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दर्द-ए-ला-दवा

अल्ताफ़ फ़ातिमा

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    स्टोरीलाइन

    यह कहानी हाथ से कालीन बुन्ने वाले दस्तकारों के हुनर और उनके आर्थिक और शारीरिक उत्पीड़न को बयान करती है। कालीन बुनने वाले लोग करघे में कितने रंगों और किस सफ़ाई के साथ काम करते हैं। उनके इस काम में उनकी उंगलियाँ सबसे ज़्यादा मददगार होती हैं। मगर एक वक़्त के बाद ये उंगलियाँ ख़राब भी हो जाती हैं। उस करघे में काम करने वाले सबसे हुनरमंद लड़की के साथ भी यही हुआ था। फिर रही-सही क़सर करघों की जगह ईजाद हुई मशीनों ने पूरी कर दी।

    एक ईंट की दीवारों वाले दालान नुमा कमरे की तवालत के मुक़ाबिल यहां फ़राख़ी मादूम है। यहां से वहां तक गई हुई चोबी तूर पर गोल करके लपेटे हुए अधूरे क़ालीन के आगे तख़्ता है और तख़्ते पर आसन जमाए छोटे छोटे अजसाम की रंगतों में तदरीजी फ़र्क़ और इख़तिलाफ़ है और कहते हैं कि बुनियादी रंग फ़क़त दो हैं, स्याह और सफ़ैद। लेकिन रंगों की कसरत और उनका इख़तिलाफ़ ही इस तवील दालान नुमा कमरे का नुमायां वस्फ़ है।

    सितार के तारों की तरह तने होतेतान्नी के सफ़ैद धागों की दीवार के छिदरे पन पर बेशुमार रंगों की पेचकें लरज़ रही हैं और सितार के तारों जैसे किसे हुए अड्डे यानी तान्नी के सफ़ैद धागों की दीवार के इस तरफ़ एक भेद है और आगे एक तिलसमात का आलम।

    ये दुनिया तिलसमात की दुनिया है। ये दालान नुमा कमरा मिस्री एहरामों की सी सीलन और ताफ़्फ़ुन में मलफ़ूफ़ है। ये दीवारें, ये तूर, ये अड्डा और कोन्पल से नियम ब्रहना जिस्म, इस तिलसमात में गुम हो चुके हैं और अपने मअनी खो चुके हैं और अब ये फ़ैसला करना मुश्किल है कि हरकत किस चीज़ को है और जुमूद किस पर तारी है और हरकत फ़क़त एक चीज़ से इबारत है, वो है रंगों पर शटल की तेज़ी से लपकती हुई उंगलियां और उंगलीयों की तारीख़ क़दीम और दिलचस्प है। उंगलियां बहुत सी किस्म की हुई हैं और होती रहेंगी।यानी वो उंगलियां जो मिस्र के बाज़ार में कट गईं। वो उंगलियां जिन्हों ने चांद को दो-नीम किया। वो उंगलियां जिन्हों ने ख़ुशक चौब और ख़ुशक पोस्त के साथ मसीहाई की और आवाज़-ए-दोस्त को पा लिया।

    और फिर वो उंगलियां जो इन सब पर उठीं और हमेशा उट्ठेंगी।

    और अब ये उंगलियां हैं जो बटहते और पिघलते हुए रंगों पर शटल की सी तेज़ी से लपकीं और उनके ख़फ़ीफ़ से ख़फ़ीफ़ फ़र्क़ को भी अपनी गिरिफ़त में ले लिया। इस तिलसमात के आलम में बड़ी और ज़िंदा क़ुव्वत ये उंगलियां हैं जो अपनी ज़ात से आँख भी हैं और ज़हन भी।

    और इस से बड़ी तिलसमात और क्या होगी कि अजसाम गूँगे और बहरे हो चुके। इन छुपी अक़्लों पर पर्दे पड़ गए तो उंगलियां ब-रू-ए-कार आएं। उन्होंने देखा, सुना और अजूबों को जन्म दिया। इस तिलसमात को फ़क़त एक आवाज़ बरक़रार और ब-रू-ए-कार रखती है ,तने हुए सफ़ैद धागों की छदरी दीवार के अक़ब से आती हुई आवाज़,

    इक फ़ीरोज़ी। दो मुश्की। चार ख़ाली। उगला सफ़ैद है। फिर इक मुश्की ए, सत ख़ाली, इक पंज ख़ाली एके ए। दो ख़ाली एके चार ख़ाली, एक चटा फ़ीर दो ख़ाली मुश्की ।दानवा कम...

    आवाज़ खिंची और फिर उसने तवक़्क़ुफ़ किया है।

    आहू जी! उंगलियां पुकारी हैं।

    हाँ ये आवाज़ उंगलीयों की आवाज़ है।

    मगर वो पर्दे के पीछे वाली आवाज़ जिसकी संगीत पर उंगलियां नाचती और अजूबे जन्म लेते हैं, एक भेद है। ये आवाज़ ना मालूम कब से जारी है और कब तक उंगलीयों पर हुक्मरानी करेगी। यहां से वहां तक गई हुई तूर पर क़ालीन का मुकम्मल किया हुआ हिस्सा लिपटता रहेगा और सफ़ैद तान्नी पर लरज़ते बेशुमार रंगों पर चलती हुई उंगलियां शिकार गाह का नक़्शा मुकम्मल करती रहेंगी। नहीं मालूम पस-ए-पर्दा उभरने वाली ये आवाज़ कब से क़ालीनों पर शिकार गाहैं तैयार करवा रही है और कब तक।

    ये कब से और कब तक ही तो तहक़ीक़, तलाश और मक़ालों को जन्म देती है और मक़ाले अंदाज़ों, कयासों और बयानात का कितना फुस्स फिसा मजमूआ होते हैं, कौन कह सकता है कि उनमें से कितने अंदाज़े, कितने क़ियास और कितने बयानात हक़, ख़ुलूस और सेहत पर मबनी होते हैं। चुनांचे नतीजा ये निकला कि क़ालीन और उन पर तैयार की हुई शिकार गाहैं ज़िंदा और ठोस हक़ीक़तें हुईं और उन पर लिखे गए मक़ाले, बयानों, अंदाज़ों और कयासों के मजमुए।

    फिर भी मैं शिकागो से चल कर यहां इसलिए आया हूँ कि एशिया की क़ालीन बाफ़ी पर तहक़ीक़ी मक़ाला लिखूँ और मुझे अपने मक़ाले के अनवान पर एतराज़ है,

    एशिया की क़ालीन बाफ़ी

    मगर क़ालीन तो एशिया ही में तैयार होते हैं और एशिया के क़ालीनों में शिकार-गाहें शुरू से बनती चली आई हैं। सफ़ैद धागों की तनी हुई छदरी तान्नी और इस तान्नी की दीवार पर लरज़ते हुए ये तमाम रंग, बन्नूँ के आज़ाद शेरों, चीतों, मुश्की घोड़ों, हिरनों और चतीलों की डारों को क़ालीनों में मुक़य्यद कर लेते हैं।

    और तुमने क़ालीनों के शेर देखे हैं?

