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दस्तक

MORE BYशहनाज़ रहमान

    स्ट्रेचर पर लेटी हुई लड़की का चेहरा दुपट्टे से ढका हुआ था, उसके पाएँती दो ‘औरतें खड़ी इस कोशिश में लगी हुई थीं कि उसे रोने और कराहने से बा’ज़ रखा जाए ताकि इर्द-गिर्द के लोग मुतवज्जेह हों। गरचे सूरत-ए-हाल ये थी कि ज़िन्दगी और मौत की जंग लड़ रहे मरीज़ों के तीमार-दार चन्द साँसें उधार लेने की भाग दौड़ में उस लड़की की कराहें सुन भी नहीं सकते थे फिर भी वो दोनों ‘औरतें ज़माने के ख़ौफ़ से हलकान थीं। चेहरों पर मास्क के बावुजूद ज़ूबी ने उन्हें पहचान लिया। दो रोज़ पहले ही वो कैम्पेग्निंग में ज़ूबी को मिली थीं। वो तेज़-तेज़ क़दम बढ़ाती हुई स्ट्रेचर के पास पहुँची , मु’आमले की नौ’इयत का अन्दाज़ा तो उसे हो चुका था लेकिन उसने अख़्लाक़न उन ‘औरतों से मरज़ के मुत’अल्लिक़ दरियाफ़्त किया। हिचकिचाती और हकलाती ‘औरत का मुकम्मल जवाब सुने बग़ैर उसने तेज़ घूरते हुए कहा कि, ‘’आख़िर आपको इन्तिज़ार किस बात का है। अंदर जा कर डाक्टर को क्यों नहीं दिखा रही हैं। आप लोगों को अन्दाज़ा तो ख़ूब होगा कि वो किस तकलीफ़ से गुज़र रही है, इसके बावुजूद ‘लिहाज़ और शर्म-ओ-हया’ की फटी पुरानी चादर ओढ़े खड़ी हुई हैं। परसों की कैम्पेग्निंग में आप सबके सामने मैंने यही कहा था कि जब ख़ुदा ने ज़बान दी है तो उसे इस्ति’माल भी कीजिए।’’

    खरी-खरी सुनाने के बा’द वो ख़ुद ही स्ट्रेचर धकेलते हुए आगे बढ़ने लगी। वार्ड नंबर 6 में जा कर जब रजिस्ट्रेशन कराने लगी तो उस नीम-बेहोश लड़की का आई कार्ड देखकर उसे हैरत हुई कि वो कोई नाख़्वान्दा या उसकी कज़न हुमा की तरह रिवायतों के बंधन में जकड़ी हुई लड़की नहीं है बल्कि पढ़ी-लिखी और एक अच्छी कंपनी की मुलाज़िम है। ज़ूबी ने उसके गार्जियन के मुत’अल्लिक़ पूछा तो ‘औरत ने जवाब दिया, ‘’मेमसाहब इन मु’आमलात में भला मर्दों का क्या काम। इसके शौहर घर पे हैं। हमें ही गार्जियन समझ लीजिए।‘’ उनकी बातों पर ज़ूबी हैरान तो नहीं हुई क्योंकि इस तरह की बातें अपनी वालिदा की ज़बानी सुनती आई थी लेकिन उसे ग़ुस्सा ज़रूर आया। ज़ब्त करते हुए उसने तमाम ​कारवाइयों से मुत’अल्लिक़ उन ‘औरतों को आगाह किया ताकि अगर कोई पेचीदगी हो तो ये मा’लूमात उन्हें सहूलत फ़राहम करें। चैकअप के बा’द मालूम हुआ कि दो रोज़ डाक्टर की निगह-दाश्त में रखा जाएगा।

    उन ‘औरतों में से एक उस लड़की की ख़ाला थीं। उन्होंने ज़ूबी को बताया कि ये अपनी जॉब के तईं बहुत संजीदा है, रिकार्ड बेहतर रखने के लिए बहुत पाबन्दी करती है, बीमारी-आज़ारी में भी छुट्टी नहीं लेती।

    ‘‘जी हाँ हमारी सोसाइटी में लोग अभी इतने बालिग़ हुए कहाँ हैं कि ‘औरतों के मसाइल और उनकी मजबूरियों का ख़याल रखते हुए थोड़ी सी रि’आयत और मुरव्वत करें।’’, ज़ूबी ने कहा।

