चाँद तारों का लहू
स्टोरीलाइन
यह यूरोपीय देश बोस्निया में चले गृहयुद्ध पर आधारित कहानी है। इसके केंद्र में एक ऐसा मुस्लिम परिवार है जो अपने देश की संस्कृति और सभ्यता को संजोए रखने के लिए एक के बाद एक अपने सम्बंधियों का बलिदान देता जाता है। साथ ही कहानी में दुनिया के शक्तिशाली देशों और संयुक्तराष्ट्र संघ जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की भी आलोचना है कि वे कैसे अपने हित के लिए ग़रीब और जंग से जूझते देशों की मदद के बहाने उन्हें तबाह कर देते हैं और उसके नागरिकों के जीवन को पंगु बना देते हैं।
जब तुम अपना जाम स्काच से भरते हो या जब तुम जूते के तले से कीड़ा मकोड़ा कुचल कर चलते हो या फिर जब तुम अपनी घड़ी देखते हो या फिर जब तुम अपनी टाई दुरुस्त करते हो उस लम्हा लोग मर रहे हैं
शहरों में जिनके अजीब नाम हैं गोलियों की बौछाड़ है आग
के शोलों में घिरे हुए लोग जिन्हें ये नहीं मालूम कि आख़िर क्यों?
लोग मर रहे हैं
छोटे छोटे देहातों और शहरों में जिन्हें तुम नहीं जानते न वहां
चीख़-ओ-पुकार का वक़्त है और न ख़ुदा हाफ़िज़ कहने का मौक़ा है
लोग मर रहे हैं
जब तुम चुनाव कर रहे हो उन लीडरों का जो बातें करके भूल जाते हैं
अब ख़ौफ़-ओ-नफ़रत है पड़ोसी भाई भाग रहा है हाबील का दिया हुआ
सबक़ तारीख़ दुहरा रही है
लोग मर रहे हैं
जब तुम सामने लगे हुए स्कोर बोर्ड को पढ़ रहे हो या फिर
जब हर बार नया स्कोर देखते हो या फिर जब तुम ताली बजाते हो
या अपने बच्चे को लोरी सुनाते हो
लोग मर रहे हैं
वक़्त एक ख़ूनी दरिन्दा बन गया है जिसके जबड़े खुले हुए हैं
और जो मर गये हैं और जो मारे जा रहे हैं वक़्त उन्हें
बताएगा कि कौन सा क़बीला बाक़ी है और वो जो बाक़ी है
क्या वो तुम्हारे जैसा है?
लोग मर रहे हैं
नोबल ईनाम याफ़्ता शायर ब्रोडस्की का ये नस्री तर्जुमा उस नज़्म का है जो उसने बोस्निया की तबाही से मुतास्सिर हो कर लिखी है।
बोस्निया...हमारी दुनिया की वो हद जहां मशरिक़ और मग़रिब मिलते हैं। ऊंचे सरसब्ज़ पहाड़ और नीचे बस्तियाँ जिनके फ़न-ए-तामीर में मशरिक़ और मग़रिब सर जोड़े दिखाई देते हैं।
यहां की तहज़ीब, तमद्दुन, मौसीक़ी, इल्म व अदब हर शोबा-ए-ज़िंदगी में मशरिक़ और मग़रिब का ये मिलाप नज़र आता है और सबसे ज़्यादा यहां के ख़ूबसूरत लोगों में! ये मालूम होता है कि अरब, मिस्र, यूनान और रोम का सारा हुस्न, उसी ख़ित्ते में सिमट आया है। इन्सानी चेहरे नहीं ज़मीन पर चांद-सितारे उतर आये हैं। मज़ाहिब मुख़्तलिफ़ होते हुए भी मज़हबियों की इक़दार तो एक ही हैं, ये बात कभी यहां के लोगों के मेल-जोल को देखकर समझ में आती थी। लोग इल्म-ओ-अदब और मौसीक़ी के शैदाई थे। उनमें से हर एक अपने घर का राजा था और राजा कहलाने पर फ़ख़्र करता था और राजा का मतलब बादशाह नहीं बल्कि शरीफ़ आदमी समझा जाता था वो भी एक ऐसा ही राजा था।
उसका नाम हामिद पासक था। उसका कुम्बा उन लोगों की औलाद में से था जो फ़र्दानंद और उसकी मलिका के ज़ुल्म से तंग आकर स्पेन छोड़कर इस सरज़मीन में आबाद हो गए थे।
ख़िलाफ़त-ए-उस्मानिया के ज़माने से हर मज़हब के लोग मेल-जोल और मुहब्बत से यहां रह रहे थे वो सब लोग जो ज़ुल्म-ओ-सितम का शिकार होते यूरोप से हिज्रत करके उस जगह आबाद हो जाते। ये बस्ती एक पनाह गाह थी। मार्शल टीटू के अह्द तक ये फ़िज़ा क़ायम थी या कम्यूनिज़्म का आहनी पंजा यूगोस्लाविया को जोड़े हुए था।
जब ओलम्पिक के खेल इस बस्ती में हुए तो दुनिया ने इस ख़ूबसूरत बस्ती का नाम सुना और टी.वी. पर उसकी झलकियाँ देखीँ। दूर दराज़ जगहों के खिलाड़ी सोने के तमगों से ज़्यादा ख़ूबसूरत यादें अपने साथ ले गए।