    हलीम, बेबस-ओ-बे हरकत और बे-हिस और ईसी का नाम तो तिलसमात है। इस सारी तिलसमात की कुंजी मोटे क़दआवर यकचशम उस्ताद के हाथ में है।

    और अब सितार के तारों की तरह किसी होती तान्नी की सफ़ैद धागों वाली छदरी दीवारों के इस तरफ़ का राज़ फ़ाश हुआ चाहता है।

    उस्ताद के हाथों में गज़ों लंबा पीला काग़ज़ है और काग़ज़ पर बने हुए गोल बैज़वी निशानात ख़ाली भी हैं और इस के बतन में नुक़्ते भी मौजूद हैं। कभी एक और कभी एक से ज़्यादा गोल और बैज़वी निशानात के बैन-बैन, मुतवाज़ी और ग़ैर मुतवाज़ी ख़ुतूत और कभी फ़क़त ऊपर तले दिए हुए नुक़्ते, पीले, खुरदुरे और ग़ैर जाज़िब काग़ज़ पर स्याह रोशनाई से बनाए नक़्श जादू के मंत्र या सुफली उलूम के नक़्श मालूम पड़ते हैं। एशिया की बाअज़ क़ौमों के नज़दीक सुफली अमल करने वाला काफ़िर और ज़िंदीक़ है।

    और बाअज़ क़ौमों नेसुफली अमल को फ़रोग़ दिया है।

    अब मैं सोच रहा हूँ कि मेरी फ़िक्र, सोच और तहक़ीक़ का यही अंदाज़ रहा तो एशिया कीक़ालीन बाफ़ी पर मेरा थीसिस कभी मुकम्मल नहीं होगा।

    मिस्री एहरामों की तरह सैली हुई अजीब सी बूओ में बसा हुआ दालान नुमा कमरा। नियम तारीकी के आलम में सफ़ैद धागों की दीवार के पीछे उस्ताद है और उस्ताद के पीछे दो लोहे की सलाख़ों वाली छोटी सी तंग खिड़कियाँ और उन के दरवाज़ों के भद्दे और नातराशीदा पट खुले हैं।

    एक, दो, तीन, चार, पाँच... ये गिनती दस पर जा कर ख़त्म हो जाती है। तूर के आगे निकले हुए मज़बूत तख़्ते पर सजे एक ही अंदाज़ और नशिस्त पर जमे हुए ये दस मुजस्समे देवताओं की तरह कायनात और इस के मुताल्लिक़ात से बेनयाज़ और लाताल्लुक़ और ये तुम्हारा आज़र कदा!

    नहीं मालूम कि अब मैं किस से मुख़ातब हूँ, मगर ख़ैर आज़र कदे के बुत क़तई जामिद और संगीन थे और उन अजसाम के फ़क़त एक हिस्से में हरकत बाक़ी है। ये उंगलियां तख़लीक़ के अमल में मसरूफ़ हैं लेकिन इस तख़लीक़ का उन अजसाम और उनके आपसे क्या ताल्लुक़ है... और ये उंगलियां रोज़ हिसाब किस के ख़िलाफ़ गवाही देंगी, इसलिए कि उनका आप उनके फे़अल-ओ-अमल पर क़ादिर नहीं।

    शिकागो से आने वाले तहक़ीक़ के तालिब-इल्म का ज़हन मुंतशिर और सरगर्दां है। इस का ज़हन और क़दम जकड़े से जा रहे हैं।

    उफ़ शिकार गाहों की ये तिलसमात!

    पाँच इस तरफ़ और चार इस तरफ़ और उन पाँच और चार के दरमयान काली आँखों और सुनहरा पिन लिए हुए बालों वाला लड़का, शहीदों और ज्ञानियों के से इन्हिमाक से बिराजमान है। हर रंग और हर सदा मुकम्मल तौर पर इस की गिरिफ़त में है। इस की उंगलियां हुनर वर हैं और आँखें मिस्कीन।

    अनदेखी आवाज़ गूँजी है।

    फ़ीरसत ख़ाली, दो उरीब नाल, इक तूती रंगे।

    आहू जी।

    थिरकती उंगलियां, अनदेखी आवाज़ और आहोजी की ये सदा, इसी सब का नाम संगीत है।

    संगीत जिसमें तबले वाला तम्बूरे वाले की आँखों में आँखें डाल कर सर हिलाता है और गायक अपने इशारे और गले से संगत करता है।

    इस तमाम अमल का नाम संगीत है। एक जश्न मौसीक़ी में इस के दोस्त ने सरगोशियों में कहा था,

    संगीत के बिना राग जन्म नहीं लेते।

    और संगीत के बग़ैर शिकार गाहैं भी जन्म नहीं लेतीं। कोई एक-बार इन सारी संगतों को तोड़फोड़ कर देखे तो सही। एक नामालूम सी आह उस के वजूद में तिलमिलाने लगी थी।

    अरे! ये लड़का और इस के तो बाप दादों से हुनरमंदी चली आई है। उन्होंने चनार के तनों से टेक लगा कर उलवान तैयार किए और एक एक उलवान कई कई पुश्तों ने मुकम्मल की है। उनकी आँखें बह गईं। इस घराने की उंगलीयों में तो जादू है, जादू।

    मोटा उस्ताद धागों की छदरी दीवार के इस तरफ़ भद्दे से स्टूल पर बादशाहों की सी अकड़ और कल्ला और जबड़ा लिए बड़े फ़ख़र से बोल रहा है।

    उस्ताद, उस के हाथों में स्याह भद्दे नुक़ूश वाला पीला पीला बदनुमा काग़ज़ है। उसने काग़ज़ की तरफ़ इशारा किया है।

    ये जी शिकार गाह का नक़्शा है। उस्ताद क़ालीन बाफ़ी के मुहक़्क़िक़ की पेशवाई के लिए खड़ा तक ना हुआ।

    ये तुमने बनाया है? उसने उलट-पलट कर काग़ज़ को देखा, जिस पर किसी जानवर का कान तक नज़र नहीं रहा।

    ये जी, मेरे मुंशी ने बनाया है। इस के घराने में बाप दादों से नक़्शे बनाए जाते हैं। बहुत उस्ताद लोग हुए हैं उन के हाँ।

    और तुम्हारी हर चीज़ बाप दादों से चल रही है। नसलों और पुश्तों का ये चक्कर ही तो मुहक़्क़िक़ को दीवाना कर देता है, मगर लोग कहते हैं नसलों और पुश्तों के वसीले से तहक़ीक़ का काम आसान हो जाता है।

    लेकिन ये दुबला पुतला मिस्कीन लड़का! पुश्तों से इस के बाप दादों ने उलवानें तैयार की हैं और शायद माँ के घराने ने अखरोट की लक्कड़ी पर नक़्श-ओ-निगार बनाए थे।

    ख़ुदा की मार! इन बारीक और पेचीदा काम करने वालों पर और एशिया के क़ालीन बाफ़ो, तुम्हारे हाथ क्यों ना क़लम हुए!