    ‘‘जी मेमसाहब यही मैं कहना चाहती हूँ। आप हर हफ़्ता आकर हम ‘औरतों को ता’लीम देती हैं कि पुराने ख़यालात से बाहर निकलें और अपने हक़ के लिए आगे आएँ। लेकिन बताएँ जी कि अगर आगे आने पर भी कुछ हासिल हो तो फिर क्या फ़ायदा, मेरी लड़की एक छोटी सी कंपनी में नौकरी कर रही है। पिछले महीने अपनी बीमारी के दिनों में छुट्टी के लिए उसने ’अर्ज़ी दी तो उसे रद्द कर दिया गया लेकिन शुरू’ से ही उसके साथ ये मसअला है कि उसकी हालत तीसरे रोज़ ख़राब हो जाती है। पहला और दूसरा दिन तो किसी तरह काट लेती है लेकिन तीसरे रोज़ उसकी हिम्मत जवाब दे जाती है। इसलिए उसने ’अर्ज़ी ना-मन्ज़ूर होने के बावुजूद छुट्टी कर ली तो उसकी तनख़्वाह काट ली गई।’’

    ज़ूबी ने सोचा कि उसकी ग़लत-फ़हमी थी कि दुनिया नफ़ीसा बेगम के ख़यालात से आगे जा चुकी है। अब किसी हुमा को पेट पर गर्म पानी की बोतल बांध कर रोटी, क़ीमा और कोफ़्ते नहीं बनाने पड़ते होंगे। हमारे रौशन-ख़याल मु’आशरे को भी अभी तर्बियत की ज़रूरत है। ‘औरत के बायोलॉजिकल मसाइल पर फ़िल्म बन रही है, सिंपोज़ियम हो रहे हैं मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से शु’ऊर बेदार किया जा रहा है लेकिन नतीजा क्या है वही ढाक के तीन पात। ट्रेनों और बसों में ‘औरत के लिए मख़सूस सीटों पर मर्द चढ़े बैठे हैं। उन्हें इस बात का ज़र्रा बराबर ख़याल नहीं कि ब-ज़ाहिर तंदुरुस्त और चाक़-ओ-चौबंद नज़र आने वाली इस मख़लूक़ को बैठने की शदीद ज़रूरत हो सकती है।

    ‘‘मेमसाहब, हम अपने मरीज़ को देख लेंगे, आप अपना काम कर लीजिए।’’, ज़ूबी को ख़ामोश देखकर ‘औरत ने कहा।

    ‘‘मैं भी ‘इलाज के लिए ही आई हूँ।’’, ज़ूबी ने जवाब दिया।

    ‘‘मौला ख़ैर करे। क्या हुआ है?’’, ‘औरत ने हम-दर्दाना लहजे में कहा।

    ‘‘तारीख़ों में बड़ा फ़र्क़ रहता है।‘’, ज़ूबी ने मुख़्तसर-सा जवाब दिया।

    ‘औरत ने हूँ... कर के सर हिलाया। कुछ देर ख़ामोश बैठी रही लेकिन इस वक़्फ़े में उसने कई बार ज़ूबी की तरफ़ देखा।

    ‘‘कुछ कहना चाहती हैं ?’’, उसकी बेचैनी महसूस करते हुए ज़ूबी ने पूछा।

    नहीं कुछ ख़ास नहीं। बस यही सोच रही हूँ कि आप लोगों ने दिन के उजाले में आँखें खोली हैं। हम तो अंधेरे में पैदा हुए और सारी ज़िन्दगी अंधेर में ही गुज़ार दी। ख़ुदा लंबी ‘उम्‍र दे मेरी सास को, वो अब तक हमारे सामने अपने मुहज़्ज़ब ज़माने का हवाला देती हैं कि हमारे ज़माने में ही इतने चोंचले थे और ऐसी तकलीफ़। पुराने वक़्तों में कब आया कब गया किसी को कुछ भनक लगती थी और आजकल देख लो हाय तौबा मचा देती हैं। इस टीवी ने तो और सत्यानास कर दिया है। मर्द भी ख़ूब हैं बैठे टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं।

