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आधे चेहरे

मुमताज़ मुफ़्ती

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मुमताज़ मुफ़्ती

MORE BYमुमताज़ मुफ़्ती

    स्टोरीलाइन

    कहानी एक ऐसे नौजवान के गिर्द घूमती है जो मिस आईडेंटिटी का शिकार है। एक दिन वह एक डॉक्टर के पास आता है और उसे अपनी हालत बताते हुए कहता है कि जब वह मोहल्ले में होता है तो हमीद होता है मगर जब वह कॉलेज में जाता है तो अख़्तर हो जाता है। अपनी यह कैफ़ियत उसे कभी पता न चलती अगर बीते दिन एक हादसा न होता। तभी से उसकी समझ नहीं आ रहा है कि वह कौन है? वह डॉक्टर से सवाल करता है कि वह उसे बताए कि वह हक़ीक़त में क्या है?

    मैं समझता हूँ कि आज की दुनिया में सबसे अहम मसला इमोशनल स्ट्रैस और स्ट्रेन का है। असलम ने कहा, अगर हम इमोशनल स्ट्रैस को कंट्रोल करने में कामयाब हो जाएं तो बहुत सी कॉम्प्लिकेशन्ज़ से नजात मिल सकती है।

    आपका मतलब है ट्रंकुलाइज़र क़िस्म की चीज़। रशीद ने पूछा।

    नहीं नहीं। असलम ने कहा, ट्रंकुलाइज़र ने मज़ीद पेचीदगियां पैदा कर रखी हैं। एलोपैथी ने जो मर्ज़ को दबा देने की रस्म पैदा की है, उससे अमराज़ में इज़ाफ़ा हो गया है और सिर्फ़ इज़ाफ़ा ही नहीं इस सपरीशन की वजह से मर्ज़ ने किमोफ़लाज करना सीख लिया है। लिहाज़ा मर्ज़ भेस बदल बदल कर ख़ुद को ज़ाहिर करता है। इसी वजह से उसमें इसरार का उंसुर बढ़ता जा रहा है। तशख़ीस करना मुश्किल हो गया है। क्यों ताऊस, तुम्हारा क्या ख़याल है? असलम ने पूछा।

    मैं तो सिर्फ़ एक बात जानता हूँ। ताऊस बोला, हमारा तरीक़-ए-इलाज यानी होम्योपैथी यक़ीनन रुहानी तरीक़ा-ए-इलाज है। हमारी अदवियात माद्दे की नहीं बल्कि अनर्जी की सूरत में होती हैं। जितनी दवा कम हो, उसमें उतनी ही ताक़त ज़्यादा होती है। यही इस बात का मुँह बोलता सबूत है।

    वो तो है। अज़ीम ने कहा, यक़ीनन ये तरीक़-ए-इलाज अपनी नौईयत में रुहानी है लेकिन हमारे प्रक्टिंग होम्योपैथस का नुक़्ता-ए-नज़र अभी माद्दियत से नहीं निकल सका। कितने अफ़सोस की बात है।

    डाक्टर साहिबान। रशीद हंसकर बोला, आप लाख कोशिश करें लेकिन एलोपैथी को रीप्लेस नहीं कर सकते।

    वो क्यों ? हामिद ने पूछा

    सीधी बात है। रशीद ने जवाब दिया, आजकल मरीज़ केअर नहीं चाहता। वो सिर्फ़ रीलीफ़ चाहता है। केअर के लिए सब्र चाहिए। इस्तिक़लाल चाहिए। आजकल लोगों के पास इतना वक़्त नहीं कि वो केअर का इंतिज़ार करें। बस एक गोली हो, एक टीका लगे और शाम को एंटरकान की महफ़िल में शो ऑफ़ का मौक़ा हाथ से जाये।

    सच कहते हो भाई। हामिद ने आह भरी।

    असलम साहिब। ताऊस ने कहा, मैं समझता हूँ कि आज के दौर का सबसे अहम मसला ये है कि हम अपनी आइडेंटीटी खो चुके हैं। माडर्न एज की ये एक डीज़ीज़ है। केनटिजेटस डीज़ीज़।

    मैं समझा नहीं। हामिद बोला।

    मेरा मतलब है आजकल के नौजवानों को पता नहीं कि वो कौन हैं। पता नहीं, वो चाहते क्या हैं। मूवमेंट के दीवाने तो हैं। चलते रहने का भूत सवार है। लेकिन उन्हें पता नहीं कि हम क्यों चल रहे हैं। हमें कहाँ पहुंचना है। हमारे नौजवान मेड कराउड की ज़िंदगी बसर कर रहे हैं। उन्होंने अपने अंदर के फ़र्द को दबा रखा है। बिल्कुल ऐसे जैसे ऐन्टीबायोटिक्स अंदर की बीमारी को दबा देते हैं। वो अकेले होने से डरते हैं। ताऊस ने एक लंबी आह भरी और गोया अपने आपसे बोला, काश कि मैं कोई ऐसी दवा बनाने में कामयाब हो सकता जो अंदर के फ़र्द को रीलीज़ कर सकती। मेड कराउड की नफ़ी कर सकती।

    हूँ। दिलचस्प बात है। अज़ीम ने सोचते हुए कहा, आपको इसका ख़्याल कैसे आया? हामिद ने ताऊस से पूछा।

    दो साल हुए। ताऊस कहने लगा, जब मैंने प्रैक्टिस शुरू की तो पहला मरीज़ जो मेरे पास आया उसने मुझसे पूछा था, डाक्टर साहिब ये बताइए कि मैं कौन हूँ?

