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फ़ेल-ए-हाल मुतलक़

असलम सिराजुद्दीन

फ़ेल-ए-हाल मुतलक़

असलम सिराजुद्दीन

MORE BYअसलम सिराजुद्दीन

    मैं और ग़ज़ाली...

    ग़ज़ाली और मैं...

    हम दो मुअल्लिम और हम दोनों के मुतअल्लमीन! वाह! आह! जिस क़दर तफ़ावुत हम दोनों में था, उस से कहीं ज़्यादा हमारे मुतअल्लमीन में।

    ग़ज़ाली के तालिब इल्म... मतीअ, लचीले, मुतवाफ़िक़ कि चाहो तो कूट कर वर्क़ बना लो या तार खींच लो और चाहो तो पानी के चार छींटे दो और उनकी मिट्टी तोदों में तब्दील कर दो। फिर चाक पर रखो और उन तोदों को जो चाहो सूरत दे दो। गधा, घड़ा, घुग्घू घोड़ा, कुछ भी बना लो।

    अक्सर ग़ज़ाली उन गधों पर अपने अफ़कार लाद कर उन्हें सोंटा दिखाता और वह अदब, फ़लसफ़ा, सियासियात या इन्सानियात के किसी और शोबा में जाकर, वहां मौजूद मुअल्लिम को हटा कर ख़ुद तालीम करने लगते। शेक्सपियर को वो किरदार निगारी और मीर को मिसरा सीधा करना सिखाते। कीट्स उनके सामने ज़ानुए तलम्मुज़ तय करता और जैसा कि वो कहते अपने तसव्वुर जमाल में तर्मीम-ओ-तंसीख़ करता। चुग़्ताई और अमृता शेरगिल को वो ख़त-ओ-ख़म की बारीकियों से आश्ना करते। पेंटिंग के लिए मेहनत से तैयार करदा कैनवस पर कूद कर उसे पांव से पिरो लेते और टापते हुए कहते कि वो तहरीरी और तजरीदी तस्वीर कच्ची कर रहे हैं। हाई अनर्जी फिज़िक्स के प्रोफ़ेसर की जान ये पूछ कर ज़ैक़ में कर देते कि जिन्नात की पोटेंनशियल अनर्जी को बर्क़ी रो में कैसे तब्दील किया जा सकता है। वो ग़रीब बग़लें झाँकता या ख़फ़गी दिखाता तो वी.सी का घेराव कर लेते और घेरा उस वक़्त तक तंग करते रहते जब तक कि प्रोफ़ेसर मौसूफ़ जिन्नात की तलाश में फैकल्टी से निकल जाते।

    और माज़ी की कूक उनमें ग़ज़ाली ने इतनी भर दी थी कि वो हमेशा पर लपेटे अक़ब के आज़िम रहते। इसके लिए उन्हें कुछ तरद्दुद भी करना पड़ता। बस ग़ज़ाली ज़रा उन्हें उस बिल्ली की तरह, नज़र जमा कर देखता, जिसकी चूहे पर जमी टकटकी देखकर आरिज़ी नींद में भेजने का तरीक़ा दर्याफ़्त हुआ था। बसा औक़ात ग़ज़ाली को यह भी करना पड़ता और वह बैठे बिठाए माज़ी में चले जाते और कुछ देर उसकी जन्नत में जी आते।

    और आते तो बस हाल की शामत आजाती। वो उसे अपनी पुर शबाब ठिठोल पर रख लेते। आवाज़ें कसते और आगे लगाकर बरामदों में दौड़ाए फिरते। बकरे बुलाते। माज़िया किताबों के उर्स मनाते, कभी पालकी नालकी में सवार कराके उनकी बारात माज़ी के घर ले जाते और हालिया किताबों के पुर्जे़ कर के माज़ी के बारातियों पर लुटाते। इस पर भी उनकी पुर शबाब रूह के दाँत ठंडे होते तो एक ज़रा तफ़रीह के लिए क़सावत की काया लेकर ये रूह भी शक़ावत पर उतर आती, गरचे ये शक़ावत भी तक़दीस का गहरा रंग लिये होती और उनका हर अमल किसी अबदी तौर पर अहम पैशन प्ले का हिस्सा मालूम होता। हाल के चार अब्रूओं का सफ़ाया करके वो उसका मुंह काला करते और गधे गधी पर बिठा देते और तब...