फिर एक दिन अचानक बस्ती में शोर उठा कि पापक आगए पापक आगए। पापक वहशी, ज़ालिम और शैतान सिफ़त लोगों को कहा जाता है। हामिद पासक अपने घर से यूनीवर्सिटी जाने के लिए निकले तो उन्होंने अचानक दो पहाड़ीयों पर से मशीनगनों की आवाज़ सुनी और बस्ती पर गोलियों की बौछाड़ होने लगी। मर्द, औरतें, बच्चे सब ही उन गोलियों की ज़द में थे। थोड़ी देर में लाशों के ढेर लग गए। ये सब इतने अचानक तरीक़े से इतने बड़े पैमाने पर हुआ कि किसी की समझ में नहीं आया कि क्या हो रहा है। बस्ती की फ़ौज और नौजवान मुक़ाबले को निकले। मगर पापक जदीद तरीन हथियारों से लैस थे और फ़ौज के पास उनके मुक़ाबले का सामान न था। नौजवान निहत्ते थे और फिर वो इतनी ऊंची जगहों से पस्ती पर हमले कर रहे थे कि सर उठा कर उनकी तरफ़ देखने की मोहलत से पहले लाशों के ढेर लग जाते थे। बमों की बारिश के बाद जलते हुए मकानों से आग के शोले उठ रहे थे और शोलों में घिरे हुए लोग मर्द-औरतें, बच्चे-बूढ़े बेबसी से भाग रहे थे। न अंदर पनाह न बाहर पनाह...! जो आग के शोलों से बच जाते वो सड़क पर जा कर गोलियों की बौछाड़ से ढेर हो जाते...! हामिद पासक अपने ही मुहल्ले में बेबसी से घूमते रहे और सोचते रहे कि इन हालात का किस तरह मुक़ाबला किया जा सकता है।
हामिद पासक ने अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा अमरीका में गुज़ारा था। वो एक यूनीवर्सिटी में पढ़ा रहे थे। उनके छोटे भाई साजिद एक मशहूर डाक्टर थे। जब वो एक लंबे अर्सा बाद वतन आए तो मिट्टी की महक ने उन्हें रोक लिया और दोनों भाईयों ने फ़ैसला कर लिया कि वो वतन वापस आकर कम आमदनी में ही ख़ुशी और इत्मिनान की ज़िंदगी बसर करेंगे।
हामिद पासक का एक बेटा डाक्टर था और बेटी साइंसदां बनने का ख़्वाब देख रही थी। सबसे छोटी बेटी आर्टिस्ट थी। छोटे भाई के दोनों बेटे फ़ौज में चले गए। वो बहुत अच्छे खिलाड़ी भी थे। दोनों भाईयों ने क़रीब क़रीब ही घर बनाए थे और ये कुम्बा मुहल्ले भर में हर दिलअज़ीज़ था। उनके रिश्तेदार दूर दराज़ देहातों में थे और जब वो शहर आते तो ये महसूस करते कि हामिद पासक का घर उनके ख़ानदान का मर्कज़ और निशान है।
मगर अब जब सारे बोस्निया में आसमान आग बरसा रहा था उन्हें अपने रिश्तेदारों की कोई ख़बर न मिलती थी। बस जब वो कार की बैट्री से रेडियो सुनते तो टिमटिमाती हुई शम्मों की मद्धम रोशनी में ये ख़बर सुनते कि बोस्निया में तहज़ीबी सफ़ाई हो रही है। इस क़त्ल-ए-आम को दुनिया Ethnic Clearing का नाम दे रही है और टीवी और रेडियो ये ख़बरें सुना रहे हैं कि सर्ब करोट और मुसलमान लड़ रहे हैं। या फिर बार-बार ये सुनते कि मुसलमान मर रहे हैं। हामिद पासक अक्सर सोचते कि साईंस की इतनी तरक़्क़ी के बावजूद इन्सानी ज़हन और सोच क्यों न आगे बढ़ सकी। वो जो अपने आपको तहज़ीब की मेराज पर समझ रहे हैं ये क्यों नहीं कहते कि इन्सान मर रहे हैं जो करोट सर्ब और ज़्यादातर बोस्निया के रहने वाले हैं। उन्होंने पहाड़ों से बरसने वाले आतिशीं गोलों से अपने उन पड़ोसियों को भी मरते देखा था जो सर्ब और करोंट थे...वो जो एक तहज़ीबी वहदत और मज़बूत रिश्ते में बंधे हुए थे। मुसलमान, ईसाई और यहूदी सब मिल-जुल कर रह रहे थे। एक दूसरे के तेहवार और ग़मी ख़ुशी में शरीक होते थे। यकायक एक दूसरे के जानी दुश्मन क्यों बन गए? वो और उनके साथी एक दूसरे से ये सवाल करते जिसका जवाब उनमें से किसी के पास न था। हिटलर ने जब अज़ीमतर सर्ब रियासत बनाने का ख़्वाब देखा था तो जर्मनों को अपने इलावा दूसरे लोग कमतर नज़र आते थे और अब अज़ीम सर्ब रियासत बनाने का ख़्वाब देखने वाले और अज़ीम क्रोशिया की बुनियाद रखने वाले इस इकाई को तोड़ना चाहते थे जिसका नाम बोस्निया था...