भोला
मैंने माया को पत्थर के एक कूज़े में मक्खन रखते देखा। छाछ की खटास को दूर करने के लिए माया ने कूज़े में पड़े हुए मक्खन को कुएँ के साफ़ पानी से कई बार धोया। इस तरह मक्खन के जमा करने की कोई ख़ास वजह थी। ऐसी बात उ'मूमन माया के किसी अ'ज़ीज़ की आमद का पता देती थी। हाँ! अब मुझे याद आया। दो दिन के बाद माया का भाई अपनी बेवा बहन से राखी बंधवाने के लिए आने वाला था। यूँ तो अक्सर बहनें भाइयों के हाँ जा कर उन्हें राखी बांधती हैं मगर माया का भाई अपनी बहन और भांजे से मिलने के लिए ख़ुद ही आ जाया करता था और राखी बंधवा लिया करता था। राखी बंधवा कर वह अपनी बेवा बहन को यही यक़ीन दिलाता था कि अगरचे उसका सुहाग लुट गया है मगर जब तक उसका भाई ज़िंदा है, उसकी रक्षा, उसकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर लेता है। नन्हे भोले ने मेरे इस ख़याल की तस्दीक़ कर दी। गन्ना चूसते हुए उसने कहा, “बाबा! परसों मामूँ जी आएँगे ना?”
मैंने अपने पोते को प्यार से गोद में उठा लिया। भोले का जिस्म बहुत नर्म-ओ-नाज़ुक था और उसकी आवाज़ बहुत सुरीली थी। जैसे कंवल की पत्तियों की नज़ाकत और सफ़ेदी, गुलाब की सुर्ख़ी और बुलबुल की ख़ुश-अल्हानी को इकठ्ठा कर दिया हो। अगरचे भोला मेरी लंबी और घनी दाढ़ी से घबरा कर मुझे अपना मुँह चूमने की इजाज़त न देता था ताहम मैंने ज़बरदस्ती उसके सुर्ख़ गालों पर प्यार की मुहर सब्त कर दी। मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “भोले, तेरे मामूँ जी तेरी माता जी के क्या होते हैं?” भोले ने कुछ वक़्त के बाद जवाब दिया, “मामूँ जी!”
माया ने स्तोत्र पढ़ना छोड़ दिया और हंसने लगी। मैं अपनी बहू के इस तरह खुल कर हँसने पर दिल ही दिल में बहुत ख़ुश हुआ। माया बेवा थी और समाज उसे अच्छे कपड़े पहनने और ख़ुशी की बात में हिस्सा लेने से भी रोकता था। मैंने बारहा माया को अच्छे कपड़े पहनने हंसने खेलने की तलक़ीन करते हुए समाज की परवा न करने के लिए कहा था। मगर माया ने ख़ुद अपने आपको समाज के रूह फ़र्सा अहकाम के ताबे कर लिया था। उसने अपने तमाम अच्छे कपड़े और जे़वरात की पिटारी एक संदूक़ में मुक़फ़्फ़ल कर के चाबी एक जोहड़ में फेंक दी थी।
माया ने हंसते हुए अपना पाठ जारी रखा।
हरी हर, हरी हर, हरी हर, हरी
मेरी बार क्यों देर इतनी करी
फिर उसने अपने लाल को प्यार से बुलाते हुए कि, “भोले... तुम नन्ही के क्या होते हो?”
