एक लड़की
स्टोरीलाइन
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में शुरुआती ज़माने में लड़कियों को दाखिला नहीं दिया जाता था। इसके लिए एक पत्रकार ने यूनिवर्सिटी के ख़िलाफ मुक़दमा किया। यह मुक़दमा 99 साल और पत्रकार की तीन नस्लों तक चला। इसके भी कई साल बाद तक लड़कियों को यूनिवर्सिटी ने दाख़िला नहीं दिया। लेकिन फिर एक लड़की वहाँ दाख़िला लेने में कामयाब रही और उसके आने के बाद जो तब्दीलियाँ वहाँ के माहौल में हुई वह आप इस कहानी में पढ़ सकते हैं।
(इस कहानी में कोई कैरेक्टर क़त'ई फ़र्ज़ी नहीं है।)
(1)
अ'लीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी की तारीख़ में 1937 यादगार रहेगा। क्योंकि इस साल हिंदुस्तानी मुसलमानों के वाहिद दार-उल-उलूम में सरकारी तो तौर पर मख़लूत ता'लीम की इबतिदा हुई। ये क़िस्सा भी अ'जीब है कि किस तरह यूनीवर्सिटी के अरबाब हल-ओ-अक़द इस सनसनी-खेज़ तबदीली के लिए क़ानूनन मजबूर किए गए। निनानवे साल पहले हिंदोस्तान के मशहूर क़ौम-परस्त जर्नलिस्ट और समाजी कार-कुन सलीम-उज़-ज़माँ सहाफ़ी ने मुस्लिम यूनीवर्सिटी मैंबरान-ए-कोर्ट-ओ-एग्जीक्यूटिव काउन्सिल के ख़िलाफ़ एक मुक़द्दमा दायर किया था जिसमें उन बुज़ुर्गान-ए-क़ौम पर क़ौमी अमानत के ख़िलाफ़ ना-जायज़ मुसर्रिफ़ के इल्ज़ामात आ'इद किए गए थे।
सलीम-उज़-ज़माँ सहाफ़ी का दावा था कि मुस्लिम यूनीवर्सिटी के नाम से जितना रुपया जमा' किया गया था वो मुसलमानों की ता'लीम के लिए था न कि फ़क़त मुसलमान लड़कों की ता'लीम के लिए। और हुकूमत ने जब यूनीवर्सिटी का चार्टर मंज़ूर किया था तो इसमें भी वाज़ेह कर दिया गया था कि ये यूनीवर्सिटी तमाम मुसलमानों की ता'लीम के लिए क़ाएम की जाती है। ये कहें तख़सीस न की गई थी कि मुसलमानों से मुराद फ़क़त मुसलमान मर्द हैं।
इस दावे के सबूत में सलीम-उज़-ज़माँ सहाफ़ी ने मशहूर ज़बान-दानों का फ़ैसला पेश किया था कि लफ़्ज़ “मुसलमान” औरतों और मर्दों दोनों के लिए यकसाँ इस्ति'माल किया जा सकता है। इसी तरह उसने मुक़तदिर उलमा-ए-दीन से भी एक फ़तवा हासिल किया था। जिसमें उन्होंने मुत्तफ़िक़ा तौर पर ऐ'लान किया था कि गो अक्सर मुसलमान मर्दों पर किसी न किसी मौलवी ने कभी न कभी कुफ़्र का फ़तवा लगाया है। लेकिन औरतों को एक जमाअ'त की हैसियत से इस वक़्त तक इस्लाम से ख़ारिज नहीं किया गया था।
इस पर सलीम-उज़-ज़माँ सहाफ़ी का दावा था कि इतने अ'र्से तक यूनीवर्सिटी के दरवाज़े लड़कियों के लिए बंद रखकर मैंबरान-ए-कोर्ट-ओ-एग्जीक्यूटिव काउन्सिल क़ौमी रुपये के ना-जायज़ इस्ति'माल के मुर्तकिब हुए हैं।
ये मुक़द्दमा जब यकुम अप्रैल 1938 को पहली बार अ'लीगढ़ के कलक्टरी अ'दालत में पेश हुआ तो तमाम मुल्क में सनसनी फैल गई थी। मिस्टर जिन्नाह की मुस्लिम लीग, हिज़ हाइनेस आग़ा ख़ाँ की मुस्लिम कान्फ़्रेंस, मौलाना शौकत अली की ख़िलाफ़त कमेटी, मौलवी मज़हरउद्दीन की जमाअत-उल-उलमा, सद्रयार जंग की मुस्लिम एजूकेशनल कान्फ़्रैंस और दीगर ख़ालिस इस्लामी अंजुमनों ने तेरह हज़ार दो सौ सत्तावन जलसे किए जिन सब में कुल ता'दाद हाज़िरीन की तेरह हज़ार एक सौ पच्चास नुफ़ूस थी।
इसके अ'लावा सलीम-उज़-ज़माँ सहाफ़ी पर सत्ताईस मुफ़्तियों ने कुफ़्र के फ़तवे लगाए और सतरह अख़बारों ने उस पर इल्ज़ाम लगाया कि वो कांग्रेस से रुपया लेकर खा गया है। मिस्टर जिन्नाह से दरख़्वास्त की गई कि वो अपने चौदह निकात में एक पन्द्रहवें नुक्ते को शामिल कर लें कि अज़ल से लेकर अबद तक मुस्लिम यूनीवर्सिटी में मख़लूत ता'लीम कभी जारी न की जाएगी।
