होजाता तो उन बेचारों को दो वक़्त की रोटी के लाले पड़ जाते।
सवारियां रुके बग़ैर तेज़ी से गुज़रती जा रही थीं। शाएं शाएं आगे बढ़ती जा रही थीं। सब के सब बेहद उजलत में थे। अपने अपने घरों या कम अज़ कम महफ़ूज़ इलाक़ों की सरहदों में पहुँच जाना चाहते थे।
सूरज ग़ुरूब होने वाला था।
हल्के हल्के जाड़े के आग़ाज़ के साथ ही दिन छोटे होने शुरू होजाते हैं, जल्द दोपहर होजाती है... शिताब शाम होजाती है, अंधेरा फैल जाता है... देर तक रात रहती है, जाड़ा लंबी रातों और छोटे दिनों के लिए लोककथाओं की तरह शोहरत रखता है।
दुबले आदमी ने ग़ौर किया कि उसके अलावा वही एक आदमी... मोटा आदमी सड़क पर मौजूद था जो उससे थोड़ा फ़ासले पर खड़ा था। उसे डर लगा। कहीं यही आदमी उस पर हमला आवर हो जाए तो...?
उसने अंदाज़ा लगाना चाहा कि मुक़ाबला होने की सूरत में वो उस पर क़ाबू पा सकेगा या नहीं। अपने कद-ओ-क़ामत के चलते अपनी शिकस्त तस्लीम करते हुए उसने उस आदमी से अपना फ़ासला बढ़ा दिया। दूर से कनअँखियों से उस गठीले जिस्म के तनौमंद इंसान को लगातार देखता रहा। उस तंदुरुस्त आदमी से मोहतात रहना ज़रूरी है... उसने सोचा।
उसे बेहद अफ़सोस हुआ कि आज उसकी जेब में वो की रिंग भी नहीं थी, जिसमें फल काटने वाला एक नन्हा सा चाक़ू होता था। उसके हमला आवर होने की सूरत में कुछ तो अपना बचाव कर सकता था। लेकिन वो तो निहत्ता था। उस तनोमंद आदमी की जेब में न जाने कौन सा हथियार होगा। न भी हुआ तो क्या, उसका मज़बूत जिस्म ही उसे ज़ेर करने के लिए काफ़ी नहीं है। उसने ग़ौर किया कि तनोमंद आदमी मुस्तक़िल अपना हाथ जेब में डाले हुए था।
उसे यक़ीन हो गया कि ज़रूर उसके पास कोई न कोई मुह्लिक हथियार था और किसी लम्हे ये भेद खुल जाने पर कि वो उसके फ़िरक़े का बंदा नहीं है, उस पर हमला आवर हो जाएगा।
लेकिन ये अंदाज़ा लगाना आसान नहीं था कि आख़िर वो किस फ़िरक़े का बंदा था। वो भी उसी की तरह पैंट शर्ट में था। उसने भी अंग्रेज़ी कट के बाल बना रखे थे... न डाढ़ी और न टिक्की।
थोड़ी देर के लिए उसे बड़ी राहत और सुकून का एहसास हुआ। हम कम अज़ कम इतने मुहज़्ज़ब तो हो गए हैं कि देखने में किसी मख़्सूस फ़िरक़े के असीर नज़र नहीं आते... उसने सोचा, मुहज़्ज़ब होने का अमल जारी रहा तो एक दिन हम अंदर और बाहर तमाम तरफ़ से...
