दुख कैसे मरता है
इमरजेंसी वार्ड में दाख़िल होते ही नबील का दिल उलटने लगा, ज़ख़्मों पर लगाई जाने वाली मख़सूस दवाओं की तेज़ बू ने साँसों की सारी अमी-जमी उखाड़ दी थी।
उसे मेडिकल वार्ड नंबर तीन जाना था मगर इस हस्पताल में ख़राबी ये थी कि अंदर दाख़िल होते ही पहले इमरजेंसी वार्ड पड़ता था, जिसमें कोई लम्हा शायद ही ख़ाली गुज़रता होगा, जब कोई नया मरीज़ न लाया जाता होगा। नबील ने तो जब भी देखा, कटे-फटे, उखड़ी हुई साँसों वाले और बुरी तरह तड़पते मरीज़ों को लाए जाते देखा। नर्सें और डॉक्टर भाग-भाग कर उनकी जानें बचा रहे होते। किसी के ज़ख़्मों के रास्ते बदन से बाहर बहने वाले ख़ून को रोका जा रहा होता, किसी की रगों में ठहर जाने वाले लहू में छाती दबा-दबा कर बहाव लाने की कोशिश हो रही होती और कोई ख़ुद ही खाँस-खाँस कर फेफड़ों में इकट्ठी हो जाने वाली रत हलक़ तक मुँह खोल-खोल कर उलट रहा होता। उसने हर बार सोचा उनमें से कई बच जाते होंगे... ज़रूर बच जात होंगे, मगर वो तो जब भी दाख़िल हो रहा होता या बाहर निकलने को उधर जाता एक दो लाशें स्ट्रेचर पर धरी होतीं और उन पर बेक़ाबू हो कर गिरती-पड़ती रोती-चीख़ती औरतों को उनके मर्द सब्र की तलक़ीन करते होए अलग कर रहे होते।
मरने वालों पर सब्र आ ही जाता होगा।
नबील ऐन उस लम्हे में ऐसा नहीं सोचता था जब कि वो जिगर फाड़ डालने वाली चीख़ें और बैन सुन रहा होता, बल्कि तब सोचता जब वो कार्डियोलॉजी वार्ड की तवील राहदारी में पहुँचता... और इसका सबब ये था कि उसने यहाँ से ऐसी-ऐसी लाशें लाई जाती देख रखी थीं, जिनके इर्द-गिर्द चलने वालों में से कोई भी चीख़ नहीं रहा था। कोई दबी-दबी सी सिसकी... ज़ब्त करने के बावजूद निकल आने वाला आँसू... कुछ भी तो नहीं। सब के चेहरे सफ़ेद कफ़न की तरह साफ़ थे... और वो स्ट्रेचर के साथ-साथ यूँ चल रहे थे, जैसे इस लाश के एहतिराम में ख़ामुशी से चलने की वो बरसों से मश्क़ करते आए थे... और अब मौक़ा आ गया था तो सब्र के आईने में बाल ला कर वो सारी रियाज़त ज़ाए’ करना नहीं चाहते थे। ऐन उसी लम्हे इसने ये भी सोचा था कि ये जो अचानक मुसीबत आ जाती है, ये आदमी को बौखला कर बे-सबरा बना देती है वर्ना तो सब्र आ ही जाया करता है।
इमरजेंसी से मुलहक़ कार्डियोलॉजी वार्ड था यहाँ पहुँच कर और ऐसा सोच कर उसकी साँसों में तवाज़ुन आ जाता। नबील इस वार्ड से मानूस था। कई हफ़्ते पहले वो यहाँ तीन बार आया था। तीनों बार उसे नुदरत लाई थी। उसके डैडी को वहम हो गया था कि शायद नुदरत की मम्मा को हार्ट प्रॉब्लम हो गया था। नुदरत ने उसे बताया था कि एक दोपहर उसकी मम्मा खाना खा कर हसब-ए-मा’मूल घंटा भर के लिए लेटी, उठी, तो छाती पर बोझ था। एक गोला सा नाफ़ के ऊपर से उठता और पसलीयों के इस वस्ती अहाते में, जहाँ कहीं दिल था, मादूम हो कर एक चुभन छोड़ जाता था। उसके डैडी उसकी मम्मा को यहाँ ले आए थे और जब तक सारे टेस्ट होने के बा’द डॉक्टरों ने हर तरह से तसल्ली नहीं करा दी उसे हस्पताल से वापिस नहीं ले गए थे।