    इस का दिल चाहा था कि एशिया के इन तमाम क़ालीनों के दरमयान अपने थीसिस को रखकर आग लगा दे और फिर वो सब के सब अंदलुस के ज़ख़ीरा-ए-उलूम की तरह हफ़्तों और महीनों जलते रहीं!

    और ये हुनरवर लड़का! शायद पुश्तों ही से इस के घराने में चेहरे मिस्कीन, आँखें मज़लूम और उंगलियां हुनरवर चली रही हैं। उसने अदावत से लड़के की तरफ़ देखा है और अपनी डायरी में कुछ नोट करने लगा है।

    बस। इस की उंगलियां ही तो काम की हैं। बाक़ी तो ये कुछ... उसने अपने दिमाग़ को उंगली से ठोंका है। जी कुछ उस का माईंड क्रैक है। बस जी उस की उंगलियां रुकीं और दिमाग़ चला!

    उस्ताद बिलावजह ही हंस पड़ा है।

    और इस लड़के का माईंड वाक़ई क्रैक है। इस के हाथ रुके और दिमाग़ चला। ये ख़ाली बैठता है तो उसे हर तरफ़ मकड़ियां नज़र आती हैं। मकड़ी तो इस की सबसे बड़ी कमज़ोरी है।

    और ये बातें क़ालीन बाफ़ी की तहक़ीक़ से क़तई ताल्लुक़ नहीं रखतीं, इसलिए उनका ज़िक्र भी फ़ुज़ूल है।

    उस्ताद बातों में लग गया है और लड़के की नज़रें दालान नुमा तवील कमरे के कोने से जा लगी हैं जहां एक बड़ी मकड़ी जाला तन रही है। ये मकड़ी उस के होश-ओ-हवास पर मुसल्लत होती जा रही है। वो मकड़ी से डरता है। कई मर्तबा तो बेहोश हो चुका है। पाख़ाने के कोने की तन्हाई में जा लातिनती मकड़ी को घूरे जाओ तो वो आपसे आप आदमी से मुशाबेह मालूम होने लगती है। ऐसा मालूम होता है गोल गोल आँखों और पिलपिले से ठिगने जिस्म वाला नन्हा सा इन्सान आस-पास की हर चीज़ को मुस्तक़िल अपने जाले की लपेट में लिए चला जा रहा है।

    लेकिन शिकागो से आने वाली मुहक़्क़िक़ के पाखानों के कोनों में मकड़ियां जाले नहीं तना करतीं।

    मगर ये लड़का कई मर्तबा मकड़ी के डर से बेहोश हो चुका है।

    और अब वो लगातार मकड़ी को घूरे चला जा रहा है। इस के तन-बदन पर जाले से रींग रहे हैं। इस का चेहरा पीला पड़ गया है। वो बहुत ख़ौफ़-ज़दा है। इतना कि इस का ख़ौफ़ ख़त्म हो गया और उसने रंगीन तागों को बराबर करने वाली लोहे की क़ैंची उठा कर मकड़ी की तरफ़ फेंकी है जवाचट कर परदेसी के कंधे पर जा लगी है। काना उस्ताद अचानक ही खड़ा हो गया है। उसने लड़के को बहुत से तमांचे लगाए हैं।

    और अब लड़के की आँखों में ख़ून उतर आया है। शायद जाला तनती हुई मकड़ी की ख़ौफ़ की इंतिहा ने इस को बे-जिगर कर दिया है।

    और ये मुहक़्क़िक़ का एक और क़ियास है।

    काना, सालाईबी! वो बड़बड़ाता हुआ दालान नुमा कमरे की चौखट पर जा बैठा है।

    काना, यकचशम, एशियाई लोगों के नज़दीक मनहूस और ऐबी होता है, इसलिए कि वो चीज़ों और ज़िंदगी के फ़क़त एक रुख पर नज़र रखता है।

    मगर कुछ लोग तो दो आँखें रखकर भी एक ही रुख को देखते हैं और यही उनकी पालिसी क़रार पाती है।

    मगर इन बातों का तो मेरी तहक़ीक़ से कोई ताल्लुक़ ही नहीं।

    परदेसी मुहक़्क़िक़ ने अपने आपको बुरी तरह सरज़निश की है और दालान नुमा कमरे से निकल गया है।

    इक फ़ीरोज़ी, दो मुश्की, चार ख़ाली, उगला सफ़ैद है फ़ीर, दो।

    उसने अपनी एक आँख से नक़्शे को घूरा है। दो तिर्छे मुतवाज़ी ख़ुतूत के पहलू में पाँच का हिंदसा और इस के पहलू में दो ऊपर तले नुक़्ते और ये अलामत है ख़ाली की।

    उसने फिर से आवाज़ लगाई।चार ख़ाली। उगला सफ़ैद है फ़ीर, दो ख़ाली।

    आज वो बार-बार रुका है और इस ने नक़्शे को ग़ौर से देखा है, यूं जैसे उस की संगीत टूट रही हो और ये उस की क़ालीन बाफ़ी की तारीख़ में पहला इत्तिफ़ाक़ है। इस का ज़हन बार-बार भटका है।

    या दातागंज बख़श! ये मेरी शिकार-गाह पूरी करवाईओ, तो ऐसा करूँ। ऐसा करूँ कि सब देखें!

    उसने धागों की छदरी दीवार के साथ बैठे-बैठे एक अजीब और मुबहम मिन्नत मानी और जाने-पहचाने चेहरे को देखकर मुस्कुराया है और फिर वो टूटी फूटी ज़बान में उस्ताद से मुख़ातब हो गया है। उस्ताद को मुतलक़ पर्वा नहीं कि एशिया की क़ालीन बाफ़ी पर सैर-ए-हासिल मक़ाला लिखा जाये, वो तो फ़क़त अपने आपको और ना-मुकम्मल शिकार-गाह को, जो ईरान तूरान से आने वाले उस के बाप दादा बनाते चले आए थे, नुमायां करने का ख़ाहिशमंद है।

    वो तूर के आगे आसन जमाए इन लड़कों को भी सामने लाने का क़ाइल नहीं जिनकी उंगलीयों ने इस शिकार गाह में बेशुमार शेर, चीते, मोर, चीतल मुक़य्यद कर दिए।

    एक, दो, तीन, चार... नौ।

    परदेसी ने चुपके चुपके लड़कों की तादाद को गुना है। चार और पाँच के दरमयान आसन जमाए वो लड़का मौजूद नहीं और कोने में मकड़ी बदस्तूर जाला तन रही है।

    और वो कहाँ है, तुम्हारा वो पुश्तैनी हुनर-मंद। उसने सोचा और फिर टूटी फूटी ज़बान में इस की अदमे मौजूदगी का सबब दरयाफ़त किया है।

    जी वो गया। बेकार हो गया। उसने तास्सुफ़ से हाथ हिलाने के बावजूद ज़ाहिर किया है कि इस को इस की परवाह नहीं।

    ये क़ालीन बिक गया जी। उसने बात काटी।

    किस ने ख़रीदा?