तख़य्युल के परिंदे ने आसमान की गहराइयों में उड़ान भरना शुरू किया।
निगाहों के सामने तारकोल की सड़क सब्ज़ा ज़ारों में तब्दील हो गई। हिरनों और ख़रगोशों ने क़ुलांचें भरना शुरू कर दिया... चारों तरफ़ सुबुक रो हवाओं के नाज़ुक लम्स ने उसके तन-बदन में एक ताज़गी भर दी। हरी-भरी मख़्मली घास पर लेटे हुए उसने ख़ुद को नीलगूं आसमान में तहलील होने की लज़्ज़त और सरशारी से हमकिनार होते देखा।
“आप लोग सड़क पर क्या करते हैं... अपने अपने घरों को जाइए।”
“हम लोग सवारी के इंतज़ार में हैं।”
पुलिस के आदमियों ने ग़ालिबन उनके हुलिये और चेहरे के तास्सुरात से अंदाज़ा कर लिया था कि वो शरपसंद और ग़ुंडा अनासिर नहीं हैं। मुतमइन हो कर उन्हें फ़ौरन अपने घरों को रवाना होने की हिदायत कर के जीप में बैठ गए। पुलिस की मुदाख़िलत और ग़ैर मुतवक़्क़े इस्तिफ़्सार ने उन दोनों के दरमियान के फ़ासले को थोड़ा कम कर दिया था। हालाँकि एक दूसरे के लिए शक-ओ-शुबहा और बेयक़ीनी की कैफ़ियत अभी भी कम-ओ-बेश दोनों की आँखों से अयाँ हो रही थी। न चाहते हुए भी रस्मी सा जुमला दोनों के मुँह से अदा हुआ।
“आपको कहाँ जाना है?”
दुबले आदमी के ज़ेहन में ये बात अचानक आई कि शायद इस सवाल से तनोमंद आदमी की शनाख़्त उजागर हो जाए। लेकिन सवाल से इस हक़ीक़त का पता लगाना आसान न था। चलते फिरते हिंदुस्तानी अलफ़ाज़ थे जिन पर किसी ज़बान और मज़हब के सिक्का बंद मुहर नहीं थी। दोनों ने जवाब दिया, इस से भी कोई अंदाज़ा नहीं मिलता था। दोनों ने जो नाम लिए वो दोनों ही मिली जुली आबादियों वाले इलाक़े थे। जवाब देने के बाद दोनों फिर अपने आप में गुम हो गए। जैसे इस तवील शाहराह पर वो तन्हा हों।
दुबले पुतले आदमी के चेहरे और आँखों से साफ़ झलक रहा था कि वो दूसरे आदमी से बेहद डरा हुआ है।
उस पर एक अजीब ग़ैरमामूली ख़ौफ़ मुसल्लत था। हर आन शिद्दत से वो ख़तरा महसूस कर रहा था, यक़ीनन वो दूसरे फ़िरक़े का है और उसके फ़िरक़े का राज़ अयाँ होते ही ज़ालिम बन कर उस पर टूट पड़ेगा... कि हालिया वाक़िआत-ओ-क़राइन इसी शक की तौसीक़ करते थे।
सड़क की दोनों जानिब के कई मकानों की बालकनी, छत और खिड़कियों पर कई सारी आँखें और कई सारे कान उन दोनों पर टिके हुए थे। अगर किसी छत, किसी बालकनी, किसी खिड़की से गोली चल जाये तो... ठंडक के बावजूद उसके बदन में हरारत की एक लहर दौड़ गई। काटो तो लहू नहीं, पेशानी पर ख़ौफ़ के मारे पसीने की बूँदें झिलमिलाने लगीं।
उसने अंधेरे का फ़ायदा उठाते हुए एक ज़रा दूर जाकर एहतियात के तौर पर सड़क के किनारे से टूटी हुई ईंट का एक बड़ा सा टुकड़ा उठाकर अपनी पाकेट में रख लिया। इस बात का उसने ख़ास ख़्याल रखा कि दूसरे मौजूद को उसकी हरकत का पता न चले। जेब में हाथ डाले हुए मज़बूती से अपनी हथेलियों की गिरफ़्त उसने ईंट के टुकड़े पर बनाए रखी।
उसके चेहरे से अब कुछ इत्मीनान और बशाशत की लकीरें अयाँ हो रही थीं। इतना भर उसे सहारा मिल गया था कि वो तनोमंद आदमी के हमले का मुक़ाबला किए बग़ैर जांबाहक़ न होगा।
ईंट के हथियार से मुक़ाबला करते हुए शहादत का दर्जा हासिल करेगा।
बग़ैर जद्द-ओ-जहद और मुसाबक़त की मौत को वो हराम समझता था। लड़ते हुए मरेगा तो ये मलाल तो न होगा... और क्या पता अधवाड़ के एक वार से वो अपने दुश्मन का काम... ग़ाज़ी का...