ख़ुद नबील को दिल की बीमारी का शाइबा तक न था... और उसे यक़ीन था कि उस जैसा आदमी, जो ज़िंदगी के मु’आमलात को दिल पर इंतिहाई सब्र और एहतियात से लेता हो, उसे दिल की बीमारी लगनी भी नहीं चाहिए मगर इसके बावजूद जब उसे पहली बार नुदरत की मम्मा को देखने आना पड़ा था तो दिल में इख़्तिलाज सा होने लगा था। इस पर उसने दूसरे विज़िट तक क़ाबू पाना सीख लिया। शायद जो उसने यूँ सीखा, वो ज़ब्त था। सब्र करना और होता है और ज़ब्त करना और... और सब्र का मु’आमला तो ये था कि वो तो उसे बहुत पहले का सीख चुका था।
मेडिकल वार्ड आगे था। दाएँ एक, बाएँ दो और सामने तीन। इसी तीसरे वार्ड के प्राईवेट रुम नंबर पच्चीस में इसकी अपनी माँ पड़ी हुई थी। माँ बीमार तो कब की थी, शायद अब तो उसे भूलने लगा था कि वो कभी ठीक भी रही होगी। उसे अब्बा के मरने के बा’द दाएँ तरफ़ फ़ालिज पड़ा था और वो बिस्तर से जा लगी थी।
शुरू’ शुरू’ में जब प्यास से उसका हल्क़ ख़ुश्क होने लगता, भूक से अँतड़ियों में कुड़वल पड़ते या फिर अनजाने में बिस्तर गीला हो जाता, इतना ज़ियादा गीला कि वो कमर काटने लगता, तो वो उसे बुलाने की कोशिश करती थी। ‘ऊं आऊँ’ जैसी आवाज़ें निकालने के लिए उसे हल्क़ और छाती पर इतना बोझ डालना पड़ता था कि निचला जबड़ा, एक तरफ़ को ढलक जाता और सारा बदन सिकुड़ कर दोहरा होने लगता। वो पहुँच जाता... पहले-पहले फ़ौरन... लपक कर, मगर ये मा’मूल का हिस्सा हो गया तो लपक-झपक में वक़्फ़े पड़ने लगे... कि बा’द में उसे ख़ुद को तैयार करना पड़ता था।
एक रोज़ जब उसकी माँ आवाज़ देने के बा’द अपना जबड़ा ढलका चुकी थी और घुटने उपर को खसा कर उसने अपना बदन भी दोहरा कर लिया था कि कॉल बेल बजी...
“टे... इइइ”
यूँ जैसे बाहर बटन पर आहिस्तगी से उंगुश्त रखकर फ़ौरन हटा ली गई हो और इधर अंदर कॉल बेल की आवाज़ टूट कर गिर गई हो... फिर ख़ामोशी छा गई... तवील ख़ामोशी, इतनी कि माँ की आवाज़ उसमें कहीं डूब गई। उसका अपना दिल रुक सा गया, एक क़द्र-ए-तवील आवाज़ के लिए।
नुदरत जब भी आती थी पहली बार पुश बटन को ज़रा सा छू कर हाथ गिरा दिया करती ताहम दूसरी बार मा’मूल से कहीं लंबी “ट्रराररअरिन” होती। इतनी कि वो इस आवाज़ के बंद होने से पहले तक सदर दरवाज़े तक ब-सहूलत पहुँच जाया करता था। उस रोज़ भी ऐसा ही हुआ, और वो बाहर पहुँच गया। वो अंदर नहीं आई थी... उसके अंदाज़ बता रहे थे वो अंदर बैठ कर बातें करने को आई ही नहीं थी। उसने बग़ैर कुछ कहे गाड़ी की तरफ़ इशारा किया। नुदरत के लिए उसका इरादा कोई मानी नहीं रखता। नबील ख़ुद भी उसे सामने पा कर अपना इरादा मुँहा कर लिया करता था। वो है ही ऐसी, रख रखाओ और दबदबे वाली। अगर वो सिर्फ़़ ग़ैर-मा’मूली हद तक हसीन होती तो शायद ऐसी न होती। मआशी आसूदगी उसके अंग-अंग से और उसकी हर अदा से बहती थी... यूँ जैसे कोई शरीर नदी ढलवान में लपकती है।
