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नैयर मसूद की कहानियाँ
वक़्फ़ा
अतीत की यादों के सहारे बे-रंग ज़िंदगी में ताज़गी पैदा करने की कोशिश की गई है। कहानी का प्रथम वाचक अपने स्वर्गीय बाप के साथ गुज़ारे हुए वक़्त को याद कर के अपनी बिखरी ज़िंदगी को आगे बढ़ाने की जद-ओ-जहद कर रहा है जिस तरह उसका बाप अपने घर बनाने के हुनर से पुरानी और उजाड़ इमारतों की मरम्मत करके क़ाबिल-ए-क़बूल बना देता था। नय्यर मसऊद की दूसरी कहानियों की तरह इसमें भी ख़ानदानी निशान और ऐसी विशेष चीज़ों का ज़िक्र है जो किसी की शनाख़्त बरक़रार रखती हैं।
मुरासिला
इस कहानी में एक परम्परावादी घराने की परम्पराओं, आचार-व्यवहार और रहन सहन में होने वाली तब्दीलियों का ज़िक्र है। कहानी के मुख्य पात्र के घर से उस घराने के गहरे मरासिम हुआ करते थे लेकिन वक़्त और मसरुफ़ियत की धूल उस ताल्लुक़ पर जम गई। एक लम्बे समय के बाद जब प्रथम वाचक उस घर में किसी काम से जाता है तो उनकी जीवन शैली में होने वाली तब्दीलियों पर हैरान होता है।
ताऊस चमन की मैना
अवध की शाहाना तहज़ीब, रख-रखाव, वाक शैली, हुकमुरानों की कुशादा-दिली, ख़ुश-ज़ौक़ी और ज़िंदगी के मामलात का चित्रण किया गया है। गुज़रते वक़्त के साथ उस तहज़ीब के मिटने का मातम भी है। सुलतान आलम की क़ैद से काले ख़ाँ अपनी बेटी फ़लक-आरा को ख़ुश करने के लिए मैना चुरा कर दे देता है। पकड़े जाने पर सुलतान आलम माफ़ कर देते हैं और मैना भी उसे दे देते हैं, लेकिन अंग्रेज़ बहादुर की इच्छा पूरी करने के लिए वज़ीर-ए-आज़म साज़िश करके काले ख़ाँ को जेल भेज देते हैं। जब वो जेल से रिहा हो कर वापस आता है तो लखनऊ का नक़्शा बदल चुका होता है और सुलतान आलम कलकत्ते में नज़रबंद कर दिए जाते हैं।
सासान-ए-पंजुम
यह कहानी निकृष्ट लोगों के पतन का मातम है। सासान-ए-पंजुम के ज़माने की इमारत पर अंकित इबारत पढ़ने और उसे समझने के लिए पुरातत्व विभाग के विशेषज्ञ बुलाए जाते हैं। वो अपनी तमामतर कोशिशों के बावजूद इबारत पढ़ने में कामयाब नहीं होते। तहक़ीक़ के बाद ये साबित कर दिया जाता है कि सासान-ए-पंजुम का वुजूद फ़र्ज़ी है।
बुन बस्त
"कहानी में दो ज़माने और दो अलग तरह के रवय्यों का टकराव नज़र आता है। कहानी का मुख्य पात्र अपने बे-फ़िक्री के ज़माने का ज़िक्र करता है जब शहर का माहौल पुर-सुकून था। दिन निकलने से लेकर शाम ढ़लने तक वो शहर में घूमता फिरता था लेकिन एक ज़माना ऐसा आया कि ख़ौफ़ के साये मंडलाने लगे, फ़सादात होने लगे। एक दिन वो बलवाइयों से जान बचा कर भागता हुआ एक तंग गली के तंग मकान में दाख़िल होता है तो उसे वो मकान पुर-असरार और उसमें मौजूद औरत खौफ़ज़दा मालूम होती है, इसके बावजूद उसके खाने पीने का इंतिज़ाम करती है, लेकिन ये उसके ख़ौफ़ की परवाह किए बिना दरवाज़ा खोल कर वापस लौट आता है।"
