हाजी जी कोई सत्तर बरस के रहे होंगे, मगर वो नज़र अस्सी बरस के आते थे। वज़्न चालीस किलो से बिल्कुल ज़्यादा नहीं था। दरमियाना क़द, उचके हुए कंधे और कमज़ोर ऐसे कि पसलियाँ कुर्ते में से भी चमकती थीं। फेफड़ों की एलर्जी से परेशान रहते थे। बदलता मौसम उनके लिए किसी अज़ाब से कम नहीं था। इन्हेलर हाथ में इस तरह लिए फिरते जैसे लड़के मोबाइल लिए फिरते हैं। पायजामा छोटी मोरी का पहनते थे, मगर टाँगे इतनी बारीक थीं कि वो भी चुस्त नहीं होता था। दाढ़ी का पूरा ख़त नहीं था, सिर्फ़ ठोड़ी पर ही बाल कुछ घने थे। दाढ़ी जितनी भी थी पूरी सफ़ेद और चमकदार थी। कुछ दूर चलते फिर दीवार का सहारा लेकर खड़े हो जाते और उखड़ी हुई साँसो को दुरुस्त करने लगते।
उम्र भर उन्होंने कोई काम नहीं किया था और इस बात पर उन्हें फक़्र भी था। उनके बुज़ुर्गों ने ख़ूब दौलत जमा की थी। ज़मीन जायदाद बहुत थी मगर अगली नस्लों ने अय्याशी और आराम-तलबी में सब गँवा दिया था। हाजी जी तक आते-आते एक चार सौ गज़ का मकान रह गया था। जिसमें ऊपर-नीचे बारह कमरे और लबे-सड़क छ: दुकानें थीं। चार कमरे उन्होंने अपने चारों लड़कों को दे दिए थे। सात कमरे और सभी दुकानें किराए पर उठा रखीं थीं। एक कमरा अपने लिए रख छोड़ा था जिसमें वो अपनी बूढ़ी बीवी यानी 'हज्जन' के साथ रहते थे। हाजी जी के चारों बेटे निकम्मेपन में अपने बाप से भी चार हाथ आगे थे। बड़ा बेटा रशीद कोई पैंतालीस बरस का था। उसके हिस्से में एक कमरे और एक दुकान की किरायेदारी आई थी और वो इसी में ख़ुश था। उसकी बीवी काम न करने पर उसे खूब लताड़ती थी मगर जवान टस से मस नहीं होता था। उसे दूसरे के फटे में टांग अड़ाने का बड़ा शौक़ था, नेतागिरी के कुछ कीड़े भी मौजूद थे, पंचायत का भी शौकीन था। दिन भर इन्हीं कामों में लगा रहता। दो बेटियाँ थीं और दोनों जवान होने लगी थीं। बड़ी बेटी ने ट्यूशन पढ़ा-पढ़ा कर बी.ए. पास कर लिया था और अब फुल टाइम ट्यूशन पढ़ाती थी। छोटी बेटी बारहवीं का इम्तिहान दोबारा दे रही थी, उसने हाईस्कूल भी दो बार में पास किया था। हाजी जी का दूसरा बेटा हमीद पतंग-बाज़ था। बयालीस बरस मुकम्मल कर चुका था। उसके हिस्से में भी बड़े बेटे जितनी किराएदारी आई थी। इसके अलावा हर मंगल को बड़े खेल के मैदान में पेंच लड़ाकर पैसे जमा कर लेता था। उसकी शादी सही उम्र में हुई थी मगर बीवी सही नहीं निकली। निकाह के चौथे दिन मायके चली गई और फिर वापस नहीं आई। सुना गया कि वो अपने बड़े बहनोई से दिल हारी हुई थी। हमीद ने उसे न तो तलाक़ दिया, न ही दूसरी शादी की हिम्मत दिखाई। पतंग-बाज़ी ही अब उसकी ज़िंदगी थी। हाजी जी का तीसरा बेटा वहीद बेवकूफी की इंतिहा था। एक कमरे और एक दुकान की किरायेदारी उसके भी हिस्से आई थी, मगर सीधेपन की वजह से अक्सर किराया वसूल नहीं कर पाता था। उसे कबूतर-बाज़ी का बहुत शौक़ था। कबूतर-बाज़ी का चलता-फिरता