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धुआँ

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी वयस्कता के मनोविज्ञान पर आधारित है। एक ऐसे बच्चे की भावनाओं को चित्रित किया गया है जो कामोत्तेजना की दहलीज़ पर क़दम रख रहा है और वह अपने अंदर होने वाले बदलाव को महसूस तो कर रहा है मगर समझ नहीं पा रहा है। त्रास्दी ये है कि उसकी भावनाओं को सही दिशा देने वाला कोई नहीं है।  

    वो जब स्कूल की तरफ़ रवाना हुआ तो उसने रास्ते में एक क़साई देखा, जिसके सर पर एक बहुत बड़ा टोकरा था। उस टोकरे में दो ताज़ा ज़बह किए हुए बकरे थे खालें उतरी हुई थीं, और उनके नंगे गोश्त में से धुआँ उठ रहा था। जगह जगह पर ये गोश्त जिसको देख कर मसऊद के ठंडे गालों पर गर्मी की लहरें सी दौड़ जाती थीं, फड़क रहा था जैसे कभी कभी उसकी आँख फड़का करती थी।

    उस वक़्त सवा नौ बजे होंगे मगर झुके हुए ख़ाकसतरी बादलों के बाइस ऐसा मालूम होता था कि बहुत सवेरा है। सर्दी में शिद्दत नहीं थी, लेकिन राह चलते आदमियों के मुँह से गर्म-गर्म समावार की टोंटियों की तरह गाढ़ा सफ़ेद धुआँ निकल रहा था। हर शय बोझल दिखाई देती थी जैसे बादलों के वज़न के नीचे दबी हुई है। मौसम कुछ ऐसी ही कैफ़ियत का हामिल था। जो रबड़ के जूते पहन कर चलने से पैदा होती हो। इसके बावजूद कि बाज़ार में लोगों की आमद-ओ-रफ़्त जारी थी और दुकानों में ज़िंदगी के आसार पैदा हो चुके थे आवाज़ें मद्धम थीं। जैसे सरगोशियां हो रही हैं, चुपके-चुपके, धीरे-धीरे बातें हो रही हैं, हौले-हौले लोग क़दम उठा रहे हैं कि ज़्यादा ऊंची आवाज़ पैदा हो।

    मसऊद बग़ल में बस्ता दबाये स्कूल जा रहा था। आज उसकी चाल भी सुस्त थी। जब उसने बे खाल के ताज़ा ज़बह किए हुए बकरों के गोश्त से सफ़ेद सफ़ेद धुआँ उठता देखा तो उसे राहत महसूस हुई। उस धुंए ने उसके ठंडे-ठंडे गालों पर गर्म-गर्म लकीरों का एक जाल सा बुन दिया। उस गर्मी ने उसे राहत पहुंचाई और वो सोचने लगा कि सर्दियों में ठंडे यख़ हाथों पर बेद खाने के बाद अगर ये धुआँ मिल जाया करे तो कितना अच्छा हो।

    फ़िज़ा में उजलापन नहीं था। रोशनी थी मगर धुंदली। कुहर की एक पतली सी तह हर शय पर चढ़ी हुई थी जिससे फ़िज़ा में गदलापन पैदा होगया था। ये गदलापन आँखों को अच्छा मालूम होता था इसलिए कि नज़र आने वाली चीज़ों की नोक-पलक कुछ मद्धम पड़ गई थी।

    मसऊद जब स्कूल पहुंचा तो उसे अपने साथियों से ये मालूम करके क़तई तौर पर ख़ुशी हुई कि स्कूल सिकंदर साहब की मौत के बाइस बंद कर दिया गया है। सब लड़के ख़ुश थे जिसका सबूत ये था कि वो अपने बस्ते एक जगह पर रख कर स्कूल के सहन में ऊटपटांग खेलों में मशग़ूल थे। कुछ छुट्टी का पता मालूम करते ही घर चले गए। कुछ रहे थे और कुछ नोटिस बोर्ड के पास जमा थे और बार बार एक ही इबारत पढ़ रहे थे।

    मसऊद ने जब सुना कि सिकंदर साहब मर गए हैं तो उसे बिल्कुल अफ़सोस हुआ। उसका दिल जज़्बात से बिल्कुल ख़ाली था। अलबत्ता उसने ये ज़रूर सोचा कि पिछले बरस जब उसके दादा जान का इंतिक़ाल इन ही दिनों में हुआ तो उनका जनाज़ा ले जाने में बड़ी दिक्कत हुई थी इसलिए कि बारिश शुरू होगई थी। वो भी जनाज़े के साथ गया था और क़ब्रिस्तान में चिकनी कीचड़ के बाइस ऐसा फिसला था कि खुदी हुई क़ब्र में गिरते गिरते बचा था।