और इसी लिए उन्होंने युगोस्लाविया के टुकड़े किए थे और अब बड़ा टुकड़ा किस के पास आता है... इस की जंग थी और मुहज़्ज़ब दुनिया उसको तहज़ीबी सफ़ाई कह कर आसानी से दर गुज़र कर रही थी। ये बात हामिद पासक और उनके साथियों को समझा रही थी कि बड़ी ताक़तें कमज़ोर की मदद के नाम पर भी अपने मुफ़ाद के लिए जंग करती हैं। अगर तेल के बादशाहों की लड़ाई हो तो यूएनओ किसी शहर की ईंट से ईंट बजा सकती है और सारे इत्तिहादी लड़ाका तय्यारे जमा कर सकती है मगर जहां मज़लूमों का ख़ून बह रहा हो निहत्ते लोग मर रहे होँ उन्हें हथियार फ़राहम नहीं कर सकती। अक़्वाम-ए-आलम अपने ज़मीर की लानत से मजबूर हो कर रोटी के टुकड़े अलबत्ता फेंक सकती हैं। वो झूटे वादों पर कि बड़ी ताक़त की मदद आने वाली है एक अर्सा तक तकिया किए रहे... फिर भयानक सच्चाई का सामना करने की हिम्मत उन सब में आ गई।
गोली लगने से पहले रोटी ख़ालो...रोटी के टुकड़ों पर झपटने और उठाने वाले और ज़्यादा गोलियों का निशाना बने जैसे क़साई ज़बह करने से पहले पानी पिलाता है, उसी तरह अक़वाम-ए-मुत्तहिदा मरने से पहले रोटी देना चाहती है। मासूम बच्चे बमों की बारिश में स्कूल बस में सवार हो कर जा रहे थे, अक़वाम-ए-मुत्तहिदा को बच्चों पर तरस आया था कि उन्हें किसी महफ़ूज़ मुक़ाम पर पहुंचा दिया जाये। मगर रास्ते में बस पर बमबारी हुई और कई बच्चे दम तोड़ गए। ज़ख़्मीयों को बड़ी मुश्किल से वहां से हटाया जा सका...हामिद पासक और साजिद ने अपने सारे घर को हस्पताल की शक्ल दे दी थी मगर दवाएं ख़त्म हो गई थीं और शहर की दुकानें जो खन्डर बन गई थीं, उनमें खाने पीने की चीज़ें थीं और न दवाएं थीं। फिर भी इमदादी मराकज़ क़ायम करके लोग काम कर रहे थे। मिट्टी का तेल तक न मिलता था। बिजली कट चुकी थी और अब लोग अपने घरों का फ़र्नीचर जला कर चूल्हा जला रहे थे और रोशनी कर रहे थे। सख़्त सर्दी तूफ़ानी बारिश के बाद जब बर्फ़ बारी का सिलसिला शुरू हुआ तो टूटी हुई खिड़कियों और दरवाज़ों में डाली गई प्लास्टिक की चादरों ने काम देना छोड़ दिया। इन सब तकलीफ़दह हालात के बावजूद घर से बाहर क़दम रखते हुए कितने बच्चे गोलियों की ज़द में आकर हलाक हो चुके थे और उनके नन्हे बस्ते ख़ून आलूदा पड़े थे और टीटू स्ट्रीट पर चलने वाले लोग जब पहाड़ों से आने वाली गोलियों की ज़द से बचने के लिए सर और कमर को झुका कर चलते तो वो मार्शल टीटू को याद करते। शायद वो इस आज़ादी के अह्ल न थे। उन्हें अभी एक लंबा सफ़र करके जमहूरियत का अह्ल बनना था...कम्यूनिज़्म के आहनी पंजे ने उन्हें जोड़ कर तो रखा था...! लिखने-पढ़ने और बोलने की आज़ादी! ये सब बातें बहुत ख़ूबसूरत हैं मगर उस वक़्त तक जब इन्सान को जान का ख़ौफ़ न हो! लाशों के ढेर, जली हुई दुकानें और मकान सारी बस्ती इन्सानों का नहीं भूतों का मस्कन होती थी। बूढ़ी औरतें...जवान औरतें...मर्द और बच्चे सब के ज़ख़्म पुकार रहे थे, हमें रोटी नहीं हथियार दो...हम मुक़ाबला करना चाहते हैं। हमारे जवानों को हथियार दो कि हमारी इज़्ज़त की हिफ़ाज़त करें। वो निहत्ते नौजवान जो बग़ैर हथियारों के मुक़ाबला करने को निकले थे हज़ारों की तादाद में क़ैदी बना लिए गए थे। यू एन ओ के अमन के रखवाले अक्सर जब रोटी लेकर जाते हैं तो देखते हैं कि भूके भूक-प्यास से आज़ाद हो चुके हैं। मगर मुहज़्ज़ब दुनिया का ज़मीर रोटी के टुकड़े देकर मुतमइन है।
हामिद पासक और उनके बेटे सईद पासक अपने आबाई गांव जाकर अपने लोगों की मदद करना चाहते थे। हालाँकि जब उनके बच्चे किताबों के औराक़ से आग ताप रहे हैं तो वो किसी की क्या मदद कर सकते थे। जब उन्होंने ट्रांसिस्टर पर नशेब में बसने वालों का हाल सुना था उनकी परेशानी और बेचैनी हद से बढ़ गई थी। उनके गांव की सब औरतें सरब फ़ौजियों के कैम्पों में पहुंचा दी गई थीं और उनके तारतार लिबास और ब्रहना ज़ख़्मी जिस्म और लाशें दुनिया के टीवी दिखा रहे थे और ये सब दरिंदगी तहज़ीबी सफ़ाई के नाम पर दिखाई जा रही थी। वो सब बेबसी से सोचते अगर मुहज़्ज़ब दुनिया उन्हें मुक़ाबला करने के लिए हथियार दे देती तो उनकी बेबसी का ये तमाशा दुनिया कैसे देखती...!
