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दूसरे आदमी का ड्राइंग रूम

सुरेंद्र प्रकाश

दूसरे आदमी का ड्राइंग रूम

सुरेंद्र प्रकाश

MORE BYसुरेंद्र प्रकाश

    स्टोरीलाइन

    यह एक मनोवैज्ञानिक कहानी है। एक शख़्स समंदर किनारे स्थित घर में जाता है, और उसके ड्राइंग में रखे सामान को देखकर उसकी जो कैफ़ियत होती है, वही सब यहाँ बयान की गई है। इसके साथ ही ड्राइंग की साज-सज्जा और तस्वीरों से जुड़ी अपनी स्मृतियों को भी वह बड़ी साफ़गोई से बयान करता है।

    समुंदर फलाँग कर हमने जब मैदान उबूर किए तो देखा कि पगडंडियाँ हाथ की उंगलियों की तरह पहाड़ों पर फैल गईं। मैं इक ज़रा रुका और उन पर नज़र डाली जो बोझल सर झुकाए एक दूसरे के पीछे चले जा रहे थे। मैं बेपनाह अपनाइयत के एहसास से लबरेज़ हो गया... तब अलाहदगी के बेनाम जज़्बे ने ज़ेह्न में एक कसक की सूरत इख़्तियार की और मैं इन्तिहाई ग़म-ज़दा सर झुकाए वादी में उतर गया।

    जब पीछे मुड़ कर देखा तो वो सब थूथनियाँ उठाए मेरी तरफ़ देख रहे थे। बार-बार सर हिला कर वो अपनी रिफ़ाक़त का इज़हार करते, उनकी गर्दनों में बँधी हुई धात की घंटियाँ अलविदा, अलविदा पुकार रही थीं और उनकी बड़ी बड़ी सियाह आँखों के कोनों पर आँसू मोतियों की तरह चमक रहे थे।

    मेरे होंट शिद्दत से काँपे, आँखें मुँद गईं, पाँव रुक गए मगर फिर भी मैं भारी क़दमों से आगे बढ़ा, हत्ता कि मैं उनके लिए और वो मेरे लिए दूर उफ़ुक़ पर लर्ज़ां नुक़्ते की सूरत इख़्तियार कर गए।

    वादी में ऊँचे ऊँचे बे-तर्तीब दरख़्त जाबजा फैले हुए थे जिनके जिस्मों की ख़ुशबू फ़िज़ा में घुल गई थी। नए रास्तों पर चलने से दिल में रह-रह के उमंग सी पैदा होती। सूरज मुस्कुराता हुआ पहाड़ पर सीढ़ी सीढ़ी चढ़ रहा था कि मैं गर्द-आलूद पगडंडियों को छोड़ कर साफ़-शफ़्फ़ाफ़, चिकनी सड़कों पर गया। पुख़्ता सड़कों पर सिर्फ़ मेरे पाँव से झड़ती हुई गर्द थी जो मैं पगडंडियों से ले कर आया था... या फिर मेरे क़दमों की चाप सुनाई दे रही थी।

    चिकनी सड़कों की सियाही धीरे धीरे उभर कर फ़िज़ा में तहलील होने लगी और उफ़ुक़ पर सूरज कमज़ोरी से लुढ़कने लगा।

    अभी झुटपुटा ही था कि मैं एक गोल कुशादा मकान के बड़े से फाटक पर रुका। नए ख़ूबसूरत फूलों से लदी झाड़ियों और कुंजों में से होती हुई एक रविश ऊँचे ऊँचे सुतूनों वाले बरामदे तक चली गई जिस पर बिखरे हुए पत्थर दिन की आख़िरी ज़र्द धूप में चमचमा रहे थे। मैं नपे तुले क़दम रखता हुआ यूँ आगे बढ़ा जैसे पहले भी कई बार यहाँ चुका हूँ।

    ख़ामोश, वीरान बरामदे में मेरी आवाज़ गूँजी। मुझे तअज्जुब सा हुआ। यूँ महसूस हुआ कि जैसे कोई मुझे पुकार रहा है। मैं आप ही आप मुस्कुरा दिया। कोई जवाब पा कर आगे बढ़ा और बड़े से वलनदेज़ी दरवाज़े ने मुझे बाहें फैला कर ख़ुश-आमदीद कहा।

