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दश्त-ए-इमकाँ

रशीद अमजद

दश्त-ए-इमकाँ

रशीद अमजद

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    ख़ज़ाने वाला ख़्वाब बरसों पुराना था,

    एक सुबह नाश्ता करते हुए माँ ने कहा था... मुझे यक़ीन है कि इस घर में कहीं ख़ज़ाना है।

    उनकी ख़ामोशी पर वो झिजक सी गई... रात मैंने फिर वही ख़्वाब देखा है।

    उसने पूछा... कौन-सा ख़्वाब?

    वही ख़ज़ाने वाला... मैं वहाँ तक पहुँच भी गई थी।

    उसने हँसते हुए कहा... तो फिर निकाल क्यों लाईं?

    बस माँ ने झुरझरी ली... मैं वहाँ तक पहुँच तो गई, लेकिन...

    लेकिन क्या? छोटी बहन ने जल्दी से पूछा।

    जब मैंने हाथ बढ़ा कर उठाना चाहा तो... माँ ने फिर झुरझुरी ली, एक लम्हे के लिए जैसे ख़्वाब उसकी आँखों में मुजस्सम हो गया... किसी ने मेरी कलाई पकड़ ली।

    वो हँस पड़ा... ख़ज़ाने के साँप की बात तो सुनी है लेकिन साँप ने कलाई कब से पकड़नी शुरू कर दी है।

    माँ ने बुरा सा मुँह बनाया और बोली... तुम बस मज़ाक़ ही उड़ाने के लिए हो, लेकिन मैं सच कहती हूँ इस घर में कहीं ख़ज़ाना ज़रूर है, एक दिन तुम... याद रखना बस।

    उसने कँधे झटके... जल्दी से चाय बना दें, दफ़्तर देर हो रही है।

    बस में सवार होते हुए उसे एक लम्हे के लिए माँ की बात याद आई और ख़ज़ाने की नर्म-नर्म गर्मी उसके जिस्म में लहराते लम्स की तरह रक़्स करने लगी, लेकिन दूसरे ही लम्हे उसकी नज़रें अगली सीटों से जा चिपकीं, वो अभी-अभी सवार हुई थी और कन-अंखियों से उसकी तरफ़ देख रही थी। नज़रों ही नज़रों में स्टॉप गया। उसके पास से गुज़रते हुए उसने सरगोशी की... वापसी पर चाय का कप चलेगा ना।

    वो मुस्कुराई और इठलाती हुई आगे निकल गई।

    चाय पीते हुए वो चुप-चुप रही।

    उसने पूछा... क्या बात है, आज हेड मिस्ट्रेस से डाँट तो नहीं पड़ी?

    नहीं तो।

    फिर...

    बस अब तुम माँ जी को हमारे घर भेज ही दो।

    वो चुप हो गया, बहुत देर चुप रहा, फिर बोला... भेज देने में तो हर्ज नहीं और माँ आना भी चाहती है, लेकिन...

    लेकिन क्या?

    सोचता हूँ कि कुछ हाथ खुल जाता तो अच्छा था।

    एक लम्हे के लिए उसे ख़ज़ाने का ख़्याल आया, क्या मालूम वाक़ई घर में कहीं ख़ज़ाना हो... अगर हाथ जाए तो... एक गर्म लहर ने उसके अंदर अंगड़ाई ली।

    क्या बात है? वो हँसी... अंदर ही अंदर मसक रहे हो।

    बस ऐसे ही... उसने सर हिलाया... ख़्वाब भी अजब चीज़ हैं।

    सोचता हूँ अगर ख़्वाब होते तो हम जैसों का क्या बनता।

    वो हँसी... उसी तनख़्वाह पर गुज़ारा करते।

    चंद लम्हे ख़ामोशी रही, फिर बोली... तो कब रही हैं माँ जी?

    जब कहो उसने शाने उचकाए... लेकिन बहनों की शादी हो जाती तो अच्छा था। बाप तो मेरा है नहीं, आख़िर ये सब करना तो मुझे ही है।

    तो मिल कर करेंगे। उसने उसका हाथ दबाया... अब तुम अकेले हो फिर मैं तुम्हारे साथ होउंगी।

    वो कुछ नहीं बोला... बस ख़्याल सा आया कि क्या मालूम घर में कहीं ख़ज़ाना हो ही?

