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दो घंटे जहन्नम में

नियाज़ फ़तेहपुरी

दो घंटे जहन्नम में

नियाज़ फ़तेहपुरी

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    स्टोरीलाइन

    यह दर्द से तड़पते एक ऐसे शख़्स की कहानी है, जिसके बारे में डॉक्टर का कहना है कि यह केवल दो घंटे और ज़िंदा रहेगा। डॉक्टर के यह कहने के कुछ देर बाद ही वह शख़्स बेहोश हो जाता है और उसे महसूस होता है कि फ़रिश्ते उसे आसमान पर ले जा रहे हैं। वहाँ वह जहन्नुम के अलग-अलग हिस्से को देखता है और दो घंटे के बाद जब उसे होश आता है तो वह अपनी बीवी को चारपाई के पास बैठे रोते हुए पाता है।

    सुब्ह तक मैं ख़ुद भी अपने आपको ऐसा बीमार समझता था कि वसीयत की फ़िक्र करता या इन सब नातमाम कामों का इंतिज़ाम कर जाता जिनको मैं कभी अपनी 40 साल की उम्र में पूरा कर सका था और शायद कभी अंजाम तक पहुंचा सकता, ख़्वाह उतनी ही उम्र और क्यों मिल जाती। सिर्फ़ कभी कभी क़ल्ब के हवाल में दर्द की चमक महसूस होती थी और मैं सीना पकड़ कर बैठ जाता, दोपहर तक मुझे और सबको यही यक़ीन रहा कि रियाह का तकासुफ़ है, फ़िक्र की बात नहीं, लेकिन जब शाम के वक़्त दर्द के शदीद-ओ-मुतवातिर हमलों ने तशवीश पैदा की तो डाक्टर साहब बुलाए गए। ये मेरे पुराने रफ़ीक़ थे। उनको हमेशा यही शिकायत रही कि इस ज़माने में लोग तदाफ़ल नसलीन के वक़्त भी इस क़दर बीमार नहीं पड़ते जितने पहले अच्छे मौसम में साहिब-ए-फ़राश हो जाते थे, हमें शक नहीं कि आदमी ज़हीन थे तजुर्बेकार थे, लेकिन मालूम नहीं क्यों वो हमेशा मफ़्लूक-उल-हाल रहे। बहरहाल वो उसकी तावील यही किया करते थे। उन्होंने आते ही नब्ज़ देखी आँखों के पपोटे चीरकर मुआइना किया, ज़बान निकलवा कर उसका रंग देखा और फिर आला सीने पर रखकर ज़रबात-ए-क़ल्ब की हालत देखी और हद दर्जा मायूसाना निगाहों से चारों तरफ़ देखकर मेरे अइज़्जा और तीमारदार से कहा कि आप लोग अगर चंद मिनट के लिए बाहर चले जाते तो बेहतर था। मैं इस वक़्त सुकून की हालत में था। जब तन्हाई हो गई तो उन्होंने मुझसे कहा कि आप बहुत जरी आदमी हैं इसलिए मुझे उम्मीद है कि आप घबराएँगे नहीं, अगर मैं ये कहूं कि आप जल्द से जल्द अपनी वसीयत मुरत्तिब कर लीजिए और जो हिदायतें अपने पसमान्दगान को करना हैं कर दीजिए, क्योंकि आपके क़ल्ब की हालत बहुत नाज़ुक है और मुश्किल ही से शायद दो घंटे वो अपना काम कर सके।