    एक अंग्रेज ने। उसने बड़ी तमकेनत से अपना शेर का सा जबड़ा फैलाया है। बड़ी बड़ी मशीनां लाछडयां, पर ऐस वर्गा क़ालीन कधी वी उतार ही ना सके। मशीन तो फिर मशीन हुई जी

    अब वो बेनियाज़ी से नक़्शा फैलाने लगा है।

    वो तुम्हारी मशीन किधर गई?

    कौन जी? वो तजाहुल-ए-आरिफ़ाना के तौर पर चौंका है।

    वही लड़का!

    वो तो जी बेकार हो गया। इस की उंगलियां ही ख़त्म हो गईं।

    अरे कैसे?

    अजी कोई बात नहीं हुई, ग़रीब मिस्कीन बचा था। माँ बेवा है, दिक़ की मारी। सारे ही इस को दबाते थे। वो सबकी ही ताबेदार थी। पर अब दिन रात के रोगों ने उसे झिल्ली कर दिया है। किसी ना किसी से झगड़ती रहती है। कई दिन की बात है, झगड़ा बहुत बढ़ गया तो ये भी पहुंच लिया। मैंने बोला था नाका उस का माईंड क्रैक है, बस लिपट गया, बहुत गुस्ताख़ी की। ओहनां ने भी कहीं नहीं मारा, बस उंगलियां ही कुचल कर रख दें उस की। ज़रा सा तो है ही, फिर कोई हिमायती भी ना उठा जी। बेकस को तो हिमायती का ही आसरा होता है।

    बड़ा अफ़सोस हुआ। लड़के को ख़ामोश हो जाना चाहिए था।

    ये कैसी बात हुई, काना उस्ताद बहुत हैरान है।वो माँ का वाली वारिस जो हुआ। माँ की हिमायत तो करना ही हुई और बात ये भी है, लोग इस से हसद भी करते थे। बड़ा सड़ते थे जी।

    अचानक ही उस की आवाज़ मोटी हो गई।

    बड़ा हुनर सीख रहा था वो जी और इस की उंगलीयों में तो जादू भरा था। उंगलियां थीं कि मशीन।

    और इस दिन तो तुमने कहा था कि मशीन तो बस मशीन ही हुई।परदेसी ने सोचा, मगर चुप रहा है।

    उस्ताद ने अपनी इकलौती आँख इधर उधर चलाई और फिर कहना शुरू किया है।

    और जी मैंने बड़ी मदद केत्ती उस की।

    यहां पर काने उस्ताद की आवाज़ फिर भारी हो गई है।दस रुपया हफ़्ता, एक गिलास दूध रोज़।

    अच्छा तुम दूध भी देते हो इन लड़कों को?

    परदेसी मुहक़्क़िक़ ने अपनी डायरी में नोट किया।

    तो और क्या जी। दूध तो बड़ी नेअमत है। जिसको दूध दोगे, वही तुम्हारी गोदी में आगरेगा और किस वास्ते माँ के गौडों जन्नत आगई है। इसी दूध की ख़ातिर। अपनी धन में उसने नक़्शा एक-बार फिर उठा लिया है और शायद परदेसी ने इस मख़सूस किस्म के क़ालीन पर जो शिकार गाह के नक़्शे पर तैयार किया जा रहा है, अपनी तहक़ीक़ मुकम्मल कर ली है।

    मैंने अपनी इस तहक़ीक़ के सिलसिले में फ़ारसी पढ़ी, ताजीक और उर्दू सीखी, समरक़ंद-ओ-बुख़ारा गया। इस्फ़िहान, कोइटा और क़िस्सा-ख़्वानी के बाज़ार में क़ालीनों की मंडीयां देखें। रोईं घुसने की ख़ातिर बाज़ारों में फैलाए हुए क़ालीन और उन पर से गुज़रते हुए क़ालीन बाफ़ों और का लेन ख़रीदने और फ़रोख़त करने वालों के क़ाफ़िले, क़ालीनों के अंबारों से अटाटट ख़ेमों में बड़ी तमकेनत से दोज़ानू बैठे, अलिफ़ लीलवी डाढ़ियों और पगड़ियों वाले ताजिर, सच्ची चीनी के फूलदार सुर्ख़ और नीले रूसी चाय दानों और ताँबे के नक़्शीन समावारों में भबकती चाय और खनकते फिंजानों के तमाम पस-ए-मंज़र को अपने ज़हन में समेटा और यहां पर आकर शायद मेरी तहक़ीक़ मुकम्मल हुई। जबकि मैं ख़ुद इस तान्नी पर लरज़ते रंगों में से एक तार को भी इधर से उधर नहीं गुज़ार सकता।

    और मेरी ये उंगलियां कितनी बेहुनर हैं। उसने बग़ौर अपनी मख़रूती और सेहत मंद उंगलीयों को देखा है और उन उंगलीयों को याद किया है जिनमें पुश्तों का जादू भरा था, जिनकी पुश्त पर ख़ूबसूरत और मुहैय्यर-उल-उकूल उलवानें, शालें और अखरोट की लक्कड़ी पर उभरते नफ़ीस-ओ-नाज़ुक नक़्श थे। वो उंगलियां, जिनके गुम हो जाने पर उस्ताद को नक़्शा बोलते वक़्त रवानी की कमी बार-बार महसूस हो रही है और मैं ख़ुश हूँ क़ालीन बुनने वालो कि तुम्हारी संगीत में से एक संगत और बिछड़ी।

    पहले तुमने उन चिनारों को गम क्या, जिनके तनों से टेक लगा कर तुम्हारे आबा-ओ-अजदाद ने उलवानें और शालें तैयार कीं। तुम अपने पीले, बदवजे़ और तिलस्माती नक़्शे हाथों में उठाए इधर से उधर भटकते फिरे... और अब ख़ैर में ख़ुश हूँ कि मेरा थीसिस मुकम्मल है और अब तुम अपनी ना-मुकम्मल शिकार गाह को बहरहाल पूरा कर ही लोगे।

    परदेसी दालान नुमा कमरे से बाहर निकल आया है और नीली मर्सेडीज़ में बैठ रहा है और उसने देखा है कि वो नीम ब्रहना छोटा सा जिस्म आप अपने तौर पर मुकम्मल है। इस का सीधा हाथ जो प्लास्टर में है, गले के साथ लटके रूमाल में झोल रहा है। दूसरे हाथ में पकड़ी हुई लक्कड़ी से वो लोहे के एक बड़े पहीए को गर्दिश दे रहा है। खिड़की की सलाख़ों से कूद कर बाहर आती हुई मंझी हुई गोनजीली आवाज़ यहां से वहां तक रही है।

    फ़ीर सात ख़ाली, दो उरीब नाल, इक तूती रंगे। फ़ीरइक उरेब, एक मुश्की नाल गुलाबी, फ़ीर ग्यारह ख़ाली एक रंगे।

