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मुरासिला

नैयर मसूद

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    स्टोरीलाइन

    इस कहानी में एक परम्परावादी घराने की परम्पराओं, आचार-व्यवहार और रहन सहन में होने वाली तब्दीलियों का ज़िक्र है। कहानी के मुख्य पात्र के घर से उस घराने के गहरे मरासिम हुआ करते थे लेकिन वक़्त और मसरुफ़ियत की धूल उस ताल्लुक़ पर जम गई। एक लम्बे समय के बाद जब प्रथम वाचक उस घर में किसी काम से जाता है तो उनकी जीवन शैली में होने वाली तब्दीलियों पर हैरान होता है।

    मुकर्रमी! आपके मूक़र अख़बार के ज़रीए’ मैं मुतअ’ल्लिक़ा हुक्काम को शहर के मग़रिबी इ’लाक़े की तरफ़ मुतवज्जेह कराना चाहता हूँ। मुझे बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आज जब बड़े पैमाने पर शहर की तौसीअ’ हो रही है और हर इ’लाक़े के शहरियों को जदीद-तरीन सहूलतें बहम पहुँचाई जा रही हैं, ये मग़रिबी इ’लाक़ा बिजली और पानी की लाईनों तक से महरूम है। ऐसा मा’लूम होता है कि इस शहर की तीन ही सम्तें हैं। हाल ही में जब एक मुद्दत के बा’द मेरा उस तरफ़ एक ज़रूरत से जाना हुआ तो मुझको शहर का ये इ’लाक़ा बिल्कुल वैसा ही नज़र आया जैसा मेरे बचपन में था।

    (1)

    मुझे उस तरफ़ जाने की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन अपनी वालिदा की वज्ह से मजबूर हो गया। बरसों पहले वो बुढ़ापे के सबब चलने फिरने से माज़ूर हो गई थीं, फिर उनकी आँखों की रौशनी भी क़रीब-क़रीब जाती रही और ज़हन भी माऊफ़ सा हो गया। मा’ज़ूरी का ज़माना शुरू’ होने के बा’द भी एक अ’र्से तक वो मुझको दिन रात में तीन-चार मर्तबा अपने पास बुला कर कपकपाते हाथों से सर से पैर तक टटोलती थीं।

    दर-अस्ल मेरे पैदा होने के बा’द ही से उनको मेरी सेहत ख़राब मा’लूम होने लगी थी। कभी उन्हें मेरा बदन बहुत ठंडा महसूस होता, कभी बहुत गर्म, कभी मेरी आवाज़ बदली हुई मा’लूम होती और कभी मेरी आँखों की रंगत में तग़य्युर नज़र आता। हकीमों के एक पुराने ख़ानदान से तअ’ल्लुक़ रखने की वज्ह से उनको बहुत सी बीमारियों के नाम और इ’लाज ज़बानी याद थे और कुछ-कुछ दिन बा’द वो मुझे किसी नए मरज़ में मुब्तला क़रार देकर उसके इ’लाज पर इसरार करती थीं।

    उनकी मा’ज़ूरी के इब्तिदाई ज़माने में दो तीन बार ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ कि मैं किसी काम में पड़ कर उनके कमरे में जाना भूल गया, तो वो मा’लूम नहीं किस तरह ख़ुद को खींचती हुई कमरे के दरवाज़े तक ले आईं। कुछ और ज़माना गुज़रने के बा’द जब उनकी रही सही ताक़त भी जवाब दे गई तो एक दिन उनके मुआ’लिज ने महज़ ये आज़माने की ख़ातिर कि आया उनके हाथ पैरों में अब भी कुछ सकत बाक़ी है, मुझे दिन-भर उनके पास नहीं जाने दिया और वो ब-ज़ाहिर मुझसे बे-ख़बर रहीं, लेकिन रात गए उनके आहिस्ता-आहिस्ता कराहने की आवाज़ सुनकर जब मैं लपकता हुआ उनके कमरे में पहुँचा तो वो दरवाज़े तक का आधा रास्ता तय कर चुकी थीं।

    उनका बिस्तर, जो उन्होंने मेरे वालिद के मरने के बा’द से ज़मीन पर बिछाना शुरू’ कर दिया था, उनके साथ घिसटता हुआ चला आया था। देखने में ऐसा मा’लूम होता था कि बिस्तर ही उनको खींचता हुआ दरवाज़े की तरफ़ लिए जा रहा था। मुझे देखकर उन्होंने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन तकान के सबब बे-होश हो गईं और कई दिन तक बे-होश रहीं। उनके मुआ’लिज ने बार-बार अपनी ग़लती का ए’तिराफ़ और इस आज़माईश पर पछतावे का इज़्हार किया, इसलिए कि इसके बा’द ही से मेरी वालिदा की बीनाई और ज़हन ने जवाब देना शुरू’ किया, यहाँ तक कि रफ़्ता-रफ़्ता उनका वजूद और अ’दम बराबर हो गया।

    उनके मुआ’लिज को मरे हुए भी एक अ’र्सा गुज़र गया। लेकिन हाल ही में एक रात मेरी आँख खुली तो मैंने देखा कि वो मेरे पाएँती ज़मीन पर बैठी हुई हैं और एक हाथ से मेरे बिस्तर को टटोल रही हैं। मैं जल्दी से उठकर बैठ गया।

    “आप...?”, मैंने उनके हाथ पर ख़ुश्क रगों के जाल को देखते हुए पूछा, “यहाँ गईं?”