    वलनदीज़ी दरवाज़ों के साथ ही क़दीम आरियाई झरोकों ऐसी खिड़कियाँ थीं और उन सब पर गहरे कत्थई रंग के भारी पर्दे लटक रहे थे जिनकी सजावट से सारे कमरे में गहरे धुंदलके का एहसास हो रहा था। माहौल की इस एका एकी तब्दीली ने मुझ पर एक अजीब कैफ़ियत-तारी कर दी और मैं सहमा-सहमा खड़ा हो गया।

    “नींद की झपकी थी शायद?”

    नीम-तारीक कमरे में सहमा-सहमा सा सोफ़े के गुद गुदे पन में धंसता हुआ पाताल में उतरा जा रहा हूँऊँ। आतिश-दान में आग बुझ गई है फिर भी राख में छिपी बैठी चिंगारियों की चमक गहरे सब्ज़ रेशमी क़ालीन पर अभी मौजूद है। कॉर्नर टेबल पर रखे धात के गुलदान को मेरे बड़े से हाथ ने छू कर छोड़ दिया है। उस के जिस्म की ख़ुनकी अभी तक उंगलियों पर महसूस हो रही है। गुलदान का अपना एक अलग वजूद मैं ने क़ुबूल कर लिया है। हाथ मेरा है इसीलिए एहसास भी मेरा है। लेकिन गुलदान ने मेरे एहसास को क़ुबूल नहीं किया है।

    मुझे “उसका” इन्तिज़ार है। “वो” अन्दर का रेडार में खुलने वाले दरवाज़े से पर्दा सरका कर मुस्कुराता हुआ निकलेगा और मैं बौखलाहट में उठ कर उस की तरफ़ बढ़ूँगा। और फिर हम दोनों बड़ी गर्म जोशी से मिलेंगे। वो बड़ा ख़ुश सलीक़ा आदमी है। ड्राइंग-रुम की सजावट, रंगों का इन्तिख़ाब, आराइशी चीज़ों की सज-धज...सब में एक “ग्रेस” है। जाने वो कब से उनके बारे में सोच रहा था, उनके लिए भटक रहा था... और तब कहीं जा कर वो सब कर पाया है।

    आतिश-दान ब्लैक मार्बल को काट कर बनाया गया है। जिस पर जा-ब-जा ग़ैर मुसलसल सफ़ेद धारियाँ हैं। मैं कुछ देर तक उन धारियों को ग़ौर से देखता रहा। मुझे यूँ महसूस हुआ कि जैसे वो धारियाँ तवील-ओ-अरीज़ सहरा के लैंड स्केप से मुशाबेह हैं। बिल्कुल ख़ाली सहरा, उदास, ख़ामोश और मैं आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ उस सहरा में खो गया और रेत के झक्कड़ ने मुझे अपने अन्दर गुम कर लिया। और मैं वैसे ही सहमा-सहमा ख़ौफ़ज़दा सा अपने आपको ढ़ूढ़ने के लिए उस सहरा की तरफ़ बढ़ा।

    मैं आतिश-दान पर बनी कार्निस पर हाथ जमा कर, झुक कर अपने आप को तलाश करने लगा। कार्निस पर एक तस्वीर रक्खी थी जो बेध्यानी में मेरा हाथ लगने से गिर गई। मैं ने उस तस्वीर को उठा कर देखा: एक ख़ुश-पोश आदमी गोद में एक नन्ही सी बच्ची को उठाए बैठा है और उसके बाएँ कंधे से भिड़ाए एक औरत बैठी है। दोनों मुस्कुरा रहे हैं और बच्ची उनकी तरफ़ मुड़ कर देख रही है। जाने क्यूँ मुझे ख़याल आया कि कभी ऐसी ही तस्वीर खिंचवाने के लिए मैं भी बैठा था और फ़ोटोग्राफ़र ने कहा था,

    “ज़रा मुस्कुराइए!”