    आहू जी।

    छोटी छोटी सी बे-हक़ीक़त आवाज़ों का कोर्स बाहर आया और लोहे का ये पहिया लड़के समेत गली के नुक्कड़ से ग़ायब हो गया।

    नंगी मुर्ग़ियां

    उन्हें कपड़े पहना दो।

    मेरा दिल बार-बार सदा देता है लेकिन मेरी कोई नहीं सुनता। लोग मेरी बात इसलिए नहीं सन सकते कि उन्हें बातें करने का बहुत शौक़ है। कुच, कुच, कुच, वो बातें किए जा रहे हैं। मिली जुली आवाज़ों में दुनिया ज़माने की बातें किए चले जा रहे हैं। मसलन एक ज़ुल्फ़ बुरीदा अनटलकचोइल ख़ातून तक़रीरी मुक़ाबले के अंदाज़ में धुआँ-धार फ़र्मा रही है किआज पाकिस्तानी औरत घर की चारदीवारी से इसलिए निकल आई है कि उसे मईआर-ए-ज़िंदगी बरक़रार रखना है। घर की आमदन और ख़र्च में तवाज़ुन क़ायम रखना है। आज की पाकिस्तानी ख़ातून के कांधे पर दुहरी सलीब धुरी है। वो कमा भी रही है और ख़ातून-ए-ख़ाना के फ़राइज़ भी अंजाम दे रही है।

    एक दूसरी आवाज़ इस तक़रीर करने वाली को मुख़ातब कर रही है जिसकी कलाई में आध सेर वज़न के सोने की चूड़ियां दमक रही हैं। तो ने आज फिर चूड़ीयों का सेट बदल लिया है और ये चूड़ियां तो पिछले सीटों की चूड़ीयों से कहीं ज़्यादा चौड़ी और मोटी हैं। वो शर्मा गई है।

    तुझे क्या दुख है, मेरा मियां ला कर देता है।

    मगर चूड़ीयों का ये चौथा नया सीट है।आवाज़ में रशक का झलसाओ है। कहीं ऐसा तो नहीं कि तेरा मियां।

    मगर उनको कपड़े, कपड़े कौन पहनाएगा।

    मेरी आवाज़ नकार ख़ाने में तूती की आवाज़ बन गई है। ज़बान से निकलते हुए सारे अलफ़ाज़ कट कट कर बिखर गए हैं। जुमले का तार-ओ-पोद बिखर चुका और अब बोलने से ज़्यादा लिबासों के कपड़ों की क़ीमतें सुनना ज़्यादा मुनासिब है। सरसब्ज़ लॉन पर-गल अनार की खुलती हुई कलीयों से लदे अनार के दरख़्त से ज़रा परे, पीली पीली क़ंदीलों जैसे गुच्छों से सजे अमलतास के साय में हम इज़ी चेयरज़ पर बैठे हैं। हमारे आगे शामी कबाबों, समो सुमों और चिप्स से लदी फंदी ट्रे में चाय की प्यालियां धरी हैं। ये चीज़ें हम बरस हा बरस से बिलानागा खाते खाते उकता क्यों नहीं गए, मैं हैरान हूँ।

    बादलों से कजलाए आसमान तले चाय की पयालीयों से उठती उठती गर्मगर्म भाप एक ख़ुशनुमा और ख़ुश-रंग मंज़र की तकमील कर रही है।

    मगर वो, वो जो नंगी।

    एक आवाज़ अपने लिबास की क़ीमत एक सौ बीस रुपया फ़ी गज़ के हिसाब से बताने लगी है और ये उस का रोज़मर्रा का लिबास है। कई आवाज़ें कमाल है, हद है, की सदा के साथ कपड़े की आला क्वालिटी, नफ़ीस प्रिंट वग़ैरा की तारीफ़ में रतब-उल-लिसान हो रही हैं। इसलिए अधूरे फ़िक़रे का तारो पोद फिर बिखर गया है और अलफ़ाज़ शॉट ब्रेक के वालों की तरह रिश्ते से निकल निकल कर पाताल में गिर रहे हैं।

    और उनको Resumingके साथ यूं नहीं जोड़ा जा सकता कि एक सदा अब इस दुकान का पता दरयाफ़त कर रही है जहां एक सौ बीस रुपय और एक सौ पच्चास रुपय फ़ी गज़ ही के हिसाब से कपड़ा मिलता है और कई आवाज़ें बैयकवक़त और बैक ज़बान उस दुकान बल्कि इन तमाम दुकानों का पता नोट करवा रही हैं। यानी कि इस कार-ए-ख़ैर में कई दर्द मुश्तर्क हैं कि पाकिस्तान की औरत हर सुबह घर को अल्लाह की राह पर छोड़कर बसों, रिक्शों, गाड़ीयों में बैठ कर आमदन और ख़र्च में तवाज़ुन क़ायम रखने की ख़ातिर मुँह-अँधेरे निकल पड़ती है और अब ये उस का मुक़द्दर है और ये भी कि वो बावक़ार पैरहन में मलबूस रहे और हमने कई ऐसी बस्तीयों को।वग़ैरा वग़ैरा, ताकि तुम देखो और इबरत पकड़ो।ए आँखों वालो! और मैं कितनी देर से ये सोच रही हूँ कि क्या मुझसे बेहतर।हाँ मुझसे कि मैं इतनी देर से कुछ कहना चाह रही हूँ और मेरे मुँह से निकलने वाले हर फ़िक़रे का तारो पोद बिखरता है। हर शॉर्ट ब्रेक के साथ मोती की लड़ी टूटती है और मोती सरक सरक कर पाताल को जाते हैं।

    तो गोया मुझसे बेहतर वो नहीं जो चुप-चाप अपने वीरान कमरे की दहलीज़ पर खड़ी हम सबको ख़ाली ख़ाली नज़रों से देखती और कभी नहीं बोलती है और जिसके बारे में हम अंदाज़े लगाते हैं कि वो हर जगह पर से सरक रही है, खिसक रही है वो आफ़ साईड आफ़ दी स्टैम्प हो चुकी है।

    और हम सब अपने अपने दिल में ख़ुश, मुतमइन और मग़रूर हैं कि हम अपनी जगह पर क़ायम हैं जबकि वो फिसल रही है, फिसली जाएगी और बिलकुल फिसल जाएगी। हम सब इसी तरह मुतमइन और मग़रूर हैं जैसे हम किसी गुज़र जानेवाले के क़ुल पढ़ते वक़्त होते हैं कि हम मौजूद हैं और हमारे हाथ दानों और गुठलियों पर मज़बूत हैं और हमारे जिस्म फ़िलहाल लट्ठे के सफ़ैद कफ़न में मलफ़ूफ़ होने की बजाय एक सौ बीस से एक सौ पच्चास और एक सौ अस्सी रुपया गज़ के कपड़ों में मलबूस हैं और अभी लोबान और अगर बत्तीयों की इन ख़ुशबूदार धोऊँ के मरगोलों के मुहीत से निकल कर हम अपनी गाड़ीयों का रुख इस बाज़ार की तरफ़ फेर देंगे जहां ख़ूबरू, तनोमंद जवान और उधेड़ उम्र बज़्ज़ाज़ कि दौर-ए-क़दीम में इस अंदाज़ के पारचा फ़रोशों को बज़्ज़ाज़ ही का नाम दिया जाता था और वो इलाक़ा जहां सिर्फ पारचा जात ही फ़रोख़त किए जाते थे, बुज़ अज़्ज़े के नाम से किया जाता था। मगर सदमा तो यही है कि इस मार्कीट की नौईयत वो ना थी कि इस को बज़्ज़ाज़ा कहा जाये। हाँ तो मैं कह रही थी कि बज़्ज़ाज़, ख़ुश-रंग, तिरछी पगड़ियाँ सुरों पर सजाये और उनके शिमले कंधों पर डाले कपड़े के नरम नरम रेशमें सिलसिलाते थान हमारे क़दमों में बिछा बिछा देंगे।

