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नैयर मसूद

1936 - 2017 | लखनऊ, भारत

महत्वपूर्ण आधुनिक कथाकार, पुरातन लखनऊ के सांस्कृतिक परिदृश्य की रहस्यमयी कहानियाँ लिखने के लिए जाने जाते हैं। आलोचनात्मक आलेख और जीवनी की कई पुस्तकों की रचना की।

महत्वपूर्ण आधुनिक कथाकार, पुरातन लखनऊ के सांस्कृतिक परिदृश्य की रहस्यमयी कहानियाँ लिखने के लिए जाने जाते हैं। आलोचनात्मक आलेख और जीवनी की कई पुस्तकों की रचना की।

नैयर मसूद की कहानियाँ

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इत्र-ए-काफ़ूर

कहानी ज़िंदगी के अंतर्विरोधों पर आधारित है। इस अंतर्विरोध को इत्र-ए-काफ़ूर की अलामत के ज़रिए पेश किया गया है। प्रथम वाचक को काफ़ूर से इत्र बनाने का तरीक़ा मालूम है जिसकी ख़ुशबू तमाम ख़ुशबुओं से अलग है और माहरुख़ सुलतान के लिए ज़िंदगी बख़्श है, इसके अलावा उसे मिट्टी के छोटे छोटे खिलौने बनाने का भी शौक़ है। उसने एक चिड़िया बनाई जिसका नाम काफ़ूरी चिड़िया रखा। जब माहरुख़ सुलतान को दिखाया तो उन्होंने कहा कि इससे मरने का ख़्याल आता है, काफ़ूर जो ज़ख़्मों के इंदिमाल और दीगर कामों के लिए नफ़अ‘-बख़्श है, उसी से मौत का ख़्याल आना मरने के बाद काफ़ूर का इस्तेमाल ज़िंदगी के अंतर्विरोध को स्पष्ट करता है।

गंजिफ़ा

यह माँ-बेटे की ऐसी कहानी है जिसमें माँ के लाड ने बेटे को उसकी ज़िंदगी में कभी कुछ करने न दिया। माँ अपनी नज़र कमज़ोर होने और निरंतर खांसी के बावजूद आख़िर दम तक चिकन के कुर्तों की कढ़ाई करती रहती है। उसकी कढ़ाई की धूम विलाएत तक है, वही विलाएत जहाँ उसका मरहूम शौहर अपने इकलौते बेटे को शिक्षा के लिए भेजना चाहता था, इसीलिए माँ को अपने बेटे के हिसाब से हर काम छोटा मालूम होता था और वो उसे नौकरी से बाज़ रखती है। हसनी मंजन बेचने वाले लाडले की बेटी है,जिसने कढ़ाई का काम रावी की माँ से सीखा है। माँ के आख़िरी वक़्त में हसनी इंतिहाई अपनाइयत और दिलजमई से घर का सारा काम करती है। एक दिन रावी हसनी के घर की तरफ़ निकलता है तो वहाँ अपाहिज लाडले बैठा हुआ मिलता है जिससे पता चलता है कि हसनी की मौत हो गई। कुल मिला कर यह कहानी ज़िंदगी के अत्याचार और शोषण के एहसास से इबारत है।

बाई के मातमदार

कहानी प्रथमवाचक की ग़ैर मामूली याददाश्त से बुनी गई है। बताता है कि उसे बचपन में दुल्हनों से बहुत लगाव था, उन्हें देखना अच्छा लगता था लेकिन एक ऐसा वाक़ेआ हुआ कि वो ख़ौफ़ खाने लगा। वाक़ेआ ये था कि एक-बार एक दुल्हन मर गई थी। उसे ज़ेवरों सहित दफ़ना दिया गया था, दफ़नाने के बाद उसके शौहर को क़ब्र के पास बेहोश पाया गया था। होश आने पर मालूम हुआ कि दुल्हन के ज़ेवर उसके जिस्म में पैवस्त हो गए थे। ज़ेवरों से उसे एक और वाक़ेआ याद आता है कि उसके सामने वाले उसी मकान में एक औरत जिसे बाई कहा जाता था, उसका इंतिक़ाल हो गया तो देखा गया कि मातम करने वाली औरतें एक एक करके उसके जिस्म पर पड़े ज़ेवर नज़रें बचा कर नोच ले रही हैं।

