चौथा फ़ंकार
बूढ़े ने बड़ी एहतियात से होंटों के एक कोने में बीड़ी दबाई और फिर से वही क़िस्सा छेड़ा। ये क़िस्सा सुनाते वक़्त बूढ़े पर एक इज़्तिराबी कैफ़ियत छा जाती थी।
चार दोस्त थे। चारों ने भगवान विश्वकर्मा से प्रार्थना की। ऐ भगवान! हमें कोई अनोखा फ़न सिखला दे। भगवान विश्वकर्मा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उन्हें बारह बरस तक सिखाते रहे। वो भी पूरे जी जान से सीखते रहे। पहले ने हड्डियाँ जोड़-जोड़ कर ढाँचा बनाना सीखा। दूसरे ने उस पर मास जमाना सीखा, तीसरे ने उस पर चमड़े का ग़िलाफ़ चढ़ाना सीखा।
हस्ब-ए-आदत बूढ़े ने कई बार ये क़िस्सा दोहराया और ख़ामोश हो गया। बूढ़े को ख़ामोश देख कर इस मर्तबा भी लड़के को तजस्सुस हुआ! उसने फिर वही सवाल पूछा, और चौथे ने?
बूढ़ा गुम-सुम खड़ा रहा। वो शायद चौथे फ़नकार के बारे में कुछ बताना नहीं चाहता था या फिर उसे इसके बारे में कोई इल्म ही न था।
लड़के का तजस्सुस हनूज़ बरक़रार था और जब बूढ़े को उसके तजस्सुस का एहसास हुआ तो उसने बीड़ी के टुकड़े को फूँक मार कर फेंका और कहा, अबे! घबराता क्यों है? इसके बारे में भी बताऊँगा! धीरज धर!
और लड़का फिर से बाँस की ठटरी में पुवाल बाँधने लगा। बूढ़े ने एक और बीड़ी सुलगाई। जल्दी-जल्दी दो-चार कश लगाए, कमर में गम्छा बाँधा, उँगलियों के दरमियान अपने पिचके गाल रखे, दाढ़ी के बाल ऐंठे, थोड़ी देर कुछ सोचा और काम में जुट गया।
अब उसका हाथ तेज़ी से चल रहा था। रफ़्ता-रफ़्ता पुवाल नज़रों से ओझल हो रही थी। वो बाएँ हाथ से ढाँचे को सहारा दिए दाएँ हाथ से मिट्टी थोप रहा था। हथेली के निचले हिस्से से थपकियाँ भी लगा रहा था। जहाँ मिट्टी ज़ियादा हो जाती वहाँ उँगलियों से काढ़ लेता, जहाँ मिट्टी कम पड़ जाती वहाँ चिपका देता। रह-रह कर बीड़ी का सिरा अँगारे की तरह धुकने लगता और दूसरे ही लम्हे उस पर राख की तह जम जाती।
लड़का पुवाल बाँध रहा था, लेकिन नज़रें बूढ़े की हथेलियों और उँगलियों की जुंबिश पर टिकी हुई थीं।
और जब बूढ़ा लड़के को देखता तो मुस्कुरा देता। हाथ की तरफ़ इशारा करते हुए कहता, अबे, मूर्ति हाथ में नहीं होती है। और फिर दायाँ हाथ सीने पर ज़ोर से थपक कर कहता, मूर्ति यहाँ होती है। समझा, यहाँ, इसके अंदर!