    हम तीनों मुस्कुराए और फ़ोटोग्राफ़र ने कहा, “थैंक यू” और हम उठ कर बैठ गए। हम अभी तक बिखरे हुए हैं। अगर इकट्ठे भी हो जाएँ तो मुस्कुरा नहीं सकते। बाक़ी तस्वीर वैसी की वैसी खिंच जाएगी।

    लेकिन “वो” तस्वीर में मुस्कुरा रहा है, उसकी बीवी भी मुस्कुरा रही है और बच्ची भी शायद, क्यूँकि उस का चेहरा दिखाई नहीं देता। ऐसे ही मुस्कुराता हुआ वो पिछले दरवाज़े से वारिद होगा और उसकी बीवी पिछले कमरों में किसी बेडरूम में बैठी मुस्कुरा रही होगी। और बच्ची शायद मकान के पिछवाड़े ख़ूबसूरत, पुर-सुकून कुंजों में तितलियाँ पकड़ रही होगी।

    सोफ़े के साइड टेबल पर पीने के लिए कुछ रख दिया गया है। जब मैं उस तस्वीर के बारे में सोच रहा था और अपने आपको सहरा में खोज रहा था तो कोई चुपके से नारंगी के रंग की किसी चीज़ का गिलास रख गया था।

    “ठक... ठक...ठक।” बरामदे से किसी के ज़मीन पर लाठी टेक कर चलने की आवाज़ रही है: बड़ी मुसलसल, बड़ी मुतवाज़िन, बड़ी बाक़ायदा। मैं दरवाज़े का पर्दा सरका कर सर बाहर निकाल कर देखता हूँ। कोई आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ बरामदे के ख़म से मुड़ गया और अब उसकी पुश्त भी ग़ायब हो गई है और लाठी टेकने की आवाज़ हर लहज़ा दूर होती जा रही है।

    “समुंदर किनारे का कोई शहर है?”

    ‘‘हाँ हाँ, समुंदर किनारे का कोई शहर है!” मैं वापिस कमरे में आते हुए सोचता हूँ। नमकीन हवाओं का झोंका सब चीज़ों को छेड़ता हुआ, सब चीज़ों पर से गुज़र गया।

    ‘‘समुंद्र से मेरा तअल्लुक़ है। मैं समुंदर के बारे में इतना फ़िक्र-मंद क्यूँ हूँ?” मेरे ज़ेह्न में समुंदर अपनी बेकरानी, अपनी गहराई और अपने मद-ओ-जज़्र के साथ फैलता चला गया और मैं महसूस करने लगा कि ये वाक़ई समुंदर किनारे का कोई शहर है और मैं एक कमज़ोर सी, नहीफ़ सी छोटी सी कश्ती की तरह हिचकोले खाता हुआ, डोलता हुआ खिड़की तक पहुँचा और झट से पर्दा हटा दिया।

    “बाहर शायद बर्फ़ गिर रही है। एक एक गाला, एक एक गाला।” मैंने अपना हाथ बढ़ाया और मेरा हाथ खिड़की से बाहर फ़िज़ा में धीरे धीरे कभी सीधा कभी उलटा हरकत करने लगा मगर एक गाला भी उस पर गिरा, एक ज़रा सी ख़ुनकी भी उस पर महसूस हुई।

    “क़दीम आरियाई झरोकों ऐसी खिड़की!” मैं बटर बटर उसकी तरफ़ देखने लगा।

    “बर्फ़ कहाँ है?” “नहीं, कहीं नहीं!” मैं ख़ुद ही सवाल करता हूँ और फिर ख़ुद ही जवाब देता हूँ, मगर इस सवाल और जवाब की आवाज़ कहीं सुनाई नहीं देती, सिर्फ़ महसूस होती है: एक उदास, पुर-असरार सरगोशी... और मैं इस एहसास से ख़ौफ़-ज़दा हो कर फिर उस गुलदान की तरफ़ पलटता हूँ जिसने सबसे पहले इस कमरे में मेरे एहसास को बेदार किया था।