    हाल को यूं ख़र सवार देखकर, उनके दाँतों में लज़्ज़त की मीठी ललक उठती और वो बत्तीसी में से निकल निकल पड़ते। अक्सर का जज़्बा-ए-जुनूँ कुछ कर गुज़रने के लिए उनकी उंगलियों पर नाख़ुनों की सूरत बढ़ आता। तेज़ आहनी नाख़ून और जो अभी ख़ाम थे, जिनके जुनून की मसों को अभी भीगना था, जो जज़्बे के नाख़ुनों को आहनी कर सकते थे वो, वो गिरा पड़ा, कोई पत्री-पत्रा, कांच का टुकड़ा या कंकर ही उठा लेते और सरशारी के एक बेपायाँ एहसास के साथ हाल पर पिल पड़ते और लहू की एक, कम अज़ कम एक लकीर ज़रूर उस पर खींच देते और जब हाल का बदन, इज्तिमाई आर्ट के रेड पीरियड का एक नमूना बन जाता तो... कुछ फ़ासिला दे कर कुछ देर तक वो एक ख़ारिजी मारुज़ी इन्हिमाक से उस नमूने का जायज़ा लिया करते और फिर उसे असनाब क्यूबिक आर्टी हलक़ों में क़ाबिल-ए-क़बूल बनाने के लिए हाल का एक कान काट कर उसके मुँह में घुसेड़ देते और होंट काट कर पेशानी पर सी देते। पीछे एस Praxis , एस रस्म-ओ-अमल के, ग़ज़ाली का ये नज़रिया कार फ़रमा होता कि अह्द-ए-हाज़िर इफ़रात समा-ओ-बसर का शिकार है। इसलिए जहां और जब मुम्किन हो हवास-ए-ख़मसा की कतर ब्योंत करते रहना चाहिए। मिसाल के तौर पर वो कहता: इस तिकोनी बनावट नाक ही को लो। तनफ़्फ़ुस के लिए ये बिलाशुबहा ज़रूरी है गरचे लाबदी और नागुज़ीर नहीं। मगर शामा, इस सूँघने की हिस का क्या तुक, क्या जवाज़, क्या ज़रूरी है ये? ये बेतुक, बिला जवाज़ और ग़ैर ज़रूरी ही नहीं बल्कि मुफ़सिदाना हद तक सीना ज़ोर है। यही तो है जो नाक के वास्ते से पूरे निज़ाम में बलवा कर देती है और मादर ज़ाद अँधों तक को ग़लाज़त के ढेर दिखाई देने लगते हैं और वो उन्हें तलफ़ करने के लिए ऊपरी निचली परतों ही को नहीं ज़मीन आसमान को भी एक करने पर तुल जाते हैं। याद रखो मेरे बच्चो, ग़ज़ाली कहा करता, ये नाक है जो समाज को बदबू देती है। अगर नाक हो तो बदबू भी हो। इसलिए जब और जहां मौक़ा पाओ नाक को काट छांट दो। ये कार-ए-ख़ैर है, तक़्वा है। आख़िरत में अच्छा घर पाने का ज़रिया है।

    एक फ़लक शि्गाफ़ नारे के साथ वो हुजूम हंगामा जो हाल की नाक काटता है और हाल की सवारी की गधी की दुम ज़रा उठा कर लीद उगलती सुर्ख़ी में घुसेड़ देता है और ये सोच कर कि हाल की ये इब्तिला उसके लिए किस क़दर निशात अंगेज़ होगी, उनके मुँह में पानी भरता है और अज़ीयत की लज़्ज़त आगिनी से उनके रौंगटे खड़े हो जाते हैं। ये तन खड़े रौंगटे देखकर हुजूम में शामिल लड़कियां वहीं गर्द आलूद रास्ते पर बैठ जाती हैं और घुटनों को बाज़ुओं में सीने के साथ कस कर सिस्कारियाँ भरती हैं।

    तब उनका बहजत भरा हैजान उछल उछल कर बहता हुआ एक धरती धकेल नारा लगाता और...जब हाल के बहते हुए लहू में उनके दिल काग़ज़ की किश्ती की तरह रवां होते और उनमें से हर एक आपस बालक की तरह मसरूर होता जो पानी में किश्ती छोड़कर उसके साथ साथ आहिस्ता कभी तेज़ चलता, कभी दौड़ता है, हाल के ताज़ा ताज़ा लहू का गर्म जोश बहाव गधी का ख़ाकस्तरी बाना सुर्ख़ कर चुका होता और दुम के साथ साथ बहते हुए जाकर नोक दुम से सानिया सानिया टपकते हुए दुम को भी उसने दुम घड़ी में बदल दिया होता और टांगों के साथ साथ बहते हुए जा कर जिसने गधी के नाख़ुनों को भी आराइश की सुर्ख़ चमक दे दी होती और वह गधी लहू से चमकते अपने नाख़ुनों की ज़ेबाइश देखकर ख़ुश हो ही रही होती कि धरती धकेल नारे के असर से बिदक उठती और उस पर लदी हाल की नीम जानी नीचे पड़ती।