    “तुम्हें देखने। कैसी तबीअ’त है?”, उन्होंने अटक अटक कर कहा, फिर उन पर ग़फ़लत तारी हो गई।

    मैं बिस्तर से उतर कर ज़मीन पर उनके बराबर बैठ गया और देर तक उनको देखता रहा। मैंने उनकी उस सूरत का तसव्वुर किया जो मेरी अव्वलीन यादों में महफ़ूज़ थी और चंद लम्हों के लिए उनके बूढ़े चेहरे की जगह उन्हीं यादों वाला चेहरा मेरे सामने गया। इतनी देर में उनकी ग़फ़लत कुछ दूर हुई। मैंने आहिस्तगी से उन्हें उठाने की कोशिश करते हुए कहा,

    “आईए आपको आपके कमरे में पहुँचा दूँ।”

    “नहीं!”, उन्होंने बड़ी मुश्किल से कहा, “पहले बताओ।”

    “क्या बताऊँ?”, मैंने थके हुए लहजे में पूछा।

    “तबीअ’त कैसी है?”

    कुछ दिन से मेरी तबीअ’त वाक़ई’ ख़राब थी, इसलिए मैंने कहा, “ठीक नहीं हूँ।”

    मेरी तवक़्क़ो’ के ख़िलाफ़ उन्होंने बीमारी की तफ़सील दरियाफ़्त करने के बजाए सिर्फ़ इतना पूछा,

    “किसी को दिखाया?”

    “किसको दिखाऊँ?”

    मुझे मा’लूम था वो क्या जवाब देंगी। ये जवाब वो फ़ौरन और हमेशा तेज़ लहजे में देती थीं, लेकिन इस बार उन्होंने देर तक चुप रहने के बा’द बड़ी अफ़्सुर्दगी और क़द्रे-मायूसी के साथ वही बात कही:

    “तुम वहाँ क्यों नहीं चले जाते?”

    मैं उनके साथ बचपन में वहाँ जाया करता था। वो पुराने हकीमों का घराना था। ये लोग मेरी वालिदा के क़रीबी अ’ज़ीज़ थे। उनका मकान बहुत बड़ा था जिसके मुख़्तलिफ़ दर्जों में कई ख़ानदान रहते थे। इन सब ख़ानदानों के सर-बराह एक हकीम साहब थे जिन्हें शहर में कोई ख़ास शुहरत हासिल नहीं थी लेकिन आस-पास के देहातों से उनके यहाँ इतने मरीज़ आते थे जितने शहर के नामी डाक्टरों के पास भी आते होंगे।

    इस मकान में तक़रीबें बहुत होती थीं जिनमें मेरी वालिदा को ख़ास-तौर पर बुलाया जाता था और अक्सर वो मुझे भी साथ ले जाती थीं। मैं इन तक़रीबों की अ’जीब-अ’जीब रस्मों को बड़ी दिलचस्पी से देखता था। मैं ये भी देखता था कि वहाँ मेरी वालिदा की बड़ी क़द्र होती है और उनके पहुँचते ही सारे मकान में ख़ुशी की लहर दौड़ जाती है। वो ख़ुद भी वहाँ के किसी फ़र्द को फ़रामोश करतीं, छोटों और बराबर वालों को अपने पास बुलातीं, बड़ों के पास आप जातीं और वहाँ के ख़ानदानी झगड़ों में, जो अक्सर हुआ करते, उनका फ़ैसला सबको मंज़ूर होता था।

    वहाँ इतने बहुत से लोग थे, लेकिन मुझको सिर्फ़ हकीम साहब का चेहरा धुँदला-धुँदला सा याद था; वो भी शायद इस वज्ह से कि उनमें और मेरी वालिदा में हल्की सी ख़ानदानी मुशाबहत थी। इतना मुझे अलबत्ता याद है कि वहाँ हर उ’म्र की औ’रतें, मर्द और बच्चे मौजूद रहते थे और उनके हुजूम में घिरी हुई अपनी वालिदा मुझे ऐसी मा’लूम होती थीं जैसे बहुत सी पत्तियों के बीच में एक फूल खिला हुआ हो।

    लेकिन इस वक़्त वो अपना मुरझाया हुआ चेहरा मेरी तरफ़ घुमाए हुए अपनी बुझी हुई आँखों से मेरा चेहरा देखने की कोशिश कर रही थीं।

    “तुम्हारी आवाज़ बैठी हुई है”, उन्होंने कहा, “तुम वहाँ क्यों नहीं चले जाते?”