    ये सब बातें उसको अच्छी तरह याद थीं। सर्दी की शिद्दत, उसके कीचड़ से लतपत कपड़े, सुर्ख़ी माइल नीले हाथ जिनको दबाने से सफ़ेद सफ़ेद धब्बे पड़ जाते थे। नाक जो कि बर्फ़ की डली मालूम होती थी और फिर आकर हाथ पांव धोने और कपड़े बदलने का मरहला... ये सब कुछ उसको अच्छी तरह याद था, चुनांचे जब उसने सिकंदर साहब की मौत की ख़बर सुनी तो उसे ये बीती हुई बातें याद आगईं और उसने सोचा, जब सिकंदर साहब का जनाज़ा उठेगा तो बारिश शुरू हो जाएगी और क़ब्रिस्तान में इतनी कीचड़ हो जाएगी कि कई लोग फिसलेंगे और उनको ऐसी चोटें आयेंगी कि बिलबिला उठेंगे।

    मसऊद ने ये ख़बर सुन कर सीधा अपने कमरे का रुख़ किया। कमरे में पहुंच कर उसने अपने डेस्क का ताला खोला। दो तीन किताबें जो कि उसे दूसरे रोज़ फिर लाना थीं उसमें रखीं और बाक़ी बस्ता उठा कर घर की जानिब चल पड़ा।

    रास्ते में उसने फिर वही दो ताज़ा ज़बह किए हुए बकरे देखे। उनमें से एक को अब कसाई ने लटका दिया था, दूसरा तख़्ते पर पड़ा था। जब मसऊद दुकान पर से गुज़रा तो उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो गोश्त को जिसमें से धुआँ उठ रहा था छू कर देखे, चुनांचे आगे बढ़ कर उसने उंगली से बकरे के उस हिस्से को छूकर देखा जो अभी तक फड़क रहा था, गोश्त गर्म था। मसऊद की ठंडी उंगली को ये हरारत बहुत भली मालूम हुई। कसाई दुकान के अंदर छुरियां तेज़ करने में मसरूफ़ था। चुनांचे मसऊद ने एक बार फिर गोश्त को छू कर देखा और वहां से चल पड़ा।

    घर पहुंच कर उसने जब अपनी माँ को सिकंदर साहब की मौत की ख़बर सुनाई तो उसे मालूम हुआ कि उसके अब्बा जी उन्ही के जनाज़े के साथ गए हैं। अब घर में सिर्फ़ दो आदमी थे, माँ और बड़ी बहन। माँ बावर्चीख़ाना में बैठी सालन पका रही थी और बड़ी बहन कुलसूम पास ही एक कांगड़ी लिए दरबारी की सरगम याद कररही थी।

    चूँकि गली के दूसरे लड़के गर्वनमेंट स्कूल में पढ़ते थे, जिस पर इस्लामिया स्कूल के सिकंदर की मौत का कुछ असर नहीं पड़ा था। इसलिए मसऊद ने ख़ुद को बिल्कुल बेकार महसूस किया। स्कूल का कोई काम भी नहीं था। छटी जमात में जो कुछ पढ़ाया जाता है वो घर में अपने अब्बा जी से पढ़ चुका था। खेलने के लिए भी उसके पास कोई चीज़ थी।

    एक मैला कुचैला ताश ताक़ में पड़ा था मगर उससे मसऊद को कोई दिलचस्पी नहीं थी। लूडो और इसी क़िस्म के दूसरे खेल जो उसकी बड़ी बहन अपनी सहेलियों के साथ हर रोज़ खेलती थी, उसकी समझ से बालातर थे। समझ से बालातर यूं थे कि मसऊद ने कभी उनको समझने की कोशिश ही नहीं की थी। उसको फ़ित्रतन ऐसे खेलों से कोई लगाव नहीं था।