    अजीब बात है। रशीद ज़ेर-ए-लब बोला।

    और वो मरीज़ मुकम्मल होश-ओ-हवास में था क्या? असलम ने पूछा।

    बिल्कुल। ताऊस ने जवाब दिया।

    शायद डिस बैलंस्ड हो। अज़ीम ने गोया अपने आपसे पूछा।

    बज़ाहिर तो नहीं लगता था। ताऊस ने जवाब दिया।

    हैरत की बात है। रशीद ने दुहराया। उस वक़्त ये सब लोग रशीद के मकान से मुल्हिक़ा लॉन में बैठे थे।

    दरअसल रशीद होम्योपैथी का बहुत दिलदादा था। होम्योपैथ डाक्टरों से उसके बड़े मरासिम थे।

    उस रोज़ उसने चार होम्योपैथ डाक्टरों को अपने घर पर मदऊ कर रखा था। ग़ालिबन कोई तक़रीब थी या वैसे ही।

    रशीद ख़ुद होम्योपैथ नहीं था लेकिन उसे होम्योपैथी के केसेज़ का बड़ा शौक़ था। बहरहाल खाना खाने के बाद वो सब ड्राइंगरूम में बैठे सब्ज़ चाय पी रहे थे कि दौर-ए- हाज़िरा की बात चल निकल थी।

    ताऊस के इस केस पर डाक्टर तो नहीं अलबत्ता रशीद बहुत मुतास्सिर हुआ। उसके इसरार पर ताऊस ने उन्हें उस नौजवान का वाक़िया सुनाया। ताऊस ने बात शुरू की।

    उन दिनों ने मैंने नया नया मअमल खोला था और मअमल भी क्या। मैंने घर के एक कमरे पर बोर्ड लगाया था और वहां चंद एक ज़रूरी किताबें और दवाएं रख ली थीं।

    शाम का वक़्त था। मैं अपने मअमल में बैठा एक रिसाले का मुताला कर रहा था कि दरवाज़े पर टक-टक की आवाज़ आई। देखा तो दरवाज़े पर एक ख़ुशपोश नौजवान खड़ा है। मैं अंदर सकता हूँ? उसने पूछा।

    तशरीफ़ लाईए। मैंने रिसाला एक तरफ़ रखा, बैठिए।

    आप होम्योपैथ हैं क्या? उसने पूछा।

    जी। मैंने उसका जायज़ा लेते हुए कहा। उसकी शक्ल-ओ-शबाहत एक प्रैक्टीकल नौजवान जैसी थी। स्मार्ट, ज़हीन, मुज़्तरिब, शोख़, ला उबाली, चमकती आँखें, चौड़ा मुँह, लटकती मूँछें और सर पर बालों का टोकरा।

    दरअसल मैं आपसे एक बात पूछने आया हूँ। नौजवान ने कहा।

    पूछिए। मैंने जवाब दिया।

    वो कुछ देर सोचता रहा। ग़ालिबन उसे समझ में नहीं रहा था कि कैसे बात शुरू करे।

    फिर वो एक दम कहने लगा, मेरी एक प्राब्लम है। जनाब मैं ये जानना चाहता हूँ कि आया मैं हमीद हूँ या अख़तर हूँ।

    ताऊस रुक गया। हाज़िरीन हैरत से ताऊस की तरफ़ देखने लगे।

    हाँ हाँ, ये क्या बात हुई। रशीद बे सबरा हो रहा था। ये क्या बात हुई भला, मैं हमीद हूँ या अख़तर।

    ताऊस ने बात शुरू की। बोला, नौजवान की बात सुनकर मैं घबरा गया। समझा शायद उसका ज़ह्न गड-मड है लेकिन मैंने अपने आपको क़ाबू में रखा। फिर नौजवान ख़ुद ही बोला, आई ऐम नाट मैंटल केस सर। मेरा ज़ह्न बिल्कुल ठीक है। डाक्टर, दरअसल मुझे समझ में नहीं रहा कि कैसे बात करूँ?

    ये बताइए कि हमीद कौन है, अख़तर कौन है। मैंने पूछा।

    मैं हूँ। मैं हमीद भी हूँ, अख़तर भी। मेरा नाम हमीद अख़तर है। उसने कहा।

    तो क्या हमीद अख़तर एक ही फ़र्द का नाम है? मैंने पूछा।

    जी, एक ही फ़र्द का। उसने जवाब दिया।

    फिर आपने ये क्यों पूछा कि मैं हमीद हूँ या अख़तर?

    मैंने बिल्कुल ठीक पूछा। डाक्टर, यही मेरी प्राब्लम है। लेकिन मैं अपनी प्राब्लम किसी को भी नहीं समझा सकता। मैं इस उम्मीद पर यहां आया था कि शायद होम्योपैथी में कोई ऐसी दवा हो जो मेरी प्राब्लम को हल कर सके। लेकिन इट्स नो यूज़। वो जाने के लिए मुड़ा, माफ़ कीजिए। मैंने आपका वक़्त ज़ाए किया।

    ज़रा ठहरिये तो... मैंने उठकर उस का बाज़ू पकड़ लिया।

    फ़ायदा? वो बोला।

    जब मैं अपनी प्राब्लम पेश ही नहीं कर सकता तो...