इत्र-ए-काफ़ूर
कहानी ज़िंदगी के अंतर्विरोधों पर आधारित है। इस अंतर्विरोध को इत्र-ए-काफ़ूर की अलामत के ज़रिए पेश किया गया है। प्रथम वाचक को काफ़ूर से इत्र बनाने का तरीक़ा मालूम है जिसकी ख़ुशबू तमाम ख़ुशबुओं से अलग है और माहरुख़ सुलतान के लिए ज़िंदगी बख़्श है, इसके अलावा उसे मिट्टी के छोटे छोटे खिलौने बनाने का भी शौक़ है। उसने एक चिड़िया बनाई जिसका नाम काफ़ूरी चिड़िया रखा। जब माहरुख़ सुलतान को दिखाया तो उन्होंने कहा कि इससे मरने का ख़्याल आता है, काफ़ूर जो ज़ख़्मों के इंदिमाल और दीगर कामों के लिए नफ़अ‘-बख़्श है, उसी से मौत का ख़्याल आना मरने के बाद काफ़ूर का इस्तेमाल ज़िंदगी के अंतर्विरोध को स्पष्ट करता है।
गंजिफ़ा
यह माँ-बेटे की ऐसी कहानी है जिसमें माँ के लाड ने बेटे को उसकी ज़िंदगी में कभी कुछ करने न दिया। माँ अपनी नज़र कमज़ोर होने और निरंतर खांसी के बावजूद आख़िर दम तक चिकन के कुर्तों की कढ़ाई करती रहती है। उसकी कढ़ाई की धूम विलाएत तक है, वही विलाएत जहाँ उसका मरहूम शौहर अपने इकलौते बेटे को शिक्षा के लिए भेजना चाहता था, इसीलिए माँ को अपने बेटे के हिसाब से हर काम छोटा मालूम होता था और वो उसे नौकरी से बाज़ रखती है। हसनी मंजन बेचने वाले लाडले की बेटी है,जिसने कढ़ाई का काम रावी की माँ से सीखा है। माँ के आख़िरी वक़्त में हसनी इंतिहाई अपनाइयत और दिलजमई से घर का सारा काम करती है। एक दिन रावी हसनी के घर की तरफ़ निकलता है तो वहाँ अपाहिज लाडले बैठा हुआ मिलता है जिससे पता चलता है कि हसनी की मौत हो गई। कुल मिला कर यह कहानी ज़िंदगी के अत्याचार और शोषण के एहसास से इबारत है।
पाक नामों वाला पत्थर
जीर्ण, ज़ंग लगा ताला और ख़स्ता हाल इमारतों की फ़िज़ा से मामूर इस कहानी में पवित्र नामों वाले पत्थर का क़िस्सा बयान किया गया है। रावी के ख़ानदान में इस पत्थर की अहमियत इतनी ज़्यादा थी कि सारी जायदाद एक तरफ़ और पत्थर एक तरफ़ रहता तब भी लोग पत्थर के प्राप्ति को तर्जीह देते। इस पत्थर के लिए उस ख़ानदान में खूँरेज़ियाँ भी हुईं लेकिन जब रावी को वो पत्थर मिलता है तो उसे उसमें कोई ख़ास बात नज़र नहीं आती, पत्थर मामूली होता है और उस पर पाक नाम नक्श होते हैं बस। फिर भी वो उसे गले में पहन लेता है और फिर एक दिन उतार कर उन मुबारक चीज़ों के साथ रख देता है जो उसके साथ दफ़न की जाएँगी।
बाई के मातमदार