    बस्ता अपनी जगह पर रखने और कोट उतारने के बाद वो बावर्चीख़ाने में अपनी माँ के पास बैठ गया और दरबारी की सरगम सुनता रहा जिसमें कई दफ़ा सारे गामा आता था। उसकी माँ पालक काट रही थी। पालक काटने के बाद उसने सब्ज़-सब्ज़ पत्तों का गीला-गीला ढेर उठा कर हंडिया में डाल दिया। थोड़ी देर के बाद जब पालक को आंच लगी तो उसमें से सफ़ेद-सफ़ेद धुआँ उठने लगा। उस धुएँ को देख कर मसऊद को बकरे का गोश्त याद आगया।

    चुनांचे उसने अपनी माँ से कहा, “अम्मी जान, आज मैंने क़साई की दुकान पर दो बकरे देखे। खाल उतरी हुई थी और उनमें से धुआँ निकल रहा था बिल्कुल ऐसे ही जैसा कि सुबह सवेरे मेरे मुँह से निकला करता है।”

    “अच्छा...!” ये कह कर उसकी माँ चूल्हे में लकड़ियों के कोयले झाड़ने लगी।

    “हाँ और मैंने गोश्त को अपनी उंगली से छू कर देखा तो वो गर्म था।”

    “अच्छा...!” ये कह कर उसकी माँ ने वो बर्तन उठाया जिसमें उसने पालक का साग धोया था और बावर्चीख़ाना से बाहर चली गई।

    “और ये गोश्त कई जगह पर फड़कता भी था।”

    “अच्छा...” मसऊद की बड़ी बहन ने दरबारी सरगम याद करना छोड़ दी और उसकी तरफ़ मुतवज्जा हुई, “कैसे फड़कता था?”

    “यूं... यूं।” मसऊद ने उंगलियों से फड़कन पैदा करके अपनी बहन को दिखाई।

    “तो फिर क्या हुआ?”

    ये सवाल कुलसूम ने अपने सरगम भरे दिमाग़ से कुछ इस तौर पर निकाला कि मसऊद एक लहज़े के लिए बिल्कुल ख़ालीउज़्ज़हन हो गया, “फिर क्या होना था, मैंने तो ऐसे ही आप से बात की थी कि क़साई की दुकान पर गोश्त फड़क रहा था। मैंने उंगली से छू कर भी देखा था, गर्म था।”

    “गर्म था... अच्छा मसऊद ये बताओ तुम मेरा एक काम करोगे।”

    “बताईए।”

    “आओ, मेरे साथ आओ।”

    “नहीं आप पहले बताईए, काम क्या है।”

    “तुम आओ तो सही, मेरे साथ।”

    “जी नहीं... आप पहले काम बताईए।”

    “देखो मेरी कमर में बड़ा दर्द हो रहा है... मैं पलंग पर लेटती हूँ, तुम ज़रा पांव से दबा देना... अच्छे भाई जो हुए। अल्लाह की क़सम बड़ा दर्द हो रहा है।” ये कह कर मसऊद की बहन ने अपनी कमर पर मुक्कियां मारना शुरू करदीं।

    “ये आप की कमर को क्या हो जाता है। जब देखो दर्द हो रहा है, और फिर आप दबवाती भी मुझी से हैं, क्यों नहीं अपनी सहेलियों से कहतीं।” मसऊद उठ खड़ा हुआ।

    “चलिए, लेकिन ये आप से कहे देता हूँ कि दस मिनट से ज़्यादा में बिल्कुल नहीं दबाऊंगा।”

    “शाबाश... शाबाश।” उसकी बहन उठ खड़ी हुई और सरगमों की कापी सामने ताक़ में रख कर उस कमरे की तरफ़ रवाना हुई जहां वो और मसऊद दोनों सोते थे।

    सहन में पहुंच कर उसने अपनी दुखती हुई कमर सीधी की और ऊपर आसमान की तरफ़ देखा। मटियाले बादल झुके हुए थे, “मसऊद, आज ज़रूर बारिश होगी।”

    ये कह कर उसने मसऊद की तरफ़ देखा मगर वो अंदर अपनी चारपाई पर लेटा था।

    जब कुलसूम अपने पलंग पर औंधे मुँह लेट गई तो मसऊद ने उठ कर घड़ी में वक़्त देखा, “देखिए बाजी ग्यारह बजने में दस मिनट बाक़ी हैं। मैं पूरे ग्यारह बजे आपकी कमर दाबना छोड़ दूंगा।”