    गोली मारिये प्राब्लम को। मैंने कहा, आईए इकट्ठे बैठ कर चाय का प्याला पीते हैं। दुनिया में सबसे उम्दा दवा इकट्ठे बैठ कर बातें करना है।

    लेकिन आपका वक़्त... उसने कहा।

    बेफ़िक्र रहिए। मैं बिल्कुल फ़ारिग़ हूँ। अहमद दीन... मैंने बा आवाज़ बुलंद अपने मुलाज़िम को पुकारा। भई चाय ले आओ। इस पर वो नौजवान रुक गया।

    बैठिए न। मैंने नौजवान को सोफ़े पर बिठा दिया। देखिए मौसम कितना ख़ुशगवार है और यहां से पहाड़ों का मंज़र कितना अच्छा लगता है। मैंने उससे बातें करनी शुरू कर दीं। देर तक बैठे हम दोनों चाय पीते रहे। इस दौरान में दो एक मर्तबा उसने अपनी प्राब्लम की बात शुरू करने की फिर से कोशिश की। आख़िर मैंने उससे कहा, हमीद साहिब। आप अपनी प्राब्लम पेश करें बल्कि अपनी आप-बीती सुनाएँ। आपकी प्राब्लम आप ही आप बाहर निकल आएगी।

    बात उसकी समझ में गई और उसने मुझे अपनी कहानी सुनानी शुरू कर दी।

    कहने लगा, डाक्टर साहिब! मेरा नाम हमीद अख़तर है लेकिन घर में मुझे सब हमीद कहते हैं। हम शहर के पुराने हिस्से कूचा क़ाज़ीयां में रहते हैं। मेरे आबा-ओ-अज्दाद जाने कब से इस मुहल्ले में रहते हैं। ये मुहल्ला एक कूचाबंद मुहल्ला है। मेरा मतलब है चारों तरफ़ से बंद है। अंदर जाने के लिए एक बहुत बड़ी डेयुढ़ी बनी हुई है। जाने का और कोई रास्ता नहीं। मुहल्ले में सिर्फ़ क़ाज़ी आबाद हैं जो एक दूसरे के अज़ीज़ या रिश्तेदार हैं। वो रुक गया और कुछ देर तवक़्क़ुफ़ के बाद बोला,

    आप चूँकि शहर के जदीद हिस्से में रहते हैं, आप नहीं समझ सकेंगे कि मुहल्ले में रहने का मतलब क्या है। मुहल्ले का हर शख़्स दूसरे शख़्स को जानता है। जूंही आप मुहल्ले में दाख़िल होते हैं, लोगों की नज़रें आप पर मर्कूज़ हो जाती हैं। बोलता किस तरह है। सर उठा कर या नीचा कर के लड़कियों की तरफ़ किन निगाहों से देखता है।

    हम लोग जो पुश्तों से मुहल्ले में रहते आए हैं, मुहल्ला हमारी हड्डियों में रच बस गया है। जूंही हम मुहल्ले में दाख़िल होते हैं, अपने आप आँखें झुक जाती हैं। गुफ़्तगु में शोख़ी ख़त्म हो जाती है। अंदर का ग़ुंडा पन धुल जाता है। लड़कियां निगाह में लड़कियां नहीं रहतीं। बड़ों के लिए अदब-ओ-एहतिराम का एक खोल चढ़ जाता है।

    अगरचे अब मुहल्ले में बड़ी तबदीलीयां वाक़ा हो चुकी हैं। बुर्के उतर गए है, लिबास बदल गए हैं। कारें गई हैं, ड्राइंगरूम सज गए हैं लेकिन मुहल्ले वालों का रुख नहीं बदला। अगर बदला भी है तो ये तबदीली बाहर तक महदूद है। मुहल्ले में दाख़िल होते ही काया पलट जाती है। किसी मजबूरी की वजह से नहीं, वैसे ही बे-अख़्तियारी तौर पर।

    हाँ, मैं उस मुहल्ले में पला हूँ डाक्टर साहिब। समझे आप, और मुझे अपनी माँ से मुहब्बत है। नहीं मुहब्बत नहीं, इश्क़ है इश्क़। मेरी माँ ने जितनी मुहब्बत मुझे दी है, उसकी मिसाल मुश्किल ही से मिलेगी। मैं अपनी माँ के लिए बड़ी से बड़ी क़ुर्बानी दे सकता हूँ डाक्टर।

    माँ का तज़किरा करते हुए वो जज़्बाती हो गया। ताऊस एक साअत के लिए रुक गया। फिर बोला,

    आपका बाप? मैंने उससे पूछा।

    अब तो मेरा बाप एक अच्छी ख़ासी नौकरी पर है। पहले वो एक मामूली ओहदे पर काम करते थे। आजकल तो हमारा घर एक अच्छा ख़ासा मिडल क्लास घराना है। अच्छा गुज़ारा हो रहा है। पहले ये बात थी। बहुत मुश्किल से पूरा होता था।

    फिर हम पर एक मुसीबत नाज़िल हो गई। अब्बा बीमार पड़ गए। वो एक अजीब सी बीमारी थी। उन्हें रीढ़ की हड्डी में शिद्दत का दर्द उठता था। हमने उन्हें हस्पताल में दाख़िल करा दिया। हस्पताल वालों ने उन्हें दर्द से बचाने के लिए नशे वाले टीके लगाने शुरू कर दिए। दो साल बाद वो सेहत मंद हो कर घर आए तो उन टीकों के आदी हो चुके थे। एडिक्ट होने की वजह से उनकी नौकरी छूट गई। बदमिज़ाजी हद से बढ़ गई। जैसे कि हर उस ड्रग एडिक्ट की होती है जिसके पास नशा पूरा करने के लिए पैसे नहीं होते।

