गोली
शफ़क़त दोपहर को दफ़्तर से आया तो घर में मेहमान आए हुए थे। औरतें थीं जो बड़े कमरे में बैठी थीं। शफ़क़त की बीवी आयशा उनकी मेहमान नवाज़ी में मसरूफ़ थी। जब शफ़क़त सहन में दाख़िल हुआ तो उसकी बीवी बाहर निकली और कहने लगी, “अज़ीज़ साहब की बीवी और उनकी लड़कियाँ आई हैं।”
शफ़क़त ने हैट उतार कर माथे का पसीना पोंछा, “कौन अज़ीज़ साहब?”
आयशा ने आवाज़ दबा कर जवाब दिया, “हाय, आपके अब्बा जी के दोस्त”।
“ओह…अज़ीज़ चचा।”
“हाँ, हाँ वही।”
शफ़क़त ने ज़रा हैरत से कहा,“ मगर वो तो अफ़्रीक़ा में थे।”
आयशा ने मुँह पर उंगली रखी, “ज़रा आहिस्ता बात कीजिए। आप तो चिल्लाना शुरू कर देते हैं... वो अफ़्रीक़ा ही में थे, लेकिन जो अफ़्रीक़ा में हो क्या वापस नहीं आ सकता?”
“लो, अब तुम लगीं मीन मेख़ करने।”
“आप तो लड़ने लगे”, आयशा ने एक नज़र अंदर कमरे में डाली, “अज़ीज़ साहब अफ़्रीक़ा में हैं, लेकिन उनकी बीवी अपनी लड़की की शादी करने आई हैं। कोई अच्छा बर ढूंढ रही हैं।”
अंदर से अज़ीज़ की बीवी की आवाज़ आई, “आयशा, तुमने रोक क्यों लिया शफ़क़त को। आने दो... आओ शफ़क़त बेटा, आओ… तुम्हें देखे इतनी मुद्दत हो गई है।”
“आया चची जान।” शफ़क़त ने हैट स्टैंड की खूंटी पर रखा और अंदर कमरे में दाख़िल हुआ, “आदाब अर्ज़ चची जान।”
अज़ीज़ की बीवी ने उठ कर उसको दुआएँ दीं, सर पर हाथ फेरा और बैठ गई। शफ़क़त बैठने लगा तो उसने देखा कि सामने सोफ़े पर दो गोरी गोरी लड़कियाँ बैठी हैं। एक छोटी थी, दूसरी बड़ी। दोनों की शक्ल आपस में मिलती थी। अज़ीज़ साहब बड़े वजीह आदमी थे। उनकी ये वजाहत उन लड़कियों में बड़े दिलकश तौर पर तक़सीम हुई थी।
आँखें माँ की थीं, नीली। बाल भूरे और काफ़ी लंबे। दोनों की दो चोटियाँ थीं। छोटी का चेहरा बड़ी के मुक़ाबले में ज़्यादा निखरा हुआ था। बड़ी का चेहरा ज़रूरत से ज़्यादा संजीदा था।
उनकी माँ उनसे मुख़ातिब हुई, “बेटा सलाम करो भाई को।”
छोटी ने उठ कर शफ़क़त को आदाब अर्ज़ किया। बड़ी ने बैठे बैठे ज़रा झुक कर कहा, “तस्लीमात।”
शफ़क़त ने मुनासिब ओ मौज़ूँ जवाब दिया। उसके बाद अज़ीज़ साहब और अफ़्रीक़ा के मुतअ’ल्लिक़ बातों का लामतनाही सिलसिला शुरू हो गया। नैरुबी, टांगानेका, दारुस्सलाम, करातेना, युगंडा, इन सबकी बातें हुईं। कहाँ का मौसम अच्छा है, कहाँ का ख़राब है, फल कहाँ अच्छे होते हैं। फलों का ज़िक्र छेड़ा तो छोटी ने कहा, “यहां हिंदुस्तान में तो निहायत ही ज़लील फल मिलते हैं।”
“जी नहीं, बड़े अच्छे फल मिलते हैं, बशर्ते-कि मौसम हो।” शफ़क़त ने अपने हिंदुस्तान की आबरू बचाना चाही।
“ग़लत है।” छोटी ने नाक चढ़ाई, “अम्मी जान, ये जो कल आपने मार्किट से माल्टे लिए थे, क्या वहाँ के मचंगों का मुक़ाबला कर सकते हैं।”
लड़कियों की माँ बोली, “शफ़क़त बेटा ये सही कहती है। यहाँ के माल्टे वहाँ के मचंगों का मुक़ाबला नहीं कर सकते।”
आयशा ने छोटी से पूछा, “तलअ’त, ये मचंगा क्या होता है…नाम तो बड़ा अ’जीब-ओ-ग़रीब है।”
तलअ’त मुस्कुराई, “आपा एक फल है। माल्टे और मीठे की तरह... इतना लज़ीज़ होता है कि मैं बयान नहीं कर सकती और रस... एक निचोड़िए... ये गिलास जो तिपाई पर पड़ा है, लबालब भर जाये।”
शफ़क़त ने गिलास की तरफ़ देखा और अंदाज़ा लगाने की कोशिश की कि वो फल कितना बड़ा होगा।
“एक मचंगे से इतना बड़ा गिलास भर जाता है?”