    “वहाँ... अब मैं वहाँ किसी को पहचान भी पाऊँगा।”

    “देखोगे तो पहचान लोगे। नहीं तो वो लोग ख़ुद बताएँगे।”

    “इतने दिन हो गए”, मैंने कहा, “अब मुझे रास्ता भी याद नहीं।”

    “बाहर निकलोगे तो याद आता जाएगा।”

    “किस तरह?”, मैंने कहा, “सब कुछ तो बदल गया होगा।”

    “कुछ भी नहीं”, उन्होंने कहा। फिर उन पर ग़फ़लत तारी होने लगी, लेकिन एक-बार फिर उन्होंने कहा, “कुछ भी नहीं।”

    इसके बा’द वो बिल्कुल ग़ाफ़िल हो गईं।

    मैं देर तक उनको सहारा दिए बैठा रहा। मैंने उस मकान का रास्ता याद करने की कोशिश की। मैंने उन दिनों का तसव्वुर किया जब मैं अपनी वालिदा के साथ वहाँ जाया करता था। मैंने उस मकान का नक़्शा भी याद करने की कोशिश की लेकिन मुझे इसके सिवा कुछ याद आया कि उसके सद्र दरवाज़े के सामने एक टीला था जो हकीमों का चबूतरा कहलाता था। इतना और मुझे याद था कि हकीमों का चबूतरा शहर के मग़रिब की जानिब था, उस पर चंद कच्ची क़ब्रें थीं और उस तक पहुँचते-पहुँचते शहर के आसार ख़त्म हो जाते हैं।

    मैंने अपनी वालिदा को अपने हाथों पर उठा लिया। बिल्कुल उसी तरह जैसे कभी वो मुझको उठाया करती थीं, और ये समझा कि मैंने उनका कुछ क़र्ज़ उतारा है, और अगरचे वो बिल्कुल ग़ाफ़िल थीं, लेकिन मैंने उनसे कहा,

    “आईए आपको आपके कमरे में पहुँचा दूँ। कल सवेरे में वहाँ ज़रूर जाऊँगा।”

    दूसरे दिन सूरज निकलने के कुछ देर बा’द मेरी आँख खुली, और आँख खुलने के कुछ देर बा’द में घर से रवाना हो गया।

    (2)

    ख़ुद अपने मुहल्ले के मग़रिबी हिस्से की तरफ़ एक मुद्दत से मेरा गुज़र नहीं हुआ था। अब जो मैं उधर से गुज़रा तो मुझे बड़ी तब्दीलियाँ नज़र आईं। कच्चे मकान पक्के हो गए थे। ख़ाली पड़े हुए अहाते छोटे-छोटे बाज़ारों में बदल गए थे। एक पुराने मक़बरे के खंडर की जगह इ’मारती लकड़ी का गोदाम बन गया था। जिन चेहरों से मैं बहुत पहले आश्ना था उनमें से कोई नज़र नहीं आया, अगरचे मुझको जानने वाले कई लोग मिले जिनमें से कई को मैं भी पहचानता था, लेकिन मुझे ये नहीं मा’लूम था कि वो मेरे ही हम-मुहल्ला हैं। मैंने उनसे रस्मी बातें भी कीं लेकिन किसी को ये नहीं बताया कि मैं कहाँ जा रहा हूँ।

    कुछ देर बा’द मेरा मुहल्ला पीछे रह गया। गल्ले की मंडी आई और निकल गई। फिर दवाओं और मसालों की मंडी आई और पीछे रह गई। इन मंडियों के दाहिने बाएँ दूर-दूर तक पुख़्ता सड़कें थीं जिन पर खाने पीने की आ’रिज़ी दुकानें भी लगी हुई थीं, लेकिन मैं जिस सड़क पर सीधा आगे बढ़ रहा था उस पर अब जा-ब-जा गड्ढे नज़र रहे थे। कुछ और आगे बढ़कर सड़क बिल्कुल कच्ची हो गई। रास्ता याद होने के बा-वजूद मुझे यक़ीन था कि मैं सही सिम्त में जा रहा हूँ, इसलिए मैं आगे बढ़ता गया।

    धूप में तेज़ी गई थी और अब कच्ची सड़क के आसार भी ख़त्म हो गए थे, अलबत्ता गर्द-आलूद पत्तियों वाले दरख़्तों की दो-रूया मगर टेढ़ी-मेढ़ी क़तारों के दरमियान उसका तसव्वुर किया जा सकता था, लेकिन अचानक ये क़तारें इस तरह मुंतशिर हुईं कि सड़क हाथ के फैले हुए पंजे की तरह पाँच तरफ़ इशारा कर के रह गई। यहाँ पहुँच कर मैं तज़बज़ुब में पड़ गया।

    मुझे घर से निकले हुए बहुत देर नहीं हुई थी और मुझे यक़ीन था कि मैं अपने मुहल्ले से बहुत दूर नहीं हूँ। फिर भी मैंने वहाँ पर ठहर कर वापसी का रास्ता याद करने की कोशिश की। मैंने पीछे मुड़ कर देखा। गर्द-आलूद पत्तियों वाले दरख़्त ऊँची नीची ज़मीन पर हर तरफ़ थे। मैंने उनकी क़तारों के दरमियान सड़क का तसव्वुर किया था लेकिन वो क़तारें भी शायद मेरे तसव्वुर की पैदावार थीं, इसलिए कि अब उनका कहीं पता था।