    रात को खाना खाते हुए उसका दिल चाहा कि माँ ख़ज़ाने वाली बात फिर छेड़ ले, लेकिन माँ को उस रात गैस और बिजली के बिलों की फ़िक्र थी कि अगले दिन उनकी आख़िरी तारीख़ थी।

    फिर कई माह गुज़र गए। ख़ज़ाने और ख़्वाब आए गए हो गए। इस दौरान माँ उसकी शादी की बात पक्की कर आई।

    एक सुबह नाश्ता करते हुए माँ ने फिर ख़ज़ाने का ज़िक्र छेड़ा और बोली... रात मैंने फिर वही ख़्वाब देखा है... लेकिन बस... लम्हा भर चुप रहने के बाद बोली...

    बस कोई मेरी कलाई पकड़ लेता है, ठंडे बर्फ़ हाथ वाला।

    बहन ने पूछा... आपने मुड़ कर देखा कि वो कौन है?

    माँ ने ख़ौफ़ से झुरझुरी ली... एक ठंडा बर्फ़ हाथ, मेरा तो सारा जिस्म काँपने लगता है और फिर आँख खुल जाती है।

    वो बोला तो कुछ नहीं लेकिन सोचा... क्या मालूम वाक़ई यहाँ ख़ज़ाना हो और ये कोई ग़ैबी बशारत ही हो?

    अगले दिन माँ और बहनों ने उसके ससुराल तारीख़ मुक़र्रर करने जाना था।

    वो घर में अकेला रह गया, कुछ देर पढ़ता रहा, फिर जाने कैसे ख़ज़ाने का ख़्वाब आहिस्ता-आहिस्ता दबे पाँव उसके अंदर दाख़िल हुआ और लम्हों में सारे वुजूद पर फैल गया।

    उसने किताब एक तरफ़ रख दी और सोचने लगा कि अगर ख़ज़ाना है तो कहाँ हो सकता है?

    बरसों से ख़ज़ाने का ज़िक्र सुनते-सुनते एक-दो जगहें उसके ज़हन में कुलबुलाती रहती थीं, लेकिन दूसरों की हँसी और इस ख़ौफ़ से कि कहीं उसके तजस्सुस का मज़ाक़ उड़ाया जाए, उसे कभी उन्हें देखने की हिम्मत हुई। अब घर ख़ाली देख कर उसने पुराने थैले से छेनी और हथौड़ा निकाला और बड़े दालान की अलमारी के आख़िरी ख़ाने की तरफ़ चल पड़ा। ये ख़ाना उसे हमेशा अंदर से खोखला महसूस हुआ था। क्या मालूम इसके नीचे कोई ख़ुफ़िया ख़ाना हो और इसमें... तख़्ता निकालते-निकालते उसका हाथ ज़ख़्मी हो गया, लेकिन ख़ज़ाने के गर्म-गर्म लम्स ने दर्द का एहसास उभरने दिया। ख़ाने के नीचे कुछ भी नहीं था।

    लेकिन वो मायूस नहीं हुआ।

    सोने के कमरे के फ़र्श का एक टुकड़ा भी उसे मशकूक लगता था। तख़्ते को अपनी जगह जमा कर उसने सोने के कमरे की मग़रिबी दिवार के साथ उन दो ईंटों को निकाला जो ज़रा मुख़्तलिफ़ अंदाज़ से लगी हुई थीं। लेकिन वहाँ से भी कुछ निकला। एक-दो जगहें और भी थीं लेकिन घर वालों की वापसी का वक़्त हुआ जा रहा था।

    अगले चंद दिन शादी की तैयारियों और हंगामों में गुज़र गए। बीवी के आने से घर में कुछ आसानियाँ हो गईं। उसकी तनख़्वाह ने कई रुकी हुई ज़रूरतों को पहिये लगा दिये। जहेज़ की चीज़ों ने ख़ाली घर को बहुत हद तक भर दिया।

    अगले दो सालों में बहनें भी ब्याह कर अपने-अपने घर चली गईं।

    इस दौरान माँ कभी ख़्वाब का ज़िक्र करती तो चंद दिनों के लिए ख़ज़ाने का तसव्वुर उसे एक नई गर्माहट से आशना रखता। वो मौक़ा देख कर मुख़्तलिफ़ जगहों की खुदाई करता रहता। मायूस होता, चंद दिन बाद किसी दूसरी जगह का इंतिख़ाब करता... कुछ दिन ख़ज़ाने का ख़्वाब उसे नर्म-गर्म बुकल में दबाए रखता, फिर आहिस्ता-आहिस्ता ज़िंदगी की रवा-रवी की ठंडक उस पर ग़ालिब जाती।