उन्हें ये मालूम था कि दूर दराज़ इलाक़ों से लोगों को अपने घरों से निकाल निकाल कर महफ़ूज़ मुक़ाम पर पहुंचाना ज़ालिमों के लिए इलाक़ा ख़ाली करने का मन्सूबा है...वो सब नशीबी देहातों के लोग जो ज़ुल्म-ओ-सितम का निशाना बन रहे थे ट्रकों और बसों में सवार हो कर महफ़ूज़ आसमान के नाम पर क़ायम किए गए इलाक़े में ले जाये जा रहे थे। जानते हुए भी गोलियों की बौछाड़ थी और आसमान और ज़मीन का कोई कोना उन्हें ऐसा नज़र न आता था जिसे महफ़ूज़ कहा जा सकता...!
एक सुबह जब डाक्टर साजिद अपने हस्पताल के लिए दवाएं तलाश करने घर से निकले तो यू एन ओ के इमदादी मर्कज़ तक पहुंचने से पहले ही एक सर्ब सिपाही की गोली का निशाना बन गए। फ़ौजी बूटों की आवाज़ सुनाई दे रही थी और दुकानों का सामान लूटा जा चुका था। सर्ब फ़ौजी खा-पी रहे थे, टूटे हुए दरवाज़े और खिड़कियों के शीशों की किर्चियाँ सड़क पर दूर दूर तक बिखरी हुई थीं। डाक्टर साजिद की लाश कुछ देर तक सड़क पर पड़ी रही। मगर जब उनके कुम्बे के लोग उनकी तलाश कर रहे थे तो डाक्टर के पुराने मरीज़ और जान-पहचान के लोग उनकी लाश लेकर घर पहुंच चुके थे। भाई की मौत से हामिद पासक और उन दोनों के कुंबों पर क़ियामत टूट पड़ी। बड़ी मुश्किल से रात के किसी हिस्से में अज़ीज़ों और दोस्तों ने उनका जनाज़ा क़ब्रिस्तान ले जाने का इंतिज़ाम किया और जब नमाज़ जनाज़ा पढ़ी जा रही थी तो दो पहाड़ों पर से मुसलसल गोलियों की बौछाड़ जारी थी।
हामिद पासक जब अपने भाई को मिट्टी में सुला कर लौटे तो उन्होंने रास्ते में जा बजा लाशें देखीं जिनमें से बहुत सों को उठाने वाले भी शायद ख़त्म हो चुके होंगे और उन पर कोई रोने वाला बाक़ी न होगा और उन्होंने सोचा, डाक्टर साजिद की बेलौस ख़िदमत का ख़ुदा ने उन्हें शायद ये अज्र दिया है कि गोलियों की बौछाड़ में भी उनके लिए कुछ लोग दुआ मांग रहे थे...!
हामिद पासक के बेटे ने अपने चचा के हस्पताल की ज़िम्मेदारियाँ सँभाल ली थीं और ताज़ा तरीन हालात में जो भी तिब्बी मदद लोगों को पहुंचाई जा सकती थी वो उन्हें दी जा रही थी। जो बेटी आर्टिस्ट थी वो अब अपने रंगों को छोड़कर लोगों की मरहम पट्टी में लगी हुई थी और उसने अपनी हम उम्र लड़कियों की एक टोली बना ली थी जो उसके साथ मिलकर नर्सिंग का काम कर रही थीं। डाक्टर साजिद ने इन सबको जिस रास्ते पर लगा दिया था उस दिन के बाद वो और ज़्यादा मेहनत से उनके मिशन को जारी रखे हुए थे।
एक दिन हामिद पासक ने ये रूह फ़र्सा ख़बर सुनी के उनका क़स्बा पुनर और तबाह हो गया और पंद्रह हज़ार मुसलमान शहीद हुए और उनकी औरतें और लड़कियां सर्ब कैम्पों में पहुंचा दी गई हैं। उन्होंने ये ख़बर भी सुनी कि लोग अपने घरों से निकल कर मुश्किल तरीन रास्तों से महफ़ूज़ मुक़ामात पर पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। इमदादी टोकरियां और सामान जो यू एन ओ पहुंचा रही थी पहले ही रोका जा चुका था और भूके-प्यासे लोग जंगलों में फिर रहे हैं। यहां तक कि सीवरेज के जो पाइप खुले हुए थे उनमें से भी राह निकाल कर लोग जा रहे थे...अपनी जान हथेली पर रखकर निहत्ते मुक़ाबला करने वालों की भी कमी न थी जो फिर क़ैदी बना कर ले जाये जा रहे थे...