    अपने हिसाब से मैं बिल्कुल सीधी सड़क पर चला रहा था, लेकिन मुझे बारहा इसका तजरबा हो चुका था कि देखने में सीधी मा’लूम होने वाली सड़कें इतने ग़ैर-महसूस तरीक़े पर इधर-उधर घूम जाती हैं कि उन पर चलने वाले को ख़बर भी नहीं होती और उसका रुख़ कुछ का कुछ हो जाता है। मुझे यक़ीन था कि यहाँ तक पहुँचते-हुँचते मैं कई मर्तबा इधर-उधर घूम चुका हूँ, और अगर मुझको सड़क का सुराग़ मिल सका तो मैं ख़ुद से अपने घर तक नहीं पहुँच सकता; लेकिन उस वक़्त मुझको वापसी के रास्ते से ज़ियादा हकीमों के चबूतरे की फ़िक्र थी जो कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। हर तरफ़ फैले हुए दरख़्त इतने छिदरे थे कि ज़मीन का कोई बड़ा हिस्सा मेरी निगाहों से ओझल नहीं था, लेकिन मेरे बाएँ हाथ ज़मीन दूर तक ऊँची होती गई थी और उस पर जगह जगह गुंजान झाड़ियाँ आपस में उलझी हुई थीं। उनकी वज्ह से बुलंदी के दूसरी तरफ़ वाला नशेबी हिस्सा नज़र नहीं आता था।

    अगर कुछ होगा तो उधर ही होगा, मैंने सोचा और उस सिम्त चल पड़ा। मेरा ख़याल सही था। झाड़ियों के एक बड़े झुंड में से निकलते ही मुझे सामने कत्थई रंग की पतली पतली ईंटों वाला एक मकान नज़र आया। ये वो मकान नहीं था जिसकी मुझे तलाश थी, ताहम मैं सीधा उस तरफ़ बढ़ता गया। उसके दरवाज़े पर किसी के नाम की तख़्ती लगी हुई थी जिसके क़रीब-क़रीब सब हुरूफ़ मिट चुके थे। मकान के अंदर ख़ामोशी थी लेकिन वैसी नहीं जैसी वीरान मकानों से बाहर निकलती महसूस होती है, इसलिए मैंने दरवाज़े पर तीन बार दस्तक दी। कुछ देर बा’द दरवाज़े के दूसरी तरफ़ हल्की सी आहट हुई और किसी ने आहिस्ता से पूछा,

    “कौन साहब हैं?”

    बताने से क्या फ़ाएदा? मैंने सोचा, और कहा, “मैं शायद रास्ता भूल गया हूँ, हकीमों का चबूतरा इधर ही कहीं है ?

    “हकीमों का चबूतरा? आप कहाँ से आए हैं?”

    ये ग़ैर-मुतअ’ल्लिक़ बात थी। अपने सवाल के जवाब में सवाल सुनकर मुझे हल्की सी झुँझलाहट महसूस हुई, लेकिन दरवाज़े के दूसरी तरफ़ कोई औ’रत थी जिसकी आवाज़ नर्म और लहजा बहुत मुहज़्ज़ब था। उसने दरवाज़े के ख़फ़ीफ़ से खुले हुए पट को पकड़ रखा था। उसके नाख़ुन नारंजी पालिश से रंगे हुए थे। मुझे वहम सा हुआ कि दरवाज़े का पट थोड़ा और खुला और एक लम्हे के अंदर मुझको दरवाज़े के पीछे छोटी सी नीम-तारीक ड्योढ़ी और ड्योढ़ी के पीछे सेहन का एक गोशा और उसमें लगे हुए अनार के दरख़्त की कुछ शाख़ें नज़र गईं जिन पर धूप पड़ रही थी। और दूसरे लम्हे मुझे कुछ-कुछ याद आया कि मेरी वालिदा कभी-कभी थोड़ी देर के लिए इस मकान में भी उतरती थीं। लेकिन इस मकान के रहने वाले मुझे याद सके।

    “आप कहीं बाहर से आए हैं?”, दरवाज़े के दूसरी तरफ़ से फिर आवाज़ आई।

    “जी नहीं! मैंने कहा और अपना अता-पता बता दिया। फिर कहा, “बहुत दिनों के बा’द इधर आया हूँ।”

    देर के बा’द मुझे जवाब मिला, “इस मकान के पीछे चले जाईए। चबूतरा सामने ही दिखाई देगा।”

    मकान के अंदरूनी हिस्से से किसी बूढ़ी औ’रत की भारी आवाज़ सुनाई दी, “कौन आया है, महर?”

    मैं रस्मी शुक्रिया अदा कर के मकान की पुश्त पर गया। सामने दूर तक छोटे बड़े कई टीले नज़र रहे थे और उनकी बे-तरतीब क़तारें फिर एक सड़क का तसव्वुर पैदा कर रही थीं। ये टीले महज़ मिट्टी के तोदे थे, लेकिन उनसे ज़रा हट कर एक टीले पर झाड़ियाँ नज़र रही थीं। मैंने उस टीले को ग़ौर से देखा। झाड़ियों के बीच-बीच में कच्ची क़ब्रों के निशान नुमायाँ थे। बा’ज़-बा’ज़ क़ब्रों पर चूने की सफ़ेदी धूप में चमक रही थी।

    (3)

    मकान चबूतरे की ओट में था और उस तक पहुँचने के लिए मुझे चबूतरे का आधा चक्कर काटना पड़ा। पुरानी लकड़ी के भारी सद्र दरवाज़े के सामने खड़ा देर तक मैं सोचता रहा कि अपने आने की इत्तिला किस तरह कराऊँ। दरवाज़े की लकड़ी बहुत दबीज़ और थोड़ी सीली हुई थी। उस पर दस्तक देने का कोई फ़ाएदा नहीं था, फिर भी मैंने तीन बार उस पर हाथ मारा, लेकिन अपनी दस्तक की आवाज़ ख़ुद मुझको ठीक से सुनाई नहीं दी।