तलअ’त ने बड़े फ़ख़्रिया अंदाज़ में जवाब दिया, “जी हाँ!”
शफ़क़त ने ये सुन कर कहा, “तो फल यक़ीनन बहुत बड़ा होगा।”
तलअ’त ने सर हिलाया, “जी नहीं… बड़ा होता है न छोटा… बस आपके यहाँ के बड़े माल्टे के बराबर होता है। यही तो उसकी ख़ूबी है कि रस ही रस होता है उसमें और अम्मी जान वहाँ का अनन्नास... बड़ी रोटी के बराबर उसकी एक क़ाश होती है।”
देर तक अनन्नास की बातें होती रहीं। तलअ’त बहुत बातूनी थी। अफ़्रीक़ा से उसको इशक़ था। वहाँ की हर चीज़ उसको पसंद थी। बड़ी जिसका नाम निकहत था बिल्कुल ख़ामोश बैठी थी। उसने गुफ़्तगु में हिस्सा न लिया। शफ़क़त को जब महसूस हुआ कि वो ख़ामोश बैठी रही है तो वो उससे मुख़ातिब हुआ, “आपको ग़ालिबन इन बातों से कोई दिलचस्पी नहीं।”
निकहत ने अपने होंट खोले, “जी नहीं… सुनती रही हूँ बड़ी दिलचस्पी से।”
शफ़क़त ने कहा, “लेकिन आप बोलीं नहीं।”
अज़ीज़ की बीवी ने जवाब दिया, “शफ़क़त बेटा इसकी तबीयत ही ऐसी है।”
शफ़क़त ने ज़रा बेतकल्लुफ़ी से कहा, “चची जान… इस उम्र में लड़कियों को ख़ामोशी पसंद नहीं होना चाहिए। ये भी कोई बात है कि मुँह में घुनघुनियाँ डाले बैठे रहो।” फिर वो निकहत से मुख़ातिब हुआ, “जनाब आपको बोलना पड़ेगा।”
निकहत के होंटों पर एक शर्मीली मुस्कुराहट पैदा हुई, “बोल तो रही हूँ भाई जान।”
शफ़क़त मुस्कुराया, “तस्वीरों से दिलचस्पी है आपको?”