    तुम पूछोगे भतीजे कि जब ये बिप्ता हाल में दाँत गड़ोती है तो देवता कहाँ होते हैं। कहाँ होते हैं वो ख़ुदा जो क्रोनोस को, वक़्त को, अज़ीज़ रखते हैं। इस क़दर अज़ीज़ कि अपने को वक़्त से जुदा नहीं समझते हैं। वक़्त ख़ुदा, ख़ुदा वक़्त। अरे भतीजे देवता तो बरामदों ही में से दुम दबाकर भाग निकले थे। बाक़ी रहा वो जिसे तुम ख़ुदा कहते हो तो... भतीजे उसके किए ज़मीन वीरान और सुनसान है और गहराव के ऊपर अंधेरा है और उसकी रूह पानी की सतह पर जुंबिश करती है यानी मज़े से स्विमिंग। तुम कहोगे ये तो पैदाइश से पहले की बात है। तो भाई ख़ुदा के लिए तो सारे औक़ात ही पैदाइश से पहले की बातें हैं। उसे तो बस अपनी रूह की लताफ़त के साथ गहराव पर पैरना तैरना ही भाता है। हाँ कभी तारीकी ज़्यादा बढ़ी तो कह दिया रोशनी हो जाये। (और क़िस्सा ख़त्म फिर हर किसी का अपना दोज़ख़ अपना बहिश्त) और कह कर फिर तग़ाफ़ुल ख़ुदावंदी से किसी पामाल कायनात के घाव गहराव पर तैरने लगे। इसके लिए मल्टी वर्स की किसी यूनीवर्स की अनगिनत कहकशाओं की एक कहकशां के एक निज़ाम-ए-शमसी के एक सय्यारे के एक नज़्म-उल-अवक़ात की एक गधी से गिरे एक हाल की क्या औक़ात...

    तो वो हाल... किसी ख़ुदा का तुख़मा ख़ाम, क़रनों की शताब्दियों का एक अंश, ज़मानों की ठोकर घददू की उधड़ अड़ घर पड़ी एक धज्जी, किसी साअत की कोख से गिरा कच्चा हमल सानिया...जैसे वक़्त अपनी माला से निकाल दे, ज़माने की धुतकार, औक़ात की फटकार... फाड़ कर फेंक दिए गए कैलिंडर के मुड़े तुड़े वर्क़, गुज़श्ता कैंची खसोटी जंतरी ऐसा उनका हाल, मंडकड़ी मारे वहां पड़ा रहता और जैसा कि हर आँसू, मेले और कार्नीवाल के अंजाम पर होता है। गिरानी ने अब चारों और गिरना और दिलों ने थक कर बुझना शुरू कर दिया होता। मगर ग़ज़ाली के लड़कों और लड़कियों के चेहरे इस ख़याल से गुल गों हो रहे होते कि जब उन्होंने हाल को अपनी दर्सगाह के बरामदों, तजुर्बागाहों और कुतुबख़ानों से बाहर हँकाया था तो वो चंद थे, सरफिरे चंद... जिनकी आवाज़ों के जोश में भी एक ज़ोफ़ होता, जिसकी नर्मी समाअत को ख़ुश आती। मगर जूं जूं हुजूम बढ़ने लगता और उसमें उठती लहरें मौजों में बदलने लगतीं तो मुसम्मम मुदावमत की एक भनभनाहट समाअत के दर पे होने लगती। कहीं ये भनभनाहट भीड़ का बेसाख़्ता क़हक़हा होजाती कहीं ठट्ठा कहीं ढिढोल। फिर अचानक कोई लड़का, कभी-कभार कोई लड़की अपने किसी साथी के कंधे चढ़ती और आवाज़ के ड्रामाई उतार चढ़ाव और हाथों के मुबालग़ा आमेज़ तहलके से ख़िताबत के जौहर दिखाने लगती और जब किताबें, कापियां, पर्स, टोपियां हवा में उछाली जा रही होतीं तो काँधों चढ़ा/ चढ़ी फ़्री फ़ाल मैँ ख़ुद को भीड़ पर गिरने देता कि तब भनभनाहट कहीं होती। सिर्फ़ शोर होता। शूर-ओ-शग़ब, हंगामा हाओ हो, ग़ौग़ा, जिसके बीच आवाज़ों की नव नव तस्वीरें बनती बिगड़ती दिखाई देतीं। कहीं आवाज़ों के पुरशोर पानियों में अब भी सुकूत का एक-आध जज़ीरा दिखाई दे जाता मगर चूँ कि ये ग़ैर फ़ित्री होता, इसलिए सुनते ही सुनते आवाज़ें हलकम डालती आतीं और उस पर हल्ला बोल देतीं। अब तो भतीजे कान पड़ी आवाज़ सुनाई देती। हुल्लड़ हर तरफ़ मच चुका होता। हर तरफ़ ग़ौग़ा, गुल-ओ-ग़श और ग़र्श-ओ-ग़रफ़श का राज होता कि अब इन आवाज़ों की रसाई उस पिच तक होती जहां ये अपने तूल मौज की दर पर आई हर चीज़ पर कपकपी तारी कर सकती थीं। फ़िज़ा की गिरती दीवारों को ज़मीन बोस कर सकती थीं। हवा पर दहश्त तारी कर सकती थीं। यही नहीं भतीजे अब ये आवाज़ें, आवाज़ों की इमकानी सलाहियत और कारीगरी बाबत जितने भी रोज़मर्रा और मुहावरे तुमने सुन रखे हैं उन सबको फ़िल वाक़े वक़ूअ पज़ीर कर सकती थीं। आसमान में थिगली लगा...।फ़लक शि्गाफ़ सकती थीं।