    माँ भी अब ख़ज़ाने का ज़िक्र सबके सामने करती, शायद उसे बहू के सामने अपने ख़्वाब का ज़िक्र करते झिजक आती थी। लेकिन कभी-कभी जब बहू बावर्ची-ख़ाने में होती तो इधर-उधर देख कर सरगोशी करती... ख़ज़ाना कहीं है ज़रूर।

    वो संजीदगी से पूछता... लेकिन कहाँ?

    और कभी मज़ाक़ से कहता... तो क्या सारे घर को खोद डालूँ, एक घर ही तो है हमारे पास।

    माँ चुप हो जाती और ख़ज़ाने के ज़िक्र पर कई-कई महीनों की धूल पड़ जाती, लेकिन मरने से चंद रोज़ पहले वो तवातुर से ख़ज़ाने का ज़िक्र करने लगी। नाश्ते की मेज़ पर ज्यूँ ही बहू कुछ लेने इधर-उधर होती वो सरगोशी में कहती... फिर वही ख़्वाब... ज़रूर ये कोई ग़ैबी बशारत है।

    ब-ज़ाहिर वो उसकी बात पर तवज्जो देता लेकिन अंदर ही अंदर उसे यक़ीन सा होने लगता कि ख़ज़ाना कहीं है ज़रूर। सबकी नज़रें बचा कर वो उन जगहों को बार-बार देखता जिनके बारे में उसे शुबह था कि वहाँ ख़ज़ाना हो सकता है।

    माँ के मरने के बाद भी ख़ज़ाने का तसव्वुर उसके ज़ह्न से पूरी तरह मह्व हुआ। मरने से एक दिन पहले उसने फिर कहा था... मेरा ख़्वाब झूटा नहीं हो सकता, ये तो ग़ैबी इशारा है।

    जब कभी घर ख़ाली होता तो वो पुराने थैले से अपने औज़ार निकाल कर मुख़्तलिफ़ जगहें टटोलता। वापसी पर उसकी बीवी किसी उखड़ी हुई ईंट या अलमारी का टूटा ख़ाना देख कर इस्तिफ़सार करती तो वो इधर-उधर की बातें करके टाल देता। कुछ दिन के लिए ख़ज़ाने का तसव्वुर धुंदला जाता, फिर किसी सुबह माँ याद जाती तो ख़ज़ाना भी चमकने लगता और जब बीवी-बच्चों को ले कर किसी दिन मैके जाती तो वो अपने औज़ारों के थैले को निकाल लेता... हाथ ज़ख़्मी होते, दीवारों का उखड़ा पलस्तर घर की ख़स्तगी में और इज़ाफ़ा कर देता।

    फिर मुतअद्दिद अलमारियों, दीवारों और फ़र्श के हिस्सों को उखेड़-उखेड़ कर वो ख़ज़ाने से मायूस हो गया और रफ़्ता-रफ़्ता कई सालों में ख़ज़ाने का ख़्वाब, उसकी गर्माहट और चमक उसकी ज़िंदगी से निकल गई।

    लेकिन अब बरसों बाद नाश्ता करते हुए जब उसके बेटे ने ये कहा कि अब्बू! मेरा ख़्याल है इस घर में कहीं ख़ज़ाना है। तो वो चौंक पड़ा।

    तुम्हें कैसे मालूम हुआ?

    बेटा एक लम्हे चुप रहा फिर बोला... अब्बू मैंने रात ख़्वाब देखा है।

    जवाबन वो कुछ नहीं बोला... उसे याद आया कि अगले माह वो दोनों मियाँ-बीवी रिटायर हो जाएँगे तो घर का सारा बोझ बेटे पर आन पड़ेगा। उसने अपने कँधे पर उस ठंडे बर्फ़ हाथ की ठंडक को महसूस किया। एक अनजाना ख़ौफ़ उसके सारे वजूद पर छा गया। बड़ी हैरत से बेटे की तरफ़ देखते हुए उसने सोचा... शायद विरासत में ख़्वाब भी मुंतक़िल हो जाते हैं।

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