ढलवान में नबील था... और हर बार वो बह जाता था, बे-इरादा ही।
उस रोज़ जब वो कई घंटों के बा’द घर पलटा था तो अंदर दाख़िल होते ही पेशाब की सड़ांद के भबकों ने उसका मुँह फेर कर रख दिया। उसकी नज़र माँ की चारपाई के नीचे पड़ी। वहाँ, जहाँ सारा फ़र्श गीला हो रहा था। ढलवान चूँ कि दरवाज़े की सिम्त थी लिहाज़ा एक गीली सी लकीर उधर तक बह आई थी। दुख और नदामत एक साथ उसके अंदर से फूट पड़ा, बे-इरादा ही।
आदमी इरादे से दुखी कहाँ होता और इरादा कर के अपने दुख दर्द कैसे टाल सकता है।
ज़िंदगी की वो सारी दिलकशी जो जज़्बों से किनारों तक भरी हुई एक लड़की के सबब कुछ देर पहले तक महक बन कर उसकी साँसों में रची-बसी हुई थी, अब वो कहीं नहीं थी। माँ ने उसे देखकर मुँह दूसरी तरफ़ फेर लिया था। उसने माँ के ऊपर चादर डाली और अपना मुँह भी दूसरी तरफ़ फेर लिया। अब सिर्फ़ उसके हाथ काम कर रहे थे और जब वो माँ का बदन पोंछ-पांछ कर उसे ख़ुश्क कर चुका तो मुँह फेरे-फेरे उसे दोनों बाज़ुओं में उठा कर पास पड़ी दूसरी चारपाई पर डाला। नबील को ये जान कर शदीद सदमा हुआ कि माँ अपना वज़न बड़ी तेज़ी से गिरा चुकी थी।
जिस इन्हिमाक, तरद्दुद, एहतियात और एहतिराम से उसने माँ के बदन को दूसरी तरफ़ देखते रहते होए सुखाया था, चादर की ओट तले उसका लिबास बदला था। पेशाब से सने हुए बिस्तर को अलग करके साफ़-सुथरा गदा बिछा कर ऊपर यूँ चादर फैलाई थी कि उसमें एक शिकन भी बाक़ी न रही थी उसने माँ की पेशानी की सारी शिकनें मादूम कर दी थीं और उसकी पूरी तरह खुली रहने और हर-दम फड़कने वाली दाएँ आँख को आँसूओं से भर दिया था।
हस्पताल की राहदारी में, कार्डियोलॉजी वार्ड से ज़रा आगे, जहाँ एक और राहदारी पहली को काटती थी; वहीं, चारों कोनों पर, दीवारों के साथ लोहे के बेंच जड़े हुए थे। वार्ड नंबर तीन में दाख़िल होने से पहले वो यहाँ कुछ लम्हों के लिए बैठ जाया करता था... शुरू’ शुरू’ में नहीं, तब से कि जब माँ को हस्पताल में दाख़िल हुए दो महीने से भी ज़ियादा अरसा हो गया था। फिर तो उसे यहाँ पहुँच कर जब भी कोई बेंच ख़ाली नज़र आता तो ज़रूर बैठता था।
पहली बार वो नुदरत के साथ यहाँ बैठा था, मगर जाते हुए नहीं, माँ को कमरा नंबर पच्चीस में देखकर आने के बाद। नुदरत को बहुत तशवीश थी कि पेशंट में सर्वाइवल के इम्कानात बहुत कम थे। वो हस्पताल उसकी माँ को देखने फिर कभी नहीं आई थी ताहम उसके बा’द जब भी उसने उसे फ़ोन किया वो हर बार उसकी माँ की बीमारी की तवालत के ख़ौफ़ से सहमी हुई लगी। नबील की माँ की बीमारी वाक़ई तवील हो गई थी। शूगर के सबब बेडसुल्स भी ठीक न हो रहे थे। वो साँस लेती तो छाती में सीटियाँ बजती थीं। कुछ अरसा तो डॉक्टरों ने ऑक्सीजन का मास्क मुँह पर चढ़ाए रखा मगर जब हर साँस पर सारा बदन झटके खाने लगा तो उन्होंने नर्ख़रे के क़रीब कट लगा कर नाली अंदर फेफड़ों में घुसेड़ दी। कोई भी डॉक्टर यक़ीन से कुछ नहीं कह सकता था कि उसकी माँ के फेफड़े ख़ुद से साँस लेने के लिए कब तक क़ाबिल हो पाएँगे। कभी तो वो बहुत उम्मीद अफ़्ज़ा बातें करते और कभी बिल्कुल ही मायूस कर देते थे।