लड़का हैरत से बूढ़े का सीना तकने लगता। ऊबड़-खाबड़, हड्डियाँ ही हड्डियाँ, गोश्त का नाम-ओ-निशाँ नहीं! बूढ़े का हाथ तेज़ी से चलने लगा।
और जब बाँस की ठटरी पर पुवाल बाँधने का काम मुकम्मल हो गया तो लड़के ने ढाँचे को घुमा-फिरा कर देखा। जिस्म के नशेब-ओ-फ़राज़ का मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से मुआयना किया। उँगलियों से खींच-तान कर डोरी के दम-ख़म का जायज़ा लिया। बाबा को ऐसा ही कसा हुआ ढाँचा पसंद है। उसने मन ही मन कहा और फिर से बूढ़े को टकटकी बाँधे देखने लगा, बाबा के हाथों में जादू है! छूते ही हाथ, पाँव, पेट, सीना, नाभी, गर्दन सब एक-एक कर के माटी से निकलने लगते हैं!
बूढ़े ने छाती पर मिट्टी थोप कर छोटे-छोटे दो टीले बना दिए थे। अब वो उन टेलों पर हथेलियाँ फेर रहा था और जब वो ऐसा करता था तो उस पर अजीब-सी एक कैफ़ियत तारी हो जाती थी। चेहरा तिमतिमाने लगता था। आँखों की पुतलियाँ नाचने लगती थीं, होंट कपकपाने लगते थे। साँस टूटने लगती थी। पहले-पहल लड़के ने घबरा कर उसे झिंजोड़ा था। जवाबन नर्म और नाज़ुक रुख़्सार पर तमाँचा खाया था। उसके बाद कभी उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वो ऐसी हालत में बूढ़े के क़रीब फटके।
और जब सीने का तनाव पूरी आब-ओ-ताब से नुमायाँ हो जाता तो बूढ़े के चेहरे पर सुरुर-ओ-इंबिसात की हज़ारों लहरें दौड़ जातीं। वो मुस्कुराते हुए लड़के की तरफ़ देखने लगता। सो उसने इस बार भी देखा। सिर्फ़ देखा ही नहीं बल्कि एक बे-तुक्का सा सवाल भी पूछ लिया, अच्छा, बता तो, बे, तूने कभी किसी नारी का सरीर देखा है? एक दम नंग-धुड़ंग सरीर!
लड़का हक्का-बक्का बूढ़े को तकने लगा। वो तो उसकी बड़ी इज़्ज़त करता था। उसे भगवान समझता था। भला भगवान भी इस तरह के सवाल करते हैं! लड़का पस-ओ-पेश में पड़ गया!
क्या बे, जवाब क्यों नहीं देता?
लड़के से कुछ कहा न गया।
पाट और मिट्टी का गिलावा गड्ढे में पड़ा-पड़ा सड़ चुका था। बदबू आने लगी थी। नाले में कीचड़ के सड़ जाने से भी ऐसी ही बदबू आती है। बदबू लड़के के नथुनों को छूने लगी! और यकसर उसकी नज़रों के सामने का मंज़र बदल गया!
(दो)
भादों की उमस और हवा बंद! गर्मी ऐसी कि दम घुट जाए। सड़क और फ़ुटपाथ के दरमियान चौड़ा एक नाला, कीचड़ से अटा हुआ। नाले का पानी सड़ चुका है। छोटे-छोटे कीड़े कुलबुला रहे हैं। नाक नहीं ठहरती। नाले से लगा एक छोटा सा झोंपड़ा है। झोंपड़े में बच्चा माँ की छाती से चिपका सो रहा है। अचानक बच्चे की आँखें खुल गईं। वो हैरत में पड़ गया। उसे महसूस हुआ कि अब वो रास्ते पर अकेला पड़ा है। चाँद में बैठी बुढ़िया चक्की पीस रही है। हर तरफ़ चाँदनी फैली है।
मैं यहाँ कैसे? बच्चा अपने नन्हे से ज़ेहन को झटकता है। लेकिन उसकी समझ में कुछ नहीं आता। उसकी निगाह झोंपड़े पर पड़ती है। एक शख़्स झोंपड़े से बाहर आता है और लुँगी बाँधता हुआ पुर-पेच रास्तों में गुम हो जाता है। बच्चा झोंपड़े की तरफ़ लपकता है और जैसे ही क़दम अंदर रखता है ठिटक कर रह जाता है। माँ के जिस्म पर एक धागा भी नहीं। वो आहट सुनती है। बदन पर सारी खींच लेती है। पीठ फेर कर सो जाती है। बच्चा खड़ा काँपने लगता है...