निकहत ने निगाहें नीची करके जवाब दिया, “जी है।”
“तो उठिए, मैं आपको अपना एलबम दिखाऊँ…दूसरे कमरे में है।” ये कह कर शफ़क़त उठा।
“चलिए।”
आयशा ने शफ़क़त का हाथ दबाया। पलट कर उसने अपनी बीवी की तरफ़ सवालिया नज़रों से देखा। उसने आँखों ही आँखों में कोई इशारा किया जिसे शफ़क़त न समझ सका। वो मुतहय्यर था कि ख़ुदा मालूम क्या बात थी कि उसकी बीवी ने उसका हाथ दबाया और इशारा भी किया। वो सोच ही रहा था कि तलअ’त खट से उठी, “चलिए भाई जान, मुझे दूसरों के एलबम देखने का शौक़ है। मेरे पास भी एक कलेक्शन है।”
शफ़क़त, तलअ’त के साथ दूसरे कमरे में चला गया। निकहत, ख़ामोश बैठी रही। शफ़क़त, तलअ’त को तस्वीरें दिखाता रहा, हस्ब-ए-आदत तलअ’त बोलती रही। शफ़क़त का दिमाग़ किसी और तरफ़ था। वो निकहत के मुतअ’ल्लिक़ सोच रहा था कि वो इस क़दर ख़ामोश क्यों है। तस्वीरें देखने उसके साथ क्यों न आई। जब उसने उसको चलने के लिए कहा तो आयशा ने उसका हाथ क्यों दबाया। इस इशारे का क्या मतलब था जो उसने आँखों के ज़रिये किया था।
तस्वीरें ख़त्म हो गईं। तलअ’त ने एलबम उठाया और शफ़क़त से कहा, “बाजी को दिखाती हूँ। उनको बहुत शौक़ है तस्वीरें जमा करने का।”
शफ़क़त पूछने ही वाला था कि अगर उनको शौक़ है तो वो उसके साथ क्यों न आईं मगर तलअ’त एलबम उठा कर कमरे से निकल गई। शफ़क़त बड़े कमरे में दाख़िल हुआ तो निकहत बड़ी दिलचस्पी से एलबम की तस्वीरें देख रही थी। हर तस्वीर उसको मसर्रत पहुँचाती थी।
आयशा लड़कियों की माँ से बातें करने में मशग़ूल देख रही थी। शफ़क़त कनखियों से देखता रहा। उस का चेहरा जो पहले ज़रूरत से ज़्यादा संजीदगी की धुंद में लिपटा था, अब बश्शाश था। ऐसा लगता था कि तस्वीरें जो आर्ट का बेहतरीन नमूना थीं उसको राहत बख़्श रही हैं। उसकी आँखों में अब चमक थी। लेकिन जब एक घोड़े और सेहतमंद औरत की तस्वीर आई तो ये चमक माँद पड़ गई। एक हल्की सी आह उसके सीने में लरज़ी और वहीं दब गई।
तस्वीरें ख़त्म हुईं तो निकहत ने शफ़क़त की तरफ़ देखा और बड़े प्यारे अंदाज़ में कहा, “भाई जान शुक्रिया!”
शफ़क़त ने एलबम निकहत के हाथ से लिया और मैंटल पीस पर रख दिया। उसके दिमाग़ में खुद बुद् हो रही थी। उसको ऐसा लगता था कि कोई बहुत बड़ा इसरार इस लड़की की ज़िंदगी के साथ वाबस्ता है। उसने सोचा, शायद कोई नामुकम्मल रुमान हो, या कोई नफ़सियाती हादिसा।
चाय आई तो शफ़क़त, निकहत से मुख़ातिब हुआ, “उठिए, चाय बनाइऐ,ये प्रिविलेज लेडीज़ का है।”
निकहत ख़ामोश रही लेकिन तलअ’त फुदक कर उठी, “भाई जान, मैं बनाती हूँ।”
निकहत का चेहरा फिर धुंद में मलफ़ूफ़ हो गया। शफ़क़त का तजस्सुस बढ़ता गया। एक बार जब उस ने ग़ैर इरादी तौर पर निकहत को घूर के देखा तो वो सिटपिटा सी गई। शफ़क़त को दिल ही दिल में इस बात का अफ़सोस हुआ कि उसने क्यों ऐसी ना ज़ेबा हरकत की।
चाय पर इधर उधर की बेशुमार बातें हुईं। तलअ’त ने इनमें सब से ज़्यादा हिस्सा लिया। टेनिस का ज़िक्र आया तो उसने शफ़क़त को बड़े फ़ख़्रिया अंदाज़ में जो शेख़ी की हद तक जा पहुँचा था, बताया कि वो नैरुबी में नंबर वन टेनिस प्लेयर थी और पंद्रह-बीस कप जीत चुकी थी। निकहत बिल्कुल ख़ामोश रही, उसकी ख़ामोशी बड़ी उदास थी। साफ़ अ’याँ था कि उसको इस बात का एहसास है कि वो ख़ामोश है।