    ज़ूबी समझ तो गई कि कुछ देर पहले जो कुछ उनसे सरज़द हुआ, उसी की सफ़ाई में ये सब कह रही हैं लेकिन उसने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, ‘’जी, देखते तो हैं मर्द भी, लेकिन सब कुछ देखने और सुनने के बा’द भी उनका शु’ऊर बेदार नहीं हुआ। महीने के तीस दिन उन्हें अपने दस्तर-ख़्वान पर ज़बान के चटख़ारे के तमाम पकवान चाहिएँ। बीवी ने या बहन ने किस हाल में और किस तरह पकाया है, एक लम्हे के लिए भी ख़याल नहीं आता कि उसे उन दिनों में ज़ेह्‌नी और जिस्मानी दोनों तरह से सुकून की ज़रूरत होती है।

    इस जुमले के बा’द ‘औरत ख़ामोश हो गई।

    ज़ूबी को फ़ौजी बाबा याद गए जो मंजू दीदी को उन दिनों में हाथ का छाला बनाए रखते थे। मंजू दीदी रहती तो थीं फ़ौजी बाबा की ख़िदमत के लिए लेकिन वो ख़िदमत करने के बजाए लाड प्यार बटोरती थीं। मंजू दीदी का ला-उबालीपन कहें या बे-तकल्लुफ़ी, एक-बार फ़ौजी बाबा को उनकी हालत का अन्दाज़ा हो गया था। इसके बा’द वो हर महीने उसी हिसाब से उन्हें किचन और घर के दीगर कामों से छुट्टी दे दिया करते थे लेकिन ऐसे लोग सैकड़ों में कहीं एक-आध होते हैं। ज़ूबी उस माज़ी को याद नहीं करना चाहती थी जिसमें जाने कितने चेहरे खो गए थे और जिसने उसकी ज़िन्दगी, ज़िन्दगी की राहें और जीने का मक़सद बदल कर रख दिया था या यूँ कह लें उसकी ज़िन्दगी को एक सम्त ‘अता की थी। लेकिन जिस शिद्दत से वो भूलना चाहती उसी शिद्दत से बचपन के वाक़ि’आत उसका पीछा करते थे। नफ़ीसा बेगम का लिहाज़ और शर्म के नाम पे हुमा की परेशानियाँ घर के लोगों से छुपाना, पुराने ज़माने का हवाला देकर उसे घर के कामों में हलकान रखना, अपनी दक़ियानूसियत पर पुख़्ता यक़ीन रखते हुए उसकी शादी कर देना, शादी के बा’द उसके आ’ला ता’लीम-याफ़्ता शौहर का हुमा की परेशानियाँ नज़र-अन्दाज़ करना ,ये सब ऐसी बातें थीं जिन्होंने एक ऐसे नासूर को जनम दिया जिसने उसकी जान ले ली।

    इन्हीं तल्ख़ियों का नतीजा था कि उसने इस मु’आशरती टैबू को तोड़ने की क़सम खा ली थी और स्कर्ट या जम्पर पर धब्बा लग जाने को उतना ही नॉर्मल लेती थी जितना सालन, चाय या आइसक्रीम के धब्बे लगने पर परेशान हुआ जाता है।

    एक दफ़ा’ ऑफ़िस में कुलीग की बातों से ज़ूबी को अन्दाज़ा हुआ कि उन्हें पिछले हफ़्ते ऑफ़िस ज्वाइन करने वाली लड़की की अच्छी मेरिट से कॉम्प्लेक्स है। उनकी बातें सुनकर उसे तैश गया और तक़रीबन ग़ुर्राते हुए उसने पूछा, “ये बताओ तुम लोगों की भी पढ़ाई-लिखाई और दीगर कामों में इस तरह का ख़लल पड़ा होगा जैसा उस लड़की या दूसरी लड़कियों को सामना करना पड़ता है। सोशल वर्क, पॉलिटिक्स, एजुकेशन, मैनेजमेंट और मेडीकल समेत सैकड़ों मैदानों में बिला-नाग़ा काम करने वाली लाखों ‘औरतों के मुत’अल्लिक़ कभी किसी मर्द के फेमिनिज़्म ने जोश मारा है? बच्चे को पीठ पर लाद कर या यूँ ही धूल मिट्टी में छोड़कर ईंट के भट्टे, चाय के बाग़ और मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में मज़दूरी करने वाली ‘औरतों के बारे में मर्दाना क़ुव्वत से सरशार किसी ताक़तवर मर्द ने एक लम्हा रुक कर कभी सोचा है कि ‘औरत किन-किन महाज़ों पर तन्हा लड़ती है।’’