कहानी प्रथमवाचक की ग़ैर मामूली याददाश्त से बुनी गई है। बताता है कि उसे बचपन में दुल्हनों से बहुत लगाव था, उन्हें देखना अच्छा लगता था लेकिन एक ऐसा वाक़ेआ हुआ कि वो ख़ौफ़ खाने लगा। वाक़ेआ ये था कि एक-बार एक दुल्हन मर गई थी। उसे ज़ेवरों सहित दफ़ना दिया गया था, दफ़नाने के बाद उसके शौहर को क़ब्र के पास बेहोश पाया गया था। होश आने पर मालूम हुआ कि दुल्हन के ज़ेवर उसके जिस्म में पैवस्त हो गए थे। ज़ेवरों से उसे एक और वाक़ेआ याद आता है कि उसके सामने वाले उसी मकान में एक औरत जिसे बाई कहा जाता था, उसका इंतिक़ाल हो गया तो देखा गया कि मातम करने वाली औरतें एक एक करके उसके जिस्म पर पड़े ज़ेवर नज़रें बचा कर नोच ले रही हैं।
शीशा घाट
कहानी के मुख्यपात्र की आवाज़ में हकलाहट है इसलिए उसका मुँह बोला बाप न चाहते हुए भी ख़ुद से अलग किसी नई जगह उसे भेज देना चाहता है क्योंकि उसकी नई बीवी आने वाली है जो उसकी हकलाहट बर्दाश्त नहीं कर सकेगी। लोगों से बताता है कि उसके दोस्त जहाज़ ने उसे मांग लिया है। जहाज़ एक ग़ैर-आबाद तटीय क्षेत्र में रहता है जिसे शीशा घाट कहते हैं। उसकी मालकिन बीबी नाम की डरावनी औरत है। यहाँ पहुँच कर उसे बहुत घबराहट होती है लेकिन एक दिन लड़की उसे झील के पानी पर चलती नज़र आती है, उसे देखकर ये ख़ुश हो जाता है, फिर उसी के आने की उम्मीद और देखने के शौक़ में उसका वक़्त ख़ुशगवार गुज़रने लगता है लेकिन एक रोज़ वो पानी पर चलते चलते डूब जाती है और उसके रहस्यमयी मौत का इल्ज़ाम उस प्रथम वाचक पर न आए इसलिए जहाज़ उसे वहाँ से भगा देता है।
जानूस
एक ऐसे शख़्स की कहानी है जिसके पूर्वज साहिब-ए-इक़्तेदार हुआ करते थे लेकिन वक़्त ने करवट ली और उनका ज़वाल हो गया। आर्थिक मजबूरियों ने उसे लखनऊ छोड़कर कानपुर जाने पर मजबूर कर दिया। प्रथम वाचक के घर वो उसके नौकर जान मुहम्मद का पैग़ाम और तीस रुपये वापस करने आता है जो उसने क़र्ज़ लिये थे। उस नौ-वारिद शख़्स के साथ वो भी कानपुर होटल में काम करता है। नौ-वारिद बहुत कमज़ोर और हीन है, ठीक से बोल तक नहीं पा रहा है। प्रथम वाचक चूँकि डाक्टर है इसलिए परेशानी समझ लेता है और पूछता है कि तुम कब से भूखे हो, लेकिन जवाब देने से पहले ही उसकी आँखें पथरा जाती हैं।
नुदबा
"यह कहानी एक विशेष समुदाय के रीति-रिवाज के तनाज़ुर में लिखी गई है। मुख्य पात्र एडवेंचर की ग़रज़ से विभिन्न इलाक़ों का सफ़र करता है और हर जगह अपने मेज़बान को अपना नाम और पता काग़ज़ पर लिख कर दे आता है। धीरे धीरे उसे ये घूमना फिरना फ़ुज़ूल व्यर्थ काम मालूम होता है। एक लम्बे अर्से के बाद एक भीड़ उसके शहर में आकर उसे तलाश करती है। उनके हाव भाव से लोग उन्हें भीख माँगने वाले समझते हैं, लेकिन जब ये अपने हाथ का लिखा हुआ पर्चा देखता है तो समझ जाता है कि ये कौन लोग हैं? उनके इशारों और संकेतों से अंदाज़ा होता है कि वो मदद चाहते हैं लेकिन प्रथम वाचक उनकी कोई मदद नहीं कर पाता।"
एहराम का मीर मुहासिब