एक बात जो शफ़क़त ने ख़ास तौर पर नोट की, ये थी कि अज़ीज़ की बीवी की ममता का रुख़ ज़्यादातर निकहत की तरफ़ था। उसने ख़ुद उठ कर बड़े प्यार मुहब्बत से उसको क्रीम रोल दिए। मुँह पोंछने के लिए अपना रूमाल दिया। उससे कोई बात करती थी तो इसमें प्यार भी होता था। ऐसा लगता था कि वो बातों के ज़रिये से भी उसके सर पर मुहब्बत भरा हाथ फेर रही है या उसको चुमकार रही है।
रुख़स्त का वक़्त आया तो अज़ीज़ की बीवी उठी, बुर्क़ा उठाया, आयशा से गले मिली। शफ़क़त को दुआएँ दीं और निकहत के पास जा कर आँखों में आँसू ला देने वाले प्यार से कहा, “चलो बेटा चलें।”
तलअ’त फुदक कर उठी। अज़ीज़ की बीवी ने निकहत का एक बाज़ू थामा, दूसरा बाज़ू तलअ’त ने पकड़ा। उसको उठाया गया... शफ़क़त ने देखा कि उसका निचला धड़ बिल्कुल बेजान है। एक लहज़े के लिए शफ़क़त का दिल-ओ-दिमाग़ साकित हो गया, जब वो सँभला तो उसे अपने अंदर एक टीस सी उठती महसूस हुई।
लड़खड़ाती हुई टांगों पर माँ और बहन का सहारा लिए निकहत ग़ैर यक़ीनी क़दम उठा रही थी। उस ने माथे के क़रीब हाथ ले जा कर शफ़क़त और आयशा को आदाब अर्ज़ किया। कितना प्यारा अंदाज़ था। मगर उसके हाथ ने शफ़क़त के दिल पर जैसे घूंसा मारा... सारा इसरार उस पर वाज़ेह हो गया था। सबसे पहला ख़याल उसके दिमाग़ में ये आया, “क़ुदरत क्यों इतनी बेरहम है…ऐसी प्यारी लड़की और उसके साथ इस क़दर ज़ालिमाना बहीमाना सलूक... उस मासूम का आख़िर गुनाह क्या था, जिस की सज़ा इतनी कड़ी दी गई?”
सब चले गए। आयशा उनको बाहर तक छोड़ने गई। शफ़क़त एक फ़लसफ़ी बन कर सोचता रह गया, इतने में शफ़क़त के दोस्त आगए और वो भी अपनी बीवी से निकहत के बारे में कोई बात न कर सका... अपने दोस्तों के साथ ताश खेलने में ऐसा मशग़ूल हुआ कि निकहत और उसके रोग को भूल गया। जब रात हो गई और आयशा ने उसे नौकर के ज़रिये से खाने पर बुलवाया तो उसे अफ़सोस हुआ कि उसने महज़ एक खेल की ख़ातिर निकहत को फ़रामोश कर दिया, चुनांचे उसका ज़िक्र उसने आयशा से भी किया, लेकिन उसने कहा, “आप खाना खाईए, मुफ़स्सल बातें फिर हो जाएँगी।”
मियाँ-बीवी दोनों इकट्ठे सोते थे। जब से उनकी शादी हुई थी वो कभी रात को एक दूसरे से जुदा नहीं हुए थे, और उनकी शादी को क़रीब क़रीब छः बरस हो गए थे, मगर इस दौरान में कोई बच्चा न हुआ था। डाक्टरों का ये कहना था कि आयशा में कुछ क़ुसूर है जो सिर्फ़ ऑप्रेशन से दूर हो सकता है, मगर वो इससे बहुत ख़ाइफ़ थी। मियाँ-बीवी बहुत प्यार-मुहब्बत की ज़िंदगी गुज़ार रहे थे। उनके दरमियान कोई रंजिश नहीं थी।
रात को वो इकट्ठे लेटते। हस्ब-ए-मा’मूल जब एक दूसरे के साथ लेटे तो शफ़क़त को निकहत याद आई। उसने एक आह भर कर अपनी बीवी से पूछा, “आयशा, निकहत बेचारी को क्या रोग है?”
आयशा ने भी आह भरी और बड़े अफ़सोसनाक लहजे में कहा, “तीन बरस की नन्ही मुन्नी बच्ची थी कि तप-ए-मोहरक़ा हुआ। निचला धड़ मफ़लूज हो गया।”
शफ़क़त के दिल में निकहत के लिए हमदर्दी का बेपनाह जज़्बा पैदा हुआ।
उसने अपनी बीवी की पीठ को अपने सीने के साथ लगा लिया और कहा, “आयशा, ख़ुदा क्यों इतना ज़ालिम है?”