    उफ़। वो चार साल हम पर एक क़ियामत टूट पड़ी। हमारी हड्डियां तोड़ दीं। अम्मी, छोटी बहन और मैं पिस कर रह गए। हम तीनों ने मज़दूरों की तरह काम किया। रेडीमेड कपड़े सिए, बेचे। देसी नाइयों की सप्लाई करने के लिए फ़ेस क्रीमें बनाईं, थैले सिए। सीलोफ़ीन के लिफ़ाफ़े बनाए। उन दिनों हमें कई कई रोज़ फ़ाक़े आए लेकिन अम्मी ने अब्बा के ईलाज और हमारी तालीम को हर क़ीमत पर जारी रखा। अगर अम्मी होतीं तो घर के परख़चे उड़ जाते। अम्मी एक बहुत बड़ी औरत है। डाक्टर साहिब... उसने हम सब का हौसला बंधाये रखा। हम में मुसीबतें सहने की हिम्मत पैदा की। अब्बा की दीवानगी बर्दाश्त की। ख़ैर वो दिन बीत गए। अब्बा की वो आदत छूट गई और फिर उन्हें पहले से बेहतर मुलाज़मत मिल गई। इसीलिए हम ख़ासे ख़ुशहाल हो गए हैं।

    घर में मुझे सब हमीद कहते हैं डाक्टर साहिब। कभी किसी ने अख़तर कह कर नहीं बुलाया। मुहल्ले में सब हमीद के नाम से बुलाते हैं। जब कोई हमीद के नाम से बुलाता है तो आवाज़ मेरे कानों में दाख़िल हो कर सीधी दिल में पहुंच जाती है और मेरे दिल में घर और मुहल्ले की यादें यूं झनझन करने लगती हैं जैसे साज़ की तारें। घर से वाबस्ता जज़्बात उभरते हैं। अदब, एहतिराम, ख़िदमत, बर्दाश्त, एक मिठास सी पैदा हो जाती है। मेरी गर्दन झुक जाती है। निगाहें भीग जाती हैं। मुँह से जी हाँ, जी हाँ निकलता है। एक अजीब सा सुरुर, अजीब सा सुकून, मैं बयान नहीं कर सकता डाक्टर साहिब। नौजवान ने झुरझुरी लेकर कहा।

    मैं समझता हूँ आपकी बात को। मैंने उसे यक़ीन दिलाने की कोशिश की।

    इसे सिर्फ़ वही समझ सकता है जो पुश्त दर पुश्त मुहल्ले में रहता आया हो, डाक्टर। नौजवान ने फिर बात शुरू की। जब मैं कॉलेज में दाख़िल हुआ, उन दोनों हमारी घरेलू मुसीबत नई नई ख़त्म हुई थी। मेहनत-ओ-मशक़्क़त और ग़ुर्बत का दौर दूर हुआ था। कॉलेज में मेरा जी चाहता था कि उल्टी छलांगें लगाऊँ, हँसूँ, खेलूँ , क़हक़हे लगाऊँ और इसको छेड़ूं उससे उलझूँ। फिर वहां मुहल्ले की बंदिशें भी तो थीं। एक अजीब सी आज़ादी का एहसास हुआ मुझे। मादर-पिदर आज़ाद। फिर ये भी था कि वहां मुझे कोई हमीद के नाम से पुकारने वाला था। पता नहीं कैसे वहां कॉलेज में सभी मुझे अख़तर कह कर बुलाते थे। शायद इसी वजह से मैं महसूस करने लगा था कि मैं एक नया नकोर नौजवान हूँ जिसे हमीद से दूर का ताल्लुक़ नहीं। यानी यूं समझ लीजिए कि कॉलेज में यूं था जैसे बोतल से निकला हुआ जिन्न, मैं ने बाल बढ़ाए, मूँछें लटकाईं। जैकेट और जीन पहन लिये। मेरा बोलने का अंदाज़ बदल गया। सोचने का अंदाज़ बदल गया। जीने का अंदाज़ यूं बदल गया जैसे कोई चट से पट हो जाये।

    एक साल, मैं कॉलेज की हर एक्टिवीटी में पेश पेश हो गया। आज़ादी के नारे लगाने में, प्रोफ़ेसरों का मज़ाक़ उड़ाने में, गर्ल स्टूडैंटस को छेड़ने में, ग्लीड आई चमकाने में, चमकीली बातें कर के अपनी धाक जमाने में, स्ट्राइक करने में, जलसा जलूस आर्गेनाईज़ करने में, हाथ पाई करने में, लड़कियों से रूमान लड़ाने में। मैं डिबेट क्लब का सेक्रेटरी बन गया। स्पोर्टस में खिलाड़ी तो बन सका लेकिन पंडाल में खड़ा हो कर जिसको चाहता, सपोर्ट कर के हीरो बना दिया। जिस लड़की पर तवज्जो देता, वो उभर की कॉलेज की फ़िज़ा पर छा जाती। जिस पार्टी को चाहता, उसे कामयाब बना देता। जिसे चाहता, उसे यूं तोड़ कर रख देता जैसे हाथ का खिलौना हो।

