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फ़रियाद की लय

अहमद हमेश

फ़रियाद की लय

अहमद हमेश

MORE BYअहमद हमेश

    ये क़िस्सा मुहम्मद मुख़लिस नाम के इस मुसलमान का है जो कभी मदीना नहीं गया क्योंकि मुसाफ़िरी के नाम के सिक्के उसकी जेब में कभी पाए नहीं गए। फिर भी एक राह उसके ख़याल में और ईमान के दरमियान से होती हुई उसके पांव को मदीना की तरफ़ ले जाती थी। अलबत्ता ये सब कुछ बताने से पहले लाज़िम है कि उसके बारे में बहुत पीछे रखी हुई एक तफ़सील की तरफ़ चलें। भला देखें तो सही कि वो कहाँ से और किस सिरे से चला था! इब्तिदाई आसार बताते हैं कि उसने कभी मिट्टी के किसी ढेले से इन्सानी चमड़े की इन्सानी नीयत सुखाने की ख़ुश ईमानी का लम्स नहीं किया या उसे आधे लोटे से धोए जाने से पहले उसमें झांक के किसी पाकी सफ़ाई वाले इन्सानी चेहरे को नहीं देखा। ख़िलाफ़ इसके वो कैसी जारहीयत थी जिसने इन्सानी जिल्द में चाक़ू की नोक की मिस्ल छेद करते हुए लज़्ज़त तलबी को अपनाईयत के मकर में बदल दिया था। तारीकी में थूक लगाना कैसी मानूस इजारादारी थी! यूं भी घर में मुर्ग़ियां पाली जाती थीं। सवेरे सवेरे दरबे में किसी किसी मुर्ग़ी का दिया हुआ अण्डा मिल जाता था।लेकिन कभी रात बिरात कोई गेहूँ साँप दरबे में घुसते हुए अपनी फूंक से मुर्ग़ीयों को मार डालता था। इसके बावजूद मुर्ग़ीयों से साँप का लगाओ मानूस मुक़द्दर मालूम होता था।

    शायद इसी लिए मुहम्मद मुख़लिस ने कभी वुज़ू जैसा वुज़ू नहीं किया। कभी सर पर कोई टोपी जैसी टोपी नहीं रखी। कभी एक वक़्त की नमाज़ नहीं पढ़ी। कभी किसी मस्जिद जैसी मस्जिद का रुख नहीं किया। बल्कि उसके ग़ैर तरकीबी ज़ाहिरी हुलिया से भी उसे कभी मुसलमान जैसा मुसलमान कहलाते हुए नहीं देखा गया। ताहम उसके बारे में लिखी गई एक दस्तावेज़ में दर्ज है कि उसका ख़ानदान एक क़दीम मुहब्बत से चलता हुआ उसके बाप के दिल तक पहुंचा था। उस दिल के ही किसी हिस्से में एक सीधा सादा मुसलमान रखा हुआथा। जबकि उसके मिट्टी के कच्चे घर की सादगी और देहाती मस्जिद के सेहन में चमकने वाली चांदनी में बड़ी मुसावात थी। सो, वो आदमी के हक़ में बड़ी दुआएं किया करता था। मगर गुज़र-औक़ात के दिन का तीन चौथाई हिस्सा गुज़ार के जब वो बाज़ार की कच्ची सड़क पर और दो रोया दुकानों के दरमियान गुज़र रहा होता था तो वो देखता कि एक ब्रहमन बुक सेलर का मक़नातीस बयक वक़्त उसे और सूरज को इतने पास ले आता कि ये समझना मुश्किल होता कि उसके माथे की बिंदिया किस से मुकालमा कर रही होती, उस से या सूरज से! बोली तो पूरबी ही थी। मगर कोई नहीं कह सकता कि कायनात में पहले मक़नातीस पैदा हुआ था या हिंदू औरत! या क़ियास से कहा जा सकता था कि दुनिया में सबसे पहले मक़नातीस हिंदू औरत ने ईजाद किया और उसके इस्तिमाल में भी उसी ने पहल की। वर्ना मुहम्मद मुख़लिस का बाप साँझ ढले से पहले ही घर पहुंच चुका होता।

    फिर एक बार उसके पड़ोस में उसकी अम्मां की ज़च्चगी कराने वाली चमारिन मर रही थी। जांकनी में उसका दम आसानी से नहीं निकल रहा था। ये सन कर वह उसके मरन बिस्तर के पास अपने बाप को साथ लिए पहुंचा। बाप ने उसके हक़ में एक दुआ पढ़ी और जब तक उस पर उसकी मौत आसान नहीं होती वो वहीं उसके सिरहाने खड़ा रहा। ख़ुद मुहम्मद मुख़लिस ने ख़याल ही ख़याल में देखा कि उसके बाप का चेहरा इतना पुर सुकून था जितना उसने पहले कभी नहीं देखा था। यहां तक कि उसकी माँ की ज़च्चगी को आसान करने वाली चमारिन की रूह ऊपर आसमान की तरफ़ खुलने वाली खिड़की में से होती हुई कहीं से कहीं जा चुकी थी। अलबत्ता उसकी अम्मां ने भी एक बार चमारिन के बग़ैर दर्द-ए-ज़ह में चारपाई पर लोटते तड़पते हुए भी ताज़िया वाले चौक के सामने वाले मकान से एक सिपाही के तीन तलाक़ की दाग़ी हुई और अलिफ़ नंगी बाहर निकाली हुई एक बदनसीब औरत को अपनी धुली होई उजली साड़ी पहनाई और अपनी कोठरी में पनाह दी थी जबकि औरत उसी हालत में अपने नैहर जाना चाहती थी और नैहर वाले रास्ते पर रात की चढ़ाई थी, बीड़ाल बोल रहे थे। अम्मां ने उसे बीड़ाल के अंदेशे से रोक लिया था। बाहर गली से ताज़िया वाले चौक तक खुले आसमान के नीचे वही ख़ुदा की ज़मीन थी। जहां ज़्यादा नहीं बस थोड़ी ही दूरी पर ज़िला बोर्ड का अस्पताल हुआ करता था। जिसका इंचार्ज एक कायस्थ डाक्टर था। उसने अस्पताल की बाउंडरी में एक ऐसी जीवन बूटी लगा रखी थी जिसकी सिर्फ़ नज़री तासीर से साँपों-बिच्छूओं का ज़हर उतर जाता था। अफ़सोस कि उसे बहुत उम्र नहीं मिली मगर ज़िला बोर्ड के अस्पताल की बाउंडरी में उसके हाथों लगाई हुई बूटी को देखने वाली आँखें ज़िंदा रहीं। ख़ुद मुहम्मद मुख़लिस ने ये सब कुछ देखते हुए ये भी देखा और याद रखा कि वो कुछ और नहीं था, शायद वो कोई इस्लाम था या अगर बिलफ़र्ज़ वो कोई इस्लाम नहीं भी था ताहम कहानी ख़त्म नहीं हुई थी।

    अगर गेंदारानी की कहानी वाला राज कुमार अढऊल के फूल के भीतर से आती हुई मक्कार आवाज़ सुनके धोका खा जाता तो वो डोम दुबारा ज़िंदा होजाता। जिसने गेंदारानी के भाई को जुए में हराकर बदले में उसकी बहिंनिया का सौदा कर लिया था और तब वो अपनी बहिंनिया को साथ लिये मुक़र्ररा तालाब के किनारे पहुंचा था और उसने अपनी बहिंनिया से तालाब के किनारे पांव की एड़ी भर पानी पर तैरते कंवल को बाहर निकाल निकाल लेने के लिए कहा था और भाई का कहा मान कर एड़ी भर पानी में कंवल के पास अभी पहुंची ही थी कि कंवल आगे की ओर सरक गया। जूँ-जूँ वो आगे बढ़के कंवल की ओर हाथ बढ़ाती वो बतदरीज आगे ही सरकता जाता था जब कि पानी गहरा होता था जाता था। जब कमर तक पानी पहुंचा तो उसने भाई को पुकारा भय्या हो भय्या...कमर तक पानी... मगर भय्या ने सुनी अनसुनी कर दी। यहां तक कि जब पानी गर्दन तक पहुंचा तभी कंवल से बंधी डोरी को थाम के पानी के तह में छुपे बैठे डोम ने गेंदवारानी को नीचे दबोच लिया था। मगर ये कहानी जिस इलाक़े की माएं अपने बच्चों को सुनाती थीं वहां तो ज़िंदगी के विरसा में मिले अनगिनत इज़ार हुआ करते थे। उन्हीं इज़ार के दरमियान कहीं कहीं से किसी कोने खदरे से या किसी इंतिहाई ज़ेरीं तहदारी से कोई कोई किरदार नमूदार होता था और कहानी में शामिल हो जाता था। जब तक शामिल रहता मज़ीद शामिल रहने के लिए इसरार करता रहता था। यहां तक कि ओझल होते समय भी कहानी को जारी रखे जाने की ताकीद कर जाता था।

    कहा जाता है कि इस इलाक़े में चालीस गाँव थे। उन चालीस गावं में दो बूढ़े रहा करते थे। एक बार करना कुछ ऐसा हुआ लोग तड़के मुँह उठे ही थे कि यका य़क भूंचाल ने लिया। आदमी और मवेशी मकानों के मलबों और मिट्टी में फटती दराड़ों में दब गए। उसके कुछ ही अर्से बाद ताऊन आया। चूहों की मौत आदमियों और बग़लों और रानों की गिल़्टियों में मुंतक़िल होती हुई रास्त क़ब्रिस्तान और मरघट की राह लेती हुई मगर अपने पीछे फ़क़त भायं भायं छोड़े जाती थी, बस क्या था जो बाक़ी बच गए थे उनमें से बहतेरे आँखों में जो दिशा समाई उधर ही चल दिये या अपनी दानिस्त में महफ़ूज़ इलाक़ों को कूच कर गए तभी क़ुदरत ने एक अजीब मंज़र दिखाया कि वो जो चालीस गांव थे सुनसान होने के बावजूद कुछ ऐसे आबाद नज़र आते थे कि हर गांव में पूरब पच्छिम दोनों सिरों पर मचानें गढ़ीं हुई थीं। इस तरह उनकी तादाद कुल अस्सी थी। मगर उन चालीस गाँव की अस्सी मचानों पर वही दो बूढ़े लगातार साठ दिन तक रुहानी पहरा देते रहे और उन्हें ख़ुदा के सिवा किसी ने भी नहीं देखा क्योंकि कहानी जारी रखने की ताकीद के वक़्त ही ये मालूम हो गया था कि दोनों में से एक बूढ़ा मुहम्मद मुख़लिस का दादा था। जबकि उन्ही दिनों भूंचाल और ताऊन के मिले जुले मर्दों में शामिल नदी पार वाले शहर की रंडी की अर्थी दूसरे बूढ़े की चौखट पर रखी हुई थी