    “बहुत अच्छा, लेकिन तुम अब ख़ुदा के लिए ज़्यादा नख़रे बघारो। इधर मेरे पलंग पर आकर जल्दी कमर दबाओ वर्ना याद रखो बड़े ज़ोर से कान ऐंठूंगी।” कुलसूम ने मसऊद को डांट पिलाई।

    मसऊद ने अपनी बड़ी बहन के हुक्म की तामील की और दीवार का सहारा लेकर पांव से उसकी कमर दबाना शुरू करदी। मसऊद के वज़न के नीचे कुलसूम की चौड़ी चकली कमर में ख़फ़ीफ़ सा झुकाव पैदा होगया। जब उसने पैरों से दबाना शुरू किया, ठीक उसी तरह जिस तरह मज़दूर मिट्टी गूँधते हैं तो कुलसूम ने मज़ा लेने की ख़ातिर हौले-हौले हाय-हाय करना शुरू किया।

    कुलसूम के कूल्हों पर गोश्त ज़्यादा था, जब मसऊद का पांव उस हिस्से पर पड़ा तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि वो उस बकरे के गोश्त को दबा रहा है जो उसने क़साई की दुकान में अपनी उंगली से छू कर देखा था। इस एहसास ने चंद लमहात के लिए उसके दिल-ओ-दिमाग़ में ऐसे ख़यालात पैदा किए जिनका कोई सर था पैर, वो उनका मतलब समझ सका और समझता भी कैसे जबकि कोई ख़याल मुकम्मल नहीं था।

    एक-दो बार मसऊद ने ये भी महसूस किया कि उसके पैरों के नीचे गोश्त के लोथड़ों में हरकत पैदा हुई है, उसी क़िस्म की हरकत जो उसने बकरे के गर्म-गर्म गोश्त में देखी थी। उसने बड़ी बददिली से कमर दबाना शुरू की थी मगर अब उसे इस काम में लज़्ज़त महसूस होने लगी। उसके वज़न के नीचे कुलसूम हौले-हौले कराह रही थी। ये भींची-भींची आवाज़ जो कि मसऊद के पैरों की हरकत का साथ दे रही थी इस गुमनाम सी लज़्ज़त में इज़ाफ़ा कर रही थी।

    टाइम पीस में ग्यारह बज गए मगर मसऊद अपनी बहन कुलसूम की कमर दबाता रहा जब कमर अच्छी तरह दबाई जा चुकी तो कुलसूम सीधी लेट गई और कहने लगी, “शाबाश मसऊद, शाबाश। लो अब लगे हाथों टांगें भी दबा दो, बिल्कुल उसी तरह... शाबाश मेरे भाई।”

    मसऊद ने दीवार का सहारा लेकर कुलसूम की रानों पर जब अपना पूरा वज़न डाला तो उसके पांव के नीचे मछलियां सी तड़प गईं। बेइख़्तयार वो हंस पड़ी और दुहरी होगई। मसऊद गिरते गिरते बचा, लेकिन उसके तलवों में मछलियों की वो तड़प मुंजमिद सी होगई। उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो फिर इसी तरह दीवार का सहारा लेकर अपनी बहन की रानें दबाये, चुनांचे उसने कहा, “ये आपने हंसना क्यों शुरू कर दिया। सीधी लेट जाईए, मैं आपकी टांगें दबा दूं।”

    कुलसूम सीधी लेट गई। रानों की मछलियां इधर-उधर होने के बाइस जो गुदगुदी पैदा हुई थी उसका असर अभी तक उसके जिस्म में बाक़ी था, “ना भाई मेरे गुदगुदी होती है। तुम ऊटपटांग तरीक़े से दबाते हो।”

    मसऊद ने ख़याल किया कि शायद उसने ग़लत तरीक़ा इस्तेमाल किया है। “नहीं, अब की दफ़ा मैं पूरा बोझ आप पर नहीं डालूंगा... आप इत्मिनान रखिए। अब ऐसी अच्छी तरह दबाऊंगा कि आपको कोई तकलीफ़ होगी।”

    दीवार का सहारा लेकर मसऊद ने अपने जिस्म को तोला और इस अंदाज़ से आहिस्ता- आहिस्ता कुलसूम की रानों पर अपने पैर जमाए कि उसका आधा बोझ कहीं ग़ायब होगया।