    मुझे शुबह हुआ कि मकान वीरान है। मैंने दरवाज़े को आहिस्ता से धक्का दिया तो उसके दोनों पट बड़ी सहूलत के साथ अपनी चूलों पर घूम गए और मुझको अपने सामने एक कुशादा ड्योढ़ी नज़र आई जिसके एक सिरे पर दोहरे टाट का पर्दा लटक रहा था। मैं दरवाज़े के क़रीब गया और अब मुझे मकान के अंदर लोगों के बोलने-चालने की आवाज़ें सुनाई दीं। मैंने दस्तक दी और अंदर किसी ने किसी को पुकार कर कहा, देखो कोई आया है।

    तब मेरा दिमाग़ सवालों से मुंतशिर होना शुरू’ हुआ। इस मकान में कौन कौन है ; मैं किससे किया बात करूँगा; अपने आने की ग़रज़ क्या बताऊँगा; अपने को किस तरह पहचनवाओं गा। मेरा जी चाहा कि वापिस लौट जाऊँ, लेकिन उसी वक़्त पर्दे के पीछे से किसी औ’रत ने रूखे लहजे में पूछा:

    “कौन है?”

    मैंने अपना पूरा नाम बता दिया।

    “किससे मिलना है?”

    इसका मेरे पास एक ही जवाब था।

    “हकीम साहब से”, मैंने कहा।

    “मतब दूसरी तरफ़ है। वहीं जाईए। वो तैयार हो रहे हैं।”

    आख़िरी लफ़्ज़ों तक पहुँचते-पहुँचते आवाज़ दूर होना शुरू’ हो गई थी, इसलिए मैंने और ज़रा बुलंद आवाज़ में कहा, “अंदर इत्तिला करा दीजिए।”

    आवाज़ फिर क़रीब गई और अब उसके लहजे का रूखापन कुछ कम हुआ, “आप कहाँ से आए हैं?”

    मैंने यहाँ भी अपना अता-पता बताया; कुछ तवक़्क़ुफ़ किया, फिर अपनी वालिदा का नाम लिया; फिर तवक़्क़ुफ़ किया; फिर उनका घर का नाम बताया; ये बताया कि मैं उनका बेटा हूँ; फिर झिजकते-झिजकते अपना वो दुलार का नाम भी बता दिया जिससे मैं बचपन में चिड़ता था। मैंने ये सब कुछ बहुत बे-तरतीब अंदाज़ में बताया, जिसे पर्दे के उधर वाली औ’रत ने किसी के पूछने पर क़द्रे-मरबूत करके दुहराया, और मकान के अंदर औ’रतों के बोलने की आवाज़ें थोड़ी देर के लिए तेज़ हो गईं। मुझे उन आवाज़ों में अपनी वालिदा का घर का नाम और अपना बचपन वाला नाम बार-बार सुनाई दिया।

    ये दोनों नाम मैं बहुत दिनों के बा’द सुन रहा था। मुझे यक़ीन हो गया कि अगर ये नाम इसी तरह सुनाई देते रहे तो मुझको इस मकान का पूरा नक़्शा और इसके रहने वाले सब याद जाएँगे; बल्कि मेरे ज़हन में एक कुशादा सेहन का नक़्श बनना शुरू’ भी हो गया था, लेकिन ऐ’न उस वक़्त हल्की सी खड़खड़ाहट के साथ टाट का पर्दा मेरी तरफ़ बढ़ा, ऊपर उठा, और उसके नीचे से एक बाईसिकल का अगला पहिया नुमूदार हुआ।

    मैं एक किनारे हो गया और बाईसिकल लिए हुए एक लड़का अंदर से ड्योढ़ी में आया और मुझे सलाम करता हुआ सद्र दरवाज़े से बाहर निकल गया। मैं ख़ामोश खड़ा इंतिज़ार करता रहा। कुछ देर बा’द पर्दे के पीछे से दबी-दबी आवाज़ें आईं और चार पाँच बतख़ें पर्दे के नीचे से निकल कर ड्योढ़ी में आईं। उनकी बे-तरतीब क़तार देखकर साफ़ मा’लूम होता था कि उन्हें बाहर की तरफ़ हँकाया गया है। बतख़ें आपस में चे-मी-गोइयाँ सी करती और डगमगाती हुई सद्र दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गईं। इसके बा’द मकान के अंदर से देर तक कोई आवाज़ नहीं आई। मैं ड्योढ़ी में खड़े-खड़े उकता गया। मुझे वहम होने लगा कि पर्दे के पीछे से वीरान मकानों वाली ख़ामोशी बाहर निकल कर मुझको अपनी लपेट में ले रही है। लेकिन उसी वक़्त दूसरी तरफ़ से किसी ने कहा, “आईए, अंदर चले आईए।”

    दोहरे टाट का पर्दा एक तरफ़ कर के मैं उस मकान के सेहन में उतर गया।

    (4)