दरअसल बचपन में उसके बाप ने सन्नाटी सड़क पर स्कूल जाते हुए अगर कुत्ते पीछा करें तो उनसे बचने की ये तरकीब बताई थी... किसी भी हालत में कुत्तों को देखकर दौड़ना नहीं है वरना वो पैरों में अपने दाँत गड़ा देंगे।
धीरे धीरे आगे बढ़ते हुए सड़क पर किसी बड़े ढेले या ईंट के टुकड़े की तलाश करनी है। ढेले के क़रीब पहुंचते ही उसे हाथ में उठा लेना है और तब कुत्तों की तरफ़ हाथ उठाते हुए सिर्फ़ ये ज़ाहिर करना है कि अगर उसने हमला करने की हमाक़त की तो वो उसे छोड़ेगा नहीं, ईंट के टुकड़े या पत्थर से वो उसका सर फोड़ देगा... उसका डट कर मुक़ाबला करेगा। कुत्तों के टलने से पहले भूले से भी इस हथियार से किनारा-कशी ख़ुदकुशी के मुतरादिफ़ है।
इस नुक्ते पर बाप का ख़ास ज़ोर था।
नेअमत-ए-गैर मुतरक़्क़बा की तरह एक ख़ाली टेम्पो उनके पास रुका। दोनों तेज़ी से लपके।
टेम्पो में बैठने के बाद भी दुबला आदमी तनोमंद से डर रहा था। रास्ते में कई तरह की आबादियां मिलती हैं, पता नहीं कब इस हमसफ़र की नीयत ख़राब हो जाए... कब उसके इरादे उसके ख़िलाफ़ होजाएं और ख़तरनाक सूरत अख़्तियार करलें।
उसने सोचा कि हमसफ़र की शनाख़्त का अंदाज़ा ज़रूरी है... इसी हिसाब से आगे की कार्रवाई तै करे। अगर मुख़ालिफ़ फ़िरक़े का हो तो टेम्पो रोक कर उतर जाये। ज़िंदगी में एहतियात ज़रूर है, लेकिन जब पूरी ज़िंदगी ही क़दम क़दम पर ख़तरों में घिरी हो तो...
हर आन ये डर हो कि कब कौन...
बेयक़ीनी और तज़ब्ज़ुब...
सब कुछ दांव पर...
उसने डरते डरते लेकिन बज़ाहिर बेख़ौफ़ी का अंदाज़ा दिखाते हुए पुर तकल्लुफ़ लहजे में अपने हमसफ़र से पूछा, “योर गुड नेम प्लीज़...”
“मुन्ना...”
ये वार भी ख़ाली गया। उसने सोचा, मुन्ना नाम तो किसी का भी हो सकता है। तलफ़्फ़ुज़ और अलफ़ाज़ तो पढ़े लिखे लोगों के दरमियान ऐसे कॉमन हो गए हैं कि इससे किसी की जड़ों का कोई अंदाज़ा नहीं मिलता।
दरअसल पढ़ाई लिखाई और तहज़ीब-ओ-तमद्दुन कहते ही इसको हैं कि इंसान अपनी हदबंदियों से बालातर हो जाए... उन ख़ुसूसियतों को हासिल करले जो उसे औसाफ़-ए-आलिया से मुत्तसिफ़ कर दें... फ़िरक़ों के ग़ोल से निकाल कर।
दूसरा आदमी नाम बताकर अपने ख़्यालों में गुम हो गया।
पहले को इस बात की फ़िक्र लाहक़ थी कि जवाबन वो भी इससे नाम दरयाफ़्त करेगा... वो क्या नाम बताएगा, ये उसकी समझ में न आरहा था कि मबादा उसकी शनाख़्त उजागर हो जाए।
राजा... आज़ाद... कई नाम उसके ज़ेहन में जल्दी जल्दी आरहे थे। इस तरह के नामों से वो अपनी मज़हबी पहचान पर पर्दा डाल सकेगा।
लेकिन दूसरे ने उसका नाम पूछने की रिवायत नहीं अपनाई। उसे यक गो न राहत का एहसास हुआ।
अजीब आदमी था वो...