हामिद पासक को अपने ही क़रीबी शहरों और क़स्बों का हाल दूर दराज़ बी.बी.सी की ख़बरों से मालूम होता जो वो कार की बैट्री से अपने रेडियो को चला कर सुना करते थे...और तबाही मुँह खोले हर तरफ़ रास्ता चलते दिखाई देती थी।
वो घर जो उनके दोस्तों और अज़ीज़ों के थे जिनमें लकड़ी की ख़ूबसूरत नक़्क़ाशी किए हुए तग़रे आवेज़ां थे...प्यानो की आवाज़ सुनाई देती थी...और घर जिनकी चिमनियों में से उठता हुआ धुआँ भी मकीनों की राहत सुकून और ख़ुशी की ख़ुशबू में बसा हुआ होता था, अब इन घरों की छतें छलनी थीं...सामान लूटा चा चुका था। टूटे हुए दरवाज़ों और खिड़कियों में प्लास्टिक के पर्दे झूल रहे थे और जो कोई मकीन बाक़ी था वो इस तरह रहता था जैसे अपने घर में नहीं भूतों के डेरे में आ गया हो। यू एन ओ और मुहज़्ज़ब अक़्वाम के बाज़मीर लोग चिल्ला रहे थे कि ये तो उन लोगों को जड़ से साफ़ करने और ख़त्म करने की कार्रवाई है। महज़ जंग नहीं है। सर्ब और करोट अपने अपने हिस्से की जंग लड़ रहे थे और बोस्निया के निहत्ते लोगों को मुक़ाबला करने के लिए हथियार न दे सकते थे।
हामिद पासक ये सोचा करते थे कि यू एन ओ ने मरते हुए लोगों को रोटी देने की ज़िम्मेदारी भी न ली होती तो अच्छा था मगर हर तरफ़ से बे आसरा लोगों को ख़ुदा के आसरे पर छोड़ देने से शायद दुनिया का ज़मीर मुतमइन न होता। अब उन्हें ये सुकून है कि वो मुश्किल हालात में रोटी और दवाओं का इंतिज़ाम करते हैं और कभी कभी सर्ब जब गोलियों की बौछाड़ करते हैं तो यू एन ओ का कोई अमन का रखवाला भी ज़ख़्मी हो जाता है...लेकिन अमन कहाँ है जो कोई रखवाली करेगा, इन सबको जंग की रखवाली करने वाला कहना चाहिए क्योंकि दो साल से यू एन ओ जंग की तबाही की रखवाली कर रही है। अमन की रखवाली करनी होती तो मज़लूमों के साथ ज़ालिमों का मुक़ाबला करने वाली फ़ौज भेजती। हामिद पासक अपने दोस्तों से अक्सर कहते कि बड़ी ताक़तें सिर्फ़ अपने मुफ़ादात की रखवाली करती हैं। फिर भी वो देखते कि अक्सर भोले-भाले लोग ये आस लगाए थे कि अमरीका अपने बमबार भेज कर मदद करेगा और फिर लड़ाई बंद हो जाएगी।
वक़्त ने सबकी ख़ुश फ़हमियाँ दूर कर दीं, भयानक और तल्ख़ हक़ीक़त कि क़ियामत में अपने सिवा किसी का कोई न होगा, सामने आचुकी थी।
हामिद पासक को अपने भाई के दोनों बेटों की फ़िक्र थी। एक सर्बों की क़ैद में था और दूसरे की उन्हें कोई ख़बर न थी। वो नौजवानों की इमदादी टोली बना कर फ़ौज को रसद पहुंचाने की कोशिश कर रहा था। फिर एक दिन हामिद पासक के एक सर्ब शागिर्द ने उन्हें ख़बर दी कि उनके अज़ीज़ों का पुनरावर में कोई पता न चल सका लेकिन उनके भतीजे की मंगेतर को उन औरतों में देखा गया था जिनको सर्ब क़ैदी बना कर ले गए हैं, इस ख़बर से घराने की बेचैनी और दुख बढ़ गया। उनके सर्ब शागिर्द ने ये वादा भी किया था कि वो नोजा को कैंप से निकालने की पूरी कोशिश करेगा, उसका बड़ा भाई फ़ौज में अच्छे ओहदे पर था। हामिद पासक दुख से सोचते रहे और वो जिनका ख़ुदा के सिवा कोई नहीं, कोई बचाने वाला निकालने वाला न होगा वो सब औरतें, उनका क्या होगा। उनकी आँखें आँसूओं से तर हो गईं और उन्होंने सब के लिए दुआ की। ख़ुदाया उन्हें इज़्ज़त की ज़िंदगी या इज़्ज़त की मौत देना?