    ये भेद मुहम्मद मुख़लिस को अपने बाप से मालूम हुआ था कि वो रंडी दूसरे बूढ़े की महरारू बनने के साथ ही मुसलमान हो गई थी फिर भी मालूम नहीं क्यों वो मरने के बाद क़ब्र में दफ़न नहीं होना चाहती थी शायद मुनकिर-नकीर से डर गई थी। मगर दूसरे बूढ़े ने ख़्वाब में देखा कि उसकी मेहरिया की वही अदा ख़ुदा को पसंद आगई थी। इसी लिए उसने उसे क़ब्र में दफ़न करवाने के बजाय उसकी चिता जलवाई थी। किसी ने उससे नहीं पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया! फिर भी वहां से ज़्यादा दूर नहीं बस थोड़ी दूर पर गांव भर के एक और दादा रहते थे, ये लुंगी पहने नंगी पीठ वो चालीस गांव घूमा करते थे। अलबत्ता उनकी पीठ पर जले हुए गुलगुले जैसा एक मस्सा उनकी आमद-ओ-रफ़्त के ऐलान की पहचान कराता था। अलबत्ता उनकी मड़ई में उनकी बाक़ी उम्र की तन्हाई रखी हुई थी। जब से वो तराई के जंगलों से लौटे थे फ़क़ीर बन के कश्कोल लिए चालीस गांव दर-दर पैसे दो पैसे या मुट्ठी भर आटे दाल की भीक मांगा करते थे। कई घरों की औरतें उनके हाथों बाज़ार हॉट से सौदा सुल्फ़ मंगवाया करती थीं।अलबत्ता वो हिंदू-मुस्लिम मिली-जुली आबादी से भी गुज़रते हुए यही सदा लगाते थे:

    मदीना देखा तो कुछ देखा

    जबकि उन्होंने मदीना कभी नहीं देखा था। शायद उनकी उन जैसे बहुतों की आप ही आप मुरक्कब की हुई ग़रीबी नाम की देवमाला थी जो अज़ल से चली आई थी और उसके क़ुर्ब-ओ-जवार में एक सांस दूसरी सांस तक या दरमियान में ही कोई इस्लाम गूँधा जाता था और ये गूँध कितनी ही बार मुहम्मद मुख़लिस की बसारत में हो चुकी थी। फिर भी मालूम नहीं कहाँ से और कब क्या फिर गया था कि नंगी पीठ के जले हुए गुलगुले किसी दिन किसी को कुछ बताए बिना गांव छोड़ गए। उनकी मड़ई में बड़ालों का फेरा देखा जाने लगा था। एक रिवायत ये भी है कि मदीना जाने वाली राह पर ही क़ौम ने सब्ज़-रंग की जो एक अलीहदगी खींची थी उधर ही को उन्हें जाते देखा गया था। जबकि उन्हें देखने वाले भी किसी को इसलिए नहीं दिखाई देते थे कि वो भी क़ौम में से थे और क़ौम का मफ़हूम उस ज़माने में हुआ करता था, सब कुछ छोड़कर कूच कर जाओ, यहां तक कि लहू की उस बूँद को भी जो घर ज़मीन जायदाद से बाला इंतिहाई बाज़याफ़्तों और ख़्वाबों के दरमियान नक़्श की हुई होती है और अबद तक के लिए ख़ुश्क होने से रह जाती है। ख़िलाफ़ इसके करना कुछ ऐसा हुआ कि तमाम दरिंदों की पंजों की खरोंच और उनके नोकीले दाँतों की भंबोड़ को इखटटे ही एक क़िस्म की खरल में कूट पीस के जो आवाज़ बनाई गई वो अब इन्सानी आवाज़ की जगह ले चुकी थी। उसकी दस्तावेज़ी सलाहियत ये थी कि उससे देर पा ला ताल्लुक़ी या पायदार बेहिसी को क़ायम रखा जा सकता था।

    बल्कि सितम ये कि उससे रास्ती का एक मफ़हूम वज़ा किया गया था। उस अहमक़ की कहानी से मुशाबेह जिसे उसकी माँ ने पहली बार ससुराल जाते हुए एक सीख दी थी कि बेटा नाक की सीध में जाना उसने नाक की सीध का मतलब ये समझा कि रास्ता तय करते हुए जब उसकी नाक की सीध में कुँआं और पेड़ आए तो कुवें को फलाँग गया और पेड़ पर चढ़ कर उसकी चोटी वाली डाली से नीचे उसी सीध में पहुंचा। आख़िर जब वो ससुराल पहुंचा तो ससुराल के मकान के अक़ब की दीवार उसके नाक की सीध में आगई। झट वो दीवार से नाक लगा कर खड़ा हो गया। उसके सुसर और दूसरे ससुराली रिश्तेदार उसे इस हालत में देखकर हैरान हुए और उसे मकान के भीतर चलने को कहा तो वो बोला था, नहीं अम्मां ने कहा है कि बेटा नाक की सीध में जाना इसी तरह अगर नाक की सीध में कोई नदी जाए तो उसके पानी को उसी सीध में काटते हुए तैर जाओ, यहां तक कि कोई क़ुदरती पहाड़ आजाए तो उसी सीध में ईमान के जोश में इस तरह उछल जाओ कि उसकी दूसरी तरफ़ तुम्हारे क़दम मुक़र्रर जगह पर पड़ें।

    ताहम नंगी पीठ के जले हुए गुलगुले मुख़्तलिफ़ क़ियास आराईयों से अभी परे नहीं निकले होंगे। वो जो कोई बता रहा था मुम्किन हो वैसा ही हुआ हो कि दरमियान दरमियान में कुछ ऐसी बाक़ियात भी थी कि उसको ज़रा देर के लिए मुस्लिम आबादी की पुरानी रियास्ती इजारादारी का गुमान होता था। जबकि उसके चौगिर्द हिंदू अमलदारी थी। हर चंद उसकी तरफ़ से बज़ाहिर कोई रोक-टोक नहीं थी। मगर एक वक़्त की भूक मिटाने वाली रोटी हिंदू या मुसलमान नहीं थी। बल्कि उन्हें फ़ाक़ा करते हुए तीन दिन बीत गए थे। ऐसे में किसी ने उन्हें जामा मस्जिद के अक़ब की एक गुनजान गली में किसी होटल के थड़े के पास नीम दायरे में उकड़ू बैठे ग़रीब ग़ुरबा मुहताज मसाकीन के साथ बिठा दिया था। रात का बचा हुआ बासी या नीम सड़ा खाना बाँटा जा रहा था। अफ़सोस कि उन्हें मामूल के ख़िलाफ़ अचानक अजनबी पा के वो सारे ग़रीब ग़ुरबा मुहताज मसाकीन उनकी नंगी पीठ के जले हुए गुलगुले पर टूट पड़े थे।

    अब यहां से ये बताया नहीं गया था कि वो अपने ही जैसे ग्रसनों और फ़लाकत ज़दों के हाथों लहूलुहान होके वहीं ढेर हो गए थे या वहां से कहीं और चल दिये थे, फिर भी उन्हें रोटी का एक टुकड़ा मयस्सर आया था या नहीं! जो कुछ भी हुआ हो जब उनके बारे में सिर्फ़ क़ियास से ही बताया जा सकता था तो वो सब कुछ क्या था कि तराई के इलाक़ा वाले शहर से वहां की कचहरी के पेशकार की बीवी चालीस गांव में से एक यानी अपने नैहरर वाले गांव में आई थी! वो तो बता रही थी कि बिल्कुल वही हुलिया था। वही नंगी पीठ और उस पर जले हुए गुलगुले, शायद उन्हें किसी ने सलाह दी थी कि मदीना जाने के लिए पैसा पैसा जोड़ के रक़म जमा करना पड़ेगी। सो वो तराई के इलाक़े वाले शहर में कश्कोल लिए दर-दर भीक मांगते थे। इससे क़त-ए-नज़र कि वो तराई के जंगलों में रह चुके थे। फिर भी शहर तो उनकी दानिस्त में जाना-पहचाना नहीं था। उनका ख़याल था कि उस अजनबीयत में बड़ी आफ़ियत थी। इस ग़लतफ़हमी में वो एक दिन शहर की सिविल लाईन्ज़ के मकान पर सदा लगा रहे थे मगर जो औरत हाथ में पैसा लिये दरवाज़े पर आई वो तो कोई और नहीं उसी पेशकार की महरारू थी। सामना होते ही एक दूसरे की हैरती पहचान के लिए एक तरह की कर्ब हसरती चीख़ निकली थी मुम्किन हो औरत को अपने नैहर वाले गांव के हवाले से ये ग़म हुआ हो कि थे तो वही बेचारे लेकिन गांव की बात और थी। शहर में तो कम अज़ कम उन्हें इस हालत में पाया नहीं जाना चाहिए था। दूसरी तरफ़ उन सितम रसीदा को जो धचका पहुंचा था वो उनकी सादा लौही थी कि मुद्दत से छुटे गांव का कोई हवाला शहर में ब्याही हुई औरत के रूप में उनके सामने अचानक आजाएगा।

    कहा जाता है कि इस सदमे के मारे वो वहां एक पल ठहरे नहीं थे। बल्कि पीठ मोड़ के भूला गए क्या कि सदा के लिए चले गए। शायद इस शहर को छोड़के किसी और सिम्त कूच कर गए थे या वहीं कहीं गुमनामी में जा मरे थे। वैसे इस तफ़सील पर कुछ अह्ल-ए-यक़ीन को शक था कि अगर उनके क़बील के आदमी को मदीना जाना ही था तो उसके लिए किसी ऐसे शहर का रुख किया जाना चाहिए था जहां मदीना जाने के नाम पर पैसा दो पैसा देकर सवाब कमाने वाले रह रहे होते जब कि तराई के इलाक़े वाले शहर में तो इन दिनों किताबों की दुकान पर गेरुवे कपड़े की जिल्द वाली श्रीमद् भगवत गीता का दाम छः आने था और छः आने के हुसूल के लिए एक बार एक कृष्ण भगत नौजवान को चार दिन अनथक फिरना पड़ा था। ऐसे शहर में मदीने जाने के नाम पर तो महीनों फिरना पड़ता तब भी एक पैसा तो क्या एक धेला एक ढीबवा मिलता। अब यहां ज़रा ठहर जाईए... कि बिल्कुल ऐसे ही पैराए मुफ़लिसी से कुछ अर्से बाद मुहम्मद मुख़लिस को गुज़रना था। लेकिन अभी उसकी अम्मां जीती थी मरी नहीं थी, जबकि उसके अब्बा चाहते थे कि बेटा अपने चचा के साथ उस ओर को चला जाये जिस ओर क़ौम ने अलैहदगी खींची थी और ये गोया मुज़्दा हिज्रत था या उन दिनों मुसलमानों के सरों में बड़ी गर्मी पड़ रही थी और बावर कराया गया था कि उनकी नई नस्ल का मुस्तक़बिल वहां पहुंचते ही सँवर जाये गा ताहम अम्मां की मामता ने बेटे को रोकने के लिए इतना गिर्या किया उसके क़दम किसी जब्र की ख़ुश उम्मीद पकड़ में आने से रुक गए।