इन्साइक्लोपीडिया था। कबूतरों पर उस की गिरफ़्त क़ाबिले-रश्क थी। कैसा ही बिगड़ा हुआ कबूतर हो, एक हफ़्ते में उसके इशारों पर उड़ने लगता था। कबूतर-बाज़ी से ही उसकी गुज़र बसर होती थी। चालीस बरस का होने को आया था, मगर बड़े भाई हमीद की शादी की नाकामी और बेइज़्ज़ती का उसको इतना ख़ौफ़ हुआ कि उसने शादी ही नहीं की। चौथा और सबसे छोटा नवीद नकारा भी था और अय्याश भी। सट्टेबाज़ी की बुरी लत ने उसको और ख़राब कर दिया था। एक दुकान और एक कमरे की किरायेदारी उसके हिस्से में आई थी, बाक़ी हाथ पैर सट्टेबाज़ी में मार लेता था। सट्टेबाज़ी में तीन बार जेल भी जा चुका था। मगर सेवा-पानी कर जल्दी रिहा भी हो जाता था। हाजी जी ने अपने हिस्से में तीन कमरों और दो दुकानों की किरायेदारी रखी थी जिसमें उन दोनों का बुढ़ापा सुकून से कट रहा था। हाजी जी की एक दुकान और एक कमरा मैंने किराए पर ले रखे थे। मेरी दुकान में हिंदी और उर्दू की अदबी किताबें और बच्चों के स्कूल का सामान बेचा जाता था। अकेला था तो काम चल रहा था।
हाजी जी ख़ाली आदमी थे। मेरी दुकान पर एक-दो दिन छोड़कर आ जाते थे। मेरा भी वक़्त गुज़र जाता था। हाजी जी के पास बातों का ख़ज़ाना था। वो पूरे दिन बिना रुके हुए बोल सकते थे। मगर साँस फूलने के सबब बीच-बीच में रुकते और काफ़ी देर को ख़ामोश हो जाते थे। आज वो पाँच दिन बाद दुकान पर आए तो मैंने सलाम करते ही पूछा,
हाजी जी ख़ैरियत तो है? दिखाई नहीं दिए कई दिन से? हाजी जी ने दीवार से सटी पुरानी कुर्सी पर बैठते हुए हाथ का इशारा किया कि अभी बताता हूँ। पाँच सात मिनट बाद उनकी साँसें दुरुस्त हुईं तो बोले, यार यह एलर्जी तो दमे में तब्दील होती जा रही है। बड़ी परेशानी में गुज़रे ये चार पाँच दिन... ख़ैर तुम सुनाओ... कोई नई ताज़ा बात...
मैंने न में सिर हिला दिया। कुछ देर बाद बोले, यार यह बताओ कि हर आदमी अपनी बीवी से ज़लील क्यों होता है?
मैं मुस्कुरा दिया तो वो फिर खुद बोले,
तुम क्या बताओगे, तुमने यह लड्डू थोड़ी खाया है।
मैंने पूछा, हुआ क्या हाजी जी?
अमाँ होता क्या, हज्जन का जबड़ा घिस गया था। घिसे भी क्यों नहीं, अमाँ गिलोरियों की रेल बना रक्खी है। क़सम ख़ुदा की, तुम्हारी दुकान का किराया तो हज्जन का पानदान ही खा जाता है।
मुझे हँसी आ गई तो वो भी मुस्कुरा दिए। कुछ देर बाद बोले,
कहने लगीं जबड़ा घिस गया है, ज़रा धार करा देओ।
हम गए और आधा घंटे में जबड़े को नया करवा लाए।
फिर तो हज्जन खुश हो गई होंगी? मैंने पूछा।
हाजी जी मुस्कुराते हुए बोले,
अमाँ ऐसी वैसी खुश, वो तो जबड़ा देखकर ऐसी झूमीं गोया उनका रिश्ता आ गया हो, चहक कर बोलीं आज कई बरसों बाद कोई ढंग का काम किये हैं हाजी जी।
फिर आप क्या बोले? मैंने फौरन पूछा।
बोलते क्या? अमाँ खिसिया कर रह गए।
मुझे हँसी आ गयी तो वो भी मुस्कुराते हुए बोले,
अमाँ अस्ल कहानी तो अब शुरु होती है
मैंने कहा, अच्छा!