    यानी तीन साल में अख़तर कॉलेज की आँख का तारा बन गया। सबसे बड़ा बिल्ली बन गया। डैनडी बन गया।

    अब प्रोफ़ेसर उससे दबते हैं। लड़के उसके पीछे चलने में फ़ख़्र महसूस करते हैं। लड़कियां उससे ख़ाइफ़ हैं। साथ ही उसकी तरफ़ खिंची चली आती हैं। बोलते बोलते नौजवान रुक गया।

    और... हमीद? मैंने उससे पूछा।

    हमीद। वो मुस्कुराया, हमीद अपनी जगह जूं का तूं क़ायम है। जब भी अख़तर मुहल्ले में दाख़िल होता है तो उसकी काया पलट हो जाती है। ऊपर से अख़तर का छिलका उतर जाता है और नीचे से हमीद निकल आता है। गर्दन झुक जाती है। तने हुए सीने में लचक पैदा हो जाती है। निगाहों में अदब और लिहाज़ का लगाओ उभर आता है। लड़की को देखकर वो महताबी नहीं छूटती जिससे कॉलेज की फ़िज़ा तारे तारे हुई है। उल्टा लड़कियां माँ-बहनों का रूप धार लेती हैं। बड़े-बूढ़ों के लिए वो तहक़ीर नहीं रहती बल्कि उसकी जगह एहतिराम और अदब का जज़्बा उभरता है और जब वो घर में दाख़िल होता है तो माँ-माँ नज़र आती है जैसे देवी हो और उसका जी चाहता है कि सारी दुनिया को उठा कर देवी के क़दमों की भेंट कर दे। नौजवान ख़ामोश हो गया। उसकी आँखों से प्यार भरी फुवार निकल रही थी।

    देर तक कमरे में ख़ामोशी तारी रही। आख़िर मैंने अपने आपको सँभाला। ताऊस ने कहा और बिन सोचे समझे एक ऐसा सवाल कर दिया कि मैं ख़ुद हैरान रह गया। मैंने कहा, आपको क्या ये एहसास शुरू से ही था कि हमीद और अख़तर दो मुख़्तलिफ़ अफ़राद हैं या...

    नहीं, नहीं। नौजवान ने बड़ी शिद्दत से नफ़ी में सर हिला दिया। मुझे इसका क़तई एहसास नहीं था। अगर कल वो वाक़िया होता तो शायद मैं बे-ख़बरी ही में रहता।

    कल दोपहर के वक़्त कॉलेज के खुले मैदान में हम एक बड़े फंक्शन का इंतिज़ाम कर रहे थे, अख़तर उस फंक्शन का नाज़िम भी था और रूह-ए-रवाँ भी। उस वक़्त वो लड़कियों को हिदायात दे रहा था कि मुहल्ले का चचा गफूरा वहां गया। उसने आवाज़ें देनी शुरू कर दीं। हमीद, हमीद। अख़तर ने वो आवाज़ सुनी भी लेकिन उस वक़्त उसके लिए हमीद का कोई मफ़हूम था। पता नहीं हमीद कौन था।

    फिर लड़कों ने शोर मचा दिया। भई अख़तर ये साहिब किसी हमीद को पूछ रहे हैं।

    ये तो अपना हमीद है। चाचा ने मेरी तरफ़ इशारा कर के कहा,

    दफ़्अतन मैंने मुड़ कर देखा। सामने चचा ग़फ़ूर खड़ा था। उसे देखकर अख़तर का ज़ह्न गड-मड हो गया। शदीद धचका लगा। जब चचा ने बताया कि माँ बीमार है तो अख़तर की निगाह में वो मैदान, वो कॉलेज और वो लड़के सब धुँदला गए। एक ख़ला ने उसे चारों तरफ़ से घेर लिया। फिर हमीद जाग उठा। यूं जैसे बटन दबाने से बत्ती जल उठती है।

    नौजवान ख़ामोश हो गया। काफ़ी देर ख़ामोश रहा फिर गोया अपने आपसे कहने लगा, आज सारा दिन मेरे ज़ह्न में यही सवाल घूमता रहा कि मैं कौन हूँ। अख़तर या हमीद। फिर मेरी होम्योपैथिक किताबों की तरफ़ देखकर बोला, मेरी माँ होम्योपैथी की बड़ी क़ाइल है। यहां से गुज़र रहा था कि आपका बोर्ड देखकर ख़याल आया, क्यों आपसे पूछूँ। क्या आपके हाँ कोई ऐसी दवा है जो मेरी असलीयत को ज़ाहिर कर दे। सामने ले आए ताकि पता चले कि मुझे हमीद बन कर ज़िंदगी गुज़ारनी है या अख़तर बन कर। ये मेरी प्राब्लम है डाक्टर साहिब। क्या आप मेरी मदद कर सकते हैं?

    नौजवान ने जलती निगाहों से मेरी तरफ़ देखा। ताऊस रुक गया और इर्द-गिर्द का जायज़ा लेने लगा।

    असलम छत की तरफ़ घूर रहा था। हामिद हाथों के प्याले में ठोढ़ी टेके बैठा सोच रहा था।

    अज़ीम बज़ाहिर फटी फटी आँखों से ताऊस की तरफ़ देख रहा था लेकिन उसकी सोच जाने किन ख़लाओं में भटक रही थी। रशीद मुँह में पेंसिल डाले बैठा था।

    बड़ा दिलचस्प केस है। असलम ने छाई हुई ख़ामोशी को तोड़ते हुए कहा।

    उसे सिर्फ स्प्लिट पर्सनालिटी तो नहीं कह सकते। अज़ीम बोला, डेविल पर्सनालिटी भी नहीं।

    क्या ये सिर्फ़ हमीद अख़तर का ख़ुसूसी केस है या हर माडर्न नौजवान कालजीट का जो पुश्तों से मुहल्ले में रहता आया है। हामिद ने पूछा।

    कुछ नहीं कहा जा सकता। ताऊस ने जवाब दिया।

    छोड़ो यार इन बातों को। रशीद बोला, ये बताओ कि तुमने हमीद अख़तर को क्या जवाब दिया?