    वैसे अम्मां ने उसकी सोच में उस इलाक़े की दुल्हन की शबीह कुछ यूं बना रखी थी कि पहले एक मुनक़्क़श टोकरी में भरी शक्कर की सपेदी पर तलमखाने और सुर्ख़ नाड़े का गुच्छा नज़र आया। फिर उससे एक अजीब रात नमूदार हुई कि उसे सिर्फ़ एक कँवारा बदन नहीं कहा जा सकता था या वो सिर्फ़ मेहंदी, उबटन और सुर्ख़ जोड़े की महकार का मजमूआ नहीं था बल्कि उसे तो एक नज़र देखते ही कायनात भर की प्यास जन्म ले चुकी थी या उस हैरती प्यास का नाम ही दुल्हन था। अलबत्ता वाज़िह लहजे में उसे ये बताया गया कि जब वो छः बरस का था तो उसकी ख़ाला ने जिस बच्ची को जन्म दिया था, उसे अम्मां ने उसके लिए मांग लिया था मगर अफ़सोस कि बाद उसके ख़ाला को उसका शौहर सूए दक्कन क्या ले गया कि बस वहीं का हो रहा था। रफ़्ता-रफ़्ता जब मुहम्मद मुख़लिस कुछ बड़ा हुआ और बलूग़त ज़रा ज़रा छबने लगी थी तो वो सोचता था कि उसके लिए मांगी गई बची ज़मीन के किस दक्कन में मैं रह रही थी! बस उसके ध्यान में सुर्ख़ नाड़े उभरते यहां तक कि एक मासूम कायनात सुर्ख़ नाड़ों से भर जाती थी।

    एक दिन वो फ़ज्र की अज़ान के बाद तड़के मुँह उसारे के दासे पर बैठा दतुवन कर रहा था कि उसकी नज़र घर के कपड़े धोने वाले धोबिया की लैकनिया पर पड़ी। उस की लैकनिया क्या थी, अपने बदन की तफ़सील में निरी पूरबी थी। जब वो धुले हुए कपड़ों का बड़ा सा गठरा लादे हुए चलती थी तो पीछे से उसकी कमर की लचक कूल्हों को बीच की चीर समेत लोक निर्त के मौन सुरों में बदल देती थी मगर कुछ ऐसी गुमान झलक होती थी कि कुछ दूर से एक घाट खींच आता था जहां धोबिया पाट पर कपड़े धोते हुए वही लहकार सुनाई देती थी।

    धोबिया धोए महोबे घाट छीयो राम छीयो राम-राम छीयो

    और उस लहकार में भी कहीं कुछ ऐसा ज़रूर था कि उस दिन मुहम्मद मुख़लिस ख़ुद को वो तसव्वुरी सुरों पर पा रहा था। एक सिरे पर मदीना था और दूसरे सिरे पर महोबे घाट। जबकि दरमियान में लैकनिया अपनी चाल चलती हुई आगे बढ़ती जाती थी। उस वक़्त उसने एक बेल बूटों वाली बैगनी साड़ी पहन रखी थी। तभी तो मुहम्मद मुख़लिस ने दासे से उठ के उसके पीछे तेज़ क़दम रखते हुए उसे पुकारा था...आवाज़ सुनके वो पलटी थी बल्कि रुक के अपने सर से कपड़े का घट्टर उतार कर भुइयां धरा था और पालती मार कर बैठ गई थी... काहो...बाबू का निहारत हौ व...जवाब में वो इतना ही बोल पाया था...कछहू नाहीँ जबकि उस कछहू नाहीँ में ही तो बहुत कुछ था। उस दिन सह पहर से घर में हलुओं की तैयारी हो रही थी। साँझ भए जब सेनी में चने, रवे और मैदे के हलवे के क़त्ले किए जा रहे थे तो धोबिया की लैकनिया अपने हिस्से का हलवा लेने पहुंची थी। फिर किसी ने नहीं देखा कि किस तरह मुहम्मद मुख़लिस ने अपने हाथों से हलवा उसकी थैली में डाला था। ऐसे में चांदनी घर आँगन से मस्जिद के सेहन तक फैल गई थी। अलबत्ता बिना मीनार और गुंबद एक छत थी जिस पर जामुन के पेड़ की जुनूबी सिम्त की डालियों का साया पड़ रहा था जब कि लैकनिया अपने घर की ओर रास्ते पर जाती हुई मुड़ मुड़ के मुहम्मद मुख़लिस को देखती थी और उसके बदन का साया जामुन के पेड़ की शुमाली सिम्त डालियों की ज़द से बची हुई चांदनी में एक मुतहर्रिक जज़ीरा बनाता हुआ दिखाई पड़ता था। उस जज़ीरे के इलावा कई ऐसे जज़ीरे भी थे जो उस मुबारक रात की चांदनी में बेदारी की इबादत से मुतहर्रिक होते हुए नज़र आए थे। उन अज़ीज़ रिश्तेदारों की रूहें आलम-ए-अर्वाह से आरही थीं या बस आया ही चाहती थीं। ये देखने के लिए कि उनके बाद उन्हें कितना याद रखा गया। कौन कौन उनकी चाहत में कितना सवाब पहुँचाता रहा। मगर उनके चाहने वालों में तो घर और ख़ानदान के बड़े बूढ़ों से ज़्यादा नौ उम्र लड़के लड़कियों को देखा गया था। जाने वो कैसा जोशीला शौक़ था कि रूहों से ख़ौफ़ की रिवायत को बिल्कुल बेज़रर बनाने के लिए जानमाज़ पर नौ उम्री के बदन एक दूसरे से सटे हुए बयक वक़्त ख़ून की हिद्दत से उकसाहट जगाने और ज़्यादा ज़्यादा नफ़िलें अदा करने की ख़ुशी के बावजूद अनजाने में एक दूसरे से ज़रा हटे हुए भी थे। वर्ना चांदनी में उनके सायों से जज़ीरे भला कैसे बन सकते थे! बल्कि मुहम्मद मुख़लिस समेत बड़की अम्मां की दोनों बेटियां और छोटी फूपी की चंचल बेटी की आँखें सलाम फेरते ही चौगर्द फिरती थीं कि मुबादा मंझली दादी की रूह आने वाली हो! सो, वो अगर, मंझली दादी ही थीं तो वो उनकी रूह की एक झलक देखने को बेताब था। यहां तक कि उसके हौसले के एतबार से चंद लफ़्ज़ों की अदायगी रह गई थी, इस अस्ना में जाएनमाज़ पर चांदनी ने बड़की अम्मां की बड़ी लड़की और छोटी फूफी की चंचल लड़की के बदन से बनने वाले जज़ीरों को सज्दे की थकान के दौरान ही सुला दिया था। ऐसे में याद नहीं पड़ता कि मुहम्मद मुख़लिस ने अपने हिस्से की आख़िरी दो रकात अदा करते हुए नरियों थपुओं की कगार से मिली हुई छत के हाशिया तक किसी सपेद हयूले को यकायक खैरगी में बहते हुए अंदाज़ से आते देखा था...या चांदनी यकदम ही उसके साथ जागती हुई बड़की अम्मां की बड़ी लड़की और सोती हुई छोटकी लड़की और छोटी फूफी की चंचल बेटी के जज़ीरों में सरायत कर गई थी। यानी हर इक की यकजाई चांदनी थी और साया यकायक नदारद था। मगर जब भोर हुई तो बड़ी लड़की ने मुहम्मद मुख़लिस को ग़ालिबन आधी नींद से समेट के कुछ पूछा था या उसने कुछ जवाब दिया था क्योंकि उसके बाद चांदनी में ज़िंदगी को अपने बदन से जज़ीरे बनाने के लिए और रूहों की एक रात की आज़ादी के लिए अगले साल का इंतिज़ार करना था।

    अलबत्ता कुछ ही दिन गुज़रते थे कि गढ़ी के उस तरफ़ राजा जी के बगीचे में इमली के पेड़ की डाली पर फ़ाख़्ता बोल रही थी...सुब्हान तेरी क़ुदरत, सुब्हान तेरी क़ुदरत फिर वो जो एक पोदीने शाह हुआ करते थे कि गांव गांव पोदीने की चटनी की सदा लगाते हुए चलते फिरते। ये सदा उनके गले से निकलती हुई तो अपनी नौईयत की अनोखी तलब की खनक लिए होती थी मगर लफ़्ज़ चाटनी की ई...ई...ई किसी बेतलब बाज़गश्ती बुलंदी से जा मिलती थी। घर-घर से मस्जिद की तरफ़ इफ़तारी ले जाते हुए रोज़ेदारों और उनके बच्चों को पोदीने शाह अपने साफे से तहबंद तक अल्लाह शान हू जलाल हू का जलवा मालूम होते थे। दरअसल वो कुछ मांग के नहीं ले जाते थे। कहा जाता है कि ज़िंदगी का एक हिस्सा उनकी जागीर से मिला हुआ था जबकि पोदीने की रुहानी ठंडक और चाशनी दुनिया बराए आख़िरत का सवाद मालूम होती थी, सबसे बढ़के मुहम्मद मुख़लिस की दिलचस्पी दरून-ए-मंज़र पोदीने शाह के साफ़े और तहबंद को कुछ इस तरह मुसव्वर कर रही होती थी कि अल्लाह मियां किसी इंतिहाई बुलंदी से तमाम आलम की नील और खरिया मिट्टी से मामूर फ़िज़ा को चीरते हुए नीचे उतर रहे होते थे और उनके उतरते ही मौसम बदल जाता था।