सेठ अल्लाह दिया की सदारत में मिस्टर अली जिन्नाह ने भिंडी बाज़ार, बंबई के मुसलमानों को ख़ालिस अंग्रेज़ी में ख़िताब करते हुए फ़रमाया कि “गो में ये एक उलमा नहीं हूँ मगर सलीम-उज़-ज़माँ सहाफ़ी की हिंदू-परस्त हरकत की सख़्त मज़म्मत करता हूँ।” आपने ये भी फ़रमाया कि मुसलमान की हैसियत से वो मुस्लिम यूनीवर्सिटी में मख़लूत ता'लीम के इजरे के सख़्त ख़िलाफ़ हैं जिसका सबूत ये है कि आपने अपनी साहबज़ादी को कभी अ'लीगढ़ भेजने का ख़याल भी न किया और यूरोप के मख़लूत इदारों में ता'लीम दिलवाई।
आख़िर में आपने पाँच हज़ार रुपये रोज़ पर अपनी क़ानूनी ख़िदमात पे मुक़द्दमा लड़ने के लिए मुस्लिम यूनीवर्सिटी को पेश कीं। जिस पर भिंडी बाज़ार के मुसलमानों ने “अल्लाहु-अकबर” के नारे बुलंद किए क्योंकि अंग्रेज़ी से ना-वाक़िफ़ होने के बाइस वो समझते थे कि मिस्टर जिन्नाह ने बे-कार बे-रोज़गार मुसलमानों को फ़ाक़े से बचाने के लिए पाँच हज़ार रुपये चंदे का ऐ'लान किया है।
इस जलसे के बा'द मिस्टर जिन्नाह ने एक बयान शाया' किया कि जब तक कांग्रेस अपने गुर्गों से ऐसे मुक़द्दमे दायर कराती रहेगी वो कांग्रेसी लीडरों से फ़िर्का-वाराना मुसालहत की गुफ़्तगू न करेंगे और ये भी कहा कि भिंडी बाज़ार के जलसे ने साबित कर दिया है कि मुस्लिम अ'वाम भी इस राय में मिस्टर जिन्नाह के हम-ख़याल हैं। इस बयान की ताईद सर अबुल-बक़ा और सर अमीन ख़ाँ ने की। जिन्होंने कहा कि नेहरू रिपोर्ट के बा'द ये मुक़द्दमा मुसलमानों की क़ौमी ज़िंदगी पर कांग्रेस का दूसरा हमला है।
ये थी ज़बरदस्त इबतिदा इस मुक़द्दमे की जो निनावे बरस तक मुख़्तलिफ़ अदालतों में चलता रहा और इस अरसे में तेरह मर्तबा प्रीवी काउन्सिल में पेश हुआ।
सलीम-उज़-ज़माँ सहाफ़ी के मरने के बा'द उसके लड़के रहीम-उज़-ज़माँ सहाफ़ी ने इस मुक़द्दमे को जारी रखा और इसके बा'द उसके लड़के रहीम-उज़-ज़माँ सहाफ़ी ने। इस अरसे में हिंदोस्तान में कई इन्क़िलाबात हुए और हुकूमतें तबदील हुईं लेकिन मुक़द्दमे का फ़ैसला न हुआ। 1935 में जब कलीम-उज़-ज़माँ सहाफ़ी का इंतिक़ाल हुआ तो ये मुक़द्दमा विरसे में उसकी इकलौती बेटी सलमा सहाफ़ी को मिला। अगले ही साल जब तेरा-ए-स्वराज हुकूमत क़ाएम हुई तो उसने फ़ौरन तय कर दिया कि मुस्लिम यूनीवर्सिटी के आफ़िसरान को लड़कियों का दाख़िला रोकने का कोई हक़ नहीं है और अगर उन्होंने अपना यही तर्ज़-ए-अ'मल जारी रखा तो हुकूमत यूनीवर्सिटी की इमारतें ज़बत करके वहाँ एक चिड़ियाघर क़ाएम कर देगी।
इस फ़ैसले पर मुस्लिम यूनीवर्सिटी के तालिब-ए-इ'ल्मों की यूनीयन ने मुबारकबाद का रीज़ोलेशन पास किया। हारून नासिरी की तजवीज़ और हामिद अब्बासी की ताईद पर बजट में दो सौ रुपये ख़वातीन तालिब-ए-इ'ल्मों के बैठने के लिए मख़मली सोफ़ों के वास्ते मंज़ूर किए, लेकिन एक साल तक वो मख़मली सोफ़े बे-कार पड़े रहे क्योंकि कोई लड़की दाख़िल न हुई।
उलमा ने फ़तवा दे दिया था कि मख़लूत ता'लीम हराम है और मुश्किल ये थी कि क़दामत-पसंद घरानों ने इन फतवों के डर से अपनी लड़कियाँ न भेजीं और जो आज़ाद ख़याल लड़कियाँ थीं वो अ'लीगढ़ जैसी फ़िर्क़ा-परवर और पुराने ख़याल की यूनीवर्सिटी में दाख़िला लेने के ख़िलाफ़ थीं। आख़िर-कार, गो वो भी इस दक़ियानूसी ता'लीम के ख़िलाफ़ थी जो अ'लीगढ़ में दी जाती थी, अगले साल ख़ुद सलमा सहाफ़ी को वारधा की क़ौमी यूनीवर्सिटी छोड़कर अ'लीगढ़ में दाख़िला लेना पड़ा ताकि अपने ज़ो'फ़ का हक़ क़ाएम करे।