    बड़े सेहन, दोहरे तिहरे दालानों, शह-नशीनों, सहनचियों और लकड़ी की मेहराबों वाले मकान मैंने अपने बचपन में बहुत देखे थे। ये मकान उनसे मुख़्तलिफ़ नहीं था, लेकिन मुझे याद सका कि कभी मैं यहाँ आया करता था। कुशादा सेहन के बीच में कुछ लम्हों के लिए रुक कर मैंने देखा कि मकान का हर दर्जा आबाद है। कई सहनचियों से औ’रतें गर्दन बाहर निकाले मुतजस्सिस नज़रों से मेरी तरफ़ देख रही थीं।

    मैंने अंदाज़ा लगाया कि इस घर की बेगम को किस हिस्से में होना चाहिए, और सीधा उस दालान की तरफ़ बढ़ता चला गया जिसकी बुलंद मेहराबों में उ’न्नाबी रंग के बड़े क़ुमक़ुमे लटक रहे थे। दालान में नीचे तख़्तों का चौका और उसके दोनों तरफ़ भारी मसहरियाँ थीं। सब पर साफ़ धुली हुई चादरें बिछी थीं जिनमें से बा’ज़ का अभी कलफ़ भी टूटा था। चौके पर एक मुअ’म्मर ख़ातून बैठी हुई थीं। मैंने उन्हें पहचाने बग़ैर सलाम किया, उन्होंने आहिस्ता से मुस्कुरा कर बहुत सी दुआ’एँ दीं। फिर बोलीं, “बेटे! आज इधर कहाँ भूल पड़े?”

    मुझे ख़याल हुआ ये सवाल इसलिए नहीं किया गया है कि इसका जवाब दिया जाए, लिहाज़ा अपने इमकान भर शाइस्तगी के साथ मैंने उनकी मिज़ाज-पुर्सी की, और वो बोलीं, “तुम्हें तो अब क्या याद होगा, छुटपने में तुम यहाँ आते थे तो जाने का नाम नहीं लेते थे।”

    फिर उन्होंने ऐसी कई तक़रीबों का ज़िक्र किया जिनके बा’द मेरी वालिदा को महज़ मेरी ज़िद की वज्ह से कई-कई दिन रुकना पड़ा था।

    “तब भी तुम रोते हुए जाते थे”, उन्होंने कहा, और दुपट्टे के पल्लू से आँखें पोंछीं।

    इस दौरान मकान के मुख़्तलिफ़ दर्जों से निकल-निकल कर औ’रतें उस बड़े दालान में जम्अ’ होती रहीं। उनमें से ज़ियादा-तर ने अपना तआ’रुफ़ ख़ुद कराया। पेचीदा रिश्ते मेरी समझ में आते थे लेकिन मैंने ये ज़ाहिर किया कि हर तआ’रुफ़ कराने वाली को मैं पहचान गया हूँ और हर रिश्ता मुझे पहले ही से मा’लूम था। सब औ’रतों ने बालों में बहुत सा तेल लगा कर चपटी कंघी कर रखी थी। सब मोटे सूती दुपट्टे ओढ़े हुए थीं जिनमें से बा’ज़-बा’ज़ घर के रंगे हुए मा’लूम होते थे। हर एक के पास मेरे बचपन के क़िस्सों का ज़ख़ीरा था। मुझे सेहन के किनारे लगा हुआ अमरूद का एक दरख़्त दिखाया गया जिस पर से गिर कर मैं बे-होश हो गया था और मुझे बे-होश देखकर मेरी वालिदा भी बे-होश हो गई थीं। मेरी शरारतों का ज़िक्र छिड़ा तो मा’लूम हुआ कि मैंने वहाँ पर मौजूद हर औ’रत को किसी किसी शरारत का निशाना बनाया था।

    मुझे एहसास हुआ कि मैं देर से एक लफ़्ज़ भी नहीं बोला हूँ। सब लोग शायद अब मेरे बोलने के मुंतज़िर थे और दालान में कुछ ख़ामोशी सी हो गई थी। मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई तो चौके पर एक तरफ़ तीन चार लड़कियाँ बैठी दिखाई दीं। मैंने उनसे उनकी ता’लीम और दूसरे मशग़लों के बारे में दरियाफ़्त किया तो वो शर्मा कर एक दूसरे के क़रीब घुसने लगीं और उनकी तरफ़ से दूसरों ने जवाब दिए। उनसे कुछ फ़ासले पर तीन लड़के किसी वक़्त आकर बैठ गए थे।

    मैंने उनसे अपने ख़याल में उनकी दिलचस्पी की दो-चार बातें कीं, लेकिन मुझे मा’लूम नहीं था कि उन्हें किन बातों में दिलचस्पी है। लड़के मुझे बे-वक़ूफ़ और लड़कियाँ बे-सूरत मा’लूम हुईं, लेकिन लड़कियों का शरमाना अच्छा लगा। मैं उनसे कुछ और बातें करने के लिए उनकी दिलचस्पी का कोई मौज़ू’ सोच रहा था कि ड्योढ़ी के दरवाज़े पर खड़खड़ाहट हुई। साईकल वाला लड़का वापिस गया था। उसके हाथों में अख़बारी काग़ज़ की कई पुड़ियाँ थीं जिनमें बा’ज़ पर चिकनाई फूट आई थी। उसने दालान की तरफ़ देखकर कुछ इशारा किया और लड़कियाँ उठकर चली गईं। कुछ देर बा’द क़रीब के किसी दर्जे से उनके हँसने और चीनी के बर्तन बजने की आवाज़ें आईं। मुझे दोनों आवाज़ों में मुबहम सी मुशाबहत महसूस हुई, और ये भी शुबह हुआ कि लड़कियाँ मेरे बोलने की नक़्ल उतार रही हैं।