    एक ताज़ा ज़िंदगी किसी नामालूम कायनाती सिरे से शायद तमाम मलाइका के जलू में चली आती हुई नरियों थपुओं के घरों के छाजन से ईदगाह की दीवार और मीनार की सीमेंट की पुरानी मुद्दत बताती हुई काली सब्ज़ सूखी खुरंद वाली काई तक पर तारी होती हुई यहां तक कि ईदगाह के क़ब्रिस्तान की बारिशों से धंसी क़ब्रों को किसी अंजानी रौनक़ से पुर करती हुई एक अजब रुहानी मेला बावर कराती थी। कुछ ऐसा मालूम होता था कि ईदगाह के दरवाज़े से बाहर निकलते हुए लोग और लड़के बाले अब क़ब्रों पर फैली गर्मी की धूप में अपने सायों के मुतहर्रिक जज़ीरे बना रहे होते थे। इस दौरान कोई उनके सिवा उन ख़ुश हसरत पुकारों को नहीं सुनता था जो उनके अज़ीज़ों की क़ब्रों से उनकी समाअत तक आरही होती थी...अरे हो फ़ुलाने...अरे भय्यन...अरे बब्बूआन...अरे लाल...मुहम्मद मुख़लिस को याद आने लगता था कि हर साल उसकी अम्मां उसारे के लिपे पुते फ़र्श पर सेवईयां लिए बैठी उसकी राह देखा करती थी कि ईदगाह से लौट कर अब वो आता ही होगा। आते ही वो ईदी भी माँगेगा। उन दिनों बच्चों के लिए एक पैसा ईदी भी सख़ी होती थी। ख़ासकर ताँबे के छेद हुए पैसे लिए हुए बच्चे उन्हें गिनते थे। एक ठो, दो ठो, तीन ठो, चार ठो...इस तरह गिनते हुए कभी कभी वो उनके छेद पर आँख रख के अपनी दानिस्त में आस-पास के मनज़रों का अहाता करते थे। ये एक क़िस्म की दूरबीनी की साख़्त थी जिससे वो अपनी दानिस्त में ख़ुशगवार नज़ारों को महफ़ूज़ रखने की कोशिश करते थे। कम अज़ कम उनके ख़्याल की रसाई यहीं तक थी या दुनिया उन्हें उतनी ही नज़र आती जितनी कि वो देख सकते थे। वैसे भी उन दिनों मसर्रत की अभी इब्तिदाई तर्बीयत हुई थी, अभी इफ़ादा करना नहीं सिखाया गया था और जो राह मस्जिद के दरवाज़े की तरफ़ जाती थी उस पर कोई दुकान नहीं थी, जबकि मस्जिद की मिल्कियत सिर्फ़ एक इनारा था जिससे पानी खींचा जाता और मिट्टी के बंधनों में वुज़ू के लिए भरा जाता था या ज़्यादा से ज़्यादा जवाँमर्दी के नहान ख़ास कर सीने के घने बालों को भिगोते हुए भाले की अनी जैसी हईयत बताने के लिए इनारे से लगरे को दो-तीन बार खींच कर पांव तक उंडेल लिया जाता था। इस तरह नहाते हुए तो वो अब्बा को मुसलसल देखता आया था और वो सुना करता था जो कोई पूरबी औरत अपने मर्द को हमार मर्द पुकारती थी तो उसकी नज़र अपने मर्द के सीने के भीगे हुए घने बालों की अनी पर होती थी। ये नज़ारा मुहम्मद मुख़लिस को रश्क से पाट देता था और छेद हुए पैसे के छेद पर आँख रख के वो ख़्याल ही ख़्याल में देखता था कि उसका सीना भी बालों से भर गया है और उसकी जवाँमर्दी मोतबर हुआ चाहती है।

    अब्बा की पाली हुई बछिया जो घर के द्वार पर गढ़ी के पास वाली नाँद पर बंधी रहती थी। ऐसी सधी थी कि कभी पगहा तुड़ा के नहीं भागती थी। अब्बा उसे अपने हाथ से सानी खिलाते थे और नहीं चाहते थे कि उसकी क़ुर्बानी दी जाये लेकिन उसे कब क़ुर्बान किया गया और उसके गले पर छुरी फेरते हुए किस ने अपनी आँखें कुछ पल के लिए बंद करली थीं, शायद इसलिए कि एक तहज़ीब-ए-ग़म सिर्फ़ शहर ही नहीं, गांव की सूरत में भी उन आँखों के खुलने तक बाक़ी चली आती थी।ताहम याददाश्त में पिछली बरसात कच्ची दीवारों के ढहा पड़ने ,लंगूरों के हाथों निरियों थपोओं तले से पानी टपकने और बच्चे कच्छे असासों के भीगने यहां तक कि ज़्यादा से ज़्यादा बाढ़ से नदी के किनारे गिरने की भयानक गूंज सुनने और नदी की सतह पर आदमियों और मवेशीयों के मर्दों और छप्परों को बेतहाशा बहते देखना सहल था। लेकिन ज़िंदगी मुसिर थी कि वो किसी हाल भी अपना ग़ैरमामूली होना मुसलसल बावर कराती रही थी। ज़िंदगी को मालूम नहीं क्या हो जाता था कि यकसानियत से गुरेज़ पाई में अजब हईती से बातिन तक सरायत कर जाती थी, यहां तक कि अगर जाड़ा शुरू होते ही सह पहर की धूप की पीलाहट दरो-दीवार के साये से मिल के एक क़िस्म की सर्द मेहर इजारादारी महसूस करवाती... उन कमज़ोर और हक़ीर मामूलों को जिनके ज़रा ज़रा से अंदेशे से मसामों और शिरयानों में कपकपी और सिहरन दर आती तो ज़िंदगी यकायक जीज़े के खेत के पिछवाड़े अंगोछे लुंगियां और तहबंद पहने हुए जोलाहे की लड़की के सिर के बालों में ढेरों जुएँ पैदा कर देती कि वो बेइख़्तियार कच्ची दीवार फलाँग के किसी ग़ैर मुक़र्ररा नादान तलब की कगार पर खड़ी होजाती। तभी ज़िंदगी मुस्तइद होती और वो उस नौजवान तेली, जो मज़कूरा लड़की पर फ़रेफ़्ता था, उसकी सरसों के तेल से मल मल के तर्बीयत की गई, उकसाहट को जगा देती...या वो ये आगाह करना चाहती होगी कि सरसों के तेल से जुओं का क्या ताल्लुक़ था! जबकि नौजवान तेली बजरंग बली की पूजा करता था। फिर जाने क्या होता कि लड़की ख़ुद उस तरफ़ का रुख करती, जिधर अंसारी पट्टी के ताज़िया वाले चौक के आस-पास पहर की धूप की पीलाहट पर नौजवान तेली सरसों के तेल की बोतल लिए उसकी बाट जोह रहा होता था। इत्तिफ़ाक़ से अंसारी पट्टी के ज़मींदार की डेयुढ़ी की दालान अक्सर सुनसान पड़ी रहती। इस अमल में वो अरसा की धूप की पीलाहट से डेयुढ़ी के दरो-दीवार के साये तक मुतजस्सिस और मुतहर्रिक रहता था। हालाँकि शाम ही से राजा जी के बगीचे में इतनी ओस पड़ने लगती कि घास और ख़ुर्द रो पौदों की पत्तियों से जाड़ा उतर उतर के चहूँ ओर फैल जाता। ताहम इस फैलने में मिट्टी पर ज़िंदगी के मंज़रों की हरकत को जामिद करने के लिए एक तरह की दबाज़त का दबाव ज़रूर पड़ता था। सर्फ़ होती हुई इन उम्रों के सिनों पर जो अपनी औलाद की परवरिश करती आरही होंगी मगर बहुत से अधूरे अरमान लिये हुए किसी घड़ी भी दुनिया छोड़ देने के लिए गिन रही होतीं इस दौरान क्या दुख होता जब उनके सीनों में एक हूक के साथ फ़ित्री हरारत निकल निकल के उन्हें ख़ाली कर रही होती और महज़ ऊपर से चमड़े की झुर्रियों को गरमाई का धोका देने के लिए अलाव या कौड़ा ताप ताप के आरिज़ी तमाज़त तो हासिल हो जाती या कलाओ के नमूने ज़बान पर जवानी के दिनों का हसरत गज़ीदा सवाद मिल जाता। जबकि दुलाई रज़ाई और पुवाल में सिमट सिमटा के या बोरसी में चिंगारियों के बुझने तक महज़ गर्म राख पर इकतिफ़ा करने के बावजूद भीतर की ठिटूरन तो किसी तौर कम नहीं होती थी। फिर ऐसा ही क्यों होना था कि जब उनसे कहा गया... अज़ादारी कौन करेगा तो उन्होंने हाँ या नहीं मैं ही सर हिलाया ही मुँह से कुछ बोले। शायद उनमें इतनी सकत ही नहीं रह गई थी कि वो अपनी निगरानी में अंसारी पट्टी और मुल्की पट्टी के ताज़ियाने तैयार करवाते। जबकि आगे आगे थे नौ उम्री की चहल वाले लड़के लड़कियां जो वहां के पाँच गांव के ताज़िये दफ़न किए जानेवाले कर्बला की सिम्त सातवीं की रात को ही उमडे पड़ते थे। इतने बड़े ग़म की रिवायत को वो तफ़रीह बना के अजब मन सैना तो ज़रूर पैदा कर देते थे। ऐसे में दोनों चौक के गिर्द बारी बारी से ताज़िया बिठाने से पहले फेरा लगाने और नौहा मर्सिया पढ़ते लड़कों के साथ मुहम्मद मुख़लिस को कुछ ज़्यादा ही होश में बार-बार उछलते कूदते मातम करते हुए देखा जा सकता था। दूसरे लड़कों के मुक़ाबले में अपना सर ऊंचा करने की कोशिश इस लिए थी कि शरीफ़े के बगीचे की मिल्कियत वाली लड़की जो दीवार से लगी दूसरी लड़कियों के दरमियान खड़ी थी, वो उसे देख ले और इसके ऊंचे होते हुए सर को पहचान ले। जबकि मर्सिया सांस के तूल तक चढ़ा जा रहा था।

    बुलवा के मदीना से पानी को भी तरसाया

    हरचंद कि मुहम्मद मुख़लिस की आस और ललक ढोल ताशे, झाँझ और गदका खेलने वाले लड़कों के शोर में बज़ाहिर दब जाती थी। लेकिन सर्द रात को आँच और रोशनी से सनमयाती बनाने वाली उलगाटीयों और मसाल से अजब सूँ...ओ...ऊँ...ऊँ की मौसीक़ी उभरती तो नातमामी का तास्सुर बख़्शने वाला तसलसुल मुंतज़िर दिलों को बीधता हुआ गुज़र रहा होता। इस असनाए में देग़ों में गुड़ की चाय खोलाते हुए फिर कोरे भुरकों में भर भर के बाँटन वाले हाथों कुछ सख़ावत जलवा दे रही होती कि बाँटन वाले हाथ दिखाई देते। अलबत्ता गुड़, लौंग, अद्रक और इलायची की आमेज़िश से बनी हुई गर्म चाय की खुली देग़ों से जो भाप उड़ रही होती उससे एक पल को कुछ ऐसा गुमान होता कि तमाम मलाइका में से कोई मुक़र्रर कर दिया गया और पूरी काएनात दिल पर बरस रही हो। बल्कि पहली बार मुहम्मद मुख़लिस ने महसूस किया कि रात की बरकात फ़यूज़ के फ़रिश्ते को देखने के लिए सिर्फ़ ख़ालिस इन्सानी दिल से बनी हुई दुनिया की ज़रूरत थी और ये दुनिया तो हुआ करती थी बहुत से आज़ाद और राहतों को यक वक़्त समोए हुए उसी दुनिया के वही लोग थे जिनके बुतून में उनकी अगली पिछली और आने वाली नसलों की दस्तकें सुनी जा सकती थीं मगर अफ़सोस कि वो लोग इक इक करके उठते जाते थे। किसी पिछली शब्ब-ए-बरात को अम्मां हलवे की तैयारी अधूरी छोड़के उठ ही तो गई थी इसी लिए मुहम्मद मुख़लिस को अब कोई इस तरफ़ जाने से रोक नहीं सकता था, जिस तरफ़ तोम ने अलैहदगी खींची थी या तो उस अहमक़ की कहानी के हवाले से किसी रास्ते पर नाक की सीध में जाने और रास्ती के दरमियान फ़र्क़ बताने की जुरअत कर सकता था।