हामिद पासक और उनके भाई डाक्टर साजिद को मिलने वालों में हर मज़हब और मिल्लत के लोग थे और ख़ुसूसन बोस्निया और सारायागो की तहज़ीबी ज़िंदगी में ये रंगा-रंगी इस ज़िंदगी का एक मिज़ाज और हिस्सा थी। उनके इदारे स्कूल, तेहवार, महफ़िलें, दफ़ातिर सब इस रंगारंग तहज़ीब का सबूत थे। मज़हब उनकी निजी ज़िंदगी का ख़ुदा से एक रिश्ता था जो एक दूसरे से मुहब्बत करना सिखाता था और एक मुसलमान की हैसियत से हामिद पासक और उनके कुम्बे ने यही सीखा था कि अल्लाह आसमानों और ज़मीनों का नूर है और तमाम पैग़ंबर साहिब-ए-नूर थे जिनको माने बग़ैर मुसलमान का ईमान भी कामिल नहीं होता और वो अपने बच्चों को क़ुरआन शरीफ़ का तर्जुमा सुनाते तो समझाते कि क़ुरान-ए-पाक में है कि हर सरज़मीन में ख़ुदा ने अपने रसूल भेजे हैं बहुत सों का ज़िक्र क़ुरआन में किया है और बहुत सों का ज़िक्र नहीं किया! हामिद पासक के दिल में अजीब सा दर्द उठ खड़ा होता जब वो ये सोचते कि तमाम मज़ाहिब नेकी भलाई और ख़ैर की तालीम देते हैं। सच और झूट, नेकी और बदी में तमीज़ सिखाते हैं और अजीब बात है कि मज़ाहिब का नाम लेकर ही लोग एक दूसरे का गला काटते हैं।
हामिद पासक ने देखा था कि हज़ारों की तादाद में सर्ब लड़ाई से पहले बोस्निया से जाने लगे थे। शायद उनको अज़ीम सर्ब मम्लकत के ख़्वाब की तामीर समझाई गई थी मगर वो ये भी जानते थे कि बहुत से सर्ब और करोट ऐसे भी हैं जो अब तक बोस्निया छोड़ना नहीं चाहते और बोस्निया और सारायागो के इदारों और अख़बारों में काम कर रहे हैं और सर्ब गोलियों की ज़द में आकर मर रहे हैं, वो सब अपने मुल्क को एक वहदत देखना चाहते हैं मगर अजीब बात है जब यू एन ओ या कोई मुसालहत कराने वाली बड़ी ताक़त बातचीत करती है तो मसले के हल के लिए सिर्फ़ उनकी राय मालूम करती है जो लड़ रहे हैं जो अमन से रहना चाहते हैं, उनकी बात कोई नहीं सुनता! कोई उनसे नहीं पूछता कि वो साल-हा-साल से इकट्ठे रह रहे हैं क्या इसी तरह इकट्ठे रहना चाहते हैं? पच्चास लाख से ज़्यादा लोग बोस्निया में हलाक कर दिये गए और लाखों घर-बार छोड़कर दरबदर ठोकरें खा रहे हैं। महफ़ूज़ आसमान की स्कीम भी एक ऐसा पनाह गज़ीन कैंप बन जाएगी जिसके ज़ख़्म वक़्त के साथ साथ नासूर बन जाऐंगे। यू एन ओ जहां भी अमन क़ायम करने गई। ज़मीन पर बसने वालों को अपनी ज़मीन से जिलावतन करके उसने पनाह गज़ीन कैंप बना दिये। फ़लस्तीन, कश्मीर, अफ़्ग़ानिस्तान और अब बोस्निया के लोगों के पनाह गज़ीन कैंप! और यू एन ओ की फ़ौज साल-हा-साल उन पनाह गज़ीन कैम्पों की कैसे निगरानी करेगी। जब कि वो ताक़तें जो अपने आपको अज़ीम मुहज़्ज़ब ताक़तें कहती हैं, उनके हाँ भी ग़ुर्बत अपनी इंतिहा पर है। बदअमनी और लूट मार आम है। नसली और मज़हबी मुनाफ़िरत भी पर्दों के पीछे से झाँकती रहती है।
कभी कभी हामिद पासक सोचते थे कि वो ज़माना अच्छा था जब ज़राए इब्लाग़ ने दुनिया को एक घर की तरह नहीं बनाया था और हर आदमी का गांव ही उसका घर होता था। उसे बस अपने गांव की ख़बर होती थी और अपने गांव की ज़िम्मेदारी सब गांव वालों की होती थी और झगड़ों का फ़ैसला गांव की पंचायत करती थी। यू एन ओ सबकी पंचायत न बन सकी। वो तो बड़ी ताक़तों के मुफ़ादात की बांदी बन गई है, हालाँकि चांद पर क़दम रखने वाले ने दुनिया को एक गांव बना दिया है!
हामिद पासक जब अपने दोस्तों की महफ़िल में अपने ख़्यालात का इज़हार करते तो सबको मुत्तफ़िक़ पाते थे और वो सोचते थे कि जंग की होलनाकियों ने उन्हें हक़ीक़तपसंद बना दिया है। वो अब किसी तरफ़ नहीं देखना चाहते और वो आसमान की तरफ़ देखते और ख़ुदा को पुकारते...!
वो रात क़ियामत की रात थी जब नोजा सर्ब क़ैदियों के कैंप से फ़रार होने में कामयाब हुई। उसका लिबास तारतार था और कमज़ोरी और नक़ाहत की वजह से इस के लिए चलना मुश्किल था। मारपीट से उसका हुल्या बिगड़ चुका था। उसका चेहरा भी ज़ख़्म लिए हुए था और उसकी बड़ी बड़ी ख़ूबसूरत आँखों में ख़ौफ़-ओ-हिरास था उसके सर्ब शागिर्द ने अपना बड़ा सा कोट उसके इर्दगिर्द इस तरह लपेट दिया था कि उसकी ब्रहंगी छुप सके और उसे सर्दी न लगे। वो बात करने के क़ाबिल न थी। उनके शागिर्द ने बताया कि उसे जिस हालत में पाया वो ले आया है।
नोजा का मंगेतर यूसुफ़ दूर दराज़ जंगलों में बोस्निया की निहत्ती फ़ौज में कहीं लड़ रहा होगा। उसे कोई ख़बर न होगी कि उसकी मंगेतर किस हाल में है मगर उसे ये मालूम है कि बोसनिया की औरतों और लड़कियों पर क़ियामत टूटी है और मासूम बच्चे किस ज़ुल्म का शिकार हुए हैं। उन सबको यही ग़म था कि हमारे पास हथियार होते तो हम अपनी इज़्ज़त की हिफ़ाज़त कर सकते।
हामिद पासक और उनके कुम्बे के लोग अपनी होने वाली बहू की हालत देखकर तड़प उठे वो कितनी आरज़ूओं से उसे ब्याह कर घर लाने का सोचा करते थे। डाक्टर साजिद और हामिद पासक का मंगनी की तक़रीब में कुम्बे की औरतों और बच्चों के साथ हर-रोज़ जाना और वहां अज़ीज़ों में चंद दिन गुज़ारना सबको याद था। डाक्टर साजिद और हामिद पासक की बीवी बाहम बैठ कर दुल्हन के लिबास के मुताल्लिक़ सोचा करती थीं कि वो अपनी ख़ानदानी रवायात के मुताबिक़ बहुत अच्छे अच्छे तहाइफ़ और चीज़ें लेकर दुल्हन को ब्याहने जाएँगी। सबके कितने अरमान थे और अब नोजा तारतार ख़ून आलूद लिबास में ज़ख़्मों से चूर ख़ुद उनके घर तक चल आई है!
