दिवाली के तीन दीये
स्टोरीलाइन
यह कहानी धन की देवी लक्ष्मी को आकर्षित करने के लिए दीवाली पर जलाए गए तीन दीयों की है जो अपनी हैसियत के अनुसार तीन घरों में जल रहे हैं। सेठ जी के यहाँ एक बहुत बड़ा दीया जल रहा है और उसके साथ ही हज़ारों दीये भी जल रहे हैं। दूसरे अफ़सर के यहाँ उससे कम और एक ग़रीब के घर में महज़ एक दीया जल रहा है। सिर पर गठरी रखे एक ग़रीब औरत सेठ के यहाँ रात भर के लिए आसरा माँगने आती है मगर सेठ उसे दुत्कार देता है। वह दूसरे घर भी जाती है मगर उसने भी इनकार कर दिया। फिर वह ग़रीब के घर में जाती है और उसके आते ही झोंपड़ी का दीया बाक़ी दोनों घरों से ज्यादा तेज़ जलने लगता है।
पहला दीया
दीवाली का ये दीया कोई मामूली दीया नहीं था। दीये की शक्ल का बहुत बड़ा बिजली का लैम्प था। जो सेठ लक्ष्मी दास के महलनुमा घर के सामने के बरामदे में लगा हुआ था। बीच में ये दीयों का सम्राट दीया था और जैसे सूरज के इर्द-गिर्द अन-गिनत सितारे हैं, इसी तरह इस एक दीये के चारों तरफ़ बल्कि ऊपर नीचे भी हज़ारों बल्ब बिजली के तारों में ऐसे जगमगा रहे थे जैसे मालन हारों में चम्बेली के सफ़ेद फूलों को गूँधती है।
बरामदे के हर मेहराब में उन बिजली के दीयों के हार पड़े हुए थे। छत के कुंगुरों के साथ साथ सितारों से भी ज़्यादा जगमगाते हुए क़ुमक़ुमों की झालरें झूल रही थीं। संग-मरमर के हर सुतून पर बिजली के तार की बेल चढ़ी हुई थी और इसमें पके हुए अंगूरों की तरह लाल, हरे, नीले, पीले बल्ब लगे हुए थे। सारे घर में कुछ नहीं तो दस हज़ार बिजली के ये दीये शाम से ही दीवाली का ऐलान कर रहे थे। देवी लक्ष्मी का इंतिज़ार कर रहे थे।
मगर इन सब में सबसे ज़्यादा नुमायाँ वो एक ही दीया था। देवी का सम्राट जो अपनी रोशनी से शाम के धुँदलके को दोपहर की तरह रोशन किए हुए था। ये दीया सेठ लक्ष्मी दास अमरीका से लाए थे। जब वो वहाँ अपनी कम्पनी के लिए बिजली का सामान ख़रीदने गए थे... दर-असल ये देवी का सम्राट उन्हें ज़ाती कमीशन के तौर पर भेंट किया गया था। माल सप्लाई वाली अमरीकन इलेक्ट्रिक कम्पनी की तरफ़ से। और इस को देखते ही सेठ लक्ष्मी दास ने सोच लिया था कि अबकी बार दीवाली पर ये अमरीकन दीया ही देवी लक्ष्मी का स्वागत करेगा।
और आज शाम ही से ये दीया अपनी भड़कीली अमरीकन शान से जल रहा था। इस के चारों तरफ़ दस हज़ार और रौशनियाँ जगमगा रही थीं। सेठ लक्ष्मी दास का कहना था कि सब त्योहारों में दीवाली ही सबसे अहम और बरतर त्योहार है। दीवाली की रात को जहाँ उस का स्वागत करने को रौशनियाँ होती हैं, वहाँ देवी लक्ष्मी आती है। सो वो हमेशा उस का ख़्याल रखते थे कि हर दूसरे सेठ और ब्योपारी के घर से ज़्यादा रौशनियाँ लक्ष्मी महल में होनी चाहिऐं। उनको यक़ीन था कि जितनी रौशनियाँ ज़्यादा होंगी उतनी ही ज़्यादा लक्ष्मी देवी की मेहरबानी भी होगी और शायद था भी ये सच्च। बीस बाईस बरस पहले जब उनकी छोटी कपड़े की दूकान थी, तब उनके घर में कड़वे तेल के सौ दीये जला करते थे। फिर