    हालाँकि दस्तावेज़ में मदीना जानेवाले रास्ते पर मुख़्तलिफ़ ऐसी जगहों की निशानदेही की गई है। जिनसे उसके सफ़र और आरिज़ी पड़ाव के बारे में क़ियास आराई ग़ालिब है।

    अम्मां से बिछड़ के पहली बार वो अकेला क्या हुआ था कि आदम की औलाद होने के वास्ते से शायद उस पर ख़ुदावंद ने एक तवील नींद भेजी थी मगर अफ़सोस कि जब वो उस नींद से उठा तो ये देख के बहुत ग़मगीं हुआ कि उसकी पिसली ख़ाली थी।

    दस्तावेज़ में ये भी दर्ज है कि पहली बार अलैहदगी के इस तरफ़ वो पहुंचा ही था कि मआशियात ने आलिया और आठ बरस गँवाने के बाद शायद अपनी दानिस्त में वो अपने ईमान और बे-बज़ाअती के दरमयान उतना पछताया था कि कुछ मुद्दत के लिए वो मदीना जाने वाली राह से या अपने सफ़र के रास्ते से अलैहदगी के उस तरफ़ लौट गया था।

    उसका ख़याल था या उसने अपने ख़याल से एक धुँदली आस तरकीब की थी कि उसकी तवील नींद से पहले की दुनिया की कोई एक निशानी तो मिल ही जाएगी। तीन दिन और तीन रातों की राह पर मुख़्तलिफ़ मंज़रों के जमघट एक के बाद एक सरकते नीम गोलाइयों में चकराते कुछ पीछे छूटते जाते थे। अलबत्ता कुछ आगे और उसे पास आते हुए इलतिबास में कहीं खिंच आते थे। जबकि टेलिग्राफ़ के खंबों से जुड़े तार एक पूरी रात की तवील खोह में चले जाते थे या शायद मुहम्मद मुख़लिस जिस डिब्बे में सवार खिड़की के पास की सीट पर बैठा टेक लगाए सो रहा था कि नीचे आहनी पहियों की दबीज़ रगड़ से प्लेटफार्म पर कुछ देर के लिए रफ़्तार के ठहरते ही उसकी आँख खुल गई थी। लगभग रात का पिछ्ला पहर रहा होगा। तभी उसकी नज़र एडीसन के बल्ब पर पड़ी थी कि जो वेटिंग रुम और माल गोदाम के दरमियान की दीवार से लगा रोशन तो ज़रूर था मगर रात के किसी हिस्से में उस पर जो ओस पड़ी थी वो उसकी शुआओं की बौछार से मिल के कुछ यूं झमझाती महसूस होती थी कि लगता था मुहम्मद मुख़लिस की आँखों की जागती धुंद में उसके दिल पर कायनात भर की उदासी और हसरत बरस रही हो! फिर जब सीटी बजते ही रफ़्तार प्लेट फ़ार्म छोड़ने लगी तो वही बल्ब था और उसकी शुआओं की बौछार गिरती झमझमाहट थी जो कुछ यूं कह रही थी...जा तो रहे हो बाबू...तुम अपनी खोई हुई दुनिया की ओर...पर वो मिलेगी नहीं कहीं...फिर भी उसका दिल ही तो था जो ये मानने के लिए आमादा था कि वो दुनिया खो गई थी या नहीं खोई थी! क्योंकि रफ्तार आख़िर उसके गांव के स्टेशन पर रुकी थी तो बिहान हो रहा था और इत्तिफ़ाक़ देखिए कि वो ऐन ईद के दिन पहुंचा था। उजलत में पुरानी याद की ख़ुश जोशी से पांव भूमी पर पड़ते थे। आहनी पटरी से कच्ची ढाल पर उतर के वो लगभग भागने के अंदाज़ में तेज़ तेज़ चलते हुए कोइरियों के गांव के ईंटों वाले आंवे से मिली हुई बैलगाड़ी की लीक को पकड़ चुका था। जबकि धूप इतनी ज़रूर निकल आई थी कि धूल में सनी हुई लीक चमक रही थी। अलबत्ता उसके पच्छिमी और मियां लोगों के की ईदगाह के अहाते पर नज़र पड़ते ही वाज़ेह मालूम पड़ता था कि अभी अभी ईद की नमाज़ अदा करके लोग अपने घरों की तरफ़ गए होंगे। लेकिन जिस ईदगाह के बीच बरगद का पेड़ था और इर्द-गिर्द क़ब्रिस्तान था बल्कि पूरब ओर एक बरसाती गढ़ी भी थी उसका रास्ता तो कोई और होगा और उससे मिले हुए गांव में मियां लोगों के इलावा ऊँचली और निचली ज़ात के हिंदुओं के घर भी थे अलबत्ता वही अम्मां का नैहर था। यहां तक पहुंच कर उसे पूरी तरह याद आरहा था कि अम्मां जुड़वां बच्चों को जन्म देकर मर जाने के लिए ही तो अपने नैहर गई थी। यानी कहीं कहीं वो इतने पास से बहुत कुछ देख रहा था कि उससे रहा गया, जब उसने एक इनारा पर ढेकुल खींचते हुए बूढ़े कोइरी से महज़ तस्दीक़ की आदत बिना पर वहां की निशानी बता के रास्ता पूछा था तो वो ढेकुल रोक के इनारा की जगत से उतर आया और सर से अंगोछा लपेटते हुए एक हाथ को फेंकने के अंदाज़ से उसे बताने लगा था...सेठ का लौकत बा! इस तरह लौकाते हुए लहजे में कोई बात इतनी मानूस लगती थी कि वो एक दम पैदा किए गए होश और शौक़ की हरारत से अपने पांव को भरा भरा हुआ पाके दौड़ पड़ा था। बिल्कुल वैसे ही जैसे वो बचपन में अक्सर लोहे की गरारी में सीकचा लगा के दौड़ते हुए लंबी दूरियाँ तय किया करता था। सो, उसे ये गुमान हुआ था कि वो लगभग डेढ़ कोस भर की राह तय करते हुए कब ईदगाह वाले बरगद तले पहुंचा था। यहां तक कि ईद के दिन का यक़ीन भी उसे ये देख के हुआ था कि क़ब्रिस्तान की कुछ क़ब्रों के आस-पास निस्फ़ या तीन चौथाई खाए हुए लकटे, ढनडे, तलवे ,अन्धरसे और बजा बजा के या फूंक फूंक के तोड़ी गई पिपड़ीयां बिखरी पड़ी थीं। एक क़ब्र के पास उसे एक टूटा हुआ तुड़वा भी मिला था। उससे ऐसी ख़ुश बेताबी हुई थी कि लगा जैसे उसका दिल सीने से सरक के उसकी आँखों में उतर आएगा। बिल्कुल यही हालत थी या कैफ़ियत थी कि वो एक निस्फ़ धंसी हुई क़ब्र के पास अध भुलावे में जा बैठा था कि वहां ज़रा देर के लिए एक लोक देवमालाई धुंद की तजरीदी तिकोन उभर आई थी या वह उसारे के दासे से लगा हुआ चूल्हा था और उसके पास के लिपे पुते चौखटे पर एक सेनी में उबली हुई सेवईं रखी थी, साथ ही तामचीनी की थाली में शक्कर और कटी हुई गरी-छोहारे थे। पास ही क़िवामी सेवईं वाली पतीली रखी थी, अलबत्ता बालाई वाले दूध की कस्तरी को सिकहर से उतार के चूल्हे के उपले की धीमी आँच पर दुबारा रख दिया गया था। अब सब के दरमियान उसने अम्मां के चेहरे को तशकील होते हुए देखा था, जो बेटे को उबली हुई और क़िवामी दोनों क़िस्म की सेवईं खिलाने से पहले की इंतिज़ार की झलक देख रहा था। लेकिन बस ज़रा सा वह चूक गया था या अनजाने में क्या हुआ था कि चीनी के जिस प्याले में अम्मां उसे पहले उबली हुई सेवईं देने वाली थी, वो अपनी जगह से आप ही आप लुढ़क गया था। इस असनाए में वो शायद एक अधूरी टूटी हुई पुकार से मुशाबेह लहजे में बोल पड़ा था, अम्मां सेवईं दे...सेवईं तभी उसे लगा कि वो प्याला जिस ओर को लुढका था उधर ही तो अम्मां की क़ब्र के धंसे हुए हिस्से की एक तिकोन थी और कुछ नहीं था। बल्कि दूर दूर तक भी कुछ नहीं था या ऐसा कुछ यकायक बदल गया था कि उसे तो आसानी से बदला हुआ कहा जा सकता था ही उसे कोई नाम दिया जा सकता था।

    शायद उसका कारन ये भी था कि उस इलाक़े में जहां हर साल कभी बाढ़ और कभी काली आंधी आती थी और कभी अकाल पड़ता था। यहां तक कि कुत्तों के गले में अक्सर गिलटियां लग जाती थीं, वहां आदमियों और जानवरों की कीमियाई मुसावात से ऊपर कभी ढेरों राख, कभी बेहिसाब मिट्टी और कभी अथाह पानी गुज़र जाता था। बिन पानी के मिट्टी की सतह पर पड़ने वाली अनगिनत सूखी सनटी दराड़ों तले वह तमाम बाब आप ही आप बंद होजाते। जो उनके जीते जी अनगिनत हवालों और वास्तों से अक्सर एक दूसरे की ज़बानी एक दूसरे की दानिस्त में बावर कराए जाते रहे होंगे या जो क़व्वाली और भजन गाने के बावजूद फ़सादात की फ़सल भी काटते थे, वह मर्दों की काया में ढलते ही मिट्टी या राख की सतह के ऊपर के सिलसिले से आप ही आप मुनक़ते होजाते थे। तब...वो नहीं बता सकते थे कि जब वो जी रहे थे तो उनका जीना कैसा जीना था! उनका दीन धरम क्या था! वहां किस की हुक्मरानी थी, किस का राज था, ज़मींदारी बाक़ी रह गई थी या किसानों में ज़मीन मुफ़्त तक़सीम की जा रही थी! कौन सा इलेक्शन लड़ा जा रहा था! कौन हार रहे थे! कौन सी पार्टी जीत रही थी! गोया अब कुछ ऐसा मालूम होता था कि दुनिया में ज़िंदा रहना उस पतले ठीकरे की तरह था कि उसे महज़ छिछली खेलने के लिए पानी की सतह पर ज़रा सी महारत से एक किनारे से दूसरे किनारे तक लगभग उछाल दिया जाता था, ताहम वो इस किनारे को छूते ही डूब जाता था। शायद कोई ऐसी तहदारी नहीं रह गई थी कि जिससे मुहम्मद मुख़लिस की दुनिया के किरदार नमूदार होते।