शक-ओ-शुबहा, तज़ब्ज़ुब और ख़ौफ़-ओ-हिरास के इस माहौल में भी अब वो क़दरे मुतमइन दिखाई दे रहा था। उसे इस बात की फ़िक्र लाहक़ नहीं थी कि उसके बग़ल में बैठे हुए आदमी की क्या पहचान है। किस मज़हब, फ़िरक़े और ज़ात से ताल्लुक़ रखता है। वो तो बड़ी बेफ़िक्री से सिगरेट पीने में मसरूफ़ था। लेकिन उसका दूसरा हाथ मुस्तक़िल पाकेट में था। टेम्पो के हिचकोले खाने पर या ट्रैफ़िक की वजह से उसके धीमे होने पर चौकन्ना हो कर चारों तरफ़ देखने लगता था। और फिर मुतमइन हो कर सिगरेट के गहरे कश लेने लगता था।
पहला दुज़दीदा नज़रों से दूसरे की जानिब देखता रहा... सबसे बड़ा ख़तरा उसे अपने हमसफ़र की पुर-असरार बेइल्तिफ़ाती और लापरवाई के बरताव से महसूस हो रहा था।
सब उसकी मक्कारी है... मौक़ा मिलेगा और... वो ज़रा सी भी ग़फ़लत करेगा और उसका चाक़ू उसके जिगर के पार हो जाएगा। उसने गहरी साँसें लेते हुए ख़ुद को मुसलसल चाक़-ओ-चौबंद रखने की कोशिश की।
नागाह उसने सोचा, पता नहीं ये टेम्पो वाला किस फ़िरक़े से ताल्लुक़ रखता था जो सवारियों की शनाख़्त से बेपर्वा अपनी मंज़िल की जानिब उड़ा जा रहा था। उसके फ़िरक़े से या उसके हमसफ़र के फ़िरक़े से।
इन दो मुसाफ़िरों को देखकर एक लहज़ा के लिए वो ठिटका था। उनके हाथों के इशारे पर थोड़ी देर के लिए वो सोच में पड़ गया था... टेम्पो रोके या न रोके।
कशीदगी और तनाव भरे हालात से मुतास्सिर हो कर टेम्पो वाला घर पहुँचने की जल्दी में था। मज़ीद फेरे लगाकर कमाई करने का ख़्याल तर्क करचुका था... ज़िंदा रहा तो बहुत कमाई हो जाएगी।
एक पल के लिए उसने सोचा था कि इन दो मुसाफ़िरों के इशारों को नज़रअंदाज कर के तेज़ रफ़्तारी के साथ गर्द उड़ाता हुआ आगे बढ़ जाये।
ऐसे ऐसे मौक़ों पर कभी कभी सवारियां बहुत ज़हमत बन जाती थीं... क्या पता दोनों शरपसंद अनासिर हों और उनके पेट मिले हुए हों... अलग अलग होने का दिखावा करते हों। टेम्पो रुकते ही दोनों एक साथ उस पर हमला आवर होजाएं।
लेकिन न मालूम किस इंसानी जज़्बे के तहत ख़तरे के ख़्याल को झटकते हुए उसने टेम्पो रोक दिया था, शायद दोनों सचमुच मुसीबत के मारे हों, पनाहगाह की तलाश में हों, मदद के मुस्तहिक़ हों।
उसने सोचा कि उसे टेम्पो वाले से सबक़ लेना चाहिए जो सवारी की शनाख़्त किए बग़ैर अपने सफ़र पर बेमुहाबा गामज़न था... शायद दोनों सचमुच मुसीबत के मारे हों, पनाहगाह की तलाश में हों, मदद के मुस्तहिक़ हों। उसकी सियासी बेदारी और सेकुलर शऊर के मुक़ाबले में इस अनाड़ी टेम्पो वाले के बेफ़िक्री का अंदाज़ा ज़्यादा क़ाबिल-ए-क़दर और दानिशवराना था।