    मैंने अंदाज़ा करने की कोशिश की कि मुझे इस दालान में बैठे हुए कितनी देर हुई होगी, लेकिन उसी वक़्त मेरे बाएँ हाथ पर एक दरवाज़ा खुला और उसकी चिलमन के पीछे हकीम साहब खड़े नज़र आए। मैंने उन्हें फ़ौरन पहचान लिया। वो सर पर टोपी का ज़ाविया दुरुस्त कर रहे थे। फिर वो चिलमन की तरफ़ मुँह कर के अपनी जेबों में कुछ टटोलने लगे। उनके पीछे एक और दरवाज़ा नज़र रहा था जिसके क़रीब देहाती मर्दों और औ’रतों का मजमा’ लगा हुआ था।

    “अरे भई, हम रहे हैं”, हकीम साहब ने कहा और चिलमन उठाई।

    “आईए आईए”, घर की बेगम बोलीं, “देखिए कौन आया है। पहचाना?”

    हकीम साहब दालान में गए। मैंने जल्दी से उठकर उन्हें सलाम किया और उन्होंने आहिस्ता से मेरा नाम लिया। फिर बोले,

    “मियाँ आप तो बहुत बदल गए, कहीं और देखता तो बिल्कुल पहचानता।”

    कुछ देर तक वो भी मुझे मेरे बचपन की बातें बताते और मेरे वालिद की वज़्अ’-दारी के क़िस्से सुनाते रहे। इतने में एक मुलाज़िमा पीतल की एक लंबी कश्ती में खाने की चीज़ें लेकर गई। मैंने एक नज़र कश्ती में लगी हुई चीनी की नाज़ुक तश्तरियों को देखा। उनमें ज़ियादा-तर बाज़ार का सामान था, लेकिन कुछ चीज़ें घर की बनी हुई भी थीं। हकीम साहब ने कश्ती की तरफ़ इशारा किया और बोले,

    “मियाँ, तकल्लुफ़ से काम मत लीजिएगा”, फिर बेगम से बोले, “अच्छा भई, हमको देर हो रही है।”

    इसके बा’द वो वापिस अपने कमरे में चले गए।

    “इनको मतब से फ़ुर्सत ही नहीं होती”, बेगम ने मा’ज़रत के अंदाज़ में कहा। वो कुछ और भी कह रही थीं, लेकिन मुझ पर शायद कुछ देर को ग़ुनूदगी सी तारी हो गई थी, इसलिए कि जब मैं चौंका तो दालान में सिर्फ़ बेगम थीं और उसकी दो मेहराबों पर किसी मोटे कपड़े के पर्दे झूल रहे थे। सिर्फ़ बीच की महराब खुली हुई थी और उसमें लटकता हुआ क़ुमक़ुमा हवा में हिलता हुआ कभी दाहिनी तरफ़ चक्कर खाता था कभी बाईं तरफ़। मैंने चिलमन की जानिब देखा।

    दूसरे दरवाज़े के क़रीब हकीम साहब एक बूढ़े देहाती की नब्ज़ पर हाथ रखे किसी सोच में डूबे हुए थे। मैं बेगम की तरफ़ मुड़ा। उन पर भी ग़ुनूदगी तारी थी, लेकिन क़रीब की किसी सहनची से लड़कियों की घुटी-घुटी हँसी की आवाज़ आई तो वो होशियार हो कर बैठ गईं।

    “क्या महर आई हैं?”, उन्होंने अपने आपसे पूछा।

    मुझे उनके आसूदा चेहरे पर पहली बार फ़िक्र की हल्की सी परछाईं नज़र आई। उसी वक़्त दाहिनी तरफ़ वाली महराब का पर्दा हटा और एक नौजवान लड़की दालान में दाख़िल हुई। मैंने उसको उचटती हुई नज़र से देखा। वो किसी बे-शिकन कपड़े की नारंजी सारी बाँधे थी और उसके नाख़ुन नारंजी पालिश से रंगे हुए थे। बेगम मुझसे मुख़ातिब हुईं,

    “महर को पहचाना?”

    मैंने फिर एक उचटती हुई नज़र उसके चेहरे पर डाली। उसके होंटों पर नारंजी लिपस्टिक की बहुत हल्की तह थी। मैंने सर को यूँ जुंबिश दी गोया उसे भी दूसरी औ’रतों की तरह पहचान गया हूँ। फिर मैंने उसको ग़ौर से देखने का इरादा किया ही था कि पर्दे के पीछे से किसी लड़की ने उसे धीरे से आवाज़ दी और वो दालान से बाहर चली गई।

    हकीम साहब उसी तरह बूढ़े देहाती की नब्ज़ पर हाथ रखे हुए थे और बेगम पर फिर ग़ुनूदगी तारी हो गई थी। मैं उठकर खड़ा हो गया। बेगम ने अध-खुली आँखों से मेरी तरफ़ देखा और मैंने कहा

    “अब इजाज़त दीजिए।”