    यहां से यूं समझिए कि एक ज़रूरी जांकाह तफ़सील रह गई थी लेकिन उसे बयान किए जाने से महज़ फ़साद का अंदेशा था

    ताहम वो जो एक मुहल्ला होता था। उस में किसी नामी गिरामी आशिक़ का घर हुआ करता था और वहीं एक सौदागर हुआ करता था। सौदागर की लड़की भी क्या बला की माशूक़ा थी कि आशिक़ को बदन भी सपुर्द किया और जान भी सपुर्द कर दी थी तो मिस्ल उस लड़की के या बिल्कुल वैसी ही सही कुछ कम दर्जा मगर माशूक़ा ज़रूर होनी चाहिए थी। फिर वो आख़िर किस क़बील की लड़की थी जो मुहम्मद मुख़लिस को अपने पीछे शहर की ज़बानदानी और तहत लहजे की नाज़ुकी का लम्स बावर कराती हुई अगले वक़्तों के किसी नवाब की पुरानी ख़स्ता शिकस्ता हवेली के बाहरी ज़ीना तक ले गई थी लेकिन ज़ीना के ऊपर चक्करदार कगार से मुल्हिक़ शायद कोई फ़र्श ग़ायब रहा होगा, बस इसी ओर को वो ओझल हो गई थी। तभी वो चौंकने से ज़्यादा चिहुँक के अपने अक़ब में कुछ देखने लगा था। सो आख़िरी मंज़र में वो एक ऐसा बदनसीब गाहक रह गया था, जिसकी कुछ ख़रीदने की महरूमी अचानक जान ले गई थी। आख़िर अपनी ख़िफ़्फ़त मिटाने के लिए उसने वहां से रुख़्सत होते हुए बिसात भर अपने क़ल्ब की आवाज़ किसी ओर कभी नहीं सुनाई देने वाली बाज़गश्त ख़ल्क़ करके मीर साहिब की गोशा नशीनी के आख़िरी अय्याम तक उन्हें मुख़ातिब किया था...मीर साहिब...मैं तो यहां आप की क़ब्र तलाश करने आया था।

    फिर कुछ यूं हुआ था कि उसे उसकी तसव्वुरी दुल्हन ने वहां बुलाया था कि जहां सुर्ख़ नाड़ों भरी कायनात कुछ ऐसे मकान की सूरत थी कि जो अंगूर की बेलों से भग निस्फ़ ढका हुआ था और नीम तारीक, नीम रौशन छाओं में दुल्हन बैठी हुई थी। उसकी माँ यानी मुहम्मद मुख़लिस की ख़ाला दुल्हन यानी अपनी बेटी के बालों में सुर्ख़ रिबन बांध रही थी। लेकिन जाने क्या हुआ था कि वो कायनात उसके हज़ार ढ़ूढ़ने से भी कहीं मिली नहीं। जबकि वो नए शहर से पुराने शहर की तरफ़ ऐन उस सड़क से गुज़र रहा था, जिस पर कभी बादशाह की सवारी बड़ी शान से गुज़रा करती थी। बावजूद अफ़सोस कि मार भी पड़ी थी तो किस की! या उन दिनों की सारी जमालियात को यूं ग़ारत होना था। पनाहगाह में गुज़री हुई रात की किसी घड़ी नींद उचट गई थी, बस यूं ही बहटिया के उसने साथ के तख़्त पर लेटी हुई पनाहगाह की मालिका के पिस्तानों को दाँतों और ज़बान के दरमियान रुक के कुछ देर चुभलाया था, सुबह हुई तो दिन चढ़े तक खाने को कुछ नहीं मिला था। रमज़ान पड़ा था मगर वो रोज़ा नहीं रख सकता था क्योंकि उसे सिर्फ़ भूक और प्यास से गुज़रना था या वो उसी हालत में नए शहर को पुराने से मिलाने वाले पुल से उतरा ही था कि अधूरी समाअत में एक लफ़्ज़ सुनाई दिया था...मदीना तभी उसके सर पर खट्टी धूप गिरी थी। बल्कि बयक वक़्त उसकी बसारत और सूँघने की सलाहियत के दरमियान इन्सानी ख़ून से मिलते जुलते तेल में लिथड़े हुए अचार का बर्तन गया। फिर भी हवास को बटोरने वाली सकत भर उसने एक नज़र बादशाह की विरासत पर की थी। जो पुराने शहर के तारीख़ी मीनार की सिम्त सड़क पर साईकल रिक्शा चला रही थी और इज़ारबंद बेच रही थी। वहीं पुराने बाज़ार के दरमियान वाली मस्जिद के पास वो पहुंचा था कि मग़रिब का वक़्त होने को था। रोज़ा खुलने में कुछ देर बाक़ी थी और ले दे के एक हीला तो यही रह गया था कि मस्जिद में इफ़तारी तो बिल्कुल वैसे ही आई होगी जैसे उसके गांव की मस्जिद में घर घर से आया करती थी। ख़िलाफ़ उसके कि उसकी नज़र तारीख़ी शहर की मस्जिद के दरवाज़े से अंदर की तरफ़ पड़ी तो वो ये देखकर बिल्कुल मायूस हो गया था कि बहुत से रोज़ेदार एक दूसरे से पीठ मोड़ के उकड़ूं बैठे थे और हर रोज़ादार अपने सामने बाज़ार से ख़रीदी हुई बरा-ए-नाम इफ़तारी का दोना रखे हुए दूसरे की नीयत और हाजत से ला ताल्लुक़ मालूम होता था। उसके बाद कुछ देखने के लिए रह ही क्या गया था। इत्तिफ़ाक़ देखिए कि वहां से लोटते हुए 36 घंटे की राह पर फिर वही तारीख़ी बड़ा शहर पड़ता था कि जहां मुख़्तलिफ़ क़ियास आराईयों के बयान में शामिल उस के 40 गांव वाले तीसरे दादा गए थे तो जामा मस्जिद के ही मुहल्ले में उनकी ब्रहना पीठ के जले हुए गुलगुले का क्या हश्र हुआ था।

    बावजूद इसके मुहम्मद मुख़लिस को तो ठग लिया था उस औरत ने जो अपने शौहर के जिस्म से उकता के उसके जिस्म में पनाह लेने आई थी और उसके लिए वो अपने मुहल्ले से दो बसें बदल के बारह मील मई जून की धूप में चलती हुई उससे मिलने आया करती थी। वहां जहां यूनीवर्सिटी के स्टाफ़ के क्वार्टरों के गिर्द पेड़ों के घने कुंजों में मोर बोलते थे और उसके हिस्से में चार दांग आलम की ख़ूबसूरती का नुज़ूल होता था, जब मोरों की आवाज़ उसकी समाअत तक एक क्वार्टर कि जिसमें वो ठहरा हुआ था ख़्वाब गाह के फ़र्श पर रोशन साया बन जाती थी। जब उस औरत का रसमसाता बदन उसके जिस्म की पनाह में पूरे दिन शाम ढले तक सांस लेता था। शायद इसलिए भी कि मुहम्मद मुख़लिस की ज़िंदगी में पहली और आख़िरी बार कुछ दिन के लिए मआशियात मेहरबान हो गई थी। लेकिन इस दौरान ये मालूम नहीं था या लज़्ज़त-ए-दोआलम का नशा तारी था। अफ़सोस कि वो औरत जिस मुहल्ले में रहती थी उस में कुछ अजब क़बील के मुसलमान रहते थे इस तरह कि पुरानी हुक्मरानियों की विरासत में उन्हें जहालत की जो इजारादारी मिली थी उनके बुतून में शामिल ढेरों चर्बी, रोग़न और सुर्ख़ मिर्च से तरकीब की हुई थी। बोलते और गालियां बकते हुए उनकी गोश्त गर्दी, उनके मुँह और नथनों से ख़ारिज होने लगती है। यहां तक कि उनके बारे में एक रिवायत चली आती थी कि अगर कभी उन्हें खाने में एक वक़्त गोश्त मयस्सर आता वो कब के दीन-ईमान से फिर चुके होते, इस पर सितम ये कि नामूस की हिफ़ाज़त करते हुए ज़ोर से हाँका लगाने वाले अंदाज़ में एक कूचे से दूसरे कूचे के मोड़ तक बोलते चले जाते थे और टोह लेते हुए अपने कानों को अपनी आँखों के पीछे लगा देते मगर महज़ लालच से पैदा होने वाली ज़रूरत का एक अपना नादिर दरवाज़ा था जिस में उनके नामूस के ही नाम की कमाई अक्सर दाख़िल हो रही थी। सो जब उन्हें किसी तरह मालूम हो गया था कि उनके मुहल्ले की औरत, मुहल्ले से दूर किसी मुहम्मद मुख़लिस नाम के मर्द से मिलने जाती है तो औरत मज़्कूर की वापसी वाले रास्ते पर हाँका लगाने लगे थे ताहम कमाई के लिए चोर दरवाज़ा बनाने की कोशिश इसलिए नाकाम हो रही थी कि मर्द मज़्कूर उनकी पहुंच और गिरिफ्त से सिर्फ़ दूर ठहरा हुआ था बल्कि वहां तो मोरों की आवाज़ों के कुंज और कुछ ऐसे हिन्दुओं के मुहल्ले के अमलदारी थी जो कानों को आँखों के पीछे लगाना सिरे से जानते ही नहीं थे और उसी में एक आशिक़ की आशिक़ी की आफ़ियत थी। यानी मुहम्मद मुख़लिस जैसा आशिक़ अगर जुर्म-ए-आशिक़ी में अपनी ही क़ौम के कुछ लोगों के हाथों हलाक हो चुका होता तो उसके दिल की जगह कौन लेता और कौन अपने दिल को अपने पांव में ढाल के हर बार मदीना की राह का क़सद करता तो सिर्फ़ इस क़सद के लिए आशिक़ का ज़िंदा रहना ज़रूरी था। वर्ना दुश्मनी तो उसे किसी क़ौम से भी नहीं थी।

    जहां तक सिर्फ़ अपनी क़ौम का ताल्लुक़ था तो आख़िर वो लोग कौन थे जो अलैहदगी की तीसरी तरफ़ के बाशिंदों में शुमार किए गए ! बावजूद इसके कि उनका इलाक़ा हरियाली, शायरी, मुसव्विरी और रक़्स मोसीक़ी से भी इबारत समझा जाता रहा था और जिनकी रूहों में आफ़ात-ए-समावी से उठाए जाते रहे, आज़ार भी शामिल होते आए थे। फिर भी गुज़र औक़ात के लिए वो अपनी फसलों में मछलियाँ भी बोते थे ।ये भी कहा जाता है कि वो मछलियों से इतनी मुहब्बत करते थे कि उन्हें अपने दिल की राह से पेट में उतार लेते थे लेकिन फिर ऐसा क्यों हुआ था कि उन्होंने मछलियों के ख़ून में इन्सानी ख़ून भी शामिल कर लिया था। तब यक़ीन नहीं आता था कि वो तमाम हरियाली, शायरी, मुसव्विरी और रक़्स मोसीक़ी को भूल कैसे गए थे!