    एक-बार देखा है दुबारा देखने की हवस है।

    हिलाली वज़ा के तर्ज़ पर बनी मार्कीट की दुकानें देखते चले जाने के बाद सोच में पड़ जाती हूँ। क्या बात है? क्या इसरार है? पर भेद भेद ही होता है, उसे खोल ही कौन सकता है। मेरे ज़हन में गए दिनों की बाज़गश्त है। मुसलसल बरसती फुवार तले भीगी भीगी कीचड़ से आलूदा सड़क पर चलती हुई इस शाम के अँधियारे में हिलाली वज़ा की मार्कीट के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चक्कर लगा रही हूँ। मेरे साथ छोटू भी भीग रहा है। इस की मुट्ठी में मज़बूती से पकड़े हुए तीन क़लम हैं जिनकी नबीं वो बदलवाना चाह रहा है। इस का मुँह फ़क़ हो रहा है, चेहरे पर हवाईयां सी उड़ रही हैं। सुबह मेरा इमतिहान है और मुझे एक इमतिहानी गत्ता भी चाहिए। अजीब ही लोग रहते होंगे यहां। क्यों?

    इसलिए कि बाज़ार में सिर्फ जूते और कपड़े और औरतों के मेक-अप का सामान है। फिर बंदा क़लम की निब कहाँ से बदलवाए और इमतिहानी गत्ता कहाँ से ख़रीदे। यहां के लोगों को और किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं होती? सिर्फ़। वो अपने कलिमों को तास्सुफ़ से देख रहा है। अब तो इतनी रात गई है

    मैं इस वक़्त के गुज़र जाने पर तास्सुफ़ कर रही हूँ जब नर्सल और क्लिक के क़लम चलते थे और निब बदलवाने की ख़ातिर बाज़ारों में मारे फिरने के बजाय चुप-चाप क़लमदान से क़लम तराश निकाल कर ज़बान-ए-ख़ामा तराश ली जाती थी। बंदा इतमीनान से लिखता और सरीर-ए-ख़ामा से लुतफ़ अंदोज़ होता था और हमारी उम्र तो नबीं बदलवाते और नबों वाले क़लम खोते ही गुज़री। वो फिर आँखें फाड़ फाड़ कर इधर उधर देख रहा है और किसी स्टेशनरी की दुकान को तलाश कर रहा है।

    और मैं, मैं चाहती हूँ कहा की आँखों पर हाथ रख दूं ताकि वो और इस की मासूम नज़र उर्यानी के इस बे-हिजाब मंज़र को ना देख सके।

    क्यों?

    इसलिए कि आप ख़ुद ही सोचें। इस सिरे से इस सिरे तक पूरी मार्कीट के तमाम दरूँ में ब्रहना लाशें अपनी लंबी की हुई गर्दनों से टंगी हूँ और नीचे आग के अलाव रोशन हूँ और नंगी लाशों की चर्बी आग की हद त-ओ-तमाज़त से पिघल पिघल कर सारी फ़िज़ा को चुरा हिन्दा कर रही है।

    सतारालओब! उस की सत्तर पोशी कौन करेगा जबकि हर दर में टंगी हुई ब्रहना लाशों के ऐन मुक़ाबिल दुकानों में क़ीमती दुकानों में क़ीमती रेशमी नरम और सिलसिलाते थानों के थान पट्टे पड़े हैं। यहां क्या-क्या यहां के रहने वाले सिर्फ़ कपड़ा पहनते हैं और कुछ नहीं ख़रीदना चाहते। यहां और चीज़ें क्यों नहीं बिकतीं? वो एतराज़ कर रहा है। क्यों तुम क्या चाहते हो? यहां पर किया बके,क्या तुम्हारा ख़्याल है कि यहां मगर फ़ो रुटीन और एफ़ सकसटीन की दुकानें होतीं। मैं ज़च हो कर बोल रही हूँ, इसलिए कि फुवार में तेज़ी और कटीला-पन बढ़ गया है और स्टैंड पर कोई रक्षा नहीं नज़र रहा है। हूँ भी तो क्या हर्ज है। वो मेरे ज़च होने का नोटिस लिए बग़ैर कह रहा है और हसरत से उन कलिमों को भेंच रहा है जिनकी नबीं लिख ही नहीं सकतीं।

    बरसती फुवार का तृषा और कटीला-पन बढ़ गया है। मैं अंदर बरामदे में दाख़िल होना नहीं चाहती कि मुझसे ब्रहना औरतों! तौबा मुर्ग़ीयों का नंग बर्दाश्त नहीं होता।

    मुझे यूं लग रहा है जैसे ये नंगी औरतें, तौबा! नंगी मुर्ग़ियां क़ीमती पारचा जात के मुक़ाबिल में इसलिए टांगी गई हैं कि उनको चढ़ाया जाये और कहा जाये कि अगर तुम अपनी और अपने ख़समों की गाढ़ी और रिश्वत की पतली कमाईआं ख़र्च करके ये रेशमें सिलसिलाते नरम कपड़े नहीं ख़रीदोगी तो तुम्हारी ज़िंदा लाशों को इस तरह ब्रहना, सलीब पर टंगना पड़ेगा और नीचे नार-ए-जहन्नुम की दहकते अँगारे जिनकी हिद्दत से तुम्हारी चर्बीयाँ पिघल पिघल कर फ़िज़ा को चुरा हिन्दा कुर्ती जाएँगी, कुर्ती जाएँगी।

    मैं इस वक़्त ये सब बड़ी शिद्दत से सोच रही थी।

    लेकिन यहां हरी-भरी लॉन पर अनारकलियों से लदे अनार के दरख़्त ज़रा परे हट कर बिछी हुई इज़ी चेयरज़ के हलक़े में बैठ कर उस के मुताल्लिक़ एक हर्फ़ भी सूचना और याद करना नहीं चाहती, मबादा सोच हर्फ़ और फिर लफ़्ज़ बन जाये और लफ़्ज़ों की कलिमों की तराविश शुरू हो जाये।