जब जंग हुई और उनको फ़ौजी कम्बल सप्लाई करने का ठेका मिल गया तो उनके नए घर पर एक हज़ार दीये जगमगाने लगे। फिर जब आज़ादी आई, और सेठ लक्ष्मी दास को एक बहुत बड़े डैम बनाने के लिए मज़दूर सप्लाई करने का ठेका मिल गया तो दीवाली की रात को उनके बंगले पर पाँच हज़ार बिजली के बल्ब जगमगा उठे और इस साल जब कि उन्होंने एक अमरीकन कंपनी के साथ मिलकर कई करोड़ रुपये का कारख़ाना क़ायम कर लिया था जिसमें उन्हें लाखों रुपये महीने की आमदनी की उम्मीद थी, अगर इन्कम टैक्स अफ़सर कोई गड़बड़ न करे।
इस मर्तबा तो उन्होंने अपने लक्ष्मी महल में ऐसी रौशनी की थी कि एक-बार तो देवी लक्ष्मी की आँखें भी चकाचौंद हो जातीं। इतनी बहुत रौशनियाँ और ख़ुसूसन अमरीकन देवी के सम्राट को देखकर देवी ख़ुश हो गई तो कौन जानता है अगली दीवाली तक सेठ जी पाँच-छः और कारख़ाने और दो-चार बैंक ख़रीदने के काबिल हो जाएं।
हाँ तो दीवाली की रात थी और सेठ साहब इलेक्ट्रिक इंजीनियर को हिदायत दे रहे थे कि बिजली के कनेक्शन और फ़्यूज़ वग़ैरा का ख़ास ख़्याल रखे क्योंकि किसी की भूल से एक सैकेण्ड के लिए भी बिजली फ़ेल हो कर अंधेरा हो गया तो ख़तरा है कि देवी लक्ष्मी नाख़ुश हो कर इस घर से हमेशा के लिए ना चली जाये। इसलिए इलैक्ट्रिक इंजीनियर ने एक जन्रेटर भी लगाया हुआ था ताकि पावर के करंट में कोई गड़बड़ हो तो जन्रेटर से बनाई हुई बिजली काम आए।
यकायक सेठ साहब को ऐसा महसूस हुआ कि जैसे महल भर में लगे हुए सारे बिजली के कुमकों की रौशनी और तेज़ हो गई हो, ''देवी लक्ष्मी आ गई'' उन्होंने ख़ुश हो कर कहा, मगर इंजीनियर ने समझाया कि करंट के घटने बढ़ने से कभी कभी ऐसा होता है कि रौशनी ज़्यादा या कम हो जाती है।''
’’तो फिर तुम्हारी ड्यूटी ये है कि देखते रहो कि रौशनी ज़्यादा होती रहे। एक पल के लिए भी कम ना हो।'' ये कह कर सेठ साहब बरामदे की संग-मरमर की सीढ़ीयाँ उतर कर बाग़ की तरफ़ आ रहे थे। जहाँ हर पेड़ की शाख़ों में जगमगाते हुए ''फल'' झूल रहे थे कि उन्होंने एक औरत को सड़क पर खड़ा देखा।।।औरत गांव से आई लगती थी। उस के बदन पर मैला घागरा था। जिसका रंग कभी लाल रहा होगा। उसी रंग की चोली थी और सर पर ओढ़नी थी। वो भी मोटे लाल खद्दर की मगर छिपी हुई। अपने सर पर वो मैले कुचैले चीथड़े में लिपटी हुई एक गठरी उठाए हुई थी। उस के कपड़े ना सिर्फ़ मैले थे बल्कि फटे-पुराने पैवंद भी लगे थे।
’’कोई ग़रीब भिकारन होगी।'' सेठ लक्ष्मी दास ने दिल में सोचा। ''क्यों माई क्या चाहिए?'' उन्होंने सीढ़ीयाँ उतरते पूछा और क़रीब जाने पर उन्होंने देखा कि औरत ग़रीब सही मगर जवान है और रंगत साँवली होने पर भी ख़ूबसूरत है।
’’एक रात कहीं ठहरने का ठिकाना चाहिए, सेठ जी बड़ी दूर से आई हूँ।''
’’ना बाबा माफ़ करो'' वो जल्दी से बोले। मन ही मन में उन्होंने सोच लिया था कि एक अंजानी ग़रीब जवान औरत को रात-भर के लिए घर में रखने का क्या नतीजा होगा। हो सकता है कि रातों रात घर में से रुपया पैसा या ज़ेवर सोना चुराकर भाग जाये। हो सकता है कि उसे ब्लैक-मेल कर के रुपया वसूल करे। सेठ जी का लड़का जवान था। वो कहीं इस अंजानी औरत के चक्कर में ना आ जाए। फिर भी उन्होंने सोचा दीवाली की रात है। किसी भिकारन को धुतकारना भी नहीं चाहिए।