    वही जो मुआलिज दिया करते हैं। ताऊस ने जवाब दिया। मैंने कहा, मैं आपका केस स्टडी करूँगा। मुझे एक दिन की मोहलत दीजिए। इस पर नौजवान उठ बैठा। मैं फिर आऊँगा। शायद इतवार के दिन। उम्मीद तो है अब मुझे इजाज़त दीजिए। ये कह कर उसने मुझसे हाथ मिलाया और रुख़्सत हो गया।

    क्या वो अगली इतवार को आया? रशीद ने पूछा।

    ताऊस ने नफ़ी में सर हिला दिया।

    यानी बात ख़त्म हो गई।

    नहीं। ताऊस बोला, बल्कि बात शुरू हो गई।

    क्या मतलब? अज़ीम ने पूछा।

    मेरे दिल में एक सवाल खड़ा हो गया। ताऊस बोला, कि अगर इस केस को होम्योपैथी हल नहीं कर सकती तो होम्योपैथी के क़ियाम का कोई जवाज़ नहीं।

    बिल्कुल। असलम बोला, ऐसे केस को सिर्फ़ होम्योपैथी ही हल कर सकती है।

    अगर होम्योपैथी सुपर सेल्फ़ को बाहर नहीं ला सकती तो ये हमारा क़सूर है, सिस्टम का नहीं। ताऊस ने कहा, अगर होम्योपैथी हिपोक्रेसी की आदत को तोड़ नहीं सकती तो ये अफ़सोसनाक बात है। क़सूर हमारा है कि हमने होम्योपैथी को इस ज़ाविए से देखने की कोशिश नहीं की हालाँकि मेटरिया मेडिका में ज़्यादा तर सिम्पटम्ज़ ऐसे दर्ज हैं जो जिस्म नहीं, शख़्सियत की मद में आते हैं। ताऊस जोश में गया।

    वो तो सब ठीक है। हामिद ने कहा, लेकिन ये बताइए कि क्या मरीज़ फिर कभी आपसे मिला?

    हाँ मिला। ताऊस ने बात शुरू की, मगर इत्तिफ़ाक़न तक़रीबन छः महीने बाद। उस रोज़ मैं इत्तिफ़ाक़न म्युनिसपल पार्क में जा निकला था। वहां घूमते फिरते दफ़्अतन मैंने देखा कि वो अकेला एक बेंच पर बैठा गहरी सोच में खोया हुआ है।

    हेलो, मैंने कहा। वो मुझे देखकर चौंका। शायद आपको याद रहा हो। मैं ताऊस होमियोपैथ हूँ।

    ओह। वो उठ बैठा।

    कहिये आप वादे के मुताबिक़ तशरीफ़ लाए? मैंने पूछा।

    अम्मी की बीमारी की वजह से मैं सब कुछ भूल गया डाक्टर। वो बोला।

    अब क्या हाल है उनका? मैंने पूछा।

    ठीक हो गई हैं लेकिन डाक्टर मैं एक नई मुसीबत में गिरफ़्तार हो गया हूँ। उसने आह भर कर कहा।

    क्या हुआ? मैं ने पूछा।

    मुझे कॉलेज की एक लड़की से मुहब्बत हो गई है डाक्टर। उसने जवाब दिया।

    आपका मतलब है। अख़तर को मुहब्बत हो गई है या हमीद को?

    हाँ अख़तर को। वो हँसने लगा।

    लेकिन अख़तर और मुहब्बत बेजोड़ बात है।

    हाँ, हाँ। वो चिल्लाया। अख़तर तो ख़ुद एक बिगड़ा हुआ महबूब है। उसे मुहब्बत नहीं हो सकती थी लेकिन हो गई। डाक्टर, हो गई। पता नहीं कैसे। पहले तो अख़तर ये समझता रहा कि महज़ दिललगी है। अपने आपको धोका देता रहा, बहलाता रहा फिर...

    लेकिन वो लड़की कौन है? मैंने उस की बात काट कर पूछा।

    कहने लगा, थर्ड इयर की लड़की है। उसका नाम सुंबुल है। ये बड़ी अजीब-ओ-ग़रीब लड़की है डाक्टर। बड़ी अजीब-ओ-ग़रीब। जब वो नई नई कॉलेज में दाख़िल हुई तो सबने समझा कि वो बहुत ही मासूम है। बात बात पर शर्मा जाती थी। उसकी शर्माहट बहुत जाज़िब-ए-नज़र थी। वो एक छोटी सी पतली दुबली, स्मार्ट लड़की है, तेज़ बहुत तेज़, गंदुमी रंग, ख़द्द-ओ-ख़ाल तीखे, सूई की तरह चुभ जाने वाली लड़की है वो।