    “जाओगे?”, उन्होंने बोझल आवाज़ में पूछा, और अचानक मुझे कुछ याद गया।

    “वो... डरावनी कोठरी... अब भी है?”, मैंने पूछा।

    “डरावनी कोठरी”, उन्होंने कहा, कुछ सोचा, फिर अफ़्सुर्दगी के साथ मुस्कुरा कर बोलीं, “एक-बार तुमने महर को उसमें बंद कर दिया था।”

    फिर उनकी मुस्कुराहट में और ज़ियादा अफ़्सुर्दगी गई।

    “चलो तुम्हें यहाँ की कोई शय तो याद आई।”

    “अब भी है?”, मैंने फिर पूछा।

    “वो क्या ड्योढ़ी के बराबर दरवाज़ा है। कुछ भी नहीं, वहाँ पहले बावर्चीख़ाना था, धुएँ से दीवारें काली हैं। एक दरवाज़ा बाहर की तरफ़ भी है, खुला होगा। उसकी कुंडी नहीं लग पाती।”

    “मैं उधर ही से निकल जाऊँगा”, मैंने कहा, रुख़्सती सलाम के लिए हाथ उठाया और सेहन की तरफ़ मुड़ा।

    “इसी तरह कभी-कभी याद कर लिया करो। पहले तो रोज़ का आना जाना था”, उन्होंने लंबी साँस ली और उनकी आवाज़ थोड़ी कपकपा गई, “वक़्त ने बड़ा फ़र्क़ डाल दिया है, बेटे।”

    उनके होंट अभी हिल रहे थे, लेकिन मैं सेहन पार कर के ड्योढ़ी से मुत्तसिल दरवाज़े में दाख़िल हो गया। वहाँ कोई ख़ास बात नहीं थी। छत और दीवारों पर कलौंस थी, इसके बा-वजूद अँधेरा बहुत गहरा नहीं था। एक तरफ़ भूसा मिली हुई चिकनी मिट्टी का बड़ा सा चूल्हा था जिसे तोड़ दिया गया था। सामने रौशनी की एक खड़ी लकीर नज़र रही थी।

    बाहर का दरवाज़ा, मैंने अपने आपको बताया और लकीर के पास पहुँच कर उससे आँख लगा दी। सामने हकीमों का चबूतरा दिखाई दे रहा था। मेरी पेशानी को लोहे की लटकती हुई ज़ंजीरी कुंडी की ठंडक महसूस हुई। मैंने उसे अपनी तरफ़ खींचा। दरवाज़े का एक पट खुला। मैंने कुंडी छोड़ दी। पट आहिस्ता-आहिस्ता बंद हो गया। दो तीन मर्तबा यही हुआ। मुझे ख़याल आया कि इस तरह के दरवाज़ों को खोलना और इन्हें अपने आप बंद होते हुए देखना बचपन में मेरा पसंदीदा खेल था। मैंने दोनों पट एक साथ अपनी तरफ़ खींच कर खोले और बाहर निकल आया।

    कुछ देर बा’द मैं कत्थई ईंटों वाले एक मंज़िला मकान की पुश्त पर था। हकीमों का चबूतरा और उस पर की झाड़ियाँ और कच्ची क़ब्रें अब और ज़ियादा साफ़ नज़र रही थीं। मुझे वहाँ किसी चीज़ की कमी महसूस हुई और इसी के साथ ख़याल आया कि मैंने चबूतरे को ऊपर जा कर नहीं देखा। और उसी वक़्त मुझे कुछ और याद गया। मैं वापिस हुआ और चबूतरे के ऊपर गया।

    क़ब्रों की ता’दाद मेरे अंदाज़े से ज़ियादा थी, लेकिन पतावर का वो झुंड ग़ाइब था जो एक बहुत पुराने साँप का मस्कन बताया जाता था। जो लोग उसे देखने का दा’वा करते थे, उनका कहना था कि उसके फन पर बाल उग आए हैं। बच्चे पतावर के झुंड के पास खेलते रहते थे, बल्कि मैं तो उसके अंदर जा छुपता था लेकिन साँप से कभी किसी को नुक़्सान नहीं पहुँचा था। शायद इसी वज्ह से ये बात मशहूर थी कि वो कई पुश्तों से हकीम ख़ानदान का निगहबान है। ख़ुश्क और सब्ज़ पतावर के उस झुंड का नक़्श मेरे ज़हन में बिल्कुल वाज़ेह हो गया था, लेकिन ये मुझे याद सका कि वो चबूतरे पर किस तरफ़ था। जिस जगह उसके होने का मुझे गुमान था वहाँ पर कई क़ब्रें थीं जिन पर चूने की सफ़ेदी चमक रही थी।

    चबूतरे पर से मकान के सद्र दरवाज़े को मैं देर तक देखता रहा। मेरा जी चाहने लगा कि उस पर दस्तक दूँ, और मैं चंद क़दम उधर बढ़ा भी, लेकिन फिर रुक गया।

    “ये बहुत वाहियात बात होगी”, मैंने सोचा, और चबूतरे पर से मकान की मुख़ालिफ़ सिम्त उतर गया।

    वापसी का रास्ता मुश्किल नहीं था। मैं बहुत आसानी से घर पहुँच गया।

    स्रोत:

    Itr-e-Kafur (Pg. 11)

    • लेखक: नैयर मसूद
      • प्रकाशक: नैयर मसूद
      • प्रकाशन वर्ष: 1990

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