’’भूकी हो तो खाना खिलवाए देता हूँ। लड्डू, पूरी जो जी चाहे खाओ।''
’’मैं भिकारन नहीं हूँ सेठ जी।''
उसने अपने सर पर धरी हुई गठरी की तरफ़ इशारा करते हुए जवाब दिया, ''मेरे पास खाने को बहुत कुछ है। मकई की रोटी है, चने का साग। गांव का असली घी है। दही है, दूध है। आपके सारे घर को पेट भर कर खिला सकती हूँ। मुझे तो रात-भर ठहरने का ठिकाना चाहिए।'' इस की हाज़िर जवाबी से सेठ जी और घबरा गए। उन्होंने सोचा एक मामूली गांव की औरत की हिम्मत नहीं हो सकती कि यूं सवाल-जवाब करे। कहीं ये औरत इन्कम टैक्स वालों की सी आई डी तो नहीं है।
’’ना बाबा माफ़ करो, हमारे घर में जगह नहीं है। कोई दूसरा घर देखो।''
’’तो फिर दूसरा ही घर देखना पड़ेगा सेठ जी।'' ये कहा और वो औरत अपनी गठरी सँभालती हुई चली गई।सेठ जी मुड़कर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वापिस बरामदे में जा रहे थे कि उन्होंने महसूस किया कि इस अमरीकन दीये की रौशनी कुछ पीली पड़ती जा रही है। ''ये पावर हाऊस का करंट फिर नीचे जा रहा है।'' और फिर चिल्ला कर कहा, ''इंजीनियर जन्रेटर तैयार रखो। दीये बुझने ना पाएं। इलेक्ट्रिक इंजीनियर भागता हुआ आया और उसने कहा, ''सेठ जी करंट बिलकुल ठीक आ रहा है। वैसे जनरेटर भी तैयार है। आप बिलकुल ना घबराईए।''
’’घबराऊं कैसे नहीं?''सेठ जी का दिल ना जाने क्यों एक अजीब बेचैनी से धड़क रहा था। जानते नहीं दीवाली की रात है? एक पल को भी अंधेरा हो गया और वही देवी के आने का समय हुआ और देवी रूठ कर कहीं और चली गई... तो... तो...?''
दूसरा दीया
इन्कम-टैक्स अफ़्सर लक्ष्मी कांत तेल की बोतल लेकर अपने फ़्लैट की बालकनी में निकला तो उसने देखा कि सामने सेठ लक्ष्मी दास का महल बिजली की रौशनियों से जगमगा रहा है।
’’हाँ क्यों ना हो!'' उसने सोचा करोड़ों रुपया ब्लैक का जो मौजूद रखा है। दस हज़ार किया दस लाख बिजली के बल्ब लगा सकता है।''
फिर उसने देखा कि उस की अपनी बालकनी की मुंडेर पर जो सौ दीये उसने सजा रखे हैं, उनमें से एक दीये की लौ धीमी हुई जा रही है। उसने घबराकर सोचा, ''कहीं दीया बुझ ना जाये, शगून ही बुरा ना हो जाएगी!'' और जल्दी से उसने बोतल का तेल दीये में उलट दिया। दिया-सलाई से लौ भी ऊपर की तो उसे ऐसा लगा कि ना सिर्फ़ इस दीए की बल्कि सौ के सौ दीयों की रौशनी एक दम से तेज़ हो गई।
’’धनिया हो, देवी'' उसने दीवार पर लक्ष्मी की तस्वीर के आगे परिणाम करते हुए कहा, ''इस बरस तो तुम्हारी बड़ी कृपा रही है।'' फिर उसने कुर्सी पर आराम से बैठ कर अपना जासूसी नावेल उठाया जो ख़त्म के क़रीब था और जिसका हीरो उस वक़्त डाकूओं की सुनहरी टोली के पंजे में फंसा हुआ था। दरवाज़े की घंटी बजी तो रसोई में से इस की बीवी चलाई। ''अजी ओ।।। ज़रा देखना तो कौन है?'