अमाँ जबड़े को मुँह में सरकाते ही हज्जन की आँखें फैल गयीं, अजीब सी डरावनी आवाज़ निकालने लगीं, घैं घैं... पता नहीं क्या हुआ, समझ में ही नहीं आया, मियाँ हज्जन का मुँह खुला का खुला रह गया
अरे, फिर क्या हुआ? मेरे चेहरे पर हैरत थी।
अमाँ मेरी तो हवाइयाँ उड़ गयीं, क़सम ख़ुदा की, इतनी डरावनी नज़र आ रही थीं हज्जन उस खुले हुए मुँह में कि क्या बताऊँ... फिर मैंने हिम्मत करके एक-दो मुक्के हज्जन की कमर पर रसीद किए, एक दो चपत गुद्दी पर लगाए तब जाकर कैसेट टेप-रिकार्ड से बाहर निकली। बस फिर क्या था, हज्जन ने वो सारी ला'नतें हमें तोहफ़ा कर दीं जो-जो उन्हें याद थीं।
मैंने हँसते हुए पूछा,
फिर तो आपको घर में घुसने नहीं दिया होगा हज्जन ने!
हाजी जी ने गहरा साँस छोड़ते हुए कहा, हाँ... होना तो यही चाहिए था, मगर अल्लाह भला करे पान ईजाद करने वाले का, हमने उसे हर साँस में दुआ दी, जब बात नहीं बन रही थी तो एक जोड़ी पान लगवा कर उनके हुज़ूर हाज़िर हुए और माफ़ी की अर्ज़ी लगायी।
फिर क्या हुआ मेरे सवाल में तजस्सुस था।
होना क्या था, हमारी दरख़्वास्त क़ुबूल कर ली गयी
वाह क्या कमाल किया एक जोड़ी पान ने मैंने ख़ुशी से चहकते हुए कहा तो उन्होंने मुस्कुराते हुए हामी में सिर हिला दिया। कुछ देर बाद हाजी जी रुख़सत हो गये।
दो दिन हुए थे इस मुलाक़ात को कि हाजी जी बड़े बुझे-बुझे से मेरी दुकान में दाख़िल हुए। मैंने सलाम किया, उन्होंने जवाब दिया और दुआऐं भी दीं। फिर काफ़ी देर ख़ामोश बैठे रहे। मैं समझा कि साँसें दुरुस्त कर रहे हैं। जब वक़्त ज़्यादा गुज़र गया तो मैंने पूछा, हाजी जी खै़रियत तो है? बड़े ख़ामोश हैं।
मियाँ दिल तो यह चाहता है कि अब हमेशा के लिए ख़ामोश हो जाएँ उनकी आवाज़ में बहुत थकावट थी।
मैंने कहा, ख़ुदा न करे, कैसी बातें कर रहे हैं हाजी जी, क्या हुआ?
यार, अल्लाह मियाँ ने हमारे साथ अच्छा नहीं किया। चार लौंडे दे दिए, एक लड़की भी दे देता।
मेरे चेहरे पर हैरत देख कर बोले, मियाँ... घर को घर तो लड़की ही बनाती है, उसे सजाती है, सँवारती है। लड़के तो बस घर का इस्तेमाल करते हैं।
मैं ख़ामोशी से उनको सुन रहा था। उन्होंने कुर्सी पर टेक लगा ली थी।
मेरे चार लड़के और चारों ऐसे जैसे कि जिस्म पर चार नासूर हों। एक ज़रा सूखता है तो दूसरा रिसने लगता है। अल्लाह लड़की नाम का मरहम भी दे देता...।
काफ़ी देर खामोशी रही।
कोई नई बात हो गई? मैंने खामोशी तोड़ते हुए पूछा।
हज्जन कल से घुटनों के दर्द से तड़प रही है। ज़लीलों से कहा कि अम्मा को डाक्टर को दिखा दो, दवा दिलवा दो। मगर चारों ने बहाने बना दिये। बेचारी बुढ़िया सुबह तो रोने लगी। मैंने सालों को बद्दुआ देनी चाही तो मुझे ख़ुदा का वास्ता देकर चुप करा दिया।
अरे तो आपने मुझसे कह दिया होता। मैंने नाराज़ होते हुए कहा।
कह तो देता... मगर यार तुम दुकान छोड़कर कैसे जाते हाजी जी के लहजे में हिचकिचाहट थी।
खाली छोड़कर क्यों जाता! आपको बैठा जाता। अब जाता हूँ दो बजे, आपने बड़ी फिक्र की...