“भाई!” भोले ने जवाब दिया।
“इसी तरह तेरे मामूँ जी मेरे भाई हैं।”
भोला ये बात न समझ सका कि एक ही शख़्स किस तरह एक ही वक़्त में किसी का भाई और किसी का मामूँ हो सकता है। वो तो अब तक यही समझता आया था कि उसके मामूँ जान उसके बाबा जी के भी मामूँ जी हैं। भोले ने इस मख़मसे में पड़ने की कोशिश न की और उचक कर माँ की गोद में जा बैठा और अपनी माँ से गीता सुनने के लिए इसरार करने लगा। वो गीता महज़ इस वजह से सुनता था कि वो कहानियों का शौक़ीन था और गीता के अध्याय के आख़िर में महात्म सुन कर वो बहुत ख़ुश होता और फिर जोहड़ के किनारे फैली हुई धूप की मख़्मली तलवारों में बैठ कर घंटों उन महात्मों पर ग़ौर किया करता।
मुझे दोपहर को अपने घर से छ, मील दूर अपने मज़ारुओं को हल पहुँचाने थे। बूढ़ा जिस्म, उस पर मुसीबतों का मारा हुआ, जवानी के आलम में तीन-तीन मन बोझ उठा कर दौड़ा किया। मगर अब बीस सेर बोझ के नीचे गर्दन पिचकने लगती है। बेटे की मौत ने उम्मीद को यास में तब्दील कर के कमर तोड़ दी थी। अब मैं भोले के सहारे ही जीता था वर्ना दर-अस्ल तो मर चुका था।
रात को मैं तकान की वजह से बिस्तर पर लेटते ही ऊँघने लगा। ज़रा तवक़्क़ुफ़ के बाद माया ने मुझे दूध पीने के लिए आवाज़ दी। मैं अपनी बहू की सआ'दत मंदी पर दिल ही दिल में बहुत ख़ुश हुआ और उसे सैंकड़ों दुआएं देते हुए मैंने कहा, “मुझ बूढ़े की इतनी परवा न किया करो बिटिया।”
भोला अभी तक न सोया था उसने एक छलांग लगाई और मेरे पेट पर चढ़ गया। बोला, “बाबा-जी! आप आज कहानी नहीं सुनाएँगे क्या?”
“नहीं बेटा।” मैंने आसमान पर निकले हुए सितारों को देखते हुए कहा, “मैं आज बहुत थक गया हूँ। कल दोपहर को तुम्हें सुनाऊँगा।”
भोले ने रूठते हुए जवाब दिया, “मैं तुम्हारा भोला नहीं बाबा। मैं माता जी का भोला हूँ।”
भोला भी जानता था कि मैंने उसकी ऐसी बात कभी बर्दाश्त नहीं की। मैं हमेशा उससे यही सुनने का आदी था कि “भोला बाबा-जी का है और माता जी का नहीं”, मगर उस दिन हलों का कंधे पर उठा कर छ, मील तक ले जाने और पैदल ही वापस आने की वजह से मैं बहुत थक गया था। शायद मैं उतना न थकता, अगर मेरा नया जूता एड़ी को न दबाता और इस वजह से मेरे पाँव में टीसें न उठतीं। इस ग़ैर-मा'मूली थकन के बाइ'स मैंने भोले की वो बात भी बर्दाश्त की। मैं आसमान पर सितारों को देखने लगा। आसमान के जुनूबी गोशे में एक सितारा मशाल की तरह रौशन था। ग़ौर से देखने पर वो मद्धम सा होने लगा। मैं ऊँघते-ऊँघते सो गया।
सुबह होते ही मेरे दिल में ख़याल आया कि भोला सोचता होगा कि कल रात बाबा ने मेरी बात किस तरह बर्दाश्त की? मैं इस ख़याल से लरज़ गया कि भोले के दिल में कहीं ये ख़याल न आया हो कि अब बाबा मेरी पर्वा नहीं करते। शायद यही वजह थी कि सुबह के वक़्त उसने मेरी गोद में आने से इनकार कर दिया और बोला,
“मैं नहीं आऊँगा। तेरे पास बाबा?”
“क्यों भोले?”
“भोला बाबा जी का नहीं। भोला माता जी का है।”
मैंने भोले को मिठाई के लालच से मना लिया और चंद ही लम्हात में भोला बाबा जी का बन गया और मेरी गोद में आ गया और अपनी नन्ही टांगों के गिर्द मेरे जिस्म से लिपटे हुए कम्बल को लपेटने लगा। माया हरी हर स्तोत्र पढ़ रही थी। फिर उसने पाव भर मक्खन निकाला और उसे कूज़े में डाल कर कुएँ के साफ़ पानी से छाछ की खटास को धो डाला। अब माया ने अपने भाई के लिए सेर के क़रीब मक्खन तय्यार कर लिया। मैं बहन-भाई के इस प्यार के जज़्बे पर दिल ही दिल में ख़ुश हो रहा था। इतना ख़ुश कि मेरी आँखों में आँसू टपक पड़े। मैंने दिल में कहा, औरत का दिल मोहब्बत का एक समुंदर होता है कि माँ-बाप, भाई-बहन, ख़ाविंद-बच्चे सबसे वो बहुत ही प्यार करती है और इतना करने पर भी वो ख़त्म नहीं होता। एक दिल के होते हुए भी वो सबको अपना दिल दे देती है। भोले ने दोनों हाथ मेरे गालों की झुर्रियों पर रखे। माया की तरफ़ से चेहरे को हटा कर अपनी तरफ़ कर लिया और बोला,
“बाबा तुम्हें अपना वा'दा याद है ना?”