शीशा घाट

कहानी के मुख्यपात्र की आवाज़ में हकलाहट है इसलिए उसका मुँह बोला बाप न चाहते हुए भी ख़ुद से अलग किसी नई जगह उसे भेज देना चाहता है क्योंकि उसकी नई बीवी आने वाली है जो उसकी हकलाहट बर्दाश्त नहीं कर सकेगी। लोगों से बताता है कि उसके दोस्त जहाज़ ने उसे मांग लिया है। जहाज़ एक ग़ैर-आबाद तटीय क्षेत्र में रहता है जिसे शीशा घाट कहते हैं। उसकी मालकिन बीबी नाम की डरावनी औरत है। यहाँ पहुँच कर उसे बहुत घबराहट होती है लेकिन एक दिन लड़की उसे झील के पानी पर चलती नज़र आती है, उसे देखकर ये ख़ुश हो जाता है, फिर उसी के आने की उम्मीद और देखने के शौक़ में उसका वक़्त ख़ुशगवार गुज़रने लगता है लेकिन एक रोज़ वो पानी पर चलते चलते डूब जाती है और उसके रहस्यमयी मौत का इल्ज़ाम उस प्रथम वाचक पर न आए इसलिए जहाज़ उसे वहाँ से भगा देता है।

सुलतान मुज़फ़्फ़र का वाक़िया-नवीस

कहानी इक़्तेदार और ताक़त की अमलदारी को सामने लाती है। कहानी बयान करने वाला शख़्स सुलतान मुज़फ़्फ़र का वाक़िआ नवीस है जिसने उसके सहराई मुहिम के वाक़ेआत कलमबंद किए हैं जोकि उसने देखे नहीं बल्कि सुने हैं और फिर उसी वाक़ेआ को एक इतिहास-कार ने भी लिखा जिसे सुलतान के हुक्म से मरना पड़ा। सहराई मुहिम के बाद वाक़िआ-नवीस एकांत-वास में चला जाता है लेकिन फिर कुछ ही अरसे बाद सुलतानी गुमाश्ता आता है कि सुलतान ने मक़बरे का वाक़िआ कलमबंद करने के लिए तलब किया है। जबकि उसने मक़बरा तामीर होते देखा नहीं है, कहानी में ये बात अस्पष्ट है कि यह मक़बरा सुलतान का है भी या नहीं।

अल्लाम और बेटा

"इस कहानी में निगुढ़ता के बहुत सारे रंग हैं। कहानी याददाश्त की कमज़ोरी की शिकायत से शुरू होती है और फिर उस अल्लाम तक पहुँचती है जो शहर का बदमाश था और रावी के बाप का बचपन का दोस्त था। उसके बेटे के बारे में मशहूर था कि उसका बचपन भेड़ीयों के बीच गुज़रा है, वो जंगलों से कई तरह के जानवर पकड़ कर बाज़ार में विक्रय करता था और हमेशा काली कफ़नी पहने रहता था। अख़ीर उम्र में वो बैठ नहीं सकता था, सिर्फ़ खड़ा रह सकता था या लेट सकता था। एक दिन बाज़ार में वो खड़ा खड़ा गिर गया और रावी उसे अपने घर ले आया, लेकिन वो उसे अल्लाम का बेटा समझे हुआ था। अंत के संवाद से स्पष्ट होता है कि वो अल्लाम ही था जो अपने बेटे की गुमशुदगी के बाद से इस हालत में रहने लगा है। जाते वक़्त वो रावी से कहता है, छोटे साहब नहीं दिखाई दिए, अब तो बड़े हो गए होंगे माशा अल्लाह।"

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