मैंने उन्हें जवाब दिया।
हाजी जी ने मुझे बड़ी दुआएँ दी और चारों लड़कों को फिर भरपूर गालियों से नवाज़ा।
कुछ देर बाद कहने लगे, यार बुढ़ापे में पैसा चाहिए न चाहिए मगर दो लफ़्ज़ अपनाइयत के, प्यार के, अगर कोई बोल दे तो यह बुरा और मनहूस वक़्त आसानी से कट जाता है। कहते-कहते उनका गला रुंध गया और उनकी उदास आँखें नम हो गयीं। मैं भी उदास हो गया।
ज़िंदगी एक ही रफ़्तार से गुज़र रही थी। हाजी जी का कभी कोई लड़का आ जाता कभी कोई। मगर सभी में एक बात मुशतरक थी वो यह कि चारों लड़के एक दूसरे की बुराई करके जाते थे। ऐसा महसूस होता था कि मौक़ा मिले तो एक दूसरे का गला काट दें।
अचानक एक दिन ख़बर आई कि कोतवाली में नया कोतवाल तबादला होकर आया है। पता चला कि कोतवाल बहुत इमानदार और सख़्त है। उचक्कों और चोट्टों की शामत आ गई थी। सब के सब ग़ायब हो गए थे। पेंच बन्द हो गये थे। चौराहों और गलियों में अब लड़कियाँ बेख़ौफ आती जाती थीं। कबूतरों का लश्कर भी आसमान में दिखाई नहीं देता था। सट्टेबाजों क़ब्रें खोदी जा रहीं थीं। नवीद भी आधी रात को आता और पौ फटते ही चला जाता। एक दिन हाजी जी आए तो बहुत ख़ुश नज़र आ रहे थे। आते ही बोले, अमाँ कुछ ख़बर भी है! पुलिस चोट्टों को पकड़ कर मुर्ग़ा बना लही है। सट्टा बाज़ार उखाड़ा जा रहा है।
मैंने भी हामी भरी।
हाजी जी कुछ देर बाद बोले, मगर यार... बड़ा डर लगता है कभी-कभी।
मैंने पूछा, क्यों हाजी जी... आप को किस बात का डर?
हाजी जी ने धीमे लहजे में जवाब दिया, मियाँ... मैंने उम्र भर कोई काम नहीं किया, एक रुपया नहीं कमाया। मगर अल्लाह पाक ने इस नाकारा आदमी को इज़्ज़त बहुत दिलवाई। न जाने कितनों के झगड़े मैंने निबटाए। न जाने कितने रिश्ते टूटने से बचाए। उम्र के आख़िरी पड़ाव में कमाई हुई यह इज़्ज़त कहीं ख़ाक में न मिल जाए... मेरे लड़के ख़ुदा की क़सम बड़े ज़लील हैं। वही किसी दिन मेरी नाक न कटवा दें।
कैसी बातें करते हैं, आपके बेटे जैसे भी हैं आपकी इज़्ज़त तो करते ही हैं मैंने उन्हें तसल्ली दी।
अभी मैं कुछ और कहता कि मोहल्ले का एक लड़का हाजी जी को ढूँढता हुआ दुकान में घुसा और उन्हें देखते ही तेज़ी से बोला, हाजी जी नवा कोतवाल आया है... भाई नवीद को उठाने...