“किस बात का... बेटा?”
“तुम्हें आज दोपहर को मुझे कहानी सुनानी है।”
“हाँ बेटा!” मैंने उसका मुँह चूमते हुए कहा।
ये तो भोला ही जानता होगा कि उसने दोपहर के आने का कितना इंतेज़ार किया। भोले को इस बात का इल्म था कि बाबा जी के कहानी सुनाने का वक़्त वही होता है जब वो खाना खा कर उस पलंग पर जा लेटते हैं जिस पर वो बाबा जी या माता जी की मदद के बग़ैर नहीं चढ़ सकता था। चुनांचे वक़्त से आध घंटा पेश्तर ही उसने खाना निकलवाने पर इसरार शुरुअ कर दिया। मेरे खाने के लिए नहीं बल्कि अपनी कहानी सुनने के चाव से।
मैंने मा'मूल से आध घंटा पहले खाना खाया। अभी आख़िरी निवाला मैंने तोड़ा ही था कि पटवारी ने दरवाज़े पर दस्तक दी। उसके हाथ में एक हल्की से जरीब थी। उसने कहा कि ख़ानक़ाह वाले कुएँ पर आपकी ज़मीन को नापने के लिए मुझे आज ही फ़ुर्सत मिल सकती है, फिर नहीं।
दालान की तरफ़ नज़र दौड़ाई तो मैंने देखा। भोला चारपाई के चारों तरफ़ घूम कर बिस्तर बिछा रहा था। बिस्तर बिछाने के बाद उसने एक बड़ा सा तकिया भी एक तरफ़ रख दिया और ख़ुद पायंती में पाँव उड़ा कर चारपाई पर चढ़ने की कोशिश करने लगा। अगरचे भोले का मुझे इसरार से जल्द रोटी खिलाना और बिस्तर बिछा कर मेरी तवाज़ो करना अपनी ख़ुदग़र्ज़ी पर मब्नी था ताहम मेरे ख़याल में आया,
“आख़िर माया ही का बेटा है ना... ईश्वर इसकी उम्र दराज़ करे।”
मैंने पटवारी से कहा, “तुम ख़ानक़ाह वाले कुँए को चलो और मैं तुम्हारे पीछे-पीछे आ जाऊँगा। जब भोले ने देखा कि मैं बाहर जाने के लिए तय्यार हूँ तो उसका चेहरा इस तरह मद्धम पड़ गया जैसे गुज़िश्ता शब को आसमान के एक कोने में मशाल की मानिंद रौशन सितारा मुसलसल देखते रहने की वजह से माँद पड़ गया था। माया ने कहा,
“बाबा जी, इतनी भी क्या जल्दी है? ख़ानक़ाह वाला कुँआ कहीं भागा तो नहीं जाता।। आप कम से कम आराम तो कर लें।”
“ऊहूँ।” मैंने ज़ेर-ए-लब कहा, “पटवारी चला गया तो फिर ये काम एक माह से इधर न हो सकेगा।”
माया ख़ामोश हो गई। भोला मुँह बिसोरने लगा। उसकी आँखें नमनाक हो गईं। उसने कहा, “बाबा मेरी कहानी... मेरी कहानी...”