जिस वक़्त सलमा सहाफ़ी के दाख़िले का फ़ार्म यूनीवर्सिटी के पिरो-वाइस चांसलर मौलवी अबुल-अ'लम के पास पहुँचा तो वो सत परेशान हुए और दौड़े वाइस चांसलर शैख़ रहीम-उद्दीन के पास गए। वो दोनों मख़लूत ता'लीम के सख़्त ख़िलाफ़ थे लेकिन सलमा सहाफ़ी का दाख़िला करने से इंकार करना हुकूमत के फ़रमान की ख़िलाफ़वरज़ी थी। “इस कम्बख़्त लड़की को दाख़िल करना ही पड़ेगा”, मौलवी अबुल-अ'लम बोले। “लेकिन तालिब-इ'ल्म लड़कियों के लिए कुछ ऐसे क़वानीन बनाए जाएँ जिनसे घबरा कर वो यूनीवर्सिटी में दाख़िले का ख़याल ही छोड़ दें।” अगले रोज़ यूनीवर्सिटी की एग्जीक्यूटिव काउन्सिल का जलसा मुनअ'क़िद हुआ ताकि सूरत-ए-हाल पर ग़ौर किया जाए।
नवाब ताऊस यार जंग अचकानी ने तजवीज़ पेश की कि तालिब-इ'ल्म लड़कियों के लिए एक ख़ास बोर्डिंग हाऊस ता'मीर किया जाए। जिसकी दीवारें दो सौ बीस गज़ ऊँची हों और इस बोर्डिंग से लेकर लेक्चर के कमरों तक एक सुरंग बनाई जाए जिसके ज़रिए' सलमा सहाफ़ी लेक्चर सुनने जाया करे। इसके अ'लावा हर लेक्चर रुम में चारों तरफ़ से एक बंद कोठरी बनाई जाए जिसमें सुरंग का रास्ता निकलता हो और इस कोठरी में बजाए दरवाज़े या खिड़की के चार बारीक सूराख़ हों जिनमें से प्रोफ़ैसर की आवाज़ पहुँच सके।
इस तजवीज़ की ज़बरदस्त मुवाफ़क़त मौलाना लुक़्मान ने की और बिल-इत्तिफ़ाक़ राय मंज़ूर हो गई। इसके बा'द प्रोफ़ेसर अब्दुल-सिद्दीक़ रशीदी ने तजवीज़ पेश की कि जिस तरह तालिब-इ'ल्म लड़कों के लिए सियाह बंद गले का कोट और अठारवीं सदी टर्की की टोपी पहनना लाज़िमी था, इसी तरह तालिब-इ'ल्म लड़कियों के लिए काला बुर्क़ा पहनना लाज़िमी क़रार दिया जाए। ये तजवीज़ भी मंज़ूर कर ली गई। अब ख़ुदावंदान-ए-यूनीवर्सिटी ने इत्मीनान का साँस लिया। अब उनको यक़ीन था कि सलमा सहाफ़ी कभी यूनीवर्सिटी में दाख़िला न लेगी।
सलमा को जब इन क़वानीन का इ'ल्म हुआ तो वो बड़ी घबराई। लेकिन कुछ सोच कर उसने महकमा-ए-ता'लीम-ओ-हिफ़्ज़ान-ए-सेहत को एक ख़त लिखा और उन क़वानीन की तरफ़ तवज्जोह दिलाई। नतीजा ये हुआ कि वज़ीर-ए-ता'लीम ने डाँट कर वाइस चांसलर को एक ख़त लिखा कि ऐसे क़वानीन बनाकर हुकूमत के अहकाम की ख़िलाफ़-वर्ज़ी करने पर आइंदा सख़्त सज़ा दी जाएगी।
इसके अ'लावा महकमा हिफ़्ज़ान-ए-सेहत के एक इन्सपैक्टर ने यूनीवर्सिटी का मुआइना करते हुए लड़कियों के बोर्डिंग और सुरंग दोनों को ख़िलाफ़-ए-क़ानून क़रार देकर मिस्मार करा दिया। अगज़कवा काउन्सिल का एक जलसा फ़ौरन सूरत-ए-हाल पर ग़ौर करने के लिए मुनअ'क़िद किया गया।
मौलवी अबुल-अ'लम ने फ़रमाया कि मुस्लिम यूनीवर्सिटी का मसलक हमेशा हुकूमत की इताअ'त रहा है, इसलिए उनके लिए उसके सिवा कोई चारा न था कि सलमा सहाफ़ी को बे-पर्दा ता'लीम हासिल करने की इजाज़त दे दें। वाइस चांसलर ने भी कहा कि ब-हालत मजबूरी उनको ऐसा ही करना होगा। बाक़ी आठ मैंबरान काउन्सिल ने कहा, “जैसा आपका हुक्म सरकार” और जलसा बर्ख़ास्त हो गया।
(2)
मुस्लिम यूनीवर्सिटी की तारीख़ में इतना बड़ा इन्क़िलाब कभी न हुआ था जितना एक लड़की सलमा सहाफ़ी के दाख़िल होने पर हुआ। वो शहर की मज़दूर लड़कियों के होस्टल में रहती थी जो बीसवी सदी के एक नवाब मुज़्महिल अल्लाह के शानदार महल में क़ाएम किया गया था। जब सुब्ह को वो कॉलेज जाती तो हर शख़्स की नज़र उसकी तरफ़ उठती।
वो हसीन न थी लेकिन नौजवान औरत अ'लीगढ़ में हमेशा से एक नायाब शय रही है। ये पहली बार थी कि यूनीवर्सिटी के चंद हज़ार तालिब-ए-इ'ल्मों ने एक लड़की को तालिब-इ'ल्म की हैसियत से देखा। सलमा ने बीसवीं सदी अ'लीगढ़ के मुतअ'ल्लिक़ अ'जीब-ओ-ग़रीब क़िस्से सुने थे कि इस ज़माने में अगर स्टेशन पर से किसी रेल में कोई हसीन लड़की गुज़रती थी तो तमाम यूनीवर्सिटी में हंगामा बरपा हो जाता था।