लड़का भी काँपने लगा। बूढ़े ने सवाल दोहराया, क्या बे! जवाब क्यों नहीं देता, देखा है?
लड़के ने नफ़ी में सर हिलाया।
बूढ़े ने कहा, जा पहले देख कर आ, फिर मैं तुझे आगे का सबक़ सिखाऊँगा और हाँ सुन जैसे-तैसे मत देखना। ग़ौर से देखना। एक-एक चीज़ देखना, अच्छी तरह से देखना। भवें कितनी खिंची हुई हैं, पेशानी कितनी चौड़ी है, गर्दन कोताह है या सुराही-दार, पेट पर बल कितने हैं, छातियाँ तनी हुई हैं या झूली हुईं, फूल नीला है या भौंरा, होंट गुलाबी हैं या कत्थई, नाभी गहरी है या उभरी हुई। टाँगें चिकनी हैं या रुईं-दार...
लड़के की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। वो बूढ़े को हैरत भरी निगाहों से देखने लगा। बूढ़े ने मज़ीद कहा, सुन माटी को हाथ लगाने से पहले दोनों आँखें बंद कर लेना। ज़ेहन के पर्दे पर इस नंग-धुड़ंग नारी की छब्बी देखना। आँख, नाक, कान, होंट, कपाल, कँधा, छाती, पेट, नाभी, चूतड़, कमर, टाँगें, बाँहें सब अच्छी तरह मन में बसा लेना। उसके बाद बचाली (पुवाल) के इस ढाँचे में माटी जमाते जाना। याद रहे नज़रों से वो छब्बी ओझल न होने पाए।
बूढ़ा थोड़ी देर ख़ामोश रहा। फिर मुस्कुराया और बोला, अच्छा एक काम कर, माटी में चाल (चावल) की थोड़ी-सी भूसी और मिला दे।
लड़के ने पूछा, और पाट?
नहीं पाट मिलाने की ज़रूरत नहीं।
लड़का मिट्टी के गड्ढे में भूसी डाल कर कुछ देर पैरों से रुलाया फिर धीमी आवाज़ में बोला, बाबा, एक बात पूछूँ?
बूढ़े ने इस्बात में सर हिला दिया।
लड़के ने पूछा, बाबा, आपकी माँ नहीं है?
अरे जब तेरी माँ नहीं है तो मुझ जैसे बूढ़े की माँ कैसे हो सकती है! हाँ, एक बीवी ज़रूर है। लेकिन मेरे साथ रहना उसे गवारा नहीं। वो जो खाल (नहर) के पास नया स्टेशन बना है। कोलकाता स्टेशन! हराम-ज़ादी, वहीं रहती है। दारू बेचती है और सुना है, धंदा भी करती है। रेलवे के जितने सिपाही हैं उसके गाहक हैं। उनके साथ सोती है। सोती रही साली, मैं किसी की परवा नहीं करता और तू सुन औरतों का सिर्फ़ बदन देखना, ग़ौर से देखना, एक-एक अंग देखना, लेकिन ख़बरदार उनके साथ सोना नहीं! औरत के साथ सोने से आदमी नष्ट हो जाता है! किसी काम का नहीं रहता!