उस रात शदीद सर्दी और बर्फ़बारी थी। हामिद पासक के कुम्बे के लोग घर को गर्म रखने के लिए अपना क़ीमती फ़र्नीचर बारी बारी जला चुके थे। अक्सर आग में जलते हुए नक़्क़ाशी के काम को वो सब हसरत से देखते और सोचते कि काश वो उसको जलाए बग़ैर सर्दी का मुक़ाबला कर सकते और अब किताबें बाक़ी थीं, हामिद पासक रूसी और फ़्रांसीसी अदब के शैदाई थे मगर अब उन्होंने टाल्स्टाय और दोस्तवोस्की और सब अंग्रेज़ी और फ़्रांसीसी अदीबों की किताबें निकाल कर दे दीं और कहा, इनको फाड़ो और आग जलाओ...और उनके पसंदीदा अदीब जल कर उन सबको राहत दे रहे थे। वो ज़िंदा रह कर भी तो लोगों को इसी तरह राहत देते रहे थे!
पड़ोस की कुछ औरतें गोलियों की बौछाड़ के बावजूद अपने अपने घरों से आ गई थीं और कुछ न कुछ उनके हाथ में था। नोजा के लिए दूध बड़ी मुश्किल से फ़राहम किया जा सका। हामिद पासक की बीवी उसका सर अपनी गोद में लेकर उसे चमचे से बमुश्किल दूध पिला रही थीं और अपने आँसू पी रही थीं। मरहम पट्टी के बाद कपड़े पहन कर जब उसने अपने इर्दगिर्द मुहब्बत की इतनी गर्मी महसूस की तो आँखें खोल कर सबको देखा और फिर अजीब तरह के कर्ब को महसूस कर के आँखें बंद करलीं। उस रोज़ जो भी आती वो डाक्टर साजिद की बीवी और घर की दूसरी औरतों के गले लग कर रोती हालाँकि मैके वाले बेटी को रुख़्सत करके रोते हैं, ससुराल वाले बहू के आने पर नहीं रोते। मगर ये अजीब समां था कि न आने वालों के आँसू थमते थे, न ससुराल के लोग सँभलते थे। औरतें, मर्द, बच्चे सब ही तो रो चुके थे। मगर जब नोजा को होश आया तो वो सब आँसू पी कर ख़ामोश हो चुके थे और उसके इर्दगिर्द इस तरह बैठे थे कि जैसे कोई भी ख़ास बात नहीं हुई है। नोजा अभी बात करने के क़ाबिल थी। चंद दिन बाद बात कर सकेगी, अभी तो उसे ये भी नहीं याद कि उसकी मंगनी की अँगूठी उसकी उंगली से किस दरिंदे ने नोची थी। शायद उंगली का गहरा ज़ख़्म ही कुछ बता सके और ज़ख़्म के होंटों पर पट्टी बंधी हुई थी
यूसुफ़ को अपने एक साथी से ये ख़बर मिली कि उसकी मुहब्बत और ज़िंदगी नोजा किस हालत में उसके घर पहुंची है तो वो बेचैन हो गया,उइसके साथियों ने कहा कि सारायागो से रसद का इंतिज़ाम पहाड़ी रास्तों से कूफ़े के लिए जो लोग आते-जाते हैं, अच्छा है कि वो भी रसद लाने वालों के इस क़ाफ़िले में शामिल हो कर जाये और नोजा को देख आए। इस तरह उसे थोड़ी सी छुट्टी मिल गई और वो घर आगया।
रास्त्ते भर यूसुफ़ ये याद करता रहा कि वो पुनरावर जा कर पहली बार जब नोजा से मिला था और दूर दराज़ ख़ानदान की ये ख़ूबसूरत और हँसमुख लड़की पहली ही नज़र में उसे बहुत अच्छी लगी थी। वो उसके साथ घूमने फिरने भी गई मगर एक रख-रखाव और वक़ार के साथ वो उस के साथ रही। उसके अंदाज़ में उसके किरदार की अज़मत हमेशा झलकती रही। बोस्निया की बूढ़ी औरतें हमेशा सरों पर स्कार्फ़ लपेटे रहती थीं, मगर लड़कियां स्कार्फ़ कम ही लेती थीं। नोजा से मिलकर यूसुफ़ को ये एहसास हुआ कि शरीफ़ और बाहया लड़कियों के ख़ूबसूरत रेशम जैसे बाल भी शायद स्कार्फ़ का काम करते हैं, उन्हें छूने की उसमें हिम्मत न हुई वो अपनी नज़रों से ही उनकी ख़ूबसूरती और नर्मी को महसूस करता रहा और उसकी नीली आँखें वो झीलें नज़र आईं जिनमें वो उतरता चला गया। उनके दरमियान जो एक फ़ासिला रहा शायद वो फ़ासिला उनकी मुहब्बत को और बढ़ाता रहा और फिर जब माँ ने उससे नोजा के बारे में पूछा तो उसने कहा, अब तक कोई लड़की उसे नोजा से ज़्यादा अच्छी नहीं मालूम हुई और उसकी माँ ने ये बात ख़ुशी ख़ुशी उसके बाप को बताई और रिश्ता हो जाने के बाद कुम्बे के सब ही अफ़राद मंगनी के लिए पुनरावर गए थे। उसने दुख से नोजा के घर का ख़ूबसूरत बाग़ और उसके कुम्बे के लोगों को याद किया और सोचा, जाने वो सब मारे गए या उनमें से कोई ज़िंदा भी है। इन सवालों का जवाब किसी के पास न था क्योंकि पूरा क़स्बा ही तहज़ीबी सफ़ाई की नज़र हो चुका था और आहिस्ता-आहिस्ता वो तहज़ीबी सफ़ाई के नाम पर तमाम इन्सानी क़दरों पर झाड़ू फेर रहे हैं और पूरे बोस्निया में यह अमल जारी है!