पहले-पहल सलमा को इस क़दर आलम-गीर तवज्जोह का मर्कज़ बनना बुरा मा'लूम हुआ लेकिन कुछ अर्से के बा'द वो उसकी आदी हो गई। सबसे बड़ा इन्क़िलाब उसकी क्लास या'नी एल.एल.बी प्रीवियस में हुआ था। एक सौ इक्यावन तालिब इ'ल्मों में वो अकेली लड़की थी।
उन सबकी तवज्जोह की वो वाहिद मर्कज़ थी। जब से उसने दाख़िला लिया था इन तमाम लड़कों में बैन तबदीली नज़र आती थी। जो तीसरे दिन दाढ़ी मूँडते थे, वो अब रोज़ शेव करने लगे, जो हमेशा मैले कपड़े पहन कर आते थे वो अब साफ़ कपड़े पहन कर आने लगे। जिनके कोटों पर बरसों से ब्रश न हुआ था उनके कोट अब चमकने लगे। जिनके बालों में हफ़्तों कभी कंगा ना होता था उन्होंने क्लास में आते वक़्त भी जेब में शीशा-कंघा रखना शुरू' कर दिया।
सबसे बड़ा कमाल ये हुआ कि तक़रीबन तमाम तालिब-इ'ल्म अब लेक्चर के वक़्त हाज़िर रहने लगे। वर्ना एल.एल.बी प्रीवियस में ख़ैर 25 फ़ीसदी से ज़्यादा लड़के हाज़िर न होते थे। बाक़ी सब दोस्तों से प्रॉक्सी बुलवाकर काम चलाते थे। जिस दिन से सलमा सहाफ़ी ने दाख़िला लिया लेक्चर रुम भरा रहने लगा। फाईनल क्लास के तलबा भी किसी न किसी बहाने से आकर बैठने लगे।
प्रोफ़ेसर की ज़िंदगी में भी सलमा सहाफ़ी की मौजूदगी ने काफ़ी तबदीली पैदा कर दी। वो भी अच्छे कपड़े पहन कर आने लगे। जिनके कोट पर हमेशा चाक की सफ़ेदी पड़ी रहती थी वो क्लास में आने से क़ब्ल निहायत एहतियात से कोट पर ब्रश करने लगे। स्टाफ़ रुम में एक आईना, कंघा, कपड़ों और बालों के ब्रश रखे गए।
क्लास के तमाम लड़कों में सलीम और अनवर सलमा में ज़्यादा दिलचस्पी लेते थे। ये दोनों यूनीवर्सिटी के बा-असर और मशहूर तालिब-ए-इल्मों में शुमार होते थे। सलीम टेनिस क्लब का सैक्रेटरी और बड़ा अच्छा खिलाड़ी था। स्विमिंग बाथ में मछली की तरह तैरता था और यू.टी.सी का सार्जैंट था। साथ ही वो एक क़ाबिल-ए-रशक सेहत और साँचे में ढलते जिस्म का मालिक था। उसको अपने मर्दाना हुस्न पर काफ़ी नाज़ भी था और जब उसने सलमा सहाफ़ी में दिलचस्पी लेनी शुरू' की तो सिवाए अनवर के इसकी रक़ाबत मोल लेने की किसी ने हिम्मत न की।
अनवर उतना हसीन न था जितना सलीम, वो खिलाड़ी भी न था मगर पढ़ने लिखने में वो सबसे तेज़ था। उसने अव्वल दर्जे में अंग्रेज़ी अदब का एम.ए किया था। यूनीयन का बेहतरीन मुक़र्रर और मैगज़ीन का एडीटर था। उसके अफ़साने और नज़्में मलिक के अक्सर क़दामत-पसंद रिसालों में शाया होती थीं। वो सलमा सहाफ़ी में दिलचस्पी लेता था और क्लास में जब तक मुम्किन होता कोई अदबी या क़ानूनी बहस छेड़कर उससे बात करने का मौक़ा निकाल लेता।
अनवर और सलीम क़दामत-पसंद ख़ानदानों के लड़के थे। उनके लिए औरत एक ना-मा'लूम जिंस थी। इसलिए वो बीसवीं सदी के शायर मिज़ाज तालिब-ए-इ'ल्मों की तरह हर उस लड़की में, जिससे किसी तरह उनकी मुलाक़ात हो जाए, इस क़दर दिलचस्पी लेते थे। उनके क्लास में एक लड़का एहसान-उल्लाह पढ़ता था जिसकी बद-क़िस्मती से सात बहनें थीं। ये सब लड़कियाँ दिल्ली की क़ौमी यूनीवर्सिटी में पढ़ती थीं। लेकिन छुट्टीयों में अक्सर अलीगढ़ अपने भाई से मिलने आया करती थीं इसलिए क्लास के तक़रीबन तमाम लड़के एहसान-उल्लाह से दोस्ती गाँठने की कोशिश करते थे। हर मौक़े पर उसकी आवभगत होती और नौजवान प्रोफ़ैसर भी उसका ख़याल रखते।
सलीम और अनवर ने ख़ास तौर पर एहसान में दिलचस्पी लेनी शुरू' की। सलीम उसको रोज़ टेनिस खेलने बुलाता और क्लब की फ़ीस उसके बजाए ख़ुद दे देता। अनवर इसरार करता कि एहसान उसके साथ मिलकर इम्तिहान के लिए पढ़े। दोनों उसकी दावतें भी ख़ूब करते। शुरू' शुरू' में एहसान इन सब इनायात को दोस्ती पर महमूल करता रहा। लेकिन अरसे के बाद उसने महसूस किया कि ये दोनों उससे ज़्यादा उसकी बहनों में दिलचस्पी रखते हैं।