’’मंगू से कहो ना देखे कौन है'' उसने नावेल से नज़र उठाए बग़ैर जवाब दिया।
’’मंगू को मैंने बाज़ार भेजा है, मिठाई लाने'' रसोई से आवाज़ आई।
’’तो गंगा को भेजो!'' गंगा उनके यहां बर्तन मांझने पर मुलाज़िम थी और सुबह शाम काम करने आती थी।
’’गंगा मुर्दार तो आज छुट्टी मना रही है। कहती थी बाई हमारी भी आज दीवाली है। आज हम काम नहीं करेंगे। सो मैं ने भी चुड़ैल को खड़े खड़े निकाल दिया।''
घंटी एक-बार फिर बजी।
’’अच्छा, अब तुम ही उठ जाओ ना... ज़रूर सेठ जी के हाँ से मिठाई आई होगी।''
’’क्या सिर्फ मिठाई ही आई है या कुछ और?'' उसने उठते हुए पूछा। मगर जब उसने दरवाज़ा खोला तो सेठ जी का मुलाज़िम नहीं है। एक औरत खड़ी है। औरत सूरत से गँवार लगती थी। कपड़े भी फटे पुराने थे। सर पर एक मैले से चीथड़े में लिपटी हुई एक गठरी थी मगर थी जवान और ख़ूबसूरत, लक्ष्मी कांत ने दिल ही में सोचा। जवानी और ख़ूबसूरती पर भी इन्कम टैक्स लगना चाहिए।मगर ऊंची आवाज़ से उसने पूछा ''क्यों, क्या चाहिए?''
’’बाबू-जी बड़ी दूर से आई हूँ। घर लौटने का समय नहीं रहा। एक रात को ठहरने का ठिकाना मिल जाये तो बड़ी कृपा होगी। मैं कहीं कोने में पड़ रहूंगी।''
लक्ष्मी कांत ने एक-बार फिर उस औरत की जवानी का जायज़ा लिया फिर मुड़ कर कन्-अँखियों से रसोई की तरफ़ देखा जहाँ उस की बीवी बैठी पूरियाँ तल रही थी। लाजो मोटी थी। उस के मुँह पर चेचक के निशान थे मगर वो जहेज़ में दस हज़ार नक़द लाई थी। उस के सब रिश्तेदारों ने मुबारकबाद देकर कहा था। लक्ष्मी कांत सच-मुच तेरे घर में तो लक्ष्मी आई है। लक्ष्मी कांत ने अपनी बीवी को देखा और उस के हाथ में पूरियाँ बेलने के लिए जो लकड़ी का बेलन था, और फिर हल्की सी ठंडी सी सांस लेकर इस अंजानी औरत की तरफ़ मुख़ातब हुआ।
’’आई कहाँ से हो?''
’’बड़ी दूर से आई हूँ बाबू-जी, मगर इस वक़्त तो सेठ लक्ष्मी दास के हाँ से आई हूँ।''
’’क्यों सेठ जी ने तुम्हें निकाल दिया...?''
’’हाँ बाबू-जी, यही समझो निकाल ही दिया।''
’’और वहाँ से तुम सीधी यहाँ चली आई।''
’’हाँ बाबू-जी!'
लक्ष्मी कांत ने कितने ही जासूसी नावेल पढ़े थे और उसे मालूम था कि अगर कोई सरमाया-दार किसी को तबाह करना चाहता है तो इस का हथियार कोई ऐसी औरत भी हो सकती है।
’’तो सेठ जी ने मुझे ये दीवाली की भेंट भेजी है?'' उस ने दाँत भींच कर कहा।
’’इस गठरी में क्या है?''