यह सुनकर हाजी जी वहीं बैठे रह गए। मेरी तरफ घबरा कर देखा। मेरे चेहरे पर भी परेशानी आ गई थी।
आपको पूछ रहा कोतवाल... लड़के ने फिर डरा दिया।
हाजी जी घबरा कर उठे, मैंने साथ चलने को कहा तो उन्होंने हाथ के इशारे से मना कर दिया। कुछ देर बाद पता चला कि कोतवाल धमकी देकर गया है कि अगर कल सुबह तक नवीद कोतवाली नहीं आया तो पूरे घर को उठा लेगा। हज्जन का रो-रो कर बुरा हाल था। तीनो भाई नवीद को कोस रहे थे। हाजी जी चारपाई पर सिर पकड़े बैठे थे।
अगला दिन निकला और बीत गया। कोई ख़बर नहीं आयी। मगर एक अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ था। मेरी तवज्जो भी काम में नहीं थी। दुकान शाम को जल्दी बंद कर दी और अपने कमरे पर आ गया। रात का कोई दो बजा होगा कि चीख़ पुकार की आवाज़ से मेरी आँख खुली। बाहर आया तो पता चला कि नवीद के कोतवाली न पहुँचने पर कोतवाल आया था। बड़े भाइयों की तरफ गया। वहाँ ताले देखकर हाजी जी तरफ गया। नवीद को पूछा। सही जवाब न मिलने पर हाजी जी को अपने साथ ले गया। हज्जन का बुरी तरह रो रहीं थीं। उन्होंने कोतवाल के हाथ जोड़े, उनकी उम्र का वास्ता दिया। मगर कोतवाल नहीं पसीजा। जाते-जाते कह गया कि नवीद को ले आओ और इन्हें ले जाओ। मैं सदमे में था। भागा हुआ हज्जन के पास गया। वो बेतहाशा रो रही थीं। उन्हें रोता हुआ देखकर मुझे इतना अफसोस नहीं हुआ जितना उन्हें तन्हा रोते हुए देखकर हुआ। मैंने उनसे सिर्फ़ यह पूछा कि क्या हाजी जी अपना इन्हेलर ले गए? उन्होंने हां में सिर हिलाया और फिर फूट-फूट कर रोने लगीं। मैं कुछ देर वहीं बैठा रहा। दूसरे किराएदार और पड़ोसी भी बैठे हुए थे। मशविरा हो रहा था कि क्या किया जाए। मुझे रह-रह कर हाजी जी याद आ रहे थे। सोचने लगा कि उन पर क्या बीत रही होगी? क्या सोच रहे होंगे? क्या कर रहे होंगे?
सुबह हुई, दुकान खोलने से पहले मैं कोतवाली पहुँच गया। देखा कि उन्हें एक कमरे में रखा गया था। मैंने कोतवाल से इजाज़त माँगी और कमरे में दाख़िल हुआ। उन्होंने मुझे देखा और नज़रें झुका लीं। एक रात में वो और ज़्यादा कमज़ोर और बीमार दिखाई दे रहे थे। चेहरे पर जाने किस गुनाह का एहसास था। वो नज़रें नहीं मिला पा रहे थे। उनकी आँखों से आँसू टपक का दामन में जज़्ब हो रहे थे। मेरी आँखें भी नम हो गयीं।
कुछ देर बाद मैंने ही पहल की, आप संभालें अपने आप को
यार मरने से पहले यह दिन भी देखना था उन्होंने काँपते हुए कहा।
मैं खामोश हो गया।
हमारे ताया आज़ादी की लड़ाई में जेल गए, उनका तमग़ा भी है हमारे पास और अब देखो... किस तरह जेल में आए हैं यह कह कर वो और सिसकने लगे।
आप ऐसा क्यों सोचते हैं मैंने उन्हें समझाया। सब जानते हैं कि आपकी कोई ग़लती नहीं है।
मेरी बात दरमियान में काटते हुए तेज़ आवाज़ में बोले, ग़लती नहीं है, मगर सज़ा तो मिल रही है, दामन पर दाग़ तो लग ही गया।
कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा मैंने समझाने की कोशिश की।
मियाँ, लाचार आदमी इसी उम्मीद पर उम्र गुज़ार देता है कि सब कुछ ठीक हो जाएगा उनकी इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैं ख़ामोश हो गया। कुछ देर ख़ामोशी रही।
बेटे हाजी जी की आवाज़ में इस मर्तबा मज़बूती थी।
एक काम करना है तुम्हें
जी मैंने फौरन कहा।