जिस दिन उसकी बहनें दिल्ली से आईं, सलीम-ओ-अनवर उसके साथ साथ लगे रहते और उसकी बहनों की ख़ातिर-ओ-मुदारात में ज़रूरत से ज़्यादा इन्हिमाक दिखाते। हालाँकि वो सब मिलकर इन दोनों को बे-वक़ूफ़ बनाती थीं। एहसान हमेशा से मुँह-फट वाक़े' हुआ था। एक दिन जब उसको अनवर-ओ-सलीम की हरकतों से सख़्त कोफ़्त हुई तो उसने अपनी बहनों के सामने ही उन से साफ़ साफ़ कह दिया, “देखिए साहिब इस वक़्त आप दोनों भी मौजूद हैं और मेरी बहनें भी, आपको उनमें से जिस-जिससे दिलचस्पी हो साफ़ कह दीजिए, उनकी मर्ज़ी हो तो वो आपसे दोस्ती करें। मगर मेहरबानी करके मेरी जान छोड़िए।” उस दिन से अनवर और सलीम और एहसान-उल्लाह के तअ'ल्लुक़ का ख़ात्मा हो गया और उनको किसी नए शिकार की तलाश हुई। जब सलमा सहाफ़ी ने दाख़िला लिया तो दोनों ने अलाहिदा अलाहिदा कोशिश शुरू' की कि उससे दोस्ती बढ़ाई जाए।
एक सुब्ह ख़ाली घंटे में सलमा बरामदे में अकेली खड़ी थी। उससे कुछ फ़ासले पर लड़कों का एक गिरोह खड़ा उसकी तरफ़ घूर रहा था। सलमा को इस क़िस्म की हरकतों पर ग़ुस्सा भी आता था और हँसी भी, ग़ुस्सा इसलिए कि ख़्वाह-मख़्वाह उसको कोई क्यों इस तरह घूरे और हँसी इस बात पर कि अलीगढ़ के ये ता'लीम-ए-याफ़्ता लड़के इस क़दर दक़ियानूसी थे।
इक्कीसवीं सदी में भी ऐसी हिमाक़तें करते थे। उसको अपने डेस्क में अक्सर गुमनाम आशिक़ाना ख़ुतूत मिलते थे। एक-बार तो एक ना-मा'लूम आ'शिक़ साहिब ने एक क़ीमती फ़ाउंटेन पेन इसी तरह तोहफ़ा दिया था। डेस्क के ऊपर गुलाब के फूल रखे मिलते। लेकिन इन सब मजनूँ-सिफ़त हज़रात में से किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि खुल्लम-खुल्ला उससे बात भी कर सके। सलमा खड़ी इन सब बातों पर ग़ौर कर रही थी कि सलीम साहिब अपना बेहतरीन सूट पहने बालों में धड़यों तेल लगाए और फ़िल्म स्टारों जैसी मूँछें बनाए हुए नाज़िल हुए।
“मिस सलमा सहाफ़ी” उसने बीसवी सदी के अंदाज़ में इस क़दर झुक कर कहा कि सलमा को हँसी आ गई। “आप यहाँ खड़ी क्या कर रही हैं? हाँ... वो मेरा मतलब ये है आप कोई खेल क्यों नहीं खेलतीं? देखिए आपकी रंगत ज़र्द होती जा रही है। वो तो आपने सुना ही होगा कि,
All work and no play
Makes Jack a dull boy.
मुझे मा'लूम हुआ है कि आप वारधा में टेनिस की बेहतरीन खिलाड़ियों में शुमार होती थीं। तो आप हमारे स्विमिंग बाथ क्लब में आज शाम को टेनिस खेलने आईए ना?” वो साँस लेने के लिए रुका तो सलमा ने कहा, “शुक्रिया, मैं अब तक तो इसलिए खेलने न आई थी कि शायद वाइस चांसलर साहिब लड़कों के अख़लाक़ ख़राब करने के जुर्म में मुझे यूनीवर्सिटी से निकाल दें।”
सलीम अपने आपको आज़ाद ख़याल और तरक़्क़ी-पसंद समझता था। “अरे आप भी क्या कहती हैं किस की मजाल है कि आपको यहाँ से निकाल दे। हम सब यूनीवर्सिटी छोड़ देंगे। आप शायद मुझसे वाक़िफ़ नहीं हैं। पिछले साल टुकड़ों में मीठा कम होने पर मैंने एक महीने तक डाइनिंग हाल का स्ट्राइक करा दिया था। आप बे-फ़िक्र हो कर आज ही से खेलने आइए।”
सलमा ने अपनी जान छुड़ाने के लिए वादा कर लिया और कहा कि वो इसी मुक़ाम पर शाम के पाँच बजे मिलेगी और फिर दोनों इकट्ठे स्विमिंग बाथ लॉन पर टेनिस खेलने जाएँगे।
सलीम उससे रुख़स्त हो कर ख़ुश-ख़ुश अपने कमरे की तरफ़ चला। रास्ते में सोचता जा रहा था कि “Doubles” में सलमा को अपने साथ खिलाएगा ताकि पार्टनर, पार्टनर पुकार कर पहले ही बे-तकल्लुफ़ी बढ़ा ले। होस्टल के दरवाज़े में दाख़िल हो रहा था कि बग़ल में किताबें दबाए अनवर आता हुआ मिला।