बूढ़े का लहजा भर्रा गया। आँखें नम होने लगीं। रात भर बूढ़ा इसी तरह बकता रहा। ख़ूब दारु पीता रहा और अपनी बीवी को गालियाँ देता हुआ ज़मीन पर बद-हवास सो गया।
(तीन)
बूढ़ा दिन चढ़े तक सोता रहता था। उसने पार्क की पिछली बाउंडरी वाल से पॉलीथीन बाँध कर छोटी-सी एक झोंपड़ी बना रखी थी। झोंपड़ी के सामने ही वो मूर्तियाँ बनाता था। पार्क के दूसरे सिरे पर वाटर सप्लाई के पाइप में एक जोड़ था जिससे ख़ासा पानी रिसता था। थोड़ी दूर फ़ुटपाथ की बाईं तरफ़ कई झोंपड़ियाँ थीं। उन झोंपड़ियों में रहने वाले सुबह ही से वहाँ भीड़ लगा देते थे। औरतें बर्तन और कपड़ा धोने बैठ जातीं, तो टलने का नाम ही नहीं लेती थीं। लड़का अल-स्सबाह जाग जाता और वहाँ से पुराने प्लास्टिक के जार में पानी भर लाता। गड्ढे में मिट्टी और पानी डाल कर पैरों से गूँधता। ग़रज़ ये कि बूढ़े के जागने तक ऊपर का तमाम काम निपटा देता था। गड्ढे में सूखी मिट्टी डाल कर जब वो पानी मिलाता तो आस-पास की फ़िज़ा सोंधी-सोंधी ख़ुशबू से महक उठती थी। लड़के को ये ख़ुशबू अच्छी लगती थी। बिमला को भी भाती थी।
हाँ, वहाँ छोटी-सी एक बच्ची भी रहती थी। इसकी प्यारी-प्यारी बातें लड़के को खींचने लगीं। एक दिन उसने बच्ची से कहा, मेरे साथ चल, माटी की गुड़ियाँ दूँगा।
और जब बच्ची आती तो वो उसे छोटी-छोटी गुड़ियाँ बना कर दे देता था। अगर-चे उन गुड़ियों में हज़ारों ऐब होते थे, लेकिन बच्ची उन्हें बड़े चाओ से ले लेती थी।
शुरू-शुरू में तो वो गुड़ियों के लालच में चली आती थी, लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता उसका ज़ेहन बड़ी-बड़ी मूर्तियों की तरफ़ माइल होने लगा। वो घंटों बूढ़े को मूर्तियाँ बनाते देखा करती थी। अपनी प्यारी-प्यारी बातों से बूढ़े का भी मन मोह लेती थी।
और जब बूढ़ा वही पुराना क़िस्सा सुनाता तो वो भी ग़ौर से सुनती,
चार दोस्त थे। चारों ने भगवान विश्वकर्मा से प्रार्थना की। ऐ भगवान! हमें कोई अनोखा फ़न सिखला दे। भगवान विश्वकर्मा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उन्हें बारह बरस तक सिखाते रहे। वो भी पूरी जी जान से सीखते रहे। पहले ने हड्डियाँ जोड़-जोड़ कर ढाँचा बनाना सीखा। दूसरे ने उस पर मास जमाना सीखा, तीसरे ने उस पर चमड़े का ग़िलाफ़ चढ़ाना सीखा।
और जब बूढ़ा ख़ामोश हो जाता तो लड़के के साथ-साथ वो भी तजस्सुस भरे लहजे में वही सवाल दोहराती, और चौथे ने?
जब बूढ़े से कोई जवाब नहीं बन पाता तो बच्ची बे-बाकी से कहती, छोड़िए-छोड़िए, आपको पता नहीं है!