जानते ही हो कि हज्जन को पान खाने की बुरी आदत है। छः घंटे से ऊपर हो गए। उनके पास रात आख़िरी जोड़ी रह गयी थी। रो-रो कर और तबीयत गिरा ली होगी। एक जोड़ी पान चाहियें। इसके अलावा एक बात यह है कि मक्खी जितने बड़े मच्छर हैं यहाँ और ये मच्छर तो फिर भी बर्दाश्त हो जाएँ, मगर मुझसे चूहे बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होते। एक लम्हे को भी आँख नहीं झपकी। जब एक जोड़ी पान लाओ तो ज़रा सा आटा और एक पैकेट चूहा मार दवा भी लेते आना। इंतज़ाम करना है इनका। जब तक नवीद नहीं आएगा, यह कोतवाल मुझे नहीं छोड़ेगा। मैं इन चूहों के साथ नहीं रह सकता। हज्जन से कहना, दुआ करें। सब ठीक हो जाएगा और औलाद को बद्दुआ न दें। माँ की बद्दुआ अल्लाह पाक बड़ी जल्दी क़ुबूल करता है।
मैंने हर बात की हामी भरी और एक घंटे में वापसी का कह कर लौट आया। सबसे पहले हज्जन को हाजी जी की ख़ैरियत की ख़बर देने पहुँचा और हाजी जी का बताया सामान लेकर कोतवाली वापस गया। हाजी जी की नसीहत पर अमल करते हुए मैंने तैनात हवलदार को 'सलाम' कर लिया था। सभी चीज़ें देखकर हाजी जी के चेहरे पर सुकून आ गया था। सबसे पहले उन्होंने एक जोड़ी पान और तह किया हुआ एक काग़ज़ एक थैली में बंद किया और मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, यह थैलिया हज्जन को जाकर देना और इसमें रखे काग़ज़ को उसे पढ़कर सुना देना। अब तुम जाओ... तुम्हें दुकान भी खोलनी है।
मैं शाम को आता हूँ कहकर मैं वापस आ गया। हज्जन को थैली दी और काग़ज़ पढ़ने की बात बताई। काग़ज़ निकाल कर सुनाने ही वाला था कि किसी ने चीख़ते हुए यह ख़बर दी कि हाजी जी बेहोश हो गए कोतवाली में, पुलिस उन्हें बड़े अस्पताल ले गई है। मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन निकल गई। भागा-भागा बड़े अस्पताल पहुँचा। पता चला कि हाजी जी आई.सी.यू में हैं। हज्जन को भी पीछे-पीछे कोई ले आया था, वो बुरी तरह तड़प रहीं थीं। कोई अपना उनके पास नहीं था। कुछ मुहल्ले वाले और एक दो किराएदार तो पहुँच गए थे मगर लड़कों का कहीं अता पता नहीं था। पता चला कि हाजी जी ने कुछ देर पहले चूहा मार दवा खा ली थी। सब लोग कह रहे थे कि चूहा मार दवा उनके पास तक कैसे पहुँची? मैं अन्दर ही अन्दर बुरी तरह काँप रहा था। मगर मैंने हिम्मत करके हज्जन को पानी पिलवाया और ढाँढस बंधाया कि हाजी जी ठीक हो जाएँगे। उनके हाथ में हाजी जी की दी हुई थैली थी। कुछ देर में हम सब कुछ बेहतर हुए तो मुझे हाजी जी के काग़ज़ का ख़्याल आया। मैंने हज्जन से थैली लेकर उसमें से काग़ज़ निकाला और पढ़ने लगा, लिखा था,
हज्जन! सलामालेकुम...
क्या कहूँ... तुमने मेरी तमाम ग़लतियों को देर-सवेर माफ़ कर दिया। मैंने तुम्हें ख़ुशी के कुछ ही दिन दिखाए, मगर तुम सब्र वाली औरत थीं तो तुमने इन महरूमियों में ख़ुशी-ख़ुशी अपनी उम्र काट दी। मगर मैं अंदर ही अंदर घुटता रहा। एक गुनाह मुझसे यह भी हुआ कि मैंने तुम्हारे पेट से चार ज़ख़्म पैदा कराए, जो ता-उम्र हमारे जिस्मों से रिस्ते रहे। शायद तुम्हारे नसीब में दुख ज़्यादा थे वरना मुझ नाकारा से क्यों ब्याही जातीं... मगर अल्लाह भला करे एक जोड़ी पान का... जब-जब हमारी गाड़ी पटरी से उतरती दिखाई दी, एक जोड़ी पान ने संभाला दे दिया...
हज्जन! तुमने मेरी बड़ी ख़ताएँ माफ़ कीं हैं। अब यह आख़िरी ख़ता भी माफ़ कर देना। इस उम्र में कोतवाली आना और इस तरह आना! क्या कहूँ, बाहर आकर किसी से नज़रें मिलाने की हिम्मत नहीं है। इसी लिए जा रहा हूँ। जानता हूँ कि ख़ुदकुशी बहुत बड़ा गुनाह है। मगर अब जीना मौत से भी बदतर होगा। तुम्हारे लिए एक जोड़ी पान भेजें हैं। शायद तुम इस मर्तबा भी माफ़ कर दो...
ख़ुदा हाफ़िज़...
हज्जन ने ख़त सुना तो और तड़पने लगीं।
तभी आईसीयू से डॉक्टर बाहर आए और हम से कहा,
वी आर वेरी सॉरी
मैं पत्थर बना काग़ज़ को घूर रहा था। हज्जन ने हाए हाजी जी कहते हुए एक जोड़ी पान फेंक दिए थे।
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