    बड़ा सा गोल गुलदान जिस पर बड़ी तर्तीब से नक़्श-ओ-निगार बनाए गए थे बिल्कुल बे-हरकत पड़ा है और उसमें शुरू जाड़ों के फूल सजे हुए हैं। ये फूल किस हाथ ने सजाए हैं? गुलदान से हट कर मेरा ज़ेह्न कुछ हाथों के बारे में सोचता है जिनमें फूल हैं। फिर हवा खिड़की के पर्दों को छेड़ती है, दरवाज़े का पर्दा भी सरसराता है और मैं बिल्कुल तन्हा उन तमाम चीज़ों के बारे में सोचता हूँ और महसूस करता हूँ और फिर ग़म-ज़दा हो जाता हूँ। बेवजह का ग़म, बे-बुनियाद अकेलापन।

    एक साँप मेरे ज़ेह्न में फन फैला कर अपनी तेज़ तड़पती हुई सुर्ख़-ज़बान निकाल कर इधर उधर देखता है, फिर आहिस्ता से नीचे क़ालीन पर उतर जाता है और तेज़ी से चलता हुआ पीछे वाले दरवाज़े की तरफ़ बढ़ जाता है। मैं ख़ौफ़ज़दगी की इन्तिहाई कैफ़ियत में चीख़ उठता हूँ और मेरी नज़रों के सामने बेडरूम में बैठी हुई, मुस्कुराती हुई एक औरत अंगड़ाई लेती है और तितलियाँ पकड़ती हुई एक बच्ची ज़क़न्द भरती है और मैं सोफ़े की पुश्त को मज़बूती से थाम लेता हूँ और आँखें बन्द कर लेता हूँ। सारा मन्ज़र कहीं दूर अंधेरे में आहिस्ता-आहिस्ता गुम हो जाता है।

    “वो अभी नहीं आया। रात बाहर लॉन में उतर आई होगी।” लाठी टेकने की आवाज़ फिर क़रीब आती हुई महसूस होती है। मैं तेज़ी से बढ़कर दरवाज़े का पर्दा हटा देता हूँ। एक अंधा, अधेड़ उम्र आदमी लाठी के सहारे बढ़ रहा है...नपे तुले क़दमों के साथ लाठी की बाक़ाएदगी से उभरती हुई आवाज़ के साथ। इससे पेश्तर कि मैं उसे बढ़कर रोकूँ वो आगे बढ़ जाता है और ख़ामोशी से बरामदे के ख़म से मुड़ जाता है। एका एकी पलट कर मैं कमरे के ख़ाली-पन को घूरता हूँ। बड़ा ख़ूबसूरत कमरा है। दीवार पर बारहसिंगे का एक सर टँगा हुआ है और उसके नीचे एक बड़ा ही मुरस्सा तीर कमान आराइश के लिए लटका हुआ है। खिड़की और दरवाज़े के दर्मियान वाली दीवार के ख़ालीपन को भरने के लिए चौड़े सुनहरी चौखट वाली एक बड़ी सी तस्वीर टँगी है जिसमें हज़ार रंगों वाली अनगिनत जंगली चिड़ियाँ फुदकती हुई महसूस होती नज़र रही हैं।

    “सब ख़ूब है! हर चीज़ जाज़िब है! तमाम कुछ अपनाने को जी चाहता है। काश! काश! ये सब कुछ मेरा होता। ये सोफ़ा, कॉर्नर टेबल पर पड़ा हुआ गुलदान, बुक केस में पड़ी हुई किताबें, कार्निस पर रखी हुई तस्वीर, गहरे सब्ज़ क़ालीन का गुदगुदापन, आरियाई झरोकों ऐसी खिड़कियाँ, वलनदेज़ी दरवाज़े पर सरसराते हुए पर्दे, बेडरूम में मुस्कुराती औरत, तितलियाँ पकड़ती हुई बच्ची और इन तमाम चीज़ों के अपना होने का हमागीर, भरपूर एहसास।”

    “मगर नहीं... ईं. ईं... ईं...!” “उफ़! मेरी आवाज़ इस क़दर बुलन्द क्यूँ है?” मुझे अपने चिल्लाने पर निदामत महसूस होती है। निदामत, ख़ौफ़ और अजनबियत के एहसास से मैं गुज़र जाता हूँ और फिर मुझे अपना वजूद गहरे सब्ज़ क़ालीन पर औंधा पड़ा महसूस होता है और ऐसा लगता है जैसे कोई आदमी क़ालीन को अपनी उंगलियों में भर लेने की कोशिश में तड़प रहा है, रो रहा है और फिर उसकी हिचकी बँध जाती है।