    दस्तावेज़ में ये भी दर्ज है मुहम्मद मुख़लिस ने मज़ीद छः बरस गंवा के अलैहदगी के उस तरफ़ से अलैहदगी की दूसरी तरफ़ दूसरी बार कूच किया था या हरारत-ए-ईमानी का विर्सा दुबारा कहीं से उमँड आया था और किसी ने बावर कराया था कि खुदा ख़्वास्ता वो मदीना जाने वाली राह से लौटा नहीं था बल्कि उसके क़दम तो उसी तरफ़ को जा रहे थे। अलबत्ता दरमियान में कहीं उससे एक क़सूर सरज़द हुआ था कि एक पल को कहीं उसकी आँख झपकी थी या खुली थी...शायद वो आदमी की माँ थी। वो अपने हाथों में एक वक़्त के खाने का नाम का एक टुकड़ा लिए खड़ी थी या मुहम्मद मुख़लिस ने अक़ब से दरवाज़ा खोलते हुए ज़ीना तले के साथ वाली कोठरी की सिम्त से निसाई आवाज़ की आदमियत सुनी थी। कम अज़ कम इस आवाज़ का मंशा ऐन रहमत था मगर तभी अपने पांव पर एक नज़र करते हुए उसे याद आया कि उसकी आधी टूटी हुई रबर की चप्पल किसी मुअत्तल बादशाह की बनवाई हुई अज़ीमुश्शान मस्जिद की दीवार के पीछे छूट गई थी क्योंकि पहली बार उसने सुने सुनाए क़दीम ताय्युश को महज़ देखा था कि जो शराब कबाब और आदमी को औरत के गोश्त से तरकीब किया गया था या रंगीन शीशों, घुँगरुओं और मोतिया के बासी फूलों से आज़मूदा मकर बनते हुए नीम रौशन और गदली तारीक गलियों का जमघट दिखाया गया था, लेकिन वो तो आदमी की औरत के गोश्त की सड़ान्द से बच बचा के भागा था या एडीसन की ईजाद के ग़लत इस्तिमाल से उसे सदमा पहुंचा था। कम अज़ कम मंटो ये देखने के लिए ज़िंदा नहीं था कि उसके किरदार अपनी बाक़ियात के इसरार के बावजूद मर रहे थे। इसी लिए मुहम्मद मुख़लिस की समझ में नहीं आरहा था कि नौ सौ साल में क्या एक बादशाह शेर शाह सूरी था कि जिसके सिवा बाक़ी तमाम मुसलमान बादशाहों ने शानदार इमारतें बनवाने के सिवा और क्या किया! किसी आदमी के चलने के लिए बरा-ए-नाम एक रास्ता भी नहीं बनवाया। अलबत्ता वो नीम साकित हुआ जाता था कि आस-पास, इधर-उधर दूर दूर से एक ग़ोल चला जाता था। पुरानी दास्तानों के बयाबानों में पाए जानेवाले गोल-ए-ब्याबानी की मिस्ल मगर एक क़िस्म की तमस्खुराना सफ़्फ़ाकी मिली हुई ज़िंदा दिली थी उसमें जिसे नज़र के फैलाव में देखने की कोशिश बज़ाहिर रायगां जाती हुई मालूम होती थी क्योंकि शुरू ही में एक ज़लील तजरीद मुरब्बों और मरलों से आदमी के मुक़द्दर को ग़सब करती हुई मुसल्लत हो रही थी, यानी इस हिसाब से उस गोल-ए-ब्याबानी के बतदरीज क़रीब आने का ख़ौफ़ लाहक़ हो चला था तो उसे भागने की उजलत में मुहम्मद मुख़लिस ने पीछे पलट के नहीं देखा था। हालाँकि पत्थर हो जाने के ख़ौफ़ के इर्दगिर्द आगे बहुत आगे दूर दराज़ तक मुसलसल पत्थर होते रहने की तफ़सील धरी हुई थी। ऐसे में मुहम्मद मुख़लिस को ये भी अंदेशा होने लगा था कि मबादा उसके पांव मदीना जाने वाली राह से भटक के किसी गुमराह सिम्त से जा लगें। सो,उसकी दानिस्त में एक वाहिद सूरत थी ये जानने की कि वो आख़िर किस ख़ित्ते में पहुंचा था! मस्लन आसार तो ऐसे दिखाई पड़ते थे कि शेर शाह सूरी ने जो तवील सड़क बनवाई थी। वो वहीं कहीं पास से गुज़रती थी बल्कि कहा जाता है कि वो नेक बादशाह तो उस सड़क को और भी आगे मक्का तक बनवाने का क़सद कर रहा था। अफ़सोस कि उसकी तमन्ना इसलिए पूरी नहीं हुई थी कि वह ज़्यादा अर्सा ज़िंदा नहीं रह सका था लेकिन मुहम्मद मुख़लिस तो अभी मरा नहीं था और अभी तो ये देखना उसकी इंतिहाई बेबसी थी कि ज़मीन पर उसके हिस्से की या उसे दी जाने वाली पनाह कहाँ पड़ी थी! मालूम नहीं, उसने ख़ुद से पूछा या किस से पूछा था कि अगर ज़मीन ख़ुदा की है तो पनाह देने का इख़्तियार किसे दिया गया! या पनाह देने वाला होता कौन था! जबकि दस्तावेज़ में ये भी दर्ज है कि वहां तो ऐसी ज़मीन बिछी हुई मिलेगी कि वो आदमी के हक़ में बख़्शी हुई जाएनमाज़ होगी और वो उसपर काबे की सिम्त खड़ा हो के नीयत बाँधे, ,रुकूअ और सज्दे में जाके दुआ मांगते हुए बिल्कुल आज़ाद होगा लेकिन अगर उसकी ज़रा सी भी उम्मीद नज़र आजाती तो वो नेक बादशाह की बनवाई हुई सड़क के आसार पर चल पड़ता। यहां तक कि उसके ख़ात्में तक चलता रहता और अगर वहां तक पहुंचने में कामयाब हो जाता तो उसके बाद तो बस उसका क़ल्ब होता, क़ल्ब की जुरात ईमानी होती उससे राह बनाता हुआ वो मक्का पहुंच चुका होता और जब मक्का पहुंच चुका होता तो वहां से मदीना कितनी दूर रह जाता! लेकिन अफ़सोस कि नज़रें तो सरासर मुग़ाइरत का जुग़राफ़िया था और उसकी आबो-हवा बरा-ए-नाम थी। वर्ना मुहम्मद मुख़लिस के क़दम तो अनथक मुसाफ़त तय करते हुए कहीं कुछ अर्सा पड़ाव डालना भी चाहते रहे होंगे। मुश्किल ये थी कि आबो-हवा के नाम पर तो दूर दराज़ तक आदमी की प्यास बुझाने वाला पानी नज़र आता था और ही आदमी की आदमियत को किसी तरह का लम्स बख़्शने वाली हवा का गुमान होता था। अलबत्ता दिन के ऊपर दिन, महीना के ऊपर महीना और साल पर साल गुज़रते जाते थे और वो तो अभी मदीना से उतना ही दूर था कि जितना इल्म के हुसूल के लिए किसी ज़माने में चीन हुआ करता था। सितम ये कि जब वो उम्र का निस्फ़ हिस्सा गुज़ार के देखने और सुनने के नताइज ख़ुद निकालने की हालत को पहुंच चुका था। बावजूद इसके कि मुहम्मद मुख़लिस क़व्वास के ईमान के हवाले से बार-बार एक बहुत बड़ी आबादी बावर कराई जाती और आबादी में मुसलमानों की अक्सरीयत का यक़ीन भी दिलाया जाता। वो हैरान होके पूछता फिरता कि कहाँ है वो मुसलमान, कहाँ है वो आदमी यानी कोई एक मुसलमान या कोई एक आदमी तो उसके सिवा कोई जवाब नहीं मिल सकता था कि एक मुल्क बनाया गया और उसे कुर्रह-ए-अर्ज़ पर दिखा भी दिया गया बल्कि दिखाने के लिए क्या नहीं है! ताहम ऐसे जवाब की तवक़्क़ो से बयक वक़्त दिल बर्दाश्ता और बे नयाज़ मुहम्मद मुख़लिस ये दर्याफ़्त करने पर मुसिर था कि मबादा आदमी के हक़ में कोई आदमी मिल जाये मगर जो कोई भी मिलता वो सिरे से आदमी ही नहीं होता या अगर कहीं किसी पर आदमी होने का मामूली गुमान भी होता तो वह ख़त-ए-इब्तिला में ज़िंदा नहीं रह सकता था। यूं बेसबब जान जाने के अंदेशा से मुहम्मद मुख़लिस को बेतहाशा भागना पड़ता। ख़याल रहे कि ये भागना ऐसा था जैसे पुरानी दास्तानों वाली राह में किसी शहज़ादा की मुलाक़ात जब किसी पीर-ए-दाना से होती थी तो वो उसकी कुछ ऐसी राहनुमाई करता था कि वो किसी भी गोल-ए-ब्याबानी के नरगे से बच के भाग निकलता था। मतलब ये कि कोई चश्म-ए-बीना देख सकती थी या कोई भी साहब-ए-हवास महसूस कर सकता था कि आख़िर मुहम्मद मुख़लिस को अपनी नौईयत के इंतिहाई जांकाह सफ़र की राह में वो सब कुछ क्या नज़र आया होगा, जो उसके तजस्सुस, अंदेशा और क़ुव्वत-ए-हैरानी को बयक वक़्त हलाक कर सकता था। कुल्हाड़ीयां, बारूद या इजाबतख़ानों में नजिस पत्थरों के ढेर जबकि अतराफ़ की तफ़सीलात में आदमी के लिए कोई जगह नज़र नहीं आती थी और अगर कहीं आदमी के इलतिबास में किसी जगह का गुमान होता भी था तो वहां आदमी के क़ल्ब की आबादी के लिए गुंजाइश कम थी और जहां से कोई गुंजाइश कमियात की ज़द में आती थी। वहीं से ग़ैर आदमी या कोई अलैहदा मख़लूक़ अल्लाह की बख़्शी हुई नेअमतों और बरकतों पर तजावुज़ात इजारा करती हुई नज़र आती थी। अलबत्ता उनके दरमियान कभी हवा का कोई झोंका दर आता तो ज़रा देर के लिए समाअत पर गुमान होता था कि किसी बहुत पुरानी तहज़ीब का नौहा सुनाई दे रहा हो लेकिन जल्द उस नौहे की जगह आदमी की औरत का ज़िंदा या मुर्दा गोश्त ले लेता था जो सुनने से ज़्यादा नज़र आता था और मवेशीयों की हड्डियां भी। उन्हें इस तरह पड़े देखकर नज़रअंदाज करते हुए एक दम आगे बढ़ना आसान नहीं था। समाअत अगर ज़रा मावराए हदूद जाके उन्हें लम्स कर सकती। तब भी मवेशीयों की रूहों को सुनने की ताब नहीं ला सकती थी जो अपने नामालूम मस्कन से मुहम्मद मुख़लिस के तआक़ुब में एक तरह का मकाबी या दायरागीर तजरीदी जाल फैलाए हुए ख़ता-ए-मज़्कूर की बर्री, बहरी और फ़िज़ाई हदूद पर मुसल्लत थी। ऐसा मालूम होता था कि कुछ उसके अपने ख़ुसूसी तजावुज़ात थे ,जिन पर इजारा किए हुए वो अपने नुमाइंदों, कारिंदों और हरकारों को ख़ता-ए-मज़्कूर की जगह जगह के ज़र्रा ज़र्रा बल्कि ज़र्रा ज़र्रा के हज़ारवें हिस्से की इत्तलाआती मुहिम पर मुक़र्रर करती हुई मुक़तदिर मालूम होती थी। कुछ बरसों से तो आदमी को शिकार करने की उसकी हवस में इतना जुनून शामिल हो चला था कि उसकी तरफ़ से हर थोड़े थोड़े दिनों बाद किसी अंजानी सिम्त से बिल्कुल बेख़बर और अनजाने में अचानक हमला होता और चश्मज़दन में आदमी की नबातात की जगह बस ख़ाक उड़ रही होती। हालाँकि महाभारत की कथा में एक ऐसी बला का ज़िक्र है कि किसी बस्ती के बाहर जंगल में एक आदमख़ोर राखचस ने अपना ठिकाना बना लिया था। हर दिन वो अचानक बस्ती में के किसी किसी आदमी का शिकार करता। बस्ती में हाहाकार मच गया॒। एक दिन वहां के ज़िम्मेदार लोगों ने उस राकछस से रुजू किया और उससे मुआहिदा किया कि अब उसके हर दिन के शिकार के लिए बारी बांध दी जाएगी। मुआहिदा को मान कर राखचस हर दिन उसी आदमी का शिकार करता जिस की बारी होती। एक दिन करना कुछ ऐसा हुआ कि एक ब्रह्मन नौजवान की बारी आगई जबकि वो अपनी बेवा माँ का इकलौता बेटा था। तभी वहां से अर्जुन का गुज़र हुआ, तमाम हाल मालूम किया और झट उस राक्छस के ख़ात्मे का फ़ैसला कर लिया। कहा जाता है कि अर्जुन ने उस राखचस से जंग की और उसे हलाक करके सिर्फ़ उस बेवा माँ के इकलौते बेटे को बचा लिया बल्कि पूरी बस्ती में शांति क़ायम कर दी।