“कहाँ जा रहे हो? घंटा तो ख़ाली है।” उसने कहा।
“ओह मैं तो ऐसे ही जा रहा हूँ।” अनवर ने जवाब दिया। “ज़रा लाइब्रेरी से चंद किताबें लानी हैं।”
मगर होस्टल से निकलते ही, बजाए लाइब्रेरी के अनवर ने लेक्चर रुम का रुख़ किया। सलमा अब तक बरामदे में खड़ी थी। क़दम बढ़ाते हुए उसके पास पहुँच कर इस आ'शिक़-ए-जाँ-बाज़ ने भी तन्हाई में गुफ़्तगू का ये मौक़ा ग़नीमत जाना और फ़ौरन तक़रीर शुरू' कर दी।
“मिस सलमा सहाफ़ी। आदाब अर्ज़ है। गुस्ताख़ी मुआ'फ़ कीजिएगा, मगर मैं देखता हूँ कि आप कोर्स की किताबों के अ'लावा आम लिटरेचर में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं लेतीं। आख़िर क्या वज्ह है? आपको लाइब्रेरी में भी कभी आते नहीं देखा। इस तरह ला-परवाही से तो आपकी वाक़फ़ियत-ए-आ'मा सिफ़र हो कर रह जाएगी”
सलमा ने शुक्रिया अदा करते हुए जवाब दिया, “ताज़ा किताबें तो मेरे पास बराबर आती रहती हैं। मगर मेरा ख़याल था कि यूनीवर्सिटी लाइब्रेरी में शायद मेरे काम की किताबें न मिलें, मैंने सुना है कि यहाँ इश्तिराकी लिटरेचर की मुमानअ'त है।”
“ओहो आप भी किस ज़माने की बातें कर रही हैं।” अनवर ने जल्दी से कहा। अब तो जब से क़ौमी हुकूमत क़ाएम हुई है, हमारे प्रोवाइस चांसलर साहिब ने हुक्म दिया है कि लाइब्रेरी में इन्क़िलाबी किताबों पर से मुमानअत उठा ली जाए... हाँ तो आप मेरे साथ लाइब्रेरी तशरीफ़ ले चलिए घंटा भी ख़ाली है।”
“मुआ'फ़ कीजिएगा। इस वक़्त तो मुझे फ़ुर्सत नहीं है लेकिन अगर आप शाम को पाँच बजे मुझे उसी जगह मिलें तो हम इकट्ठे लाइब्रेरी चले चलेंगे।”
अनवर ने सोचा ये भी अच्छा रहेगा। शाम को जब सब खेल के लिए चले जाते हैं, लाइब्रेरी तक़रीबन सुनसान मा'लूम होती है, सलमा सहाफ़ी से अकेले में ख़ूब बातें हो सकेंगी।
(3)
अनवर ख़ुश-ख़ुश “आज ही घर में बोरिया न हुआ।” गाता हुआ अपने कमरे में दाख़िल हुआ तो सलीम को “प्रेम नगर मैं बनाऊँगी घर में” गाता हुआ पाया। उनके कमरे का तीसरा शरीक आज़ाद हस्ब-ए-मा'मूल पलंग पर लेटा एक जासूसी नॉवेल पढ़ रहा था। जासूसी नॉवेल पढ़ना और सोना ये आज़ाद के महबूब मश्ग़ले थे। वो उन लोगों में था जो किसी शो'बा-ए-हयात में भी इमतियाज़ नहीं हासिल कर सकते। न वो पढ़ाई में होशियार था और न उसने मैगज़ीन में कोई मज़मून लिखा था।मिलता-जुलता भी वो कम था और अपने कमरे के रफ़ीक़ों से भी वो ब-वक़्त-ए-ज़रूरत ही बात करता था।
वो ख़ूबसूरत भी न था। चेहरे पर मोटर साईकल से गिरने के कई निशानात थे। साँवला रंग था, मा'मूली क़द, ख़ुश्क और सख़्त बाल जिनमें शायद दिन में एक-बार भी कंघा न होता था। ग़रज़ उसमें कोई ऐसी सिफ़त न थी कि वो तालिब-ए-इल्मों या सिन्फ़-ए-नाज़ुक में मक़बूल हो सकता और न वो लड़कियों में ग़ैर-ज़रूरत दिलचस्पी का इज़हार ही करता था।
अनवर और सलीम के रूमानी मशग़लों को वो ग़ैर मुतअ'ल्लिक़ दिलचस्पी से देखता था न वो उसको अपने राज़ों में शरीक करते और न वो उसकी कोशिश करता। आज सलीम और अनवर की ग़ैर-मा'मूली बशाशत से मा'लूम होता था कि दोनों को फिर रूमानी कीड़े ने काटा है मगर उसने सिवाए अलैक-सलैक के कोई बात न की और अपनी जासूसी नॉवेल पढ़ता रहा।
“तुम इतने ख़ुश क्यों नज़र आते हो।” अनवर ने सलीम के गाने से तंग आकर कहा।
“तुम्हें क्यों बताऊँ।” सलीम ने बिगड़ कर जवाब दिया। ”मगर मैं कहता हूँ कि तुम्हें आज कौन सा ख़ज़ाना पड़ा पा गया है कि ख़ुशी से फटे जा रहे हो।”
थोड़ी देर कमरे में ख़ामोशी तारी रही। अनवर और सलीम दोनों अपने अपने सूटकेस में कपड़े तलाश कर रहे थे।
“अरे छद्दू अरे छद्दू।” अनवर ने नौकर को पुकारा, “वो दर्ज़ी मेरा सूट लाया या नहीं?”