"सत्ताधारी व्यक्ति के जोश, ताक़त और सत्ता का घमंड होने और अंजाम तक पहुँचने की कहानी है। एहराम पर अंकित इबारत देखकर ख़लीफ़ा को जोश आता है कि इसमें यह चुनौती क्यों दी गई है कि इस एहराम को कोई नष्ट नहीं कर सकता? वो शहर भर से मज़दूर जमा कर के उसे तोड़ने पर लगा देता है, लेकिन उस इबारत में दिए गए निर्धारित समय में सिर्फ़ एक दीवार टूटती है। इस तरह ख़लीफ़ा अपने विनाशकारी मुहिम में नाकाम हो जाता है और शहर छोड़कर वीराने में चला जाता है, जहाँ वो एहराम मौजूद है।"
सुलतान मुज़फ़्फ़र का वाक़िया-नवीस
कहानी इक़्तेदार और ताक़त की अमलदारी को सामने लाती है। कहानी बयान करने वाला शख़्स सुलतान मुज़फ़्फ़र का वाक़िआ नवीस है जिसने उसके सहराई मुहिम के वाक़ेआत कलमबंद किए हैं जोकि उसने देखे नहीं बल्कि सुने हैं और फिर उसी वाक़ेआ को एक इतिहास-कार ने भी लिखा जिसे सुलतान के हुक्म से मरना पड़ा। सहराई मुहिम के बाद वाक़िआ-नवीस एकांत-वास में चला जाता है लेकिन फिर कुछ ही अरसे बाद सुलतानी गुमाश्ता आता है कि सुलतान ने मक़बरे का वाक़िआ कलमबंद करने के लिए तलब किया है। जबकि उसने मक़बरा तामीर होते देखा नहीं है, कहानी में ये बात अस्पष्ट है कि यह मक़बरा सुलतान का है भी या नहीं।
अल्लाम और बेटा
"इस कहानी में निगुढ़ता के बहुत सारे रंग हैं। कहानी याददाश्त की कमज़ोरी की शिकायत से शुरू होती है और फिर उस अल्लाम तक पहुँचती है जो शहर का बदमाश था और रावी के बाप का बचपन का दोस्त था। उसके बेटे के बारे में मशहूर था कि उसका बचपन भेड़ीयों के बीच गुज़रा है, वो जंगलों से कई तरह के जानवर पकड़ कर बाज़ार में विक्रय करता था और हमेशा काली कफ़नी पहने रहता था। अख़ीर उम्र में वो बैठ नहीं सकता था, सिर्फ़ खड़ा रह सकता था या लेट सकता था। एक दिन बाज़ार में वो खड़ा खड़ा गिर गया और रावी उसे अपने घर ले आया, लेकिन वो उसे अल्लाम का बेटा समझे हुआ था। अंत के संवाद से स्पष्ट होता है कि वो अल्लाम ही था जो अपने बेटे की गुमशुदगी के बाद से इस हालत में रहने लगा है। जाते वक़्त वो रावी से कहता है, छोटे साहब नहीं दिखाई दिए, अब तो बड़े हो गए होंगे माशा अल्लाह।"
रे ख़ानदान के आसार
अतीत से कमज़ोर होते रिश्तों को इस कहानी में बयान किया गया है। कहानी का रावी अपने लम्बे चौड़े मकान से कुछ दिन दूर रहना चाहता है और इसी ग़रज़ से वो अपने अफ़सर दोस्त के यहाँ अज़ीमाबाद जाता है। वहाँ उसे रे ख़ानदान याद आता है जिनके घराने से रावी के पारिवारिक सम्बंध थे। उनसे मुलाक़ात की ख़्वाहिश ज़ाहिर करता है तो अफ़सर दोस्त का मा-तहत बड़ी तलाश के बाद अनजीला रे का पता मालूम कर लेता है लेकिन फिर रावी को उनसे मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं होती और बिना मिले अपने वतन लौट आता है।
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