    “ख़ामोश हो जाओ... ख़ामोश!” मैं गहरे ग़म में डूब कर उसे कहता हूँ और मेरे अपने आँसू ढलक कर मेरे रुख़्सारों तक जाते हैं और मैं उसे वैसे ही ख़ामोशी से तड़पता हुआ देखता हूँ।

    “ठक... ठक... ठक।” मैं तेज़ी से दरवाज़े की तरफ़ बढ़ता हूँ। “रुक जाओ...ओ... ओ... ओ.!” मैं दहाड़ता हूँ। अंधा बिल्कुल मेरे क़रीब से गुज़र गया है। उस पर मेरी आवाज़ का कोई असर नहीं होता। मैं लपक कर उसे पकड़ने की कोशिश करता हूँ लेकिन नाकाम रहता हूँ। (ये मेरी ज़िन्दगी की बहुत सी नाकामियों में से एक नाकामी है। मैं उसे पहले दिन से ही पकड़ने में नाकाम रहा हूँ)। वो बरामदे के मोड़ से ओझल हो गया है।

    अन्दर वो क़ालीन पर औंधा पड़ा अभी तक बिसूर रहा है। पीछे खुलने वाले दरवाज़ों पर ज़रा भी जुंबिश नहीं होती। साँप के मकान में घुस जाने से ज़रा भी हलचल पैदा नहीं होती। (“उफ़ कितने बे-हिस लोग हैं!”)

    उसी दरवाज़े के क़रीब तिपाई पर काँसे में ढला एक बूढ़ा बैठा बड़ी बे-फ़िक्री से नारीयल पी रहा है।

    “अच्छा तो मैं चलता हूँ।”

    “चलता हूँ? मगर कहाँ?” सवाल और जवाब दोनों हाथ फैलाए नज़रें एक दूसरे पर गाड़े खड़े हैं और मैं आहिस्ता से सरक कर उस मजमे के पास पहुँच जाता हूँ।

    “पानी तो पी लीजिए।” एक बड़ी ही मीठी आवाज़ कमरे में गूँजी।

    “नहीं, बस अब मैं चलता हूँ, बहुत देर हो गई।” मैं पलटे बग़ैर, उस औरत को देखे बग़ैर ही जवाब देता हूँ।

    “लेकिन कहाँ?” आवाज़ फिर उभरी और फैल गई। (सवाल और जवाब ने मिलकर शरारत की है शायद! और अब मैं उनके दर्मियान खड़ा हूँ और मेरे लिए उनकी फ़त्ह-मन्द नज़रों की ताब लाना मुश्किल हो रहा है और मैं सर झुका कर ख़ामोश हो जाता हूँ।)

    “ये सब अगर हो सके तो भी कोई बात नहीं। मगर इतना तो हो ही सकता है कि मैं उस बूढ़े की तरह बे-फ़िक्री से बैठा तंबाकू पीता रहूँ?”

    “पहले काँसे में ढलना पड़ेगा!” क़ालीन पर औंधे पड़े आदमी ने कहा और उठ कर आतिश-दान पर बने सहरा में गुम हो गया।

    “क्या कोई मुझे काँसे में ढालेगा?” मैंने मुजस्समे को मुख़ातिब कर के कहा। बूढ़े ने तंबाकू का एक लंबा कश लगाया और मुस्कुराते हुए धुआँ मेरे चेहरे पर छोड़ दिया। क़दीम आरियाई झरोकों ऐसी खिड़कियों के पर्दे सरसराए और बड़ी सी तस्वीर में हज़ार रंगों वाली जंगली चिड़ियों ने फुदक कर अपनी अपनी जगहें बदल लीं। मैं ख़ौफ़-ज़दगी के इन्तिहाई एहसास से लड़खड़ाता हुआ साइड टेबल तक पहुँचा और गटा-गट सारा गिलास चढ़ा गया।