    और एक दिन ठीक यही उन्होंने किया भी। वो बलवाई हुजूम उस रोज़ कुछ यूं शोराई, यूं ग़ौग़ाई हुआ कि उसने आसमान में सुराख़ कर दिया। भतीजे वाक़ई सुराख़। यानी मुहावरे के साथ वो हुआ जो क्या किसी के साथ होगा। बस फिर क्या था। फ़िज़ा के इस हिस्से के अक़ब में वाक़ा चाह हाय फ़िज़ा क़ज़ा में क़रनों से क़ैद बर्छियॉं आज़ादी का जश्न मनाती निकलीं और ज़मीन पर बरस पड़ीं और उन बर्छियों की इस वर्षा में ऐसी पैहम बे रोक शिद्दत थी कि एक घोर पीड़ा हमेशा के लिए धरती के पेड़ू में ठहर गई। फूल मुरझा गए और हर तरह के बूम बुलबुल फ़ाख़्ता घर घरोंदों से गिर गए। पानी रोने लगे और दूसरे पानियों के साथ साथ ता दर ता ज़ेर-ए-आब धारों पर सफ़र करता ये गिर्या बीजी डोल्फ़िन की ओझल पनाह गाहों तक जा पहुंचा। वो तड़प कर सतह-ए-आब आई और उन पैहम बरसती बर्छियों को अपने बदन की सफ़ेद झंडी दिखाकर हमेशा के लिए फिर कभी सतह-ए-आब दिखाई देने के लिए फ़ना के घाट उतर गई।

    जब कि पीछे...जैसा कि हर मेले के अंजाम पर होता है, गिरानी ने चारों ओर गिरना और दिलों ने थक कर बुझना शुरू कर दिया होता। मगर ग़ज़ाली के लड़कों और लड़कियों के चेहरे इस ख़याल से गुल गों हो रहे होते कि जब उन्होंने हाल को अपनी दर्स-गाहों के कोरीडोर्ज़, कुतुबख़ानों और तजुर्बागाहों से बाहर हँका या था तो वो चंद थे। सर फिरे चंद, मगर अब वो हुजूम थे। देस देस , धरम धरम, नसल नसल के रंग रंग हुजूम और कि जब वो हाल का हाँका करने निकले थे तो उनकी राहें गर्द-आलूद थीं और जूते बदरंग। अब सिर्फ़ ये कि गर्द लहू के एहसान तले दब चुकी थी, बहुत सी उन जूतों पर सुर्ख़ पालिश हो गई थी। चमकती हुई, ख़ुश-रंग और लहू और धूल की ये पालिश ऐसी हयात अंगेज़ थी कि उसे पा कर उनके जूते चोंचाल हो गए थे और ऐसी ख़ुशफ़ेली से छप-छप लहू में छींटे उड़ाते थे जैसे हाल का लहू जूतों में दौड़ने लगा हो।

    यूं जब वो लज़्ज़त से गिरा अंबार, जश्न अंजाम हुजूम गिरता पड़ता तकान आमेज़ ठिठोली में एक दोए पे ढेता घरों की राह पर होता तो हाल, उनका हाल, अपने और उनके जिर्यान के लहू को, मुहब्बत से शिकस्ता बाज़ुओं के घेरे में लेकर अपनी तरफ़ समेटने लगता, जूं बह चुके लहू को फिर से नसों में भरने का जतन करता हो।

    हाल की इस बेकसी पर घरों के आरामदेह एलूझ़न को रवाँ-दवाँ शोराई हुजूम की लुत्फ़ जो सितम रानी चमक उठती है और उन में से हर एक, अपने हाल के लहू की पालिश से चमकते अपने जूते की कम-अज़-कम एक ज़रब ज़रूर अपने हाल को रसीद करता है। विदाई ज