नुदरत हस्पताल आने के अगले पंद्रह दिनों में ही इससे मायूस हो चुकी थी। उसे मायूस करने में उसके डैडी और मम्मा दोनों का हाथ था। उनकी अपनी फ़ैमिली का एक अच्छा लड़का कब से उनकी नज़र में था मगर उनका बस न चल रहा था। वो अपनी बेटी से बहुत मुहब्बत करते थे मगर उस पर अपना कोई फ़ैसला ठूँसना नहीं चाहते थे। ताहम हस्पताल से वापसी पर जब नुदरत ने उसकी माँ की कंडीशन बताई थी तो दोनों को उसे क़ाइल करने में ज़ियादा मुश्किल पेश नहीं आई थी। एक ऐसे लड़के का इंतिज़ार जो अपनी माँ के साथ इस कदर अटैच्ड था कि फ़िलहाल कुछ और सोच ही नहीं सकता उसका कितना इंतज़ार किया जा सकता था।
डॉक्टरों का कहना था कि वो उ’म्र के इस मरहले में थी कि अगर वो सर्वाइव कर भी जाए तो भी उसे बहुत केयर, सहारे और मुसलसल मेडिकल ऐड की ज़रूरत रहेगी। नुदरत के लिए ये बात बहुत मायूस कुन थी। मगर मायूस करने वाली बुढ़िया का बेटा ब-हर-हाल डॉक्टरों की बातों से उम्मीद के मानी निकाल लिया करता था।
अगले पंद्रह दिन नबील ने मज़ीद इन्तिज़ार किया। नुदरत उसे मिलने तो नहीं आई ताहम उसने हर-रोज़ फ़ोन किया। अगरचे वो उससे सिर्फ़ उसकी माँ की बीमारी की बातें नहीं करना चाहती थी मगर वो कोई दूसरी बात कर सकने से पहले ही इस क़दर निढाल हो जाता था कि वो कोई और बात छेड़ने का हौसला ही न कर पाती थी। एक खूबसूत लड़की जिसके सामने ज़िंदगी के रास्ते पूरी तरह खुले थे वो किसी भी एक लड़के से मुहब्बत तो कर सकती थी मगर इस लड़के से सिर्फ़ उसकी माँ की बीमारी की बातों पर इक्तिफ़ा नहीं कर सकती थी... और न ही वो कोई और बात करने के लिए तवील इंतज़ार कर सकती थी। लिहाज़ा बहुत तेज़ी से दक़ल के अंदर ख़ू-ए-शिबू की तरह बसी हुई मुहब्बत के मादूम होने पर उसे कोई बहुत ज़ियादा उलझन नहीं हो रही थी।
उसने पंद्रहवें दिन ही अपने कंधे उचका कर झटक दिए और सोचा शायद उसकी मुहब्बत की पोरें उस लड़के के दिल पर बस इतने ही दौरानीये के लिए ठहर सकती थीं। ताहम अगले दो रोज़ उसने उसे मुसलसल कई बार कॉल्स की। वो उसे मौजूदा दबाओ की सूरत-ए-हाल से बाहर खींच लाना चाहती थी। वो बाहर न आ पाया तो वो उससे मुकम्मल तौर पर मायूस हो गई।
नबील ऐसा बेटा न था जो अपनी माँ से मायूस हो जाता। कभी-कभी तो ख़ुद उसे यूँ लगता जैसे वो अभी तक माँ की कोख ही में था, संग तराश अब्बास शाह के उस ह्यूज मुजस्समे की तरह, जो पत्थर से नहीं तराशा गया था मगर न छूओ तो संगमरमर का लगता था और जिसके ऐन वस्त में माँ के पेट के अंदर घुटनों में सर घुसेड़े एक बच्चा था।