आयशा ने कोई जवाब न दिया। शफ़क़त को दिन के वाक़ियात याद आने लगे। जब मैंने उससे कहा था कि चलो, मैं तुम्हें एलबम दिखाता हूँ तो तुमने मेरा हाथ इसीलिए दबाया था कि...”
“हाँ हाँ, और क्या? आप तो बार बार...”
“खु़दा की क़सम मुझे मालूम न था।”
“उसको इसका बहुत एहसास है कि वो अपाहिज है।”
“तुमने ये कहा है तो मुझे ऐसा मालूम हुआ है कि मेरे सीने में किसी ने तीर मारा है?”
“जब वो आई, तो ख़ुदा की क़सम मुझे बहुत दुख हुआ… बेचारी को पेशाब करना था। माँ और छोटी बहन साथ गईं। इज़ारबंद खोला…फिर बंद किया। कितनी ख़ूबसूरत है…बैठी हो…”
“तो ख़ुदा की क़सम बिल्कुल पता नहीं चलता कि फ़ालिजज़दा है।”
“बड़ी ज़हीन लड़की है।”
“अच्छा?”
“माँ कहती थी कि उसने कहा था कि अम्मी जान मैं शादी नहीं करूंगी, कुंवारी रहूँगी!”
शफ़क़त थोड़ी देर के लिए ख़ामोश हो गया। उसके बाद उसने इंतिहाई दुख महसूस करते हुए कहा, “तो उसको इस बात का एहसास है कि उससे शादी करने के लिए कोई रज़ामंद नहीं होगा।”
आयशा ने शफ़क़त की छाती के बालों में उंगलियों से कंघी करते हुए कहा, शफ़क़त साहब, कौन शादी करेगा एक अपाहिज से?”
“नहीं, नहीं ऐसा न कहो, आयशा!”
“इतनी बड़ी क़ुर्बानी कौन कर सकता है शफ़क़त साहब?”
“तुम ठीक कहती हो।”
“ख़ूबसूरत है, अच्छे खाते-पीते माँ-बाप की लड़की है, सब ठीक है, मगर…
“मैं समझता हूँ... लेकिन...”
“मर्दों के दिल में रहम कहाँ?”
शफ़क़त ने करवट बदली, “ऐसा न कहो, आयशा।”
आयशा ने भी करवट बदली। दोनों रूबरू हो गए, “मैं सब जानती हूँ, कोई ऐसा मर्द ढूँढिए जो उस बेचारी से शादी करने पर आमादा हो।”
“मुझे मालूम नहीं,लेकिन…”
“बड़ी बहन है, ग़रीब को कितना बड़ा दुख है कि उसकी छोटी बहन की शादी की बातचीत हो रही है।”
“सही कहती हो तुम!”
आयशा ने एक लंबी आह भरी, “क्या बेचारी इसी तरह सारी उम्र कुढ़ती रहेगी?”
“नहीं!” ये कह कर शफ़क़त उठ कर बैठ गया।
आयशा ने पूछा, “क्या मतलब?”
“तुम्हें उससे हमदर्दी है?”
“क्यों नहीं?”
“ख़ुदा की क़सम खा कर कहो।”
“हाय, ये भी कोई क़सम खिलवाने की बात है, हर इंसान को उससे हमदर्दी होनी चाहिए।”
शफ़क़त ने चंद लम्हात ख़ामोश रहने के बाद कहा, “तो मैंने एक बात सोची है।”
आयशा ने ख़ुश हो कर कहा “क्या?”
“मुझे हमेशा इस बात का एहसास रहा है तुम बहुत बलंद ख़्याल की औरत हो। आज तुमने मेरे इस ख़याल को साबित कर दिया है... मैंने... ख़ुदा मेरे इस इरादे को इस्तिक़ामत बख़्शे। मैंने इरादा कर लिया है कि मैं निकहत से शादी कर लूंगा...सारा सवाब तुम्हें मिलेगा।”
थोड़ी देर ख़ामोशी रही, फिर एकदम जैसे गोला सा फटा, “शफ़क़त साहब, मैं गोली मार दूंगी उसे, अगर आपने उससे शादी की...”
शफ़क़त ने ऐसा महसूस किया कि उसे ज़बरदस्त गोली लगी है और वो मर कर अपनी बीवी की आग़ोश में दफ़न हो गया है।
- पुस्तक : ٹھنڈا گوشت
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