    ख़ैर साहिब। नौजवान ने बात जारी रखी। चंद ही महीनों में सुंबुल ने पर पुर्जे़ निकाल लिये और लड़कियों को पता चल गया कि वो लजाती शरमाती नहीं बल्कि शर्माहट को इस्तिमाल करती है और डाक्ट,र उसे शर्माहट को इस्तिमाल करना आता है। लजा लजा कर तवज्जो जज़्ब करती है। ऐसे कि मेक-अप करेगी। जब शरमाती है, उस वक़्त उसकी पलकें उड़ती तितरी के परों की तरह पंखी झलती हैं। गाल सुर्ख़ हो जाते हैं। आँखें ग़ुरूब हो कर तूलूअ होती हैं। फिर ग़ुरूब हो जाती हैं। बाक़ी लड़कियों का अंदाज़ तो धोया धाया होता है। मैटर आफ़ फैक्ट क़िस्म का। चूँकि वो रोमांटिक अंदाज़ को रजअत पसंदी का निशान समझती हैं और शरमाने को नफ़रत की आँख से देखती हैं। इसी वजह से सुंबुल की अपील अनोखी थी। सभी उसकी तरफ़ मुतवज्जा हो गए। फिर पता चला कि सुंबुल बड़ी हरामज़ादी है। वो लड़कों से खेलती है। खेलने का गुर जानती है। आज आपकी तरफ़ मुतवज्जा हुई। शर्मा शर्मा कर आपका बुरा हाल कर दिया। कल आपको यूं नजरअंदाज़ कर देगी जैसे जानती ही हो।

    उसका अंदाज़ कुछ ऐसा है डाक्टर कि जिसकी तरफ़ मुतवज्जा हो जाये वो समझने लगता है कि मेरे क़ाबू में है। क़ाबू में लाने की कोशिश करूँ तो यूं उंगलियों से फिसल जाती है जैसे जीती मछली हो। एक निगाह डालिए तो इतनी क़रीब जाती है कि बस हाथ बढ़ाने की बात मालूम होती है। दूसरी निगाह डालते हैं तो कोसों दूर चली जाती है। बड़ी चालाक है वो डाक्टर। लेकिन है जादूगरनी। नौजवान हँसने लगा।

    उस वक़्त उसकी आँखों से फुवार सी निकल रही थी। यूं जैसे फुलझड़ियाँ चल रही हों। एक साअत के लिए वो रुका। फिर अज़ ख़ुद बात शुरू कर दी।

    क़िस्सा मुख़्तसर ये कि छः सात महीने में सुंबुल ने सब लड़कों को घायल कर के रख दिया लेकिन किसी के हाथ आई। इस पर अख़तर की अना जागी। वो सुंबुल के क़रीब हो गया। उसे जीतने के लिए नहीं बल्कि क़ाबू में ला कर दिखाने के लिए। ख़ैर दो-चार रोज़ सुंबुल ने वो वो निगाह डाली कि अख़तर पिघल कर रह गया। छींटे उड़ने लगे। फिर सुंबुल में बड़ी लड़ाई हुई। घमसान का रन पड़ा। अख़तर बुरी तरह घायल हुआ। अपाहज बन कर रह गया।

    मैंने उसकी बात को टोक कर कहा, आप तो कहते हैं, वो बड़ी मक्कार है, चालाक है, हरामज़ादी है, फिर आपको उससे मुहब्बत कैसे हो गई?

    इसीलिए हुई डाक्टर। वो मक्कार है, चालाक है, हरामज़ादी है। गर वो सीधी-सादी मासूम लड़की होती तो मैं उससे खेलता और फिर यूं फेंक देता जैसे खिलौना हो।

    ओह ये बात है। मैंने मुस्कुरा कर कहा, अच्छा तो क्या आपने इज़हार-ए-मोहब्बत किया?

    पेशतर इसके कि इज़हार करता। नौजवान ने जवाब दिया, एक मुश्किल पड़ गई। वैसे इज़हार करने की ज़रूरत ही क्या थी। उसे सब पता था। वो जानती थी कि मेरी क्या कैफ़ियत है और ये भी कि मैंने वापसी की सब कश्तियां अपने हाथ से जला दी हैं। वो रुक गया।

    हाँ तो वो मुश्किल क्या थी? मैंने पूछा।

    एक दिन अम्मी ने मुझे बुलाया। कहने लगीं, हमीद, तू नौशाबा को जानता ही है।

    नौशाबा अम्मी की वाहिद सहेली थी। जिस ज़माने में हम पर मुसीबत पड़ी थी, इस भरी दुनिया में नौशाबा हमारी वाहिद हमदर्द थी। उसने हम पर बड़े एहसान किए थे। मैं उन एहसानात को अच्छी तरह जानता था।

    हाँ अम्मी। मैं नौशाबा को अच्छी तरह जानता हूँ। मैंने अम्मी से कहा। अम्मी बोली, नौशाबा के मियां फ़ौत हो चुके हैं। उसकी इकलौती बच्चा सफिया अब जवान है। कॉलेज में पढ़ती है। ख़ुश शक्ल है। स्मार्ट है, माडर्न भी है लेकिन सुघड़ इतनी, इतनी सलीक़े वाली, इतनी ख़िदमतगुज़ार कि यूं लगता है जैसे उसे ज़माने की हवा भी नहीं लगी। मैं चाहती हूँ, बेटे के कि उसे बहू बना कर घर ले आओ। अरे तू तो घबरा गया। अम्मी ने ग़ालिबन मेरी हालत भाँप कर कहा। नहीं नहीं। कोई ज़बरदस्ती नहीं, अगर तेरा जी नहीं चाहता तो सही। ये तो मेरी आरज़ू है। अगर तू मान जाये तो मेरी ज़िंदगी सफल हो जाएगी। सोच ले, कोई जल्दी नहीं, सोच कर मुझे बता देना।