उसे शर्मसारी हुई। लगा कि ख़्वाह-मख़ाह वो अंदेशे में मुब्तला था। हमसफ़र से ख़ौफ़ खाने के बजाय उस से रिफ़ाक़त की तक़वियत हासिल करने की ज़रूरत थी।
रात हो चुकी थी। सन्नाटी सड़क पर इलेक्ट्रिक पुलिस की स्ट्रीट लाइट अजीब तिलिस्माती मलगजी रोशनी बिखेर रही थी। सड़क की दोनों जानिब घनी आबादियों वाले महलों में ख़ौफ़नाक ख़ामोशी छाई हुई थी। तन्हा इस टेम्पो की तेज़ आवाज़ ऐसी लग रही थी जैसे कोई बुलडोज़र मलबों को रौंदता हुआ, आबादियों को तहस नहस करता हुआ आगे बढ़ रहा हो। कहीं कहीं गलियों और चौराहों पर सरगोशियों में मसरूफ़ लोगों की भीड़ दिखाई दे जाती थी जो तेज़ रफ़्तार टेम्पो मैं फ़ौरन नज़रों से ओझल होजाती।
सड़क की दोनों जानिब की आबादियों से वो दोनों वाक़िफ़ थे। आबादियों की मुनासबत से उनके चेहरों पर अलग अलग रंग आरहे थे और जारहे थे।
किसी इलाक़े में दुबला पतला पुरसुकून नज़र आता तो तंदरुस्त-ओ-तवाना आदमी चौकन्ना होजाता। कहीं तंदुरुस्त आदमी मुतमइन होता तो दुबले आदमी के चेहरे की बेबसी देखने के क़ाबिल होती। महल्लों की आबादी के ख़द-ओ-ख़ाल के हिसाब से उनके चेहरों की रंग में तब्दीली हो रही थी।
तंदुरुस्त आदमी ने सिगरेट का पैकेट उसकी तरफ़ बढ़ाया, “सिगरेट प्लीज़...”
“नौ थैंक यू...”
उसने जान-बूझ कर सिगरेट क़बूल करने से गुरेज़ किया, क्या पता उसमें नशा आवर चीज़ मिली हो जो उसको ठिकाने लगाने के लिए चारे के तौर पर... उसने तै कर लिया, किसी भी क़ीमत पर सिगरेट नहीं पीना है।
तंदुरुस्त आदमी ने उसके इनकार पर किसी तास्सुर या रद्द-ए-अमल का इज़हार नहीं किया। अपने ख़्यालों में गुम हो गया। जाने उसका ज़ेहन कहाँ भटक रहा था।
आख़िर वही हुआ जिसका डर था।
नीम तारीकी में अगले मोड़ पर हथियारों से लैस कुछ साये दिखाई दे रहे थे। जान-बूझ कर इलेक्ट्रिक पोल की मरकरी तोड़ दी गई थी।
“पूरी तेज़ी से आगे बढ़ते जाओ...” दोनों ने एक साथ ड्राईवर से कहा।
ड्राईवर भी लाठी डंडों और दीगर हथियारों से लैस सायों को देख चुका था। उसने टेम्पो की रफ़्तार बे-तहाशा बढ़ा दी।
तभी एक आवाज़ हुई और लुढ़कता हुआ एक पीपा सड़क के बीचोंबीच आकर यूं हिलने लगा जैसे किसी पहाड़ के नीचे दब कर पिस जाने के ख़ौफ़ से पनाह मांग रहा हो।
टेम्पो ड्राईवर ने कमाल-ए-होशियारी से अगर ब्रेक न लिया होता तो सबके सब हादिसे से दो-चार होजाते।
कई चेहरे आगे आए और चारों तरफ़ से उन्होंने टेम्पो को घेर लिया। ग़ालिबन तंदुरुस्त आदमी की शनाख़्त से उनमें से कई लोग वाक़िफ़ थे। दुबले आदमी की तरफ़ वो लपके।
“तुम अपना नाम बताओ?”
“राजा...”