’’इस में मकई की रोटी है बाबू-जी, चने का साग है और गांव का असली घी है और दूध है। दही है।''
’’बस-बस रहने दो।'' उसे यक़ीन था कि ये सब बकवास है। जासूसी नाविलों के मुताबिक़ इस गठरी में ज़ेवर होगा। निशान लगे हुए नोट होंगे। रात को ये गठरी इस घर में छोड़कर ये औरत चम्पत हो जाएगी और जब सेठ उस को पकड़वाने की धमकी देगा तो बग़ैर कुछ लिए दिए उस के इन्कम टैक्स के रिटर्न पास करने होंगे।
’’जाओ दूसरा घर देखो।'' उसने औरत की जवानी का आख़िरी बार जायज़ा लेने के बाद एक और ठंडी सांस भरी और दरवाज़ा बंद कर दिया।
’’कौन था?'' लाजो रसोई से चिल्लाई।
’’कोई नहीं...''
’’कोई नहीं था तो इतनी देर किस से बातें कर रहे थे।''
’’मेरा दिमाग़ मत खाओ। कोई भिकारन थी।''
भिकारन थी तब ही इतनी देर तक मीठी मीठी बातें कर रहे थे, मैं तुम्हें ख़ूब...''
एक बार फिर घंटी बजी। दोनों ने दरवाज़े की तरफ़ देखा।
’’जाओ लगता है फिर तुम्हारी भिकारन आई है।'' बीवी ने हुक्म दिया,
लक्ष्मी कांत ने दरवाज़ा खोला तो सफ़ैद वर्दी पहने एक ड्राईवर हाथ में मिठाई का बड़ा सा सुनहरी डिब्बा लिए खड़ा था
’’सेठ लक्ष्मी दास ने दीवाली की मिठाई भेजी है।''
लक्ष्मी कांत डिब्बा लेकर अंदर आया तो लाजो ने जल्दी से डिब्बा ले लिया और ड्राईवर से चलाकर बोली, ''अच्छा भाई सेठ जी से हमारा नमस्ते कहना और दीवाली की मुबारकबाद।'' दरवाज़ा बंद करके लक्ष्मी कांत कमरे में दाख़िल ही हो रहा था कि बीवी ने फिर डाँटा, ''अरे यहां खड़े मेरा मुँह किया देख रहे हो। जल्दी से दीयों में तेल डालो। उनकी रौशनी कम होती जा रही है।''
तीसरा दीया
दीया सिर्फ़ एक था जो झोंपड़ी के सामने टिमटिमा रहा था। दीये में तेल भी बहुत कम था। अंदर खाट पर लक्खू पड़ा था। उस का नाम भी लक्ष्मी चंद होता था। जब वो अपने गांव से चल कर शहर आया था मगर मील में और झोंपड़ियों की बस्ती में उसे लक्खू ही कहते थे। ग़रीब मज़दूर को और ख़ुसूसन जब वो बेकार हो और बीमार भी हो, भला कौन लक्ष्मी चंद कह सकता था।
उस की बीवी गंगा एक कोने में बने हुए चूल्हे पर भात पका रही थी और सोचती जा रही थी कि बच्चों को भात के साथ साथ खाने को क्या दूँ? बारह आने घर में थे। इस की वो लक्खू की दवा ले आई थी। मालकिन ने खड़े खड़े निकाल दिया था। सिर्फ़ इसलिए कि उसने दीवाली की छुट्टी मांगी थी। पंद्रह दिन की पगार बाक़ी थी वो भी नहीं दी थी। कह दिया था, ''दीवाली के बाद आना, आज के दिन हम लक्ष्मी को घर से बाहर नहीं निकालते।'' इतने में उस के दोनों बच्चे बाहर से भागते हुए आए। बड़ा सात बरस का था लक्षमण, और छोटी चार बरस की थी मीना।
लक्षमण बोला, ''माँ, माँ सेठ जी के महल में इत्ते दीये जल रहे हैं कि लगता है रात नहीं दिन है और एक देव तो इतना बड़ा है कि सब उसे देवी का सम्राट बोलते हैं।'' और मीना ने भिनक कर कहा, ''माँ भूक लगी है।'' मगर लक्षमण ने उसे डाँट दिया, 'मुझे भूक लगी है। मैं कहता हूँ माँ, हमारे हाँ एक ही दीया क्यों जल रहा है?'