    फिर आपने क्या फ़ैसला किया? मैंने पूछा।

    फ़ैसला... नौजवान हँसने लगा। उसकी हंसी की आवाज़ टूटी हुई थी। जिस वक़्त से अम्मी ने शादी की बात की है। सुंबुल के लिए मेरा जज़्बा यूं उभर आया है जैसे दूध की कड़ाही पर मलाई जाती है। अब मुझे पता चला कि सुंबुल से मुझे लगाओ ही नहीं, इश्क़ है, इश्क़ है। उसके बग़ैर ज़िंदगी बेमसरफ़ नज़र आती है। डाक्टर साहिब! फांसी पर लटका हुआ हूँ। पहले मेरा ख़याल था कि अम्मी की ख़्वाहिश पर में अपनी हर ख़्वाहिश क़ुर्बान कर सकता हूँ लेकिन अब... नौजवान ने बेबसी से दोनों हाथ उठाए और फिर चुप हो गया।

    ताऊस ने चारों तरफ़ देखा।

    कितनी अनोखी बात है। रशीद बोला।

    अनोखी नहीं। असलम ने कहा, आम सी बात है। ऐसे वाक़ियात रोज़ होते हैं।

    हाँ तो फिर नौजवान ने क्या फ़ैसला किया? अज़ीम ने पूछा।

    हमारी वो मुख़्तसर सी मुलाक़ात थी। ताऊस ने बात जारी रखते हुए कहा, हम दोनों बेंच पर बैठे तक़रीबन एक घंटा से बातें कर रहे थे। वो सख़्त कश्मकश में मुब्तला था। अभी वो कोई फ़ैसला कर पाया था। उसके ज़ह्नी कर्ब को महसूस कर के मैं सख़्त घबरा गया और उसे छोड़कर चला आया।

    हाँ। असलम बोला, ज़ह्नी कर्ब मुतअद्दी होता है।

    उसके बाद वो नौजवान आपसे मिला क्या? हामिद ने पूछा।

    हाँ। छः महीने बाद। ताऊस ने जवाब दिया।

    तो क्या उसने आपको बताया... रशीद ने बेताबी से पूछा।

    हाँ। ताऊस ने फिर से बात शुरू की। उस रोज़ सिनेमा का स्पैशल शो देखने गया था। बड़ी आउट स्टैंडिंग पिक्चर लगी थी।

    हाल में ख़ासा लेट पहुंचा। सीट पर बैठ कर मैंने गर्द-ओ-पेश का जायज़ा लिया। क्या देखता हूँ कि हमीद अख़तर मुझसे अगली रो में बैठा है। उस के साथ एक लड़की है। साफ़ ज़ाहिर था कि वो नई ब्याही हुई दुल्हन है। यानी उसकी शादी हो चुकी थी। मेरे दिल में खुसर फुसर होने लगी कि वो लड़की कौन है। सुंबुल या सफिया। सच्ची बात ये है कि फ़िल्म पर मेरी तवज्जो जमी। बस यही सोचता रहा।

    फिर जब इंटरवल हुआ और हमीद बाहर निकला तो मैं भी पीछे पीछे बाहर निकल गया। उसने जल्द ही मुझे देख लिया। हेलो डाक्टर। वो चिल्लाया।

    कहिए। मैंने अंजान बन कर पूछा, आपने कोई फ़ैसला?

    मेरी तो शादी भी हो गई डाक्टर साहिब। वो चिल्लाया।

    सुंबुल से या सफिया से? मैंने पूछा। मुझे सारी बात बताइए।

    उसने एक भरपूर क़हक़हा लगाया। डाक्टर साहिब, अम्मी की ख़्वाहिश को रद्द करना मेरे लिए मुम्किन था। मैंने दिल पर पत्थर रख लिया और अम्मी से कह दिया। अम्मी, मैं वहां ब्याह करूँगा जहां आप चाहती हैं। बस यही मेरा फ़ैसला है।

    फिर क्या था डाक्टर, अम्मी ने झट मंगनी पट ब्याह करने वाली बात की और इस तरह सफिया से मेरी शादी हो गई। फिर सुहाग की रात जब मैंने सफिया का घूँघट उठाया तो क्या देखता हूँ कि मेरे सामने सुंबुल बैठी हुई है।

    अरे। मेरे मुँह से चीख़ सी निकली। ताऊस रुक गया।

    सभी लोग हैरत से ताऊस की तरफ़ देख रहे थे।

    सफिया... सुंबुल निकली, मतलब क्या हुआ? रशीद चिल्लाया।

    मुझे तो सारी बात ही गप नज़र आती है। असलम ने कहा।

    आपने हमीद अख़तर से नहीं पूछा कि इस का मतलब क्या हुआ? अज़ीम बोला।

    हाँ पूछा था। ताऊस ने कहा।

    तो फिर क्या बताया उसने? रशीद ने पूछा।

    पूछा तो हमीद अख़तर ने कहा, डाक्टर साहिब वो भी मेरी तरह हमीद अख़तर थी।

    क्या मतलब?

    वो सफिया सुंबुल थी।

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