    तक़रीर-नुमा ये गुफ़्तगू सुनकर एक लड़का बोल पड़ा, “इसीलिए तो कहते हैं कि ‘औरत कमज़ोर है। इसके बावुजूद उसे मर्दों के शाना-ब-शाना चलने का ही नहीं बल्कि दौड़ने का शौक़ है।’’

    ‘‘अव्वल तो अपने दिमाग़ का ‘इलाज करो। दौड़ने का ज़िक्‍र गया है तो याद दिलाती चलूँ कि तुम लोग जिन कामयाब ‘औरतों के दम पे अपने मुल्क के कारनामे गिनवाते हो, कभी सोचा है कि टेनिस, हाॅकी और दुनिया-भर के स्पोर्ट्स में शामिल ख़वातीन किस क़दर क़ुर्बानियाँ देती हैं। तुम्हें मा’लूम है हर महीने जो दर्द बर्दाश्त करने की वो ‘आदी होती हैं उसका दसवाँ हिस्सा भी अगर कुछ लम्हे के लिए तुम मर्दों को हो जाए तो आसमान सर पे उठा लोगे।’’

    ज़ूबी ने घबराए और लड़खड़ाए बग़ैर उस मर्द को अपने दलाइल के ज़री’ए ख़ामोश करके अपनी फ़त्ह महसूस की थी।

    वबा के शिकार मरीज़ों की हन्गाम-ए-नज़ा’ में अस्पताल के बिस्तर पर लेटी उस ‘औरत से दोस्ती, त’अल्लुक़ या ख़ूनी रिश्ता होने के बावुजूद सिर्फ़ ‘औरत होने की वज्ह से ज़ूबी ने उसकी मदद की। सरकारी हिदायात और ज़ाती एहतियात की सारी हदों से आगे जा कर उसकी तीमार-दारी की। दम तोड़ती हुमा की मुल्तजी निगाहों को ऐसे ही किसी हम-दर्द की ज़रूरत थी, जो दवाओं और दु’आओं के बजाए उसकी रूह पर लगे ज़ख़्मों पर फाहा रखता लेकिन उस वक़्त तो सिर्फ़ नफ़ीसा बेगम थीं, जिनका सारा ध्यान इस बात पर था कि उसके ससुरालियों को कहीं ये भनक लग जाए कि उसकी बीमारी ने इतनी संगीन शक्ल इख़्तियार कर ली है कि वो उन्हें वो सब देने के लाइक़ नहीं रही जिसके लालच में लोग एक ‘औरत को इंसानी मख़्लूक़ समझते हैं।

    उस औ’रत की तरफ़ से मुतमइन होने के बा’द जब ज़ूबी घर लौटी तो रात हो चुकी थी। ज़ूबी को तो ये मा’लूम था कि हस्ब-ए-मा’मूल नफ़ीसा बेगम उसे सोशल वर्क का ता’ना परोसने के बा’द ही खाना पीना या दूसरे हाल अहवाल पूछेंगी लेकिन ज़ूबी को अन्दाज़ा नहीं था कि उसका बनाया हुआ महल जो उसने अपनी बलूग़त के साथ मलबे में तब्दील कर दिया था, वो आज रेत की शक्ल में आँखों में भर जाएगा और आँखें मसलने के बा’द सारी धुंद छट जाएगी।

    ज़ूबी के दरवाज़े पर दस्तक हुई। नफ़ीसा बेगम सँभल-सँभल कर चलते हुए कमरे में दाख़िल हुईं।

    ‘‘ज़ूबी! तुम अपने सोशल वर्क में इतनी मसरूफ़ हो गई हो कि तुम्हें रोमा की फ़िक्‍र ही नहीं रहती। स्कूल से वापसी पर उस का बुरा हाल था, कपड़े ख़राब हो चुके थे। बच्ची बेचारी घबराई हुई थी। पता नहीं तुमने पहले से इन्तिज़ाम कर रखा था या नहीं। ख़ैर तुम्हारे अब्बा को बाज़ार भेज कर ज़रूरत की चीज़ें मंगवा कर उसे दे दी थीं।‘’

    ज़ूबी का चेहरा फ़क़ हो गया।

    उसकी पेशानी पर पसीने की बूँदें देखकर नफ़ीसा बेगम का मुँह हैरत से खुला रह गया।

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