लेकिन बूढ़ा उसकी बात का बुरा नहीं मानता था, बस हँस देता था।
(चार)
बच्ची रोज़ाना सुब्ह-सवेरे आँखें मलती हुई चली आती थी और लड़के के साथ बैठ कर कभी गुड्डा, कभी गुड़िया, कभी तोता, कभी मैना, कभी शेर और हाथी बनाया करती थी। सामने सीमेंट का एक बोसीदा ड्रेन पाइप पड़ा था। वो उस पर बैठ जाती और देर तक उससे बातें किया करती थी।
एक दिन लड़के ने कहा, बिमला, देख मैंने रात भर जाग कर तेरे लिए माँ काली की प्रतिमा बनाई है। देख इसकी ज़बान देख, कितनी लंबी है! इसके गले में मंडियों की ये माला देख! कितनी मेहनत से एक-एक सर बनाया है। उन्हें धागे में पिरोया है। देख, इसके एक हाथ में कटी हुई एक बड़ी-सी मंडी लटकाऊँगा और दूसरे में ये दाँव और ये सियार भी बनाया है, जो मंडी से टपकने वाला ख़ून चाटेगा और देख ये बाबा भोले नाथ का पुतला है। उसे चित लिटा कर माँ काली की प्रतिमा इस पर रख दूँगा...
बच्ची ने होंट बिचका कर कहा, नहीं, ठीक नहीं हुआ। माँ काली के तो चार हाथ होते हैं, इसके दो हैं। शिव ठाकुर की जट्टा भी नहीं है। शेर की छाल कहाँ है?
लड़का उदास हो गया। उसने तमाम मूर्तियाँ तोड़ डालीं।
वैसे भी वो हर रोज़ बूढ़े के जागने से पहले अपनी बनाई हुई तमाम मूर्तियाँ तोड़ कर गड्ढे में डाल देता था और मिट्टी को इस तरह मिला देता था कि बूढ़े को इसकी भनक भी नहीं मिल पाती थी। उसे डर था, कहीं बूढ़ा नाराज़ न हो जाए।
दूसरे दिन फिर बच्ची आई। अभी वो ड्रेन पाइप पर ठीक से बैठी भी न थी कि लड़के ने मुस्कुरा कर कहा, बिमला, आँखें बंद कर!
बिमला ने आँखें बंद कर लीं। कुछ देर बाद लड़के ने कहा, अब खोल! देख आज मैंने क्या बनाया है? बता तो ये किसकी मूर्ति है?
बच्ची के चेहरे पर इतनी हैरत न थी जितना कि उसने उम्मीद लगाई थी। बच्ची तुतलाते हुए बोली, लगती तो दुर्गा जैसी है। लेकिन...
बच्ची ग़ौर से मूर्ति देखने लगी और गाल पर दायाँ हाथ रख कर शहादत की उँगली हिलाते हुए कुछ सोचने लगी। लड़के का तजस्सुस बढ़ गया।
लेकिन!
लड़के ने बड़ी बे-सब्री से पूछा, लेकिन क्या?
लेकिन... इसकी नाक में नथ और कानों में मुंदरी कहाँ है? माथे पर टीका, गले में हार, हाथ में चौड़ी, पाँव में पायल, भी नहीं। धुत ये भी कोई माँ दुर्गा हुई।
इस बार भी लड़का उदास हो गया। उसने ये मूर्ती भी गड्ढे में डाल दिया उसे मिट्टी में मिला दिया। लड़के को उदास देख कर बच्ची ने कहा, जब मैं बड़ी हो जाऊँगी तो मैं नाक में नथ, कान में झुमके, हाथ में चौड़ी पहनूँगी। गले में हार, माथे पर टीका, पाँव में पायल भी पहनूँगी।
लड़का सोचने लगा, जब बिमला बड़ी हो जाएगी तो वो किसकी तरह दिखेगी? दुर्गा माँ की प्रतिमा की तरह, काली माई की प्रतिमा की तरह या फिर माँ सरस्वती की प्रतिमा जैसी? क्या इसका कूल्हा और सीना भी उसी तरह उभर आएगा। क्या इसका जिस्म भी उसी तरह का हो जाएगा जैसा बाबा को अपनी प्रतिमाओं के लिए पसंद है। नहीं-नहीं, वो प्रतिमाएँ तो बोल नहीं सकतीं। सबकी सब बे-जान हैं। इनमें आत्मा कहाँ? मेरी बिमला तो बोलती है! टिप-टिप बोलती है, मैना की तरह! ये तो ज़िंदा है।
लेकिन अफ़सोस कि इसकी मैना ज़ियादा दिनों तक ज़िंदा न रह सकी!