“पूरा नाम।”
तंदुरुस्त हमसफ़र ने फ़ौरन अपने होने का एहसास कराया, “नाम क्या पूछना है... ये मेरा भाई है।”
“झूट... पैंट उतारो।” किसी कीना परवर और शरपसंद ने ज़मीन पर अपनी लाठी पटकते हुए कहा।
उनमें से कई हँसने लगे। कई वाक़ई पैंट खोल कर दुबले आदमी की बे-हुरमती करने के लिए बढ़े।
उसी वक़्त इस तंदुरुस्त आदमी ने बल खाते हुए ज़ोरदार आवाज़ में चीख़ लगाई, “ख़बरदार, मेरी लाश से गुज़र कर ही ये काम कर सकते हो।”
वो उछल कर खड़ा हो चुका था और पोज़ीशन लेते हुए रिवोलवर निकाल चुका था। सबके सब भाग खड़े हुए। वो रिवोलवर की नली उस वक़्त तक मुश्तइल हुजूम की तरफ़ किए रहा जब तक वो आँखों से ओझल न हो गए। उसने हिलते हुए पीपे को किनारे किया।
टेम्पो के स्टार्ट होने और कुछ आगे बढ़ जाने के बावजूद दुबला आदमी ज़िंदगी से नाउम्मीद अब तक सकते के आलम में था। जो कुछ गुज़र चुका था उस पर उसे यक़ीन नहीं आरहा था। दहश्त और वहम-ओ-गुमान की अजीब कैफ़ियत थी जिसने उसके सारे सोच को मफ़लूज कर दिया था।
तंदुरुस्त आदमी के ज़रिए टहोका देने पर वो चौंका और उसे एहसास हुआ कि फ़िलहाल वो ख़तरे से बाहर है। कुछ लम्हों तक वो उसका मुँह तकता रहा... ख़ाली ख़ाली सा। दफ़्अतन उसे अपने पंजे में दबे हुए ईंट के टुकड़े का ख़्याल आया।
दो मनाज़िर रोशनी के झमाके की तरह निगाहों में कौंद गए।
पहले की आमने सामने की लड़ाई में क़ासिम चचा तलवार के दस्ते पर लगातार मज़बूती से हाथ जमाए कुछ इस शुजाअत से लड़ते कि दुश्मन के पाँव उखड़ जाते... लौट कर आते तो तलवार के दस्ते जंग करते करते हथेली और उंगलियों में इस तरह गुथ जाते कि उसे अलग करना मुश्किल होजाता। दाहिने हाथ की उंगलियां हफ़्तों अपना काम ठीक से अंजाम देने के लायक़ न बन पातीं।
नौजवानी की बुलंद चोटी की तरफ़ बढ़ता हुआ उसका बेटा अपने साथियों से क्विज़ के तौर पर आर डी एक्स का फ़ुल फ़ार्म दरयाफ़्त करता रहता।
उसके पंजे में ईंट का टुकड़ा मुस्तक़िल दबा हुआ था... किसी मरे हुए चूहे की तरह और उसकी उंगलियां बे-हिस-ओ-हरकत हो गई थीं। बे-इख़्तियार उसे अपनी हालत-ए-ज़ार पर हंसी आ गई।
“भाई साहब आप रो क्यों रहे हैं?” हमसफ़र के सवाल पर वो गड़बड़ा गया। सचमुच वो हंस रहा था या रो रहा था। वो आबदीदा हो गया। जज़्बात से बेक़ाबू हो कर उसने हमसफ़र का हाथ चूमा। उसकी आँखों से ज़ारो क़तार ख़ुशी के आँसू रवां थे। उसे ये मक़ूला याद आया, “दोस्ता आँ बाशद कि गीर दोस्त दोस्त दर परेशांहाली-ओ-दरमांदगी।”
रुँधी हुई आवाज़ में दुबला आदमी गोया हुआ, “आपका बहुत बहुत शुक्रिया जनाब, मैं ये एहसान उम्र भर नहीं भूल सकता... आपने मेरी जान बचा कर मेरे बड़े भाई होने का सबूत दिया है।”
“नहीं...” तनोमंद हमसफ़र ने ज़ोर देकर कहा।
“मैंने सिर्फ़ भाई होने का फ़र्ज़ अदा किया है।”
उसने रिवोलवर जेब में रखा और सिगरेट का पैकेट उसकी तरफ़ प्यार से बढ़ाते हुए बोला, “अब तो पिएंगे सिगरेट आप...”
नीम तारीकी में उसकी मुस्कुराती हुई आँखें अपनाइयत और दोस्तदारी की लाज़वाल चमक से मुनव्वर थीं।
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