“और वो मेरा ब्लेज़र जिसकी आस्तीन खोलने के लिए दिया था। वो आया या नहीं?” अनवर ने सवाल किया।
जब मा'लूम हुआ कि दर्ज़ी हस्ब-ए-मा'मूल वादे के मुताबिक़ कपड़े नहीं लाया तो दोनों ने मिलकर उसको बुरा-भला कहा। इसके बा'द आज़ाद का ट्रंक टटोला गया कि शायद इसमें कुछ पहनने के क़ाबिल कपड़े निकलें मगर वहाँ क्या मिलता। वो तो जाड़े का मौसम एक गिरे पतलून और गर्मी सफ़ेद क़मीस और ख़ाकी नैकर पहन कर गुज़ार देता था।
खाना खाकर सलीम ने साईकल सँभाली तो अनवर ने पूछा, “इस लू गर्मी में कहाँ चले?”
“तुम्हें क्यों बताऊँ कि दर्ज़ी के यहाँ जा रहा हूँ।” सलीम ने कहा और साईकल पर बैठ रवाना हो गया। इसके चंद मिनट बा'द अनवर ने आज़ाद की साईकल सँभाली।
“मैंने कहा, शायर साहिब” आज़ाद ने हँसते हुए फ़िक़रा कसा, “किसी की तीर-ए-नज़र से मेरी साईकल में पंक्चर न कर लाइएगा...”
दर्ज़ी के यहाँ से कपड़े लेकर चले तो अनवर को ख़याल हुआ कि नए सूट के साथ नया जूता भी होना चाहिए और सलीम को याद आया कि उसका टेनिस का जूता ज़रा पुराना हो चुका है। जूतों वाले के बराबर में एक जनरल मरचैंट की दूकान थी। अनवर ने एक नई टाई भी ख़रीद डाली। सलीम ने एक रेशमी मफ़लर लिया। अनवर ने नए ब्लेडों का पैकेट लिया तो सलीम को याद आया कि उसकी Face Cream ख़त्म हो गई है। सलीम ने रेशमी रूमाल ख़रीदा तो अनवर ने सेंट की शीशी।
ग़रज़ तीन बजे के क़रीब दोनों दोस्त लदे-फंदे वापिस कमरे पहुँचे। आज़ाद सो रहा था मगर देर तक न सो सका। उसको ऐसा मा'लूम हुआ कि भूँचाल आ गया। आँखें खोल कर देखा तो अनवर और सलीम कमरे के वाहिद आईने में ब-यक-वक़्त दाढ़ी मूँडने की ना-काम कोशिश कर रहे हैं और ख़ूब गालम-गलौज और छीना-झपटी हो रही है। इसी झगड़े में अनवर ने अपना गाल काट लिया और आज़ाद ने उठकर ख़ून रोकने के लिए फिटकरी लगा दी तो इतने ज़ोर से चिल्लाया कि आस-पास के कमरे वाले समझे कोई क़त्ल हो गया है।
ग़रज़ बड़ी मुश्किल से दोनों दोस्त तक़रीबन साढे़ चार बजे सज-धज कर तैयार हुए। बालों में Anzora डाला गया। माँग पट्टी की गई। चेहरे पर कोल्ड क्रीम की मालिश हुई मगर हालत क़ाबिल-ए-रहम थी। इतनी सख़्त गर्मी के बा-वजूद अनवर ने कलफ़ दिया हुआ सख़्त कालर लगाया था जिसने उसकी गर्दन को तौक़ की तरह जकड़ दिया था। इस पर ग़ज़ब ये किया कि न सिर्फ़ कोट बल्कि वास्कट भी, सलीम ने भी अपनी शान जमाने के लिए यूनीवर्सिटी के रंगों का ऊनी ब्लेज़र पहना था, ग़रज़ दोनों का पसीना के मारे बुरा हाल था।
“कहाँ की तैयारी है?”, अनवर ने सलीम से पूछा।
“तुम कोई ठेकादार हो”, सलीम ने कट कर जवाब दिया, “और देखते नहीं हो कि टेनिस खेलने जा रहा हूँ। तुम बन-ठन कर कहाँ जा रहे हो?”