    मैं अब सिर्फ अपने सर पर साया-फ़गन ऊंचे और हरे-भरे अमलतास को तक रही हूँ जिसमें नाज़ुक पत्तियों से बनी पीली क़ंदीलें हमारे सुरों तक झुक आई हैं, सब बोल रहे हैं और मैं ख़ामोश ख़ामोश हूँ। इसलिए कि वो सब बोलने वाली बातें बोल रहे हैं।

    और मैं, मैं सिर्फ उस को तक रही हूँ जो अपने कमरे के दरवाज़े के फ्रे़म में तस्वीर की तरह जुड़ी खड़ी है और हमारी तरफ़ हैरत से तक रही है। इस की आँखों में अथाह तन्हाई और अजनबीयत है। ये अब हमसे नहीं है, इस का Domicileबदल चुका है। उसने और ही बस्ती बसाई है। कोई उस के लिए ख़बत की बात सुना रहा है।

    ये अब हाथों से पर्स ले लेती है और खोल कर नोट गिनना शुरू कर देती है, फिर चेंज माँगना शुरू कर देती है। जल्दी जल्दी पूछती है, changeहै? तुम्हारे पास चेंज है, चेंज है?

    कहीं ऐसा तो नहीं ये Changeयानी तबदीली चाहती हो।

    मगर में ये बात मुँह से निकालने से पहले ही अपने मुँह पर हाथ रख लेती हूँ। मबादा लोग ये ख़्याल ना करें कि में भी। में भी।

    मैं ऐसी बातें कभी नहीं करूँगी। अलबत्ता में इस वक़्त भी और इस वक़्त भी इस आवाज़ को याद कर रही थी जो अक्सर रात को पिछले-पहर सुनाई देती है। सच्च कितनी भयानक और करब में डूबी हुई होती है, वो आवाज़, वो पुकार पुकार कर जैसे बस्ती को ख़बरदार करती हो। उफ़ ख़ुदाया, रात के पिछले-पहर कटीली और बर्फ़ानी सर्दी में, बरसती बारिश में जब वो आवाज़ सुनती हूँ तो अपने लिहाफ़ में दुबकी दुबकी काँपने लगती हूँ। मेरा कलेजा काँप जाता है।

    इस दिन नंगी मुर्ग़ीयों के वजूद से पिघलती चर्बी की चुरा हिंद और उनके मुक़ाबिल सजी हुई पारचा जात की दुकानों और चलते कैसेटों की कान फोड़ आवाज़ों के दरमयान खड़े हो कर मैंने इस आवाज़ का इंतिज़ार किया था कि वो अगर यहां सुनाई दे जाये तो में इस से दरख़ास्त करूँ कि यहां पर खड़े हो कर अपनी इसी मुहीब और करब आलूद आवाज़ में नंगी मुर्ग़ीयों से ख़िताब करे। मगर वो आवाज़ तो पिछले-पहर आती है जब सारा आलम सोता है। इस के ट्राने से मेरी आँख खुल जाती है और मैं लिहाफ़ तले लरज़ने लगती हूँ।

    मैंने उस को देखा भी नहीं तो पाऊँगी कहाँ?

    इरादा करती हूँ कि इसी से कहूं कि चलो तुम एक लैक्चर दे डालो, मगर मुझे मालूम है कि वो बोलेगी ही नहीं। मैंने उस वक़्त वहां खड़े हो कर उस को भी याद किया था। इस वक़्त जब कि एक नौजवान लड़की अपनी माँ की बान्हा खींच खींच कर बड़ी इल्तिजा से सामने फैले हुए रंगों की क़ौस-ए-क़ुज़ह की तरफ़ मुतवज्जा कर रही थी। इस के बाल कटे हुए थे। चेहरे पर एक किस्म की झेंप थी जिसमें करब की आमेज़िश ने इस के भोले भूले चेहरे को धुआँ धुआँ किया हुआ था। मैंने पहली बार इस पर नज़र डाली तो मुझे शक हुआ, शायद ये तास्सुर ।नंगे बदन टंगी हुई इन लाशों ने क़ायम किया है जो दरूँ में सजे हुए आतिश-कदों के साथ साथ क़तार दर क़तार टंगी हुई थीं और उनमें से कुछ सीख़ पर चढ़ी हुई थी और उनकी चर्बी शोलों की हिद्दत-ओ-तमाज़त से पिघल पिघल कर फ़िज़ा में चरा हिंद फैला रही थी।

    पैराहन पोश मोटी मोटी मुर्ग़ियां कों, कों, कुर्ती दुकानों में रही थीं, जा रही थीं , कों, कों। जो टेलरज़ की दुकान में अँगूठीयों को उंगलीयों में फंसाती और फिर उतारती हुई। मैंने दुबारा लड़की के चेहरे पर नज़र डाली इस मर्तबा तास्सुर वाज़िह था। ये वो तास्सुर ना था जो ज़माने की ब्रहंगी पर नज़र पड़ने से पैदा होता है बल्कि ये वो झेंप थी जिसको नफ़सियात वालों ने अहिसास-ए-कमतरी का नाम दिया है और हक़ीक़त भी यही है कि ज़माने की ब्रहंगी को देखकर शरमाना लाहसिल है। असल बात तो ज़ात की ब्रहंगी पर झेंपना है और वो ख़ुद अपनी ज़ात पर झेंप रही थी कि इन्सान की ब्रहंगी इस पैराहन से बेहतर है जो घटिया स्वदेशी कपड़ों से तैयार किया गया हो। आज का तो दर्ज़ी भी ऐसे पारचे को हाथ लगाता है तो सौ-बार धोने के बाद भी अपने हाथ को नापाक ही तसव्वुर करता है जैसे वो ग़लाज़त उस की उंगलीयों से लिपट कर रह गई हो।

    दिल-ए-नादान... बेवजह इस फ़िक़रे की बाज़गश्त तकरार और इआदा मेरे अंदर वजूद में आया है और अब मैं हैरान हूँ कि ऐसा क्यों हो रहा है। अभी तो मुझे माँ के चेहरे के तास्सुरात से दो-चार होना है।

    और माँ ख़जल है, परेशान है, शर्मिंदा है। दरअसल उस की हैसियत ऐसी नहीं कि इस को इस बाज़ार में आने का इज़न दिया जाये। क्या तुम भी मेरी तरह लाहासिल की तलाश में हो, स्टेशनरी और बुक स्टॉल की तलाश। क्या तुमको तो ख़बर नहीं लोग अब बुक स्टॉल रखने में दिलचस्पी नहीं रखते कि किताब महंगी है और पैराहन पोश मुर्ग़ी किताब की दुकान में दाख़िल होना हमाक़त समझती है। हमाक़त ही तो हुई ना। पैसे और वक़्त दोनों ही का ज़ियाँ करना हमाक़त ही तो है। घाटे का सौदा।

    लेकिन में इस से ये सवाल नहीं कर सकती जब कि में इस को जानते हुए भी इस से ये पूछने की जुर्रत नहीं कर सकी कि तुम लोगों के पर्स लेकर इस में क्या तलाश करती हो, चेंज क्यों माँगती हो? चेंज से तुम्हारी क्या मुराद है, तबदीली या पैसा?