    हौले-हौले बड़ी होशयारी से उसने अपने पैर चलाने शुरू किए। कुलसूम की रानों में अकड़ी हुई मछलियां उसके पैरों के नीचे दब-दब कर इधर-उधर फिसलने लगीं। मसऊद ने एक बार स्कूल में तने हुए रस्से पर एक बाज़ीगर को चलते देखा था। उसने सोचा कि बाज़ीगर के पैरों के नीचे तना हुआ रस्सा इसी तरह फिसलता होगा।

    इससे पहले कई बार उसने अपनी बहन कुलसूम की टांगें दबाई थीं मगर वो लज़्ज़त जो कि उसे अब महसूस हो रही थी पहले कभी महसूस नहीं हुई थी। बकरे के गर्म-गर्म गोश्त का उसे बार-बार ख़याल आता था। एक दो मर्तबा उसने सोचा कुलसूम को अगर ज़बह कर दिया जाये तो खाल उतर जाने पर क्या इसके गोश्त में से भी धुआँ निकलेगा? लेकिन ऐसी बेहूदा बातें सोचने पर उसने अपने आपको मुजरिम महसूस किया और दिमाग़ को इस तरह साफ़ कर दिया जैसे वो स्लेट को स्फ़ंज से साफ़ किया करता था।

    “बस बस।” कुलसूम थक गई, “बस बस।”

    मसऊद को एक दम शरारत सूझी। वो पलंग पर से नीचे उतरने लगा तो उसने कुलसूम की दोनों बग़लों में गुदगुदी करना शुरू करदी। हंसी के मारे वो लोटपोट होगई। उसमें इतनी सकत नहीं थी कि वो मसऊद के हाथों को परे झटक दे। लेकिन जब उसने इरादा करके उसके लात जमानी चाही तो मसऊद उछल कर ज़द से बाहर होगया और स्लीपर पहन कर कमरे से निकल गया।

    जब वो सहन में दाख़िल हुआ तो उसने देखा कि हल्की हल्की बूंदा बांदी होरही है। बादल और भी झुक आए थे। पानी के नन्हे नन्हे क़तरे आवाज़ पैदा किए बग़ैर सहन की ईंटों में आहिस्ता-आहिस्ता जज़्ब हो रहे थे। मसऊद का जिस्म एक दिल-नवाज़ हरारत महसूस कर रहा था। जब हवा का ठंडा ठंडा झोंका उसके गालों के साथ मस हुआ और दो-तीन नन्ही- नन्ही बूंदें उसकी नाक पर पड़ीं तो एक झुरझुरी सी उसके बदन में लहरा उठी।

    सामने कोठे की दीवार पर एक कबूतर और कबूतरी पास पास पर फुलाए बैठे थे, ऐसा मालूम होता था कि दोनों दम-पुख़्त की हुई हंडिया की तरह गर्म हैं। गुल दाऊदी और नाज़बू के हरे- हरे पत्ते ऊपर लाल-लाल गमलों में नहा रहे थे। फ़िज़ा में नींदें घुली हुई थीं। ऐसी नींदें जिनमें बेदारी ज़्यादा होती है और इंसान के इर्द-गिर्द नर्म-नर्म ख़्वाब यूं लिपट जाते हैं जैसे ऊनी कपड़े।

    मसऊद ऐसी बातें सोचने लगा जिनका मतलब उसकी समझ में नहीं आता था। वो उन बातों को छू कर देख सकता था मगर उनका मतलब उसकी गिरफ्त से बाहर था, फिर भी एक गुमनाम सा मज़ा इस सोच-बिचार में उसे आरहा था।

    बारिश में कुछ देर खड़े रहने के बाइस जब मसऊद के हाथ बिल्कुल यख़ होगए और दबाने से उन पर सफ़ेद धब्बे पड़ने लगे तो उसने मुट्ठीयाँ कस लीं और उनको मुँह की भाप से गर्म करना शुरू किया। हाथों को इस अमल से कुछ गर्मी तो पहुंची मगर वो नमआलूद होगए। चुनांचे आग तापने के लिए वो बावर्चीख़ाना में चला गया। खाना तैयार था, अभी उसने पहला लुक़मा ही उठाया था कि उसका बाप क़ब्रिस्तान से वापस आगया।

    बाप-बेटे में कोई बात हुई। मसऊद की माँ उठ कर फ़ौरन दूसरे कमरे में चली गई और वहां देर तक अपने ख़ाविंद के साथ बातें करती रही।