वो बच्चा वो ख़ुद था।
हामिला माँ के बिलौरीं पत्थर के नज़र आने वाले मुजस्समे को उसने तजस्सुस से छुवा, वो थर्मोकोल जैसे इतने हल्के मटिरियल का बना हुआ था कि छूने पर लरज़ने लगा था।
उसकी माँ का जिस्म इसी मुजस्समे की तरह हल्का-फुल्का हो गया था मगर छूने पर लरज़ता न था।
वो बे-सुध पड़े वजूद को देखता तो अ’जब वस्वसे उसके बदन पर तैर जाया करते और इस वजूद से अलग रहने का ख़याल ही उसके बदन पर लर्ज़ा तारी कर देता था। ताहम हुआ यूँ कि दिन गुज़र रहे थे और गुज़रते दिनों को कौन रोक सकता था। नुदरत जिसके पहले फ़ोन आ जाया करते थे अब नहीं आ रहे थे। दो तीन बार इसने उससे ख़ुद राब्ते की कोशिश भी की मगर हर बार उसे बताया गया कि वो घर पर नहीं थी। हत्ताकि उसका अपना फ़ोन आ गया। उसने इसकी माँ का हाल भी नहीं पूछा और बग़ैर किसी तमहीद के अपनी मंगनी की ख़बर दे दी। उसे नुदरत की आवाज़ में एक लरज़ाहट सी महसूस हुई मगर फ़ोन सुनते हुए उसका सब्र और ज़ब्त का ख़ूगर दिल इस शिद्दत धड़का और इतनी गहराई में डूबने लगा था कि लफ़्ज़ उसका साथ छोड़ गए और वो कुछ भी न कह पाया। वो मायूसी के पानियों में डूब रहा था मगर उसे यक़ीन कैसे आता कि उसकी मुहब्बत उससे बिछड़ गई थी, यूँ कि सारी रिफ़ाक़त ख़्वाब सी लगने लगी थी।
ताहम इसने ख़ुद को सँभाला देना था... और इसने ख़ुद को सँभाला दिया कि इसके इलावा उसके पास कोई रास्ता नहीं था। वो पूरे हवास में था जब डॉक्टर कह रहे थे।
“हतमी तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, पेशंट कितने रोज़ तक स्टेबल हो पाए।”
फेफड़ों को सहूलत देने के लिए जो नाली डाली गई थी उसे निकाला जाता तो साँसों के झटके फिर से सारे बदन को झंझोड़ने लगते।
उसे वहीं बेंच पर बैठे-बैठे शायद ओंघी आ गई थी। वो नहीं जानता था कि उसे वहाँ ऊंघते-ऊंघते कितना वक़्त गुज़र चुका था। रात माँ की हालत बहुत बिगड़ गई थी अगरचे डॉक्टरों ने ऑक्सीजन की नाली फेफड़ों में एक-बार फिर घुसेड़ कर फ़ौरी रीलीफ़ फ़राहम कर दिया था मगर वो नाली जो नाक से मादे तक घुसेड़ी गई थी माँ को बहुत उलझा रही थी। वो बार-बार नाली खींचने के लिए हाथ ऊपर ले आती। शायद नाली गुज़ारते हुए जिल्द जहाँ अंदर कहीं छल गई थी, वहीं जलन हो रही थी। नबील ने ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर को जा कर बताया भी। मगर उसका कहना था।
“मा’मूली सा रीपचर है ख़ुद ही हील-अप हो जाएगा, ज़रा ध्यान रखें कि पेशंट नाली निकाल न दे।”
माँ अगरचे ग़ुनूदगी में थी मगर उसका हाथ बार-बार नाक की तरफ़ खिसकने लगता था। वो हाथ थाम कर रखता तो वही उलझन माँ के कपकपाते हाथ के रास्ते ख़ुद उसके अंदर उतर जाती। यहाँ तक कि उसका दिल चाहने लगा, वो इस नाली को ख़ुद ही माँ की नाक से खींच कर उलझन से निकल आए।