    इसमें कलाम नहीं कि मैं फ़ित्रतन बहुत जरी हूँ और बड़ी से बड़ी मुसीबत में भी कभी नहीं घबराया, लेकिन डाक्टर साहब ने इस क़दर नागहानी तौर पर सिर्फ़ दो घंटे का नोटिस, इस दुनिया से चले जाने का दिया जिसमें मैंने अपनी ज़िंदगी के चालीस साल इस क़दर इन्हिमाक-ओ-ताल्लुक़ शदीद के साथ बसर कर चुका था। मैं वाक़ई घबरा गया। जैसा कि मैंने अभी ज़िक्र किया कि वाक़ई मैं कमज़ोर तबीयत का इन्सान नहीं हूँ लेकिन ये ग़लत होगा कि अगर ये कहा जाये कि मैं मौत से भी नहीं डरता था। मेरा ख़याल क्या यक़ीन था कि कम अज़ कम 80 साल ज़रूर जियूँगा क्यों कि मेरी सेहत अच्छी थी मेरे क़वा सही थे, बीमार बहुत कम पड़ता था, पूरे दो मन का वज़न रखता था और फिर सब से ज़्यादा ये कि मुझे दुनिया में बहुत से काम करना थे और मैं नहीं समझ सकता था कि फ़ित्रत इस क़दर ज़ालिम हो सकती है कि वो मुझे क़ब्ल अज़ वक़्त उठा ले दर आँ हालां कि मेरे रहने से उसका कोई नुक़्सान था। इसलिए जब मैंने ये सुना कि 80 साल में दफ़अतन 40 साल कम हो गए हैं और मैं अपने तमाम कामों को अधूरा छोड़ जाने पर मजबूर हूँ, तो मेरी तमाम जुर्रत-ओ-हिम्मत मफ़क़ूद हो गई और मेरी हालत उस कबूतर की सी हो गई जो बाज़ के पंजा में पहुंच कर बाज़ू फट फटाने की भी क़ुव्वत खो बैठता है, सबसे पहले मुझे अपनी बीवी का ख़याल आया कि वो इस सदमे को क्यों कर बर्दाश्त करेंगी। बीस बरस की मय्यत का यूं दफ़अतन ख़त्म हो जाना, उनको किस क़दर बेताब कर देगा, उसके बाद मैंने सोचा कि मेरे दो बच्चे जिनकी तालीम भी अभी पूरी नहीं हुई, क्या करेंगे। मेरी छोटी बच्ची जो मुझी को देखकर जी रही है, क्योंकर ज़िंदा रह सकेगी, रुपया अपनी बे-एहतियातों की वजह से कभी पस अंदाज़ नहीं कर सका, कारोबार की हालत दुरुस्त नहीं, हो भी तो इसका चलाने वाला कौन है, बीमा की रक़म भी इतनी नहीं कि बीवी-बच्चों के लिए माक़ूल सहार हो सके। अल-ग़रज़ ये तमाम हौलनाक ख़यालात मुजस्सम हो कर सामने गए और मैं ऐसा महसूस करने लगा कि जिस्म के रेशे रेशे में किसी ने बर्फ़ पिघला कर भर दिया है। सर पेशानी से ठंडा पसीना बह बह कर टपकने लगा और हाथ पांव ऐसे ढीले पड़ गए गोया उनकी जान निकल गई है। मैंने बहुत कोशिश की कि डाक्टर साहब को कोई जवाब दूं लेकिन ज़बान ने काम दिया और मैं बेहोश हो कर वहीं पलंग पर गिर पड़ा। उसके बाद मुझे मुतलक़ ख़बर नहीं कि मैं कब मरा और किस वक़्त क़ब्रिस्तान में पहुंचाया गया।

    दफ़अतन मैंने ये महसूस किया कि सामने से एक बड़ा शोला चला आरहा है, लेकिन तारीकी का ये आलम है कि उसकी रौशनी बिल्कुल नहीं फैल सकती और गर्मी की शिद्दत से दम घुटा जा रहा है। मैंने अपने चारों तरफ़ हाथ पांव चलाए तो मालूम हुआ कि मैं किसी गड्ढे के अंदर बंद हूँ और जगह इस क़दर तंग है कि उठकर बैठ भी नहीं सकता। वो शोला बढ़ते बढ़ते क़रीब आया और दो हिस्सों में तक़सीम हो कर मेरे दोनों पांव के ऊपर क़ायम हो गया। अब गर्मी बहुत ज़्यादा हो गई थी और कैफ़ियत ये थी कि जिस्म पसीने के हाथ घुला जा रहा था। मैंने अपने पांव समेटने चाहे कि कहीं ये दोनों शोले मुझे जला ना दें लेकिन मैं इसमें कामियाब हुआ। थोड़ी देर में वो दोनों रोशनियां तूल में बढ़ने लगीं, यहां तक कि उनमें से हर एक बहुत लंबी सलाख सी बन गई और अजीब क़िस्म की भयानक से चेहरे उनमें से पैदा हो कर मेरी तरफ़ घूरने लगे। ख़ौफ़ से मेरी आँखें बंद हो गईं और अजीब क़िस्म की हैबत मुझ पर तारी होने लगी। फ़ौरन मुझे ख़याल आया कि कहीं नकीरैन यही तो नहीं हैं, जिनका ज़िक्र मैंने किताबों में देखा था और इस ख़याल के आते ही मैं ऐसा महसूस करने लगा गोया निहायत ही वज़नी गुर्ज़ सर पर मार रहे हैं और मेरा दिमाग़ पाश पाश हुआ जा रहा है। मैं चीख़ उठा कि ख़ुदा के लिए मुझे क्यों मारते हो? उन्होंने कहा कि आज तो हमें ख़ुदा का वास्ता दिलाता है लेकिन ये तो बता कि कभी तूने भी ख़ुदा से कोई वास्ता रखा था, तूने उसको हमेशा एक क़ुव्वत समझा और क़ुव्वत भी मजबूर क़िस्म की जो मुक़र्ररा उसूल के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कर सकती। फिर आज क्या हुआ जो उसकी पनाह में आना चाहता है।

