दस रूपये
स्टोरीलाइन
"यह एक ऐसी कमसिन लड़की की कहानी है जो अपनी उमड़ती हुई जवानी से अंजान थी। उसकी माँ उससे पेशा कराती थी और वो समझती थी कि हर लड़की को यही करना होता है। उसे दुनिया देखने और खुली फ़िज़ाओं में उड़ने का बेहद शौक़ था। एक दिन जब वो तीन नौजवानों के साथ मोटर में जाती है और अपनी मर्ज़ी के अनुसार ख़ूब तफ़रीह कर लेती है तो उसका दिल ख़ुशी से इतना उन्मत्त होता है कि वो उनके दिए हुए दस रुपये लौटा देती है और कहती है कि ये रुपये मैं किस लिए लूं।"
वो गली के उस नुक्कड़ पर छोटी छोटी लड़कियों के साथ खेल रही थी और उसकी माँ उसे चाली (बड़े मकान जिसमें कई मंज़िलें और कई छोटे छोटे कमरे होते हैं) में ढूंढ रही थी। किशोरी को अपनी खोली में बिठा कर और बाहर वाले से काफ़ी चाय लाने के लिए कह कर वह इस चाली की तीनों मंज़िलों में अपनी बेटी को तलाश कर चुकी थी। मगर जाने वो कहाँ मर गई थी।
संडास के पास जा कर भी उसने आवाज़ दी, “ए सरीता... सरीता!” मगर वो तो चाली में थी ही नहीं और जैसा कि उसकी माँ समझ रही थी, अब उसे पेचिश की शिकायत भी नहीं थी। दवा पीए बग़ैर उसको आराम आचुका था और वो बाहर गली के उस नुक्कड़ पर जहां कचरे का ढेर पड़ा रहता है, छोटी छोटी लड़कियों से खेल रही थी और हर क़िस्म के फ़िक्र-ओ-तरद्दुद से आज़ाद थी।
उसकी माँ बहुत मुतफ़क्किर थी। किशोरी अंदर खोली में बैठा था और जैसा कि उसने कहा था, दो सेठ बाहर बड़े बाज़ार में मोटर लिए खड़े थे लेकिन सरीता कहीं ग़ायब ही होगई थी। मोटर वाले सेठ हर रोज़ तो आते ही नहीं, ये तो किशोरी की मेहरबानी है कि महीने में एक-दो बार मोटी असामी ले आता है। वर्ना ऐसे गंदे मुहल्ले में जहां पान की पीकों और जली हुई बीड़ियों की मिली जुली बू से किशोरी घबराता है, सेठ लोग कैसे आ सकते हैं।
किशोरी चूँकि होशियार है इसलिए वो किसी आदमी को मकान पर नहीं लाता बल्कि सरीता को कपड़े वपड़े पहना कर बाहर ले जाया करता है और उन लोगों से कह दिया करता है कि, “साहब लोग आजकल ज़माना बड़ा नाज़ुक है। पुलिस के सिपाही हर वक़त घात में लगे रहते हैं। अब तक दो सौ धंदा करने वाली छोकरियां पकड़ी जा चुकी हैं। कोर्ट में मेरा भी एक केस चल रहा है। इसलिए फूंक फूंक कर क़दम रखना पड़ता है।”
सरीता की माँ को बहुत ग़ुस्सा आरहा था। जब वो नीचे उतरी तो सीढ़ियों के पास राम दई बैठी बीड़ियों के पत्ते काट रही थी। उससे सरीता की माँ ने पूछा, “तूने सरीता को कहीं देखा है। जाने कहाँ मर गई है, बस आज मुझे मिल जाये वो चार चोट की मार दूं कि बंद बंद ढीला हो जाये... लोठा की लोठा होगई है पर सारा दिन लौंडों के साथ कुदकड़े लगाती रहती है।”
राम दई बीड़ियों के पत्ते काटती रही और उसने सरीता की माँ को जवाब न दिया। दरअसल राम दई से सरीता की माँ ने कुछ पूछा ही नहीं था। वो यूंही बड़बड़ाती हुई उसके पास से गुज़र गई, जैसा कि उसका आम दस्तूर था। हर दूसरे-तीसरे दिन उसे सरीता को ढूंढना पड़ता था और राम दई को जो कि सारा दिन सीढ़ियों के पास पिटारी सामने रखे बीड़ियों पर लाल और सफ़ेद धागे लपेटी रहती थी मुख़ातिब करके यही अल्फ़ाज़ दुहराया करती थी।
एक और बात वो चाली की सारी औरतों से कहा करती थी, “मैं तो अपनी सरीता का किसी बाबू से ब्याह करूंगी... इसीलिए तो उससे कहती हूँ कि कुछ पढ़-लिख ले... यहां पास ही एक स्कूल मंसी पाल्टी (म्यूंसिपल्टी) ने खोला है। सोचती हूँ उसमें सरीता को दाख़िल करादूँ, बहन उसके पिता को बड़ा शौक़ था कि मेरी लड़की लिखी पढ़ी हो।”
इसके बाद वो एक लंबी आह भर कर आमतौर पर अपने मरे हुए शौहर का क़िस्सा छेड़ देती थी, जो चाली की हर औरत को ज़बानी याद था। राम दई से अगर आप पूछें कि अच्छा जब सरीता के बाप को जो रेलवाई में काम करता था, बड़े साहब ने गाली दी तो क्या हुआ, तो राम दई फ़ौरन आपको बता देगी कि सरीता के बाप के मुँह में झाग भर आया और वो साहब से कहने लगा, “मैं तुम्हारा नौकर नहीं हूँ। सरकार का नौकर हूँ। तुम मुझ पर रोब नहीं जमा सकते। देखो अगर फिर गाली दी तो ये दोनों जबड़े हलक़ के