वो रात-भर जब्र करता रहा और जागता रहा। खिड़की से ज़रा सा सुब्ह ने झाँका तो वो उसके त’आक़ुब में बाहर निकल गया। वो इधर-उधर घूमता रहा, यूँही। वापस पलटा तो उसके बदन पर अ’जीब तरह का ख़ाली-पन क़ाबिज़ हो चुका था। हस्पताल में दाख़िल होते हुए इमरजेंसी में होने वाली भाग दौड़ को भी उसने ख़ाली-ख़ाली नज़रों से देखा। बैन करती औरतें बहुत बेहूदा लगीं। उसने उलझते हुए सोचा कि उनके यूँ दुहरे हो हो कर गिरने से क्या मुर्दे ज़िंदा हो जाएँगे...? और एक तल्ख़ सी हँसी हँस दिया।
अंदर से उठने वाले सवाल का उसके नज़दीक ये मुनासिब जवाब था।
रोने वालियों में एक लड़की बहुत ख़ूबसूरत थी और मरने वाली माँ जैसी बूढ़ी बहुत पुर-वक़ार। दोनों को उसने सिर्फ़ एक नज़र ही देखा और आगे बढ़ गया था।
इमरजेंसी से कार्डियोलॉजी वार्ड की राहदारी तक वो हमेशा दुख की गिरफ़्त में रहता था मगर इस रोज़ वो अंदर से बिल्कुल ख़ाली था। बेंच पर भी वो इरादा कर के नहीं, यूँही बैठ गया था और इतनी देर तक ऊँघता रहा कि वक़्त के तेज़ी से गुज़रने का एहसास पूरी तरह मादूम हो गया।
वो ठीक से अंदाज़ा न कर पाया कि एक स्ट्रेचर के तेज़ी से धकेले जाने के बाइस उठने वाले शोर ने उसे कितनी देर बा’द बेदार किया था। स्ट्रेचर वार्ड नंबर तीन की राहदारी ही से लाया जा रहा था उसे ग़ैर-मा’मूली तजस्सुस हुआ कि वो उसका चेहरा देखे। उसने उसका चेहरा देखा भी मगर ये उसकी माँ का चेहरा नहीं था। वो उल्टे क़दमों चलता, बेंच पर ढह गया। शायद ये वो पहला रोज़ था जब नबील ने अपनी माँ की मुश्किल आसान होने की दुआ’ की थी।
वो दुआएँ करता रहा। हत्ताकि उसके हाँ असासा समझे जाने वाले सारे मुक़द्दस लफ़्ज़ मानों से ख़ाली हो गए। यूँ, जैसे उसे बा-सरवत बनाने वाले सारे करेंसी नोटों के मार्के उड़ गए हों।
ज़बान की ढेरी पर कीड़ों की तरह कुलबुलाने और रेंगने वाले ये लफ़्ज़ बे-ध्यानी में होंटों पर आ कर तैरने लगते और फिर उसी बे-ख़बरी में तालू से चिपक कर बे-सुध हो जाते। वो देख रहा था मगर मरने वालों और उनके साथ ज़िंदा दरगोर रहने वालों के बीच कोई तमीज़ न कर पा रहा था। लाशें उसके सामने से गुज़रती थीं। वो उन पर नज़र डालता, ये लाशें उसे दुख की बजाए तस्कीन देने लगी थीं। तस्कीन नहीं उसका सा एहसास। मिलता-जुलता और अलग सा भी। और यही एहसास शायद ख़ुद उसके ज़िंदा होने की अलामत था। वो सोच सकता था कि मरने वालों की नहीं बल्कि इंतिज़ार खींचने वालों की मुश्किलें आसान हो रही थीं। ऐसे में उसे अपने अंदर से त’अफ़्फ़ुन उठता महसूस हुआ। उसने अपना सारा बदन टटोलने के लिए उधेड़ डाला। बहुत अंदर घुप-अँधेरे में दो लाशें पड़ी थी। उसने साफ़ पहचान लिया उनमें से एक उसकी अपनी मुहब्बत थी और दूसरी को देखे बग़ैर मुँह फेर लिया और पूरे ख़ुलूस से रोने की स’ई की मगर त’अफ़्फ़ुन का रेला उसे दुख से दूर, बहुत दूर बहाए लिए जाता था।
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