हुआ यूँ कि उस इलाक़े में तेज़ी से महामारी फैलने लगी! भादों के महीने में यहाँ अक्सर ऐसा होता था। जब वो कई रोज़ तक नहीं आई तो लड़के को फ़िकर लाहक़ हुई। वो उसके घर पहुँच गया। बिमला बे-सत पड़ी थी। जिस्म पर लाल-लाल चट्टे पड़ गए थे। लड़के को देख कर उसके चेहरे पर फीकी सी मुस्कुराहट उभरी। लड़के ने पूछा, बिमला, बड़ा कष्ट हो रहा है क्या?
बिमला कुछ नहीं बोली। उसने इस्बात में सिर्फ़ धीरे से गर्दन हिला दी। सिरहाने उसकी माँ बैठी सर पर पानी पट्टी चढ़ा रही थी। सिसकते हुए बोली, कई दिनों से बुख़ार लगा है। उतरने का नाम नहीं लेता। कहती है, सर में बहुत दर्द है! बदन का जोड़-जोड़ दुख रहा है!
लड़के से उसकी हालत देखी नहीं गई। उसने दिल ही दिल प्रार्थना की, ऐ ठाकुर, मेरी बिमला को अच्छा कर दे...!
इसके बाद वो रोज़ाना जाने लगा। बिमला की माँ ने मना किया, बेटा, तू उसके पास मत जाया कर। उसे छूत की बीमारी हो गई है। तुझे भी हो जाएगी।
लेकिन लड़का कब मानने वाला था! वो बिमला की हथेलियाँ और तलवे सहलाता, सर पर पट्टी चढ़ाता। घंटों उसके सिरहाने बैठा रहता। कहता, बिमला, तू जल्दी से ठीक हो जा। मैं इस दफ़ा तेरी मूर्ती बनाऊँगा।
लेकिन उसकी बिमला ठीक नहीं हुई। उसे क़ै आने लगी। पेट में शदीद दर्द शुरू हो गया। नाक और मुँह से ख़ून बहने लगा। जिस्म ज़र्द पड़ता गया। लोगों ने कहा, डेंगू बुख़ार हुआ है। ये नहीं बचेगी।
और वाक़ई वो नहीं बची। लोगों का मानना था कि महामारी में मरने वाले बच्चे की लाश जलानी नहीं चाहिए। सच तो ये था कि उसकी ग़रीब माँ के पास इतना पैसा ही कहाँ था कि वो लकड़ियाँ ख़रीदती। अपनी बच्ची की चिता जलाती। चुनाँचे उसकी लाश नहर किनारे मिट्टी में दबा दी गई। लड़का फिर से तन्हा हो गया। अब उसका जी किसी काम में लगता न था। बच्ची की मौत का सदमे बूढ़े को भी कम न था, लेकिन वो इस सदमे को दिल में दबाए लड़के को बहलाने की कोशिश करता। उसने एक-बार फिर वही क़िस्सा छेड़ा,
चार दोस्त थे। चारों ने भगवान विश्वकर्मा से प्रार्थना की। ऐ भगवान! हमें कोई अनोखा फ़न सिखला दे। भगवान विश्वकर्मा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उन्हें बारह बरस तक सिखाते रहे। वो भी पूरी जी जान से सीखते रहे। पहले ने हड्डियाँ जोड़-जोड़ कर ढाँचा बनाना सीखा। दूसरे ने उस पर मास जमाना सीखा, तीसरे ने उस पर चमड़े का ग़िलाफ़ चढ़ाना सीखा।
लेकिन इस बार बूढ़े को ख़ामोश देख कर उसने अपना सवाल नहीं दोहराया।
और तब बूढ़े ने कहा, आ, मैं तुझे मास जमाना और चमड़े का ग़िलाफ़ चढ़ाना सिखला दूँ।
लेकिन लड़का तो किसी और ख़्याल में गुम था। ख़ामोश खड़ा रहा।
दूसरे दिन वो नहर किनारे उदास बैठा हुआ था कि अचानक उसकी निगाह पीली सी एक चीज़ पर पड़ी। उसने ग़ौर से देखा, कहीं ये बिमला के पैर की हड्डी तो नहीं? तो क्या जानवरों ने उसकी क़ब्र खोद कर उसकी लाश खा ली है!