    देखो लोगो! हम कितने बुज़दिल होते हैं। हम एक सवाल भी नहीं कर सकते। अँधेरी सर्द रात के सन्नाटे में नंगी और वीरान सड़कों पर इस की आवाज़ गूंज रही है और में अपने नरम गर्म लिहाफ़ के अंदर दुबकी हुई लरज़ रही हूँ। बाअज़ बातों, बाअज़ आवाज़ों और बाअज़ ख़ामोशियों में कितनी हैबत होती है।

    मगर नहीं, में तो इस हिलाली वज़ा की मार्कीट में खड़ी हूँ जिसके एक दर के सतून की आड़ में खड़ी वो लड़की मुल्तजी निगाहों से अपनी माँ को ख़ूबसूरत और क़ीमती थानों से मामूर दुकानों के अंदर जाने की तरग़ीब दे रही है। इस की माँ की आँखें ख़ाली होती जा रही हैं। उनमें अब कुछ नहीं नज़र रहा है। मुझे यूं लग रहा है कि वो भी अपना Domicileबदल लेगी और में इस मार्कीट के दर की बजाय पीली पीली क़ंदीलों वाले अमलतास की गहिरी सबज़ और घनेरी छाओं के इज़ी चेयर पर बेफ़िकरी से बैठी हूँ। हमारे सामने मौसमों और क्रीम रोलज़ से लदी हुई ट्रे सजी है और पयालीयों से चाय की गर्मगर्म भापें उठ उठकर फ़िज़ा में तहलील हो रही हैं। कमज़ोर जज़्बों और बोदी तमन्नाओं की तरह और अब मुझे ख़ौफ़ है कि माँ लपकती हुई आकर मेरे हाथ से पर्स छीन लेगी, उसे खोलेगी, बंद करेगी।

    चेंज है? चेंज है?

    मैं चुपके चुपके दिल में दुआ कर रही हूँ कि ये ऐसा ना करे आज ही तो वो फिसलती फिसलती हमारे दरमयान से निकल कर वक़्त के पानियों के गहरे भंवर में जागरी है। तीन नौजवान लड़के शायद यूंही मटरगश्ती के लिए आए हुए हैं। उनमें से एक हैरत से चारों तरफ़ देखता है।

    ताज्जुब है, यहां और कुछ नहीं बकता। वो शायद ख़ुदकलामी करता है। ये लड़का बहुत तवाना और भोली-भाली शक्ल वाला है।

    मगर दूसरा जो बेहद क़ीमती लिबास में मलबूस और तरह-दार है, अपने गले में फंसी हुई टाई को ढीला करते हुए एक वाज़िह जवाब देता है।

    नहीं यार, यहां क्या नहीं मिलता, सब कुछ मिल जाता है। वो हैरत से कभी टेलरज़ की दुकानों और कभी पारचा फ़रोशों की दुकानों की तरफ़ देखती हुई लड़की की जानिब देखकर आँख मारता है, लड़की मुस्कुरा देती है। जवाबन सीधी आँख के गोशे को दबा कर घूम जाती है।

    माँ और भी ज़्यादा नर्वस होने लगी है और वो अपना बटवा तेज़ी से खोल रही है और बंद कर रही है।

    देखो! तुम अपना बटवा बंद कर लू और किसी से ना पूछना कि चेंज है? मेरा जी चाह रहा है कि आगे बढ़कर इस से कहूं। मगर मैं जानती हूँ कि मैं कुछ ना कह सकूँगी। मैं तो इस से भी कुछ ना कह सकी थी। जब वो आख़िरी मर्तबा चार्ज देने लाई गई थी। हम सब इसी तरह अमलतास के पीली क़ंदीलों से मुज़य्यन घने पेड़ के साय में अपनी इज़ी चेयरज़ पर इस तरह जकड़े बैठे थे जैसे किसी ने हमें मेख़ों से गाड़ दिया हो। हम सब उस के चेहरे के इस करब को इस तरह देखते रहे जैसे टैलीविज़न की स्क्रीन पर कोई अलमीया ड्रामा हो रहा हो और हम इस को महवियत से अनजवाए कर रहे हूँ। वो लम्हा जो चार्ज देने से मुताल्लिक़ था, इस पर कैसा गुज़रा, उस का इबलाग़ कैसे होता, जबकि मुकालमा साक़ित था और हम अभी ऐक्शण की तफ़हीम का हौसला अपने अंदर पैदा नहीं कर सकते, इसलिए कि हम मसरूफ़ हैं। जदीद अह्द की जदीद मसरूफ़ ख़वातीन। ताहम उस के बाद हमने उस की पूरी क़ुव्वत से गेट की तरफ़ यूं दौड़ते देखा जैसे बंदूक़ से गोली निकल कर अपने हदफ़ की तरफ़ लपकती है। गेट का छोटा दरवाज़ा अगरचे खुला था लेकिन उसने अपने दोनों हाथों से चीर को बड़े दर को वाक़िया और सहरा की बाद-ए-सुमूम की तरह निकल गई थी।

    और मुझे यूं महसूस हो रहा था जैसे में ऐसे सहरा में खड़ी हूँ, जहां सन्नाटा है, थौर के दरख़्त हैं, नंगी मुर्ग़ियां हैं और उनके अंदर से पिघलती हुई चर्बी की चुरा हिंद है जो अपने ही महवर पर यूं रुक गई है कि यहां अब हवाओं के क़दम थम चुके हैं।

    बारिश की छमा छमाछम की आवाज़ में तेज़ी गई है।

    लोगो! सुनो, जब तुम बे लिबासों को लिबादे ओढ़ने पर आमादा ना कर सको तो अपनी निगाहें नीची करलो। लिहाफ़ की नरमी और गर्मी तले लरज़ते हुए सुनी हुई ये सदा उस वक़्त यहां साफ़ सुनाई दे रही है। सामने वाली खिड़की के तन से धीरे धीरे वो लिबास सरक रहा है जिस पर वो शर्मसार थी। नंगी और लंबी गर्दनों वाली ब्रहना लाशें ही लाशें, मैंने घबरा कर नज़र नीची कर ली और सड़क की तरफ़ देखा। एक रिक्शा धड़ धड़ करते, धीमा होते हुए मुझे मुख़ातब कर रहा था। में एक ही जस्त में रक्षा के अंदर थी। दूसरे लम्हे मैंने महसूस किया, छोटू के चेहरे के मलाल में इज़ाफ़ा हो गया और वो बग़ैर नबों वाले कलिमों को बड़े ताल्लुक़ से अपनी मुट्ठी में भेंच रहा था। फ़िक्र ना करो बेटा। मैं तुमको अपना क़लम दे दूँगी।

    रक्षा के घुप-अँधेरे में मैं साफ़ तौर पर देख सकती थी कि ये सुनते ही उस की लंबी लंबी ख़ूबसूरत आँखों में जुगनू से झमक उठे थे।

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    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

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