    खाने से फ़ारिग़ हो कर मसऊद बैठक में चला गया और खिड़की खोल कर फ़र्श पर लेट गया। बारिश की वजह से सर्दी की शिद्दत बढ़ गई थी क्योंकि अब हवा भी चल रही थी, मगर ये सर्दी नाख़ुशगवार मालूम नहीं होती थी। तालाब के पानी की तरह ये ऊपर ठंडी और अंदर गर्म थी।

    मसऊद जब फ़र्श पर लेटा तो उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो इस सर्दी के अंदर धँस जाये जहां उसके जिस्म को राहत अंगेज़ गर्मी पहुंचे। देर तक वो ऐसी शीर-गर्म बातों के मुतअल्लिक़ सोचता रहा जिसके बाइस उसके पुट्ठों में हल्की-हल्की सी दुखन पैदा होगई।

    एक दो बार उसने अंगड़ाई ली तो उसे मज़ा आया। उसके जिस्म के किसी हिस्से में, ये उसको मालूम नहीं था कि कहाँ, कोई चीज़ अटक सी गई थी, ये चीज़ क्या थी। इसके मुतअल्लिक़ भी मसऊद को इल्म नहीं था। अलबत्ता इस अटकाव ने उसके सारे जिस्म में इज़तिराब, एक दबे हुए इज़तिराब की कैफ़ियत पैदा करदी थी। उसका सारा जिस्म खिंच कर लंबा हो जाने का इरादा बन गया था।

    देर तक गुदगुदे क़ालीन पर करवटें बदलने के बाद वो उठा और बावर्चीख़ाना से होता हुआ सहन में निकला। कोई बावर्चीख़ाना में था और सहन में। इधर-उधर जितने कमरे थे सबके सब बंद थे। बारिश अब रुक गई थी। मसऊद ने हाकी और गेंद निकाली और सहन में खेलना शुरू कर दिया। एक बार जब उसने ज़ोर से हिट लगाई तो गेंद सहन के दाएं हाथ वाले कमरे के दरवाज़े पर लगी। अंदर से मसऊद के बाप की आवाज़ आई, “कौन?”

    “जी, मैं हूँ मसऊद!”

    अंदर से आवाज़ आई, “क्या कर रहे हो?”

    “जी, खेल रहा हूँ।”

    “खेलो...” फिर थोड़े से तवक्कुफ़ के बाद उसके बाप ने कहा, “तुम्हारी माँ मेरा सरदबा रही है... ज़्यादा शोर मचाना।”

    ये सुन कर मसऊद ने गेंद वहीं पड़ी रहने दी और हाकी हाथ में लिए सामने वाले कमरे का रुख़ किया। उसका एक दरवाज़ा बंद था और दूसरा नीम वा... मसऊद को एक शरारत सूझी। दबे पांव वो नीम वा दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा और धमाके के साथ दोनों पट खोल दिए। दो चीख़ें बुलंद हुईं और कुलसूम और उसकी सहेली बिमला ने जो कि पास पास लेटी थी, ख़ौफ़ज़दा हो कर झट से लिहाफ़ ओढ़ लिया।

    बिमला के ब्लाउज़ के बटन खुले हुए थे और कुलसूम उसके उर्यां सीने को घूर रही थी।

    मसऊद कुछ समझ सका, उसके दिमाग़ में धुआँ सा छा गया। वहां से उल्टे क़दम लौट कर वो जब बैठक की तरफ़ रवाना हुआ तो उसे मअन अपने अंदर एक अथाह ताक़त का एहसास हुआ, जिसने कुछ देर के लिए उसकी सोचने-समझने की क़ुव्वत बिल्कुल कमज़ोर कर दी।

    बैठक में खिड़की के पास बैठ कर जब मसऊद ने हाकी को दोनों हाथों से पकड़ कर घुटने पर रखा तो ये सोचा कि हल्का सा दबाव डालने पर हाकी में ख़म पैदा हो जाएगा, और ज़्यादा ज़ोर लगाने पर हैंडल चटाख़ से टूट जाएगा। उसने घुटने पर हाकी के हैंडल में ख़म तो पैदा कर लिया मगर ज़्यादा से ज़्यादा ज़ोर लगाने पर भी वो टूट सका। देर तक वो हाकी के साथ कुश्ती लड़ता रहा। जब वो थक कर हार गया तो झुँझला कर उसने हाकी परे फेंक दी।

    स्रोत:

    Fasane Manto Ke (Pg. 182)

      • प्रकाशक: किताबी दुनिया, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2007

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