“भोले... मेरे बच्चे?” मैंने भोले को टालते हुए कहा, “दिन को कहानी सुनाने से मुसाफ़िर रास्ता भूल जाते हैं।”
“रास्ता भूल जाते हैं!” भोले ने सोचते हुए कहा, “बाबा तुम झूट बोलते हो... मैं बाबा जी का भोला नहीं बनता।”
अब जबकि मैं थका हुआ भी नहीं था और पंद्रह-बीस मिनट आराम के लिए निकाल सकता था, भला भोले की इस बात को आसानी से किस तरह बर्दाश्त कर लेता। मैंने अपने शाने से चादर उतार कर चारपाई की पायंती पर रखी और अपनी दबी हुई एड़ी को जूती की क़ैद से बा मशक़्क़त निजात दिलाते हुए पलंग पर लेट गया। भोला फिर अपने बाबा का बन गया। लेटते हुए मैंने भोले से कहा, “अब कोई मुसाफ़िर रास्ता खो बैठे... तो उसके तुम ज़िम्मेदार हो।”
और मैंने भोले को दोपहर के वक़्त सात शहज़ादों और सात शहज़ादियों की एक लंबी कहानी सुनाई। कहानी में उनकी बाहमी शादी को मैंने मा'मूल से ज़्यादा दिलकश अंदाज़ में बयान किया। भोला हमेशा उस कहानी को पसंद करता था जिसके आख़िर में शहज़ादा और शहज़ादी की शादी हो जाए मगर मैंने उस रोज़ भोले के मुँह पर ख़ुशी की कोई अलामत न देखी बल्कि वो एक अफ़्सुर्दा सा मुँह बनाए ख़फ़ीफ़ तौर पर काँपता रहा।
इस ख़याल से कि पटवारी ख़ानक़ाह वाले कुँए पर इंतेज़ार करते-करते थक कर अपनी हल्की हल्की झनकार पैदा करने वाली जरीब जेब में डाल कर कहीं अपने गाँव का रुख़ न कर ले। मैं जल्दी-जल्दी मगर अपने नए जूते में दबती हुई एड़ी की वजह से लंगड़ाता हुआ भागा। गो माया ने जूती को सरसों का तेल लगा दिया था। ताहम वो नर्म मुतलक़ न हुई थी।
शाम को जब मैं वापस आया तो मैंने भोले को ख़ुशी से दालान से सेहन में और सेहन से दालान में कूदते-फाँदते देखा। वो लकड़ी के एक डंडे को घोड़ा बना कर उसे भगा रहा था और कह रहा था,
“चल मामूँ जी के देस... रे घोड़े, मामूँ जी के देस।
मामूँ जी के देस, हाँ हाँ, मामूँ जी के देस. घोड़े...”
जूँ ही मैंने दहलीज़ में क़दम रखा। भोले ने अपना गाना ख़त्म कर दिया और बोला,
“बाबा... आज मामूँ जी आएँगे ना...?”
“फिर क्या होगा भोले...?” मैंने पूछा।
“मामूँ जी अगन बोट लाएँगे। मामूँ जी कल्लू (कुत्ता) लाएँगे। मामूँ जी के सर पर मक्की के भुट्टों का ढेर होगा न बाबा। हमारे यहाँ तो मक्की होती ही नहीं बाबा। और तो और ऐसी मिठाई लाएँगे जो आपने ख़्वाब में भी न देखी होगी।”
मैं हैरान था और सोच रहा था कि किस ख़ूबी से “ख़्वाब में भी न देखी होगी” के अल्फ़ाज़ सात शहज़ादों और सात शहज़ादियों वाली कहानी के बयान में से उसने याद रखे थे। “जीता रहे” मैंने दुआ देते हुए कहा, “बहुत ज़हीन लड़का होगा और हमारे नाम को रौशन करेगा।”
शाम होते ही भोला दरवाज़े में जा बैठा ताकि मामूँ की शक्ल देखते ही अंदर की तरफ़ दौड़े और पहले-पहल अपनी माता जी को और फिर मुझे अपने मामूँ जी के आने की ख़बर सुनाए।
दीयों को दियासलाई दिखाई गई। जूँ-जूँ रात का अंधेरा गहरा होता जाता दीयों की रौशनी ज़्यादा होती जाती।
मुतफ़क्किराना लहजे में माया ने कहा,
“बाबा-जी। भय्या अभी तक नहीं आए।”
“किसी काम की वजह से ठहर गए होंगे।”
“मुम्किन है कोई ज़रूरी काम आ पड़ा हो... राखी के रुपये डाक में भेज देंगे... मगर राखी?”
“हाँ राखी की कहो... उन्हें अब तक तो आ जाना चाहिए था।”
मैंने भोले को ज़बरदस्ती दरवाज़े की दहलीज़ पर से उठाया। भोले ने अपनी माता से भी ज़्यादा मुतफ़क्किराना लहजे में कहा, “माता जी... मामूँ जी क्यों नहीं आए?”
माया ने भोले को गोद में उठाते हुए और प्यार करते हुए कहा, “शायद सुबह को आ जाएँ। तेरे मामूँ जी। मेरे भोले।”
फिर भोले ने अपने नर्म-ओ-नाज़ुक बाज़ुओं को अपनी माँ के गले में डालते हुए कहा,
“मेरे मामूँ जी तुम्हारे क्या होते हैं?”
“जो तुम नन्ही के हो।”
“भाई?”
“तुम जानो...”
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