    ख़िलाफ़ इसके ख़त्ता-ए-मज़्कूर का चलन ही कुछ और था। इससे पहले कि आदमी के नामों की बाक़ियात या बची खुची निशानियों की तरफ़ से दुहाई या फ़र्याद के एक लफ़्ज़ या एक अद्ना तास्सुर को अदा किया जाता उस बला की जानिब से उसके किसी नुमाइंदा या कारिंदा या हरकारे की ज़बानी ताज़ियत की जा रही होती। यहां तक फ़ातिहा ख़्वानी तक पहुंचते पहुंचते इतनी तशहीर होजाती कि जीने-मरने की तमाम अहमियतें मालूम नहीं कीन दबीज़ परतों में दब जातीं। गोया मौत थी उसकी मामूल थी और वो उसकी आमिल थी। मज़ीद ये कि वो ये तास्सुर देने में कामयाब हो चुकी थी कि मरना तो शुरू ही से मुसलमानों के आम रहन सहन में उनके रोज़मर्रा के हाथ मुँह धोने जैसे मामूलात का हिस्सा रहा है। जब कि तजावुज़ात और कमियात के दरमियान मुहम्मद मुख़लिस के जिस्म की काया को बमुशकिल देखा तो जा सकता था। मगर ये कहना नामुमकिन था कि उसके पांव आगे चलते रहने की आरज़ू के ख़िलाफ़ साकिन थे या खिसक खिसक के चलने के गुमान में गुज़रते जाते थे ताहम ये किसी तरह शुमार नहीं किया जा सकता था कि किसी के पांव से दबा के कुचलने के ज़ेली इख़्तियार के क़बील के बे शुमार ज़ेली इख़्तियारात से बेरहम इजारादारी तरकीब की जा रही थीं। तभी ज़रा ग़ौर से देखने पे कि हरचंद उनकी हईयत मुसलमानों की थी मगर शहर तो उनके रहन-सहन के हिसाब से भला क्या था, शानदार पुरतईश मकानों का बेरब्त और बेमानी मज्मूआ था या मस्नूई इस्लामी नामों और इबारतों का ढेर था जबकि ज़िंदा रहने की इंतिहाई जरूरतों से तरसी हुई एक ख़लक़त को क़ब्ल अज़ वक़्त ही जनाज़ा की हईयत से डरा-डरा के इबादत करवाने वाले ख़ुद क्या थे अग़ज़ाई और शहवानी तमूज के इजारादार...मगर इस आज़मूदा तरकीब से कि सिर्फ़ मुँह से आज़मूदा इस्लामी साख़्त के फ़िक़रे, आवाज़े और नारे उछालते बाक़ी जिस्म की बनावट से सबसे बढ़कर अपनी सरिश्त से सुअर और सिर्फ़ सुअर नज़र आते थे। उनके आज़ा की साख़्त कुछ एसी थी कि नथनों और होंटों से थूथनी निकली हुई नुमायां नज़र आती थी। सबसे बढ़के गर्दन जो छितरे हुए खाबड़ बालों की कड़ी अकड़ से कोताह बन गई थी। यानी ऐसे बाल जिन्हें सैकड़ों साल पुरानी क़बाइली संगलाख़ी या बहुत बाद की मग़रिबी तरक़्क़ियों से भीक में मिली हुई माद्दी बेहिसी ने भला कैसे उगाया होगा कि पीठ, पेट नाक और टांगों तक चिकट चकत्ते से मालूम होते थे अलबत्ता उनके मुजर्रिब कूल्हों की चर्बी की नुमाइश उस वक़्त ज़्यादा बढ़ जाती जब कभी उनकी तहवील में आदमी की औरत का ज़िंदा या मुर्दा गोश्त आजाता। इस तरह कि हर तीसरे मकान में बिन ब्याही उम्रों के मुर्दे यूंही पड़े हुए सड़ रहे थे। कोई बाहर से आके उन्हें उठा के ले जाने वाला या दफ़न करने वाला दूल्हा नज़र नहीं आता था। ख़िलाफ़ इसके अनगिनत महरूमियों के पड़ोस में इंतिहाई दरीदा दहनी से शादी के खाने पकाए और खाए जा रहे होते तो उनसे आदमी के मुर्दे से फूलने वाली बू जैसी बू आरही होती। ऐसे में तसव्वुरी गुंजाइश निकलती थी तो कहाँ से! जब कि किसी भी इन्सानी क़दम के इम्कान से पहले एक तरफ़ तो मौत ख़त-ए-तंसीख़ खींचती हुई चली आती थी और दूसरी तरफ़ सुअरों के ग़ोल के ग़ोल फिरते थे। ऐसा मालूम होता था कि एक ख़त मज़्कूर तो क्या, दुनिया के किसी ख़त्ते में अब कोई इन्सानी मुआशरा बाक़ी नहीं रहा था। आख़िर एक शाम जो तजावुज़ात और कमियात पर उतरी हुई थी या उस कीमियाई उलझन से कोई सर्विस लेन गुज़रती थी या ऐसा ही कोई गुमान मुशाबेह धोका हुआ होगा, उससे किसी गुंजाइश के नाम का मकर मयस्सर आया होगा कि जिस पर मुहम्मद मुख़लिस अपने दोनों हाथ उठाए फ़र्याद कर रहा था।

    या रसूल अल्लाह...मैं मुहम्मद मुख़लिस...मदीना जाने वाली राह का मुसाफ़िर था...लेकिन मदीना नहीं पहुंच सका। आप रहमत-उल-लिल आलमीन हैं। लेकिन इधर भी एक नज़र-ए-करम...कि मैं अनगिनत कराहों, आहों, सिसकियों और आँसूओं का मज्मूआ हूँ। जो अलम मुझ पर गुज़र रहे हैं उन्हें मैं आपसे कहूं तो किस से कहूं! आप अल्लाह के हबीब हैं। आप नूर आदम हैं। आप सरकार-ए-दो आलम हैं। आप सुरूर-ए-कौनैन हैं। मुझ पर रहम फ़रमाईए कि मेरे पांव तले से मेरी ज़िंदगी छीनने के लिए सियाह ख़ानों में तैयारियां की जा रही हैं और ये तैयारियां करने वाले आप ही के इस्म-ए-मुबारक का हवाला देते हैं। वो मेरे पांव से बनने वाले क़दमों के तआक़ुब में बारूद, कुल्हाड़ियों और नजिस पत्थरों की यलग़ार करने वाले हैं! या ताजदार-ए-मदीना! मुझ पर रहम कीजिए कि मेरी बेकसी से मंसूब एक ख़लक़त दाना-पानी तो कुजा अब तो इक-इक सांस को तरसती है। जिधर भी नज़र जाती है मिट्टी नज़र नहीं आती। जीने की तमन्ना में उठते बैठते या आने वाली मौत की नींद से पहले की नींद भर सो लेने या घड़ी भर जागने के धोके में आदमी के क़दमों से मंसूब रास्ता भी आदमी ही के लहू में डूबा नज़र आता है। इलहाम को जिला वतन कर दिया गया है... वो गुज़रगाह कि जिस पर कभी मलाइका गुज़रते रहे हों नज़र नहीं आती। या रसूल अल्लाह इस से पहले कि मेरी ज़िंदगी मुझसे ज़्यादा मुसलमान कहलाने वालों के हाथों ख़त्म हो, मुसलमानों को मुसलमानों से बचा लीजिए।

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