    “अभी उसे सहरा में खोजना है। शायद इस शदीद बर्फ़बारी में भाग कर जाना पड़े। या फिर समुंदर किनारे के शहर में।” (कश्ती बहरहाल साहिल तक पहुँचनी चाहिए)

    (एक बिफरा हुआ समुंदर, एक रेत उड़ाता सहरा और एक बर्फ़ का तूफ़ान और मैं अकेला आदमी! मैं क्या कुछ कर लूँगा?) मैं दिल ही दिल में उस चीज़ को गाली देता हूँ जो ये सब कुछ सोचती है मगर नज़र नहीं आती और मुझ नहीफ़, कमज़ोर, बे-सहारा... को भटकाती फिरती है।

    “ठक... ठक... ठक।” वो फिर गुज़र गया है। मैं उसे पकड़ नहीं सकता, उससे बात नहीं कर सकता। वो गूँगा, बहरा, अंधा। ज़ेह्न में सुराख़ करती हुई उसकी लाठी की आवाज़।

    “चलो भाई चलो।” दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी है।

    “मगर वो तो अभी आया नहीं।” मैंने जवाब दिया।

    “अब नहीं फिर सही, देखो देर हो रही है।” आवाज़ बाहर लॉन में से गूंज कर रही है।

    “ज़रा सुनो! फिर कब आना होगा?” मैंने पलट कर ड्राॅइंग रुम में चारों तरफ़ नज़रें घुमाईं जो मुझे इन्तिहाई पसन्द था... पुर-सुकून, आरामदेह, “कूज़ी।”

    जवाब में वो क़हक़हा लगा कर हँसा। शायद वो मेरी हरीस निगाहों का मतलब समझ गया था।

    लाठी टेकने की आवाज़ बड़ी जल्दी जल्दी दरवाज़े पर सुनाई दी। शायद उसे भी जल्दी है। बाहर सिर्फ़ आवाज़ थी। एक उसके क़हक़हे की आवाज़, दूसरी अंधे की लाठी की आवाज़ और रात बाहर लॉन में उतर कर सारे में फैल गई थी... शुरू जाड़ों की अँधेरी रात।

    “ये सब तुम्हारा ही तो था। मगर अब इससे ज़ियादा नहीं। बहुत देर हो रही है।” उसकी आवाज़ फिर गूँजी, फैली और सिमट कर फिर बाहर वापस चली गई।

    मैं किसी अंजानी चीज़ के खो जाने के ग़म से फूट फूट कर रोने लगा, “मुझे तुमने पहले क्यूँ नहीं बताया।” मैं चीख़ा। “कम-अज़-कम मैं पिछले दरवाज़े से अन्दर जा कर उनमें एक लम्हे के लिए बैठ तो जाता। उनकी चाहत, उनकी अपनाईयत की गर्मी से अपनी आग़ोश के ख़ालीपन को आसूदा कर लेता। ये ज़ुल्म है... सरासर ज़ुल्म!”

    “हा... हा... हा.”

    मैंने क़ालीन को एक नज़र देखा और फिर बढ़कर उसे अपनी बाहोँ में भर लेने के लिए उस पर औंधा लेट गया। और मेरी पशेमानी के आँसूओं से उसका दामन भीगने लगा। और फिर सहरा में भटका हुआ आदमी आहिस्ता से चल कर मेरे क़रीब कर बैठ गया। काँसे में ढले हुए बूढ़े ने एक और गहरा कश लिया और तंबाकू का धुआँ मेरी तरफ़ उगल दिया।

    मैंने फटी फटी निगाहों से उनकी तरफ़ देखा और पूछना चाहा, “देख रहे हो? ये सब देख रहे हो ना?” एका एकी मैंने अपनी बेचारगी पर क़ाबू पाया और बाज़ू लहरा कर कहना चाहा, “सुनो! तुम सब सुन लो। समुंदर किनारे के शहर का पता है ना? अगर कभी कोई कमज़ोर, नहीफ़, बे सहारा कश्ती साहिल से कर लगे तो समझ जाना कि वो मैं हूँ!”

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