    अब मुझे ग़ुस्सा गया और मैंने कहा कि ये कहाँ की इन्सानियत है कि बात का जवाब भी नहीं सुनते और मारना शुरू कर देते हो। मुझसे सवाल किया है तो उसका जवाब सुन लो फिर मारने मारने का तुम्हें इख़्तियार है।

    वो लफ़्ज़ 'इन्सानियत' सुनकर बहुत हंसे, उनकी हंसी बहुत ही मुहीब क़िस्म का ज़हर ख़ंद थी और बोले कि बेवक़ूफ़, इन्सान और इन्सानियत ये सब दुनिया और माद्दी आलम की इस्तिलाहें हैं यहां इनका इस्तेमाल दुरुस्त नहीं। फिर ये कि हम इन्सान कब हैं जो हम से इन्सानियत की तवक़्क़ो रखता है। हम लोग फ़रिश्ते हैं फ़रिश्ते। यूँ ही गुर्ज़ चलाते चलाते मालूम कितना ज़माना गुज़र गया है और दुश्मनी की वो आग जो आदम की पैदाइश के वक़्त से मख़फ़ी तौर पर हमारी मख़लूक़ में इन्सान की तरफ़ से भड़कती रही है, उसे इसी तरह बुझाया करते हैं। बेशक हमने आदम को सजदा किया था, लेकिन वो सजदा मजबूरी का था कि दिल की ख़ुशी का।

    मैं ये ख़याल करके इनकी गुफ़्तगू से तो कुछ ख़ुदा की तरफ़ से भी बेज़ारी पाई जाती है बहुत ख़ुश हो कर कहा कि, सच कहते हो, वाक़ई तुम्हारी सख़्त तौहीन की गई कि ख़ाक आग के पुतले के सामने झुकने पर मजबूर किए गए। इसलिए अगर तुम मुझे मोहलत दो, तो मैं तुम्हें ख़ुदा की बंदगी के अज़ाब से नजात दिलाने के लिए आमादा हूँ और सच पूछो तो ख़ुदा तुम्हीं को होना चाहिए कि तुम्हारे गुर्ज़ से साम-ओ-नरीमान, रुस्तम-ओ-असफंदयार का कलेजा दहल सकता है। मैंने तो ख़ुदा का वास्ता सिर्फ़ इस आदत की बिना पर दिलाया था जो दुनिया की ज़िंदगी में पड़ गई थी और जिससे मक़सूद गुफ़्तगू में ज़ोर देने के इलावा और कुछ नहीं। अच्छा तो मुझे उठाओ और इस तारीक ग़ार से बाहर निकालो ताकि मैं आज़ादी से सांस लेकर सोचूं कि क्यों कर तुम्हारी ख़ुदाई दुनिया में क़ायम हो सकती है।

    वो ये सुनकर बहुत हंसे और बोले कि सारी उम्र में तू ही आज पहला मुर्दा ऐसा मिला है जो हमें बहका कर ख़ुदा से मुनहरिफ़ करना चाहता है। अहमक़ तुझे नहीं मालूम कि हमारी तमाम हरकतें मशीन की तरह हैं और हमको सोचने का इख़्तियार है, इसके इलावा कुछ करने का। जो बे-इख़्तियाराना तौर पर हमसे सरज़द होता रहता है, ज़्यादा बक बक कर, उठ जहन्नम तेरा इंतिज़ार कर रहा है और आग के शोले तुझे ढूंढ रहे हैं।