जब वो नोजा के सामने गया तो नोजा ने दुख और शर्म से अपना चेहरा छुपा लिया और उससे कहा कि अब वो उसके लायक़ नहीं रही। वो तो अपनी ज़िंदगी को ख़त्म करना चाहती थी, उसके पेट में सर्ब का बच्चा पल रहा है और हराम को जन्म देने से पहले उसकी आरज़ू है कि वो मर जाये। यूसुफ़ ने सब कुछ सुनकर उस का हाथ मज़बूती से थाम लिया और कहा अब कोई ये हाथ न छुड़ा सकेगा और वो जो उसके क़रीब भी न आई थी सबके सामने उसकी गोद में सर रखकर रोती रही।
चंद रोज़ बाद हामिद पासक ने चंद क़रीबी अज़ीज़ों और दोस्तों की मौजूदगी में उन दोनों का निकाह पढ़ा दिया। कुम्बे की औरतों ने खजूर मिला कर सादा से केक बना लिये और मेहमानों की ख़ातिर की और घर के वो ख़ूबसूरत क़ालीन जिन पर जगह जगह पानी के टपके के निशान पड़ गए थे उन पर घराने और पड़ोस की लड़कियां बैठी हुई थीं। घर का बड़ा सा प्यानो अभी तक सलामत था और हामिद पासक की बेटी हल्के सुरों में कोई ऐसी धुन बजा रही थी जिसमें ग़म और ख़ुशी दोनों मिल गए थे।
ब्याह के दूसरे दिन जब यूसुफ़ अपने घर से रुख़्सत हुआ कि सामान रसद के साथ जा कर उन भेड़ीयों का मुक़ाबला करे जो तहज़ीबी सफ़ाई के नाम पर बोस्निया की औरतों की इज़्ज़त लूट रहे हैं और इन्सानों को तबाह कर रहे हैं। वो बच्चे औरतें और मर्द जिनको वो सफ़र में जगह जगह ज़ख़्मों से चूर मौत से बदतर हालत में ज़िंदा रहते हुए देख आया था, उसकी नज़रों के सामने थे और अपना फ़र्ज़ अदा करना उसे इबादत मालूम हुआ। वो सबसे रुख़्सत हो कर जल्द अज़ जल्द महाज़ पर जाना चाहता था।
यूसुफ़ ने रुख़्सत होते वक़्त नोजा से कहा कि तुम्हारे पेट में जो बच्चा पल रहा है उसका नाम मेरे मरहूम बाप के नाम पर साजिद रखना। उससे एक सर्ब समझ कर नफ़रत न करना वो जो तुम्हारे वजूद में पल रहा है वो तुम्हारा बच्चा भी है और इसलिए वो मेरा है। वो हमारी मुहब्बत की निशानी बनेगा।
नोजा के ज़ख़्म तो भर चले थे मगर दिल का ज़ख़्म बहुत गहरा था वो सर्ब कैंप में जो कुछ अपने और दूसरी औरतों के साथ ज़ुल्म देख आई थी वो उसे भुला न सकती थी। मगर वो चंद लम्हे जो उन्होंने इकट्ठे बसर किए थे उन लम्हों ने उसे इतनी मज़बूती और हिम्मत दे दी कि वो अपना सर सीधा करके खड़ी हो गई।मुहब्बत इन्सान की सबसे बड़ी ताक़त है और ज़िंदगी की ज़ामिन है और नफ़रत तबाही और मौत है। नोजा ने सोचा कि वो तबाही और मौत के मुँह में से निकल कर दुबारा ज़िंदगी की तरफ़ लौट आई है मगर उस का घर...सारा यागो...क्या ये सब उस आग से महफ़ूज़ रह सकेंगे जो चारों तरफ़ लगी हुई है?
उसने हिम्मत और हौसले को यकजा कर के सोचा कि वो मुक़ाबला करेगी और उस ज़िंदगी को बचा लेगी जो उसके अंदर पल रही है, इसलिए कि सर्द और अँधेरी ज़मीन में कोई बीज नहीं पनप सकता जब तक कि सूरज की नर्मी और गर्मी उस तक न पहुंचे और उसने सोचा सूरज उससे दूर जा रहा है मगर उसकी मुहब्बत उस के वजूद में पल रही है।
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