ख़ुदा-ख़ुदा करके पौने पाँच बजे ये दोनों रवाना हुए तो आज़ाद को इत्मीनान नसीब हुआ। उसने तकिये के नीचे से जासूसी नॉवेल निकाला और पढ़ना शुरू' कर दिया।
(4)
यूनीवर्सिटी क्लाक टावर ने छः बजाए तो अनवर ने सलीम से कहा, “बस भाई अब चलो इंतिज़ार की हद हो गई। इस लड़की ने आज हम दोनों को बे-वक़ूफ़ बना दिया।”
दोनों दोस्त एक घंटे तक टहलते रहे थे। एक दूसरे को एक ही मुक़ाम पर देखकर तअ'ज्जुब ज़रूर हुआ था और आपस में फ़िक़रे-बाज़ी हुई लेकिन कुछ अर्से के बा'द दोनों ने क़बूल दिया कि अस्ल मक़सद उनके आने का क्या था। जब छः बज गए और सलमा सहाफ़ी न आई तो उन्होंने उसको बुरा-भला कहने के बा'द तय किया कि अब कहीं टहलने चला जाए।
स्विमिंग बाथ रेस्ट्रान में शर्बत पीने के बाद इन्होंने बा-इत्तिफ़ाक़-ए-राय खेतों का रुख़ किया, रेलवे लाईन को पार करके पगडंडी पगडंडी बातें करते जा रहे थे कि कुछ फ़ासिले पर दो साईकलें पड़ी देखें। इन दोनों साईकलों को वो पहचानते थे, फ़ौरन झिजक गए और खेत की आड़ लेकर इधर-उधर होशियारी से निगाह की तो बराबर के कोपईं की मुडेर पर आज़ाद और सलमा सहाफ़ी को बैठा हुआ पाया।
अनवर ने सलीम की तरफ़ देखा और सलीम ने अनवर की तरफ़। उसकी एक निगाह में तअ'ज्जुब, ग़ुस्सा और इंतिक़ाम की ख़्वाहिश तमाम जज़्बात मौजूद थे। ग़रज़ सूरत-ए-हाल पर मुफ़स्सिल तब्सिरा था। आज़ाद और सलमा बातें कर रहे थे। कान लगाकर सुना तो अनवर और सलीम दोनों के चेहरे सुर्ख़ हो रहे थे क्योंकि ज़िक्र ख़ैर उन ही का था।
“काश तुम उनको देखते। अनवर ने मफ़लर बाँध कर उस पर गर्म कोट पहना और सलीम ने न सिर्फ़ सख़्त कालर लगाया बल्कि वास्कट भी पहनी। पसीने का ये हाल था कि ख़ुदा की पनाह।” और दोनों ने अतीक़ ज़ोर से हँसना शुरू' किया कि अनवर और सलीम से बर्दाश्त न हो सका और वो उल्टे क़दम वापिस लौट गए। कुछ अरसे ख़ामोश चलते रहे फिर दोनों ब-यक-वक़्त बोले,
“बदला लेंगे”
“बदनाम करेंगे”
कुछ दूर वापिस गए थे कि उनका एक क्लासफ़ैलो फ़ज़्ल-उद्दीन मिल गया, ये भी यूनीवर्सिटी के आ'शिक़ मिज़ाजों में से था, मगर हाल ही में शहर के स्कूल की अपने से उ'म्र में दस बरस बड़ी एक देसी ईसाई हैड मिस्टरस के इ'श्क़ में ज़क उठा चुके थे। इसलिए फ़िलहाल औरतों की क़दम से बुग़्ज़ रखते थे। अनवर और सलीम ने निहायत राज़-दाराना तरीक़ा पर फ़ज़्ल-उद्दीन को आज़ाद और सलमा के पकड़े जाने का “वाक़िआ” सुनाया और साथ में ये भी कहा, “भाई किसी से कहना मत, किसी को बदनाम करने से हमें क्या फ़ायदा?”
एक हफ़्ते के अंद रांदर ये “वाक़िआ” यूनीवर्सिटी के बच्चे बच्चे की ज़बान पर था।
(5)
और फिर वो दिन आया जब मुस्लिम यूनीवर्सिटी में एक लड़की भी न रही, ज़बान-ए-ख़ल्क़ से तंग आकर सलमा और आज़ाद दोनों ने नाम कटा लिया। सलमा वारधा वापिस चली गई और आज़ाद अपने जासूसी नाविलों का पुलिंदा उठा अपने वतन चला गया।
मुस्लिम यूनीवर्सिटी गज़ट ने बोर्ड गाँव के ज़मींदार की सालगिरह की ख़ुशी में एक कालम सियाह करने के बा'द चंद लाइनें इस वाक़िए' पर भी लिखीं और लिखा, “ये ख़ुशी की बात है कि मिस सलमा सहाफ़ी के जाने के बा'द यूनीवर्सिटी एक ख़तरनाक उंसुर से पाक हो गई।”
हामिद अब्बासी की तजवीज़ और नासिर हारूनी की ताईद पर यूनीयन ने सलमा सहाफ़ी की जुरअत को सराहते हुए रेज़ोल्यूशन पास किया। एक दूसरे रेज़ोल्यूशन से ये तय पाया कि जो मख़मली सोफ़े लड़कियों के लिए बनवाए गए थे, उनको फ़रोख़्त करके उसके रुपये से सलमा सहाफ़ी का एक मुजस्समा यूनीयन हाल के सामने लॉन में नसब किया जाए ताकि उस ज़माने की यादगार रहे जब यूनीवर्सिटी में एक लड़की पढ़ती थी।
हुकूमत के क़वानीन की रौ से तालिब-ए-इल्मों की अंजुमन ख़ुद-मुख़्तार जमाअ'त थी इसलिए यूनीवर्सिटी एग्जीक्यूटिव काउन्सिल उस रैज़ोलीयूशन के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई न कर सकी और बहुत जल्द मुजस्समा नसब कर दिया गया। इसी साल यूनीवर्सिटी के बजट में एग्जीक्यूटिव काउन्सिल ने दस रुपये की रक़म “तालिब-ए-इ'ल्मों के अख़लाक़ की हिफ़ाज़त की तदाबीर” के लिए मंज़ूर की। इस रक़म से एक बुर्क़ा सिलवाया गया और सलमा सहाफ़ी के मुजस्समे को उढ़ा दिया गया।
और मुद्दत तक ये बुर्क़ा सलमा सहाफ़ी के मुजस्समे पर ढका रहा और हवा में फड़फड़ाकर क़रीब से गुज़रने वालों को इबरत दिलाता रहा, मगर 1947 में जिस साल हिंदुस्तान में पहली बार इश्तिराकी हुकूमत क़ाएम हुई एक ख़ौफ़नाक ज़लज़ला आया जिसमें बनारस और अलीगढ़ यूनीवर्सिटी की तमाम इमारतें तबाह हो गई मगर सलमा सहाफ़ी का मुजस्समा उसी तरह क़ाएम रहा। ज़लज़ले के साथ ही एक ज़बरदस्त आंधी चली जो इस तारीख़ी बुर्के को उड़ाकर ले गई।
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