’’इसलिए बेटा कि हम ग़रीब हैं। तेल के पैसे नहीं कि और दीये जला सकें।'' और खाँसते हुए लक्खू ने खाट पर से आवाज़ दी, ''अरे तो फिर ये दीया भी बुझा दे। इस झोंपड़ी में अंधेरा ही ठीक है।''
’’हाय राम'' गंगा जल्दी से बोली... दीवाली की रात को दीया बुझा दूं? अंधेरे में देवी लक्ष्मी नहीं आएगी।
लक्खू इतनी ज़ोर से चिल्लाया कि फिर खांसी का दौरा पड़ गया मगर खाँसते-खाँसते भी वो बोलता गया, ''देवी सेठ लक्ष्मी दास के महल में जाएगी। लक्ष्मी चंद के घर नहीं आएगी। ना बुझा चिराग़... थोड़ी देर में तेल ख़त्म हो जाएगा तो आप से आप ही बुझ जाएगा।
लक्षमण जो खिड़की में से झांक रहा था चिल्लाया, ''बाबा। बाबा। देखो हमारे दीये की लौ आप से आप ऊंची होती जा रही है।''
’’पागल हुआ है बे'' लक्खू उसे डाँट ही रहा था कि ये देखकर अचंभे में रह गया कि बाहर रखे हुए दीये की रौशनी अब झोंपड़ी में भी फैलती जा रही है। दरवाज़ा किसी ने खटखटाया। गंगा ने दरवाज़ा खोला तो दीये की रौशनी में देखा, एक औरत खड़ी है।
’’क्या है बहन?''
’’एक रात कहीं ठहरने का ठिकाना चाहिए। बड़ी दूर से आई हूँ।''
’’तो अंदर आओ ना।'' वो औरत दरवाज़ा में से अंदर आई तो उस के साथ ही चिराग़ की रोशनी भी अंदर आ गई। लक्खू ने कहा, ''हमारे पास तो बस यही झोंपड़ी है। होगी तो तकलीफ़, मगर इतनी रात गए और कहाँ जाओगी। खाट भी एक ही है मगर मैं अपना बिस्तर इधर ज़मीन पर कर लूंगा।''
औरत ज़मीन पर बड़े आराम से फसकड़ मार कर बैठ गई थी, ''नहीं भाई, तुम बीमार हो। तुम खाट पर सोओ। मैं तो धरती ही से निकली हूँ। धरती ही से मुझे सुख आराम मिलता है।'' गंगा ने कहा ''लगता है शहर में पहली बार आई हो। कहो दीवाली की रौशनीयां देखीं?''
’’हाँ।'' औरत ने थकी हुई सी ठंडी सांस भरते हुए कहा ''दीवाली की रौशनीयाँ भी देखीं, दीवाली का अंधेरा भी देखा।''
गंगा इस का मतलब ना समझी। लक्खू भी खाट पर पड़ा सोचता रहा। ये औरत तो कोई बड़ी ही अनोखी बातें करती है और उसने दफ़अतन महसूस किया कि जैसे उसकी छाती पर से खाँसी का बोझ आप से आप उतर गया हो। वो जो सात दिन से खाट पर पड़ा था, बे-सहारा उठकर बैठ गया और बोला, ''गंगा आज तो मुझे भी भूक लगी है, निकाल खाना मेहमान के लिए भी।''
गंगा ने हांडी चूल्हे पर से उतारते हुए शर्मिंदा हो कर कहा, ''भात तो है मगर साथ खाने के लिए कुछ नहीं है। ना जाने तुम सूखा भात खा भी सकोगी बहन?''
’’तुम मेरी फ़िक्र ना करो।' औरत ने अपनी गठरी सामने रखते हुए जवाब दिया, ''मेरे पास सब कुछ है। दर-असल ये मैं तुम्हारे लिए ही लाई थी।''
’’हमारे लिए? पर तुम तो हमें जानती ही नहीं थीं।''
’’मैं तुम्हें बहुत अच्छी तरह जानती हूँ बहन। लक्खू भाई को भी, लक्षमण और मीना को भी।'' ये कह कर उसने गठरी खोली तो खाने की ख़ुशबू सूंघ कर बच्चे उस के पास आ गए।
’’इस में क्या है? लक्खू ने खाट से उतरकर चूल्हे के पास बैठते हुए कहा।औरत ने एक एक चीज़ निकाल कर उनके सामने रख दी। ''ये मकई की रोटियाँ मक्खन लगी हुई। ये है चने का साग, ये है गांव का असली घी, ये है दीवाली की मिठाई। असली खोये के पेड़े। ये है दही, और इस लुटिया में बच्चों के लिए गाय का दूध है। शहर की तरह पानी मिला नहीं है।''
और ये सुनकर सब हंस पड़े। मगर इतना बहुत खाना देखकर लक्खू की आँखों में ख़ुशी के आँसू आ गए। रोटी का लुक़्मा बनाते हुए बोला, ''ये सब हो तो फिर आदमी को और क्या चाहिए?''
वो खाना खाते जा रहे थे और इस अंजानी औरत की तरफ़ कन-अँखियों से देखते जा रहे थे जो ना जाने कहाँ से उनके लिए ये सारी नेअमतें लेकर आ गई थी। खाना खाकर वो सब आराम से बैठे तब गंगा ने कहा, ''बहन आज तुम्हारी बदौलत हमारी दीवाली हो गई।'' और लक्खू हंसकर बोला, ''नहीं तो दीवाला ही दीवाला था। तुम्हारा शुक्रिया कैसे अदा करें बहन। हमें तो तुम्हारी पूजा करनी चाहिए।'' और औरत ने कहा, ''शुक्रिया तो मुझे तुम्हारा अदा करना चाहिए। मैं इस सारे शहर में फिरी मगर किसी ने मुझे रात-भर के लिए आसरा नहीं दिया। सिवाए तुम्हारे, सब महलों के सब बंगलों के दरवाज़े बंद थे। मेरे लिए खुला था तो सिर्फ तुम्हारी झोंपड़ी का दरवाज़ा। अब मैं हर बरस तुम्हारे हाँ आया करूँगी दीवाली पर।''
गंगा ने कहा, ''बहन तुम कल सवेरे चली जाओगी तो हम तुम्हें याद कैसे करेंगे? हमें तो ये भी नहीं मालूम तुम कौन हो। कहाँ से आई हो?''
और उस का जवाब सुनकर वो सब बड़ी गहरी सोच में पड़ गए। उस औरत ने कहा, ''मैं यहीं तुम लोगों के पास रहती हूँ... मैं उन खेतों के पास रहती हूँ जहाँ लक्खू भय्या के बाबा अनाज उगाया करते थे और मैं उस कारख़ाने में भी रहती हूँ जहाँ लक्खू भय्या मशीनों से कपड़ा बनाते हैं। जहाँ कहीं इन्सान अपनी मेहनत से अपनी ज़रूरियात पैदा करता है। मैं वहीं रहती हूँ और दीवाली की रात को मैं हर उस घर में पहुंच जाती हूँ जहां एक चिराग़ में भी मुझे इन्सानियत और सच्ची मुहब्बत झिलमिलाती हुई दिखाई देती है।''
थोड़ी देर झोंपड़ी में सन्नाटा रहा। अब उस इकलौते नन्हे से दीये की रौशनी इतनी तेज़ हो गई थी कि झोंपड़ी का कोना कोना जगमगा उठा था और दूर सेठ लक्ष्मी दास के महल में अंधेरा छा गया था। शायद करंट और जनरेटर दोनों फ़ेल हो गए थे और बाबू लक्ष्मी कांत की बालकनी के सारे दीये भी तेल ख़त्म हो कर बुझ गए थे।
’’देवी!'' गंगा ने डरते डरते पूछा, ''तुम्हारा नाम क्या है?''
और उस औरत ने मुस्करा कर जवाब दिया, ''लक्ष्मी।''
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