हाँ, बिमला की लाश के साथ ऐसा ही हुआ था। उसने एक-एक हड्डी ढूँढ़ी और उन्हें उठा कर ले आया।
चाँदनी रात थी। लड़के ने आसमान की तरफ़ निगाह की। दूर-दूर तक बादल का नाम-ओ-निशाँ न था। चाँद पूरी आब-ओ-ताब से चमक रहा था। मगर दरख़्त का एक पत्ता भी नहीं हिल रहा था। फ़िज़ा में अजीब-सी घुटन थी।
वो कुछ देर तक टकटकी बाँधे चाँद को तकता रहा। बुढ़िया चाँद में बैठी चक्की पीस रही थी। फिर उसने झोंपड़े की तरफ़ देखा। बूढ़ा हर दिन की तरह आज भी दारू पी कर औंधा पड़ा हुआ था।
लड़का हड्डियाँ जोड़ता गया और बड़बड़ाता गया, पहले ने हड्डियाँ जोड़-जोड़ कर ढाँचा बनाया...!
और जब हड्डियों का ढाँचा बन गया तो लड़का उस ढाँचे पर मिट्टी थोपता गया और बड़बड़ाता गया, पहले ने हड्डियाँ जोड़-जोड़ कर ढाँचा बनाया, दूसरे ने मास जमाया...!
अब वो मूर्ती को हथेलियों से लीप रहा था और बड़बड़ाता जा रहा था, पहले ने हड्डियाँ जोड़-जोड़ कर ढाँचा बनाया, दूसरे ने मास जमाया, तीसरे ने ग़िलाफ़ चढ़ाया...
(पाँच)
पौ फट चुकी थी। फ़िज़ा में घुटन का एहसास बढ़ने लगा था। हमेशा की तरह आज भी बूढ़ा ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में पड़ा था कि अचानक उसके कानों में एक आवाज़ आई। वो चौंक कर जाग गया।
पहले तो उसे यक़ीन ही न हुआ। उसने हथेलियों से आँखें मलीं, कान सहलाए और अपने आप से कहा, नहीं, ये ख़्वाब नहीं! ये ख़्वाब नहीं है!
बोसीदा ड्रेन पाइप पर बिमला की प्रतिमा थी! लड़का प्रतिमा के सामने नीम बे-होशी के आलम में पड़ा था। बड़बड़ाता जा रहा था, पहले ने हड्डियाँ जोड़-जोड़ कर ढाँचा बनाया, दूसरे ने मास जमाया, तीसरे ने ग़िलाफ़ चढ़ाया। पहले ने हड्डियाँ जोड़-जोड़ कर ढाँचा बनाया, दूसरे ने मास जमाया, तीसरे ने ग़िलाफ़ चढ़ाया...
बूढ़े के रोंगटे खड़े हो गए। वो डरता-डरता प्रतिमा के क़रीब आया। दम ब-ख़ुद कुछ देर तक उसे देखता रहा। फिर लड़के की तरफ़ मुड़ा। उसे हाथ जोड़ कर परणाम किया! फूट-फूट कर रोने लगा! और धम्म से उसके क़दमों पर गिर पड़ा!
प्रतिमा अब भी बोल रही थी, और चौथे ने रूह फूँकी...! और चौथे ने रूह फूँकी...!
(ऐवान-ए-उर्दू, दिल्ली, अगस्त 2008)
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.