    अब मुझको पहली मर्तबा वाक़ई तौर पर मालूम हुआ कि मैं मर गया हूँ और जहन्नम का नाम सुन कर फिर मेरे हवास ने जवाब देना शुरू किया। आँख खुली तो देखा कि नकीरैन ग़ायब हैं और मेरे गले में एक ज़ंजीर पड़ी हुई है जो मुझे तपते हुए रेगिस्तान के ऊपर से घसीटती हुई किसी तरफ़ लिए जा रही है। इधर उधर जो मैंने निगाह की तो मालूम हुआ कि दूर दूर फ़ासिले पर मुझ ऐसे सैंकड़ों मुर्दे घसीटे जा रहे हैं, उनमें कोई चीख़ रहा है कोई तड़प रहा है और बा'ज़ ऐसे भी हैं जो मेरी तरह बिल्कुल ख़ामोश हैं और हद दर्जा बेचारगी के साथ घसीटे जा रहे हैं। थोड़ी दूर चल कर मैंने देखा कि हर मुर्दा की सिम्त रफ़्तार बदल गई है और अब मैं तन्हा रह गया हूँ, वो ज़ंजीर दफ़अतन मुझे ग़ार तक पहुंचा कर ग़ायब हो गई और मैं उसके अंदर तेज़ी से जाने लगा जैसे कोई अज़दहा अपनी गर्म-ओ-मस्मूम सांस से खींच रहा हो, मुझे नहीं मालूम कि मैं कब तक इस तरह घिसटता रहा। दफ़अतन ये कशिश भी दूर हुई और मैंने अपने आपको ऐसे मैदान में पाया जो हद-ए-नज़र तक वसी’ था और आग की गर्मी से ऐसा मालूम होता था जैसे सुर्ख़ आंधी छाई हुई हो। जा बजा चिंगारियों के बगूले बुलंद हो रहे थे और कहीं कहीं आग के फ़ील पैकर शोले जिनमें से बा'ज़ बिल्कुल तारीक थे और बा'ज़ बिल्कुल सफ़ेद, इस तरह उठ रहे थे जैसे तूफ़ान में समुंदर मौजें ले रहा हो। प्यास से बुरा हाल हो रहा था। ज़बान बाहर निकल पड़ी थी, तालू चटख़ा जा रहा था और हलक़ में कांटे पड़ गए थे। मैंने इधर उधर देखा कि कहीं से खौलता हुआ पानी ही मयस्सर जाए लेकिन बिल्कुल कामियाब नहीं हुआ, मैं सोच रहा था कि अगर मुझ पर अज़ाब ही होना है, तो वो क्यों नहीं शुरू हो जाता और क्यों नहीं मुझे आग में डाल दिया जाता कि जल भुन कर ख़ाक हो जाऊं और इस तकलीफ़ से नजात पाऊँ। नागहां एक फ़रिश्ता सामने से उड़ता हुआ नज़र आया। जिसके पर-व-बाज़ू शोले की तरह चमक रहे थे और जिसका चेहरा ऐसा नज़र आता था जैसे खौलता हुआ ताँबा। उस चेहरे में सिर्फ़ एक आँख चांदी की तरह दरमियान में चमक रही थी जिसके अंदर से कबूद रंग की शुआएं, बबूल के कांटों की तरह निकल निकल कर जिस्म में चुभती हुई महसूस होती थीं, वो मेरे सामने आकर क़ायम हो गया इस हाल में कि उसका सारा जिस्म ऐसा नज़र आता था जैसे गंधक के ढेर में आग दे दी गई हो।

    उसने कहा, तुम्हारे लिए ये हुक्म हुआ है कि फ़िलहाल चंद दिन तक जहन्नुम में आज़ाद छोड़ दिए जाओ और सिवाए उस ईज़ा के जो यहां की फ़िज़ा में अज़ ख़ुद तुम्हें पहुंच जाये कोई और अज़ाब मुसल्लत किया जाये।

    ये कह कर फ़रिश्ता धुंए की शक्ल इख़्तियार करके फ़िज़ा में अज़ खु़द तहलील हो गया और मैं हैरान कि आज़ादी भी मिली तो कहाँ जा कर, लेकिन इस ख़याल से कि ख़ैर फ़िर्दोस की पाबंदी से बहरहाल जहन्नम की आज़ादी बेहतर है, आगे बढ़ा और ये देखकर मुझे सख़्त हैरत हुई कि अब बजाय चटियल मैदान के निहायत वसी’ क़िला का सा हिसार सामने था। मैं उस फाटक पर था जो सुरंग की तरह बिल्कुल गोल था दफ़अतन दरवाज़ा खुला और मैं अंदर दाख़िल हो गया। एक तरफ़ निहायत वसी’ झील खौलते हुए पानी की थी जिसमें नए मुर्दे ला कर ग़ोता दिए जा रहे थे और इस तरह गोया सबसे पहले उनकी चर्बी निकालने की रस्म पूरी हो रही थी। उफ़ूनत से दिमाग़ फटा जा रहा था और चीख़-ओ-पुकार से कलेजा दहला जाता था। दाहिनी निगाह गई तो बहुत से आहनी मकान नज़र आए जिनकी दीवारें बुलंद थीं लेकिन शोले उनके ऊपर से निकलते हुए दिखाई देते थे। हर मकान का एक दरवाज़ा था, लेकिन बहुत तंग और उसके अंदर से भी दहकती हुई आग इस तरह नज़र आती थी जैसे इंजन की भट्टी दरवाज़ा खुलने के बाद।

    सबसे पहले मकान के दरवाज़े पर आतिशीं हुरूफ़ में इब्लीस के नाम का बोर्ड लटक रहा था। लेकिन ये मकान मकीन से ख़ाली था क्योंकि क़यामत के दिन तक ये दुनिया में आज़ाद छोड़ दिया गया है। अंदर सिर्फ़ धुआँ सा उठ रहा था और आतिशकदे हनूज़ रौशन नहीं किए गए थे।

    उसके पास ही दूसरे मकान पर फ़िरऔन का नाम दर्ज था। ये नाम देखते ही तमाम वो झगड़े सामने गए जो उसके और मूसा अ.स. के दरमियान पैदा हुए थे और बेताबाना अंदर दाख़िल हो गया, देखा कि एक निहायत ही मुहीब शक्ल का इन्सान बेताबाना इधर उधर दौड़ता फिर रहा है, तमाम जिस्म में उसके साँप बिच्छू लिपटे हुए हैं और वो उनके ज़हर की तकलीफ़ से बेचैन हो कर क़रीब ही एक गढ़े में जिसका पानी सर्द मालूम होता है कूद पड़ता है लेकिन उसके कूदते ही आग लग जाती है और फिर वहां से घबरा कर बाहर निकल आता है। मैंने चाहा कि खड़े हो कर कुछ हालात दरियाफ़्त करूँ लेकिन उसकी बेताबी किसी एक जगह लम्हा भर के लिए भी ठहरने की इजाज़त देती थी, इसलिए मैं इस में कामियाब हुआ। सामने उसके अज़ाब का मुफ़स्सिल प्रोग्राम दीवार पर मनक़ूश था और उसके देखने से मालूम हुआ कि हज़ार तरह के अज़ाबों में ये सिर्फ़ दूसरे क़िस्म का अज़ाब था जो एक हज़ार साल तक इसी तरह क़ायम रहेगा, उसके बाद तीसरे अज़ाब का ज़माना आएगा, फिर चौथे का यहां तक कि ये हज़ार क़िस्म के अज़ाब पूरे हो जाएंगे तो फिर दस लाख साल का दूसरा प्रोग्राम बनाया जाएगा।

    मैं घबरा कर यहां से निकला तो क़रीब ही क़रीब हामान शद्दाद के मकान नज़र आए लेकिन मैं अंदर नहीं गया, इसी तरह क़ारून, नमरूद सामरी, ज़ह्हाक वग़ैरा की अज़ाबगाहों से गुज़र गया, लेकिन जब दफ़अतन मेरी निगाह क्लियो पेट्रा के बोर्ड पर पड़ी तो ठहर गया क्योंकि मुझे उसकी ज़ियारत का शौक़ था और मैं चाहता था कि देखूं इसमें वो कौन सी बात थी जिसने मिस्र-ए-क़दीम को दीवाना बना रखा था, अंदर गया तो सबसे पहले एक आतिशीं आबशार नज़र आई जो एक संगीन मूरत पर तेज़ी के साथ गिर रही थी। जिस वक़्त उस आबशार की धार उस बुत पर पड़ती थी तो फ़व्वारे की शक्ल में उससे चिनगारियां बुलंद होने लगती थीं। ये बुत क्लियोपेट्रा का था, बुलंद-ओ-बाला, पुर शबाब, आशुफ़्ता गेसू और सर से पांव तक बिल्कुल उर्यां-ओ-बेपर्दा। मैं हैरान था कि अगर क्लियोपेट्रा को पत्थर बना कर मुब्तलाए अज़ाब किया गया है तो इसको ख़ुदा के जमालियाती ज़ौक़ की रिआयत के सिवा और क्या कह सकते हैं कि दफ़अतन वो बुत शिक़ हुआ और उसके अंदर से एक औरत इन्सानी शक्ल-ओ-सूरत और ख़द्द-ओ-ख़ाल की नुमूदार हुई। उसके तमाम जिस्म पर छोटे छोटे आबला मोती की तरह झलक रहे थे, लबों से ख़ून के क़तरे और आँखों से उन्नाबी रंग के आँसू ढलक ढलक कर आबलों पर रंगीन ख़त डालते हुए नीचे गिर रहे थे। गले में सफ़ेद अंगारों का एक हार पड़ा हुआ, आग की लपेट से जुंबिश में कर जिस्म से मस करता था और हर बार उसके गोरे जिस्म पर एक सुर्ख़ निशान छोड़ जाता था। इस आलम में भी उस पर एक शाहाना जमाल का रंग पैदा था और क़ैसर वानज़ानी अगर इस हाल में भी उसे देख लेते तो शायद उससे दोबारा मिल जाने के गुनाह में एक उम्र दोज़ख़ में और बसर करने के आमादा हो सकते थे। मैं चाहता था कि किसी तरह उसकी वो निगाहें देखूं जिनसे मस्हूर हो कर इन्सान ख़ुशी से जाम ज़हर पी जाया करता था। उसकी लाँबी लाँबी पलकें ख़ून तो ज़रूर टपकाती रहीं लेकिन उसकी निगाहों ने बुलंद हो कर फ़िज़ा को मस्मूम नहीं किया। थोड़ी देर तक इसी हालत में रहने के बाद वो बुत फिर शक़ हुआ और उसके अंदर क्लियोपेट्रा समाने लगी। ये ग़ालिबन उसके लिए सबसे बड़ा अज़ाब था। क्योंकि जितना हिस्सा उसके जिस्म का पत्थर में तबदील होता जाता था उसी क़दर ज़्यादा उसके चेहरे से कर्ब-ओ-मलाल के आसार ज़ाहिर होते जाते थे, यहां तक कि जब गर्दन तक वो पत्थर की हो गई तो एक ऐसी चीख़ उसके मुँह से निकली जैसे सैंकड़ों मन बोझ के नीचे दब गई हो और फिर दफ़अतन उसका चेहरा भी उसी संगीन हालत में मुंतक़िल हो गया। दोज़ख़ में आने के बाद ये पहला मंज़र था जिसने बजाय ग़म-ओ-ग़ुस्सा के मलाल की कैफ़ियत मेरे अंदर पैदा की।

    यहां से निकलने के बाद मुझे नैनवा-ओ-बाबुल की उस मशहूर रक्क़ासा का मकान जिसकी निस्बत कहा जाता है कि हारूत-ओ-मारूत को मुब्तलाए हुस्न कर के उसने इस्म-ए-आज़म सीख लिया था और आसमान पर ज़ोहरा बन कर उड़ गई थी। यहां कर मालूम हुआ कि आसमान पर उड़ जाना ग़लत ख़बर थी बल्कि वो क़सर-ए-जहन्नम में हारूत-ओ-मारूत के साथ फेंक दी गई थी, मैं इस के भी देखने का शाइक़ था, इसलिए अंदर गया। यहां मैंने निहायत ही तारीक धुआँ देखा, जिसमें चिनगारियां जुगनू की तरह चमक रही थीं। देर तक आँखें मलने के बाद उसी तारीकी में दूर एक औरत नज़र आई जो अंगारों पर लोट रही थी और जिस्म से चर्बी और ख़ून के जो क़तरे टपक टपक कर आग पर गिरते थे तो सख़्त उफ़ूनत पैदा होती थी। मैं यहां ज़्यादा अर्सा तक नहीं ठहर सका और फ़ौरन नाक बंद कर के बाहर निकल आया।

    मैं यहां से निकल कर कहाँ गया और किन किन लोगों को अज़ाब में मुब्तला पाया, उसकी तफ़्सील किसी आइन्दा सोहबत पर मुल्तवी रखते हुए सिर्फ़ ये बता देना चाहता हूँ कि जब उस तब्क़े में पहुंचा जो सिर्फ शाइरों के लिए मख़सूस था तो मीर, मुसहफ़ी, नासिख़, आतिश वग़ैरा ख़ुदा मालूम किन किन शाइरों से मिलकर ग़ालिब के पास पहुंचा, तो वहां एक अजीब-ओ-ग़रीब लतीफ़ा उन्होंने सुनाया कि,

    जब मेरे आमाल का मुहासिबा हुआ और दोज़ख़ के काबिल समझ कर जन्नत के एक निहायत ही हक़ीर हिस्से में ले जा कर एक ऐसे हुज्रे में बंद कर दिया जहां सिवाए एक ख़ुश्क गमले के और कुछ था तो मुझसे दरियाफ़्त किया कि तुम अपनी बहुत सी आरज़ूएं ना मुकम्मल छोड़कर आए हो और तुम्हारे बहुत से नाकर्दा गुनाहों की हसरत हुनूज़ दाद तलब पड़ी हुई है, इसलिए बताओ उनमें से कोई एक आज पूरी हो सकती है। मैंने फ़र्त-ए-मसर्रत में घबरा कर कह दिया कि 'कोई एक' मेरे मुँह से ये निकला ही था कि फ़िर्दोस के इस हुज्रे को उठा कर यहां दोज़ख़ में डाल दिया। मैं हैरान था कि ख़ुदाया ये मेरी कौनसी आरज़ू थी जो इस तरह पूरी की जा रही है कि नागहां सामने दीवार पर ये मिसरा नज़र आया कि,

    दोज़ख़ में डाल दे कोई लेकर बहिश्त को

    अब मेरी समझ में आया कि मेरे ऊपर इस मिसरे की वजह से ये अज़ाब नाज़िल किया गया है। ख़ैर ये तो कुछ हुआ सो हुआ, लेकिन मेरी समझ में आज तक ये आया कि इस शेअर का पहला मिस्रा' ताअत में रहे ना मय आबगीन की लॉग' ख़ुदा को सुनाया गया या नहीं ज़ाहिर है कि वहां तक ये बात नहीं पहुंची वर्ना मुझे तो फ़िर्दोस से भी बुलंद कोई चीज़ मिलनी चाहिए थी कि ऐसा हक़ीर-ओ-कसीफ़ हुज्रा जो अगर जहन्नम में डाल दिया जाता तो मैं ख़ुद उसके अंदर आग जला कर उसकी गंदगी-ओ-उफ़ूनत को दूर करता, मैं समझता हूँ कि इन ज़ाहिर परस्त मुल्लाओं ने यहां भी अपना इक़्तिदार क़ायम कर दिया है और अफ़सोस कि अब फ़िर्दोस भी रहने के क़ाबिल जगह रही।

    मैंने ये सुनकर कहा कि आपका ये ख़याल ग़ालिबन दुरुस्त नहीं, क्योंकि मैंने तो आज ऐसे ऐसे मौलवियों और तहज्जुद गुज़ार बुज़ुर्गों को दोज़ख़ में जलते और सिसकते देखा है कि उनकी निस्बत कभी गुमान भी नहीं हो सकता था कि वो आला अलीमैन से एक क़दम नीचे उतरेंगे।

    ये सुनकर वो बहुत मुतहय्यर हुए और बोले कि फिर तो दोज़ख़ भी रहने के क़ाबिल रही। तमाम उम्र उनके के सलाह-ओ-तक़वे के वा’ज़ ने मुझे दुनिया में चैन लेने दिया। फ़िर्दोस का हाल मालूम नहीं कि वहां मैंने कुछ देखा नहीं। जहन्नुम में आया तो मालूम हुआ कि ये अज़ाब यहां भी मौजूद है। लाहौल वलाक़ुवत, कहो तुम यहां किस सिलसिले से आए हो।

    मैंने अर्ज़ किया कि मुझे अभी तक बिल्कुल इसका इल्म नहीं। फ़िलहाल आज़ाद छोड़ दिया गया हूँ, आइन्दा देखिए क्या फ़ैसला होता है, डरता हूँ कि शाइरों के सिलसिले में कहीं जगह दी जाये क्यों कि उन पर जिस क़िस्म के अज़ाब होते मैंने देखा है वो हद दर्जा तौहीन आमेज़ है। उनके हर हर झूटे शेअर की एक तिम्साली सूरत अज़ाब की सूरत में पेश की जाती है और ये आपको मालूम ही है कि शायर किस-किस तरह झूट बोलता है। मालूम नहीं आपने ये शेअर,

    असद ख़ुशी से मिरे हाथ पांव फूल गए

    कहा जो उसने ज़रा मेरे पांव दाब तो दे

    किसी वाक़िया की बिना पर कहा है या नहीं लेकिन अगर ये शे’र झूट कहा गया है तो यक़ीनन ये हरकत आपको यहां करना पड़ेगी और एक हज़ार साल तक जो यहां की रियाज़ी की इकाई है बराबर आपको किसी निहायत ही मुर्दा शक्ल वाले के पांव दाबना पड़ेंगे। अल-ग़र्ज़ मैं उस वक़्त से काँपता हूँ जब शो’रा के ज़मुरे में मुझ पर अज़ाब नाज़िल किया जाये। हरचंद इस का अंदेशा कम है क्योंकि अव्वल तो मैंने शे’र ही बहुत कम कहे हैं और जो चंद कहे भी हैं तो वो शे'रों में शुमार होने के क़ाबिल नहीं।

    वो उसका जवाब देना ही चाहते थे कि दफ़अतन अपने हाथों से अपना मुँह नोचने लगे, सीना ज़ख़्मी करने लगे, मैंने ख़याल किया कि यक़ीनन ये भी कोई अज़ाब है और देर तक सोचने के बाद मालूम हुआ कि ये दाद है, उनके इस शे'र की,

    ताबन्द नक़ाब कि कशू दस्त ग़ालिब

    रुख़्सार नाख़ुन सिला दारैम-ओ-जिगर हम

    मैं ये देखकर यहां से दबे पाँव बाहर चला गया और सोचता रहा कि देखिए अब कब तक ग़रीब ग़ालिब इस हाल में मुब्तला रहता है।

    जहन्नम के कितने तबक़ात हैं इसका इल्म मुझे नहीं, लेकिन ये ज़रूर जानता हूँ कि हर गिरोह-ओ-जमात के लिए एक एक हिस्सा मुक़र्रर है। मसलन एक हिस्सा जहन्नमी बादशाहों का है जिनमें से सिर्फ़ फ़िरऔन का हाल मैं ने लिखा, दूसरा हिस्सा हुकमा और उल्मा का है जिनमें से अरस्तू, अफ़लातून, फ़ैसा ग़ौरस वग़ैरा सैंकड़ों को मुख़्तलिफ़ अज़ाब में मैंने मुब्तला देखा, एक हिस्सा मौलवियों, मुत्तक़ियों और नमाज़ियों का भी है और ये देखकर मुझे कितनी हैरत हुई कि उनमें से बा'ज़ ऐसे ऐसे अकाबिर भी मुब्तलाए अज़ाब थे जिन्हों ने दुनिया में अपनी मुस्तक़िल शरीयतें क़ायम कर रखी थीं, लेकिन सबसे ज़्यादा हंसी मुझे उस वक़्त आई जब मैंने अपने मुहल्ले के एक मौलवी को भी यहां देखा और वो मुझे देखकर सख़्त शर्मिंदा हुआ क्यों कि वो मुझे हमेशा काफ़िर और जहन्नमी कहा करता था और अपने आपको रिज़वान के बेटे से कम नहीं समझता था। मुझे आज़ाद फिरता देखकर उसे बड़ा रश्क आया, लेकिन मैंने कोई ता'न आमेज़ फ़िक़रा इस्तेमाल नहीं किया, क्यों कि उसकी हालत ख़ून और पीप पीते पीते बहुत सक़ीम हो गई थी और उसकी ज़बान पर बबूल के कांटों की तरह सैंकड़ों ख़ार पैदा हो गए थे, जिनकी वजह से वो ज़बान को अंदर ले जा सकता था।

    जब बादशाहों, अमीरों, फ़लसफ़ियों, मौलवियों, शाइरों और मुसन्निफ़ों के तबक़ात से गुज़र कर मैं उस हिस्से में पहुंचा जो औरतों के लिए मख़सूस था तो मुझे सख़्त तकलीफ़ हुई और ऐसा मालूम हुआ कि किसी ने कुतुबमीनार से उठा कर मुझे नीचे फेंक दिया। मैं चौंक पड़ा और आँख खुली तो देखा बीवी बुरी तरह रो रही हैं, बच्चे तड़प रहे हैं और कुछ लोग कफ़न ला कर मेरे ग़ुसल की तैयारी में मसरूफ़ हैं। ठीक पाँच बजे शाम को डाक्टर साहब ने मेरी दो घंटे की ज़िंदगी का एलान किया था और 7 बजे शाम को दो घंटे बाद जो मेरी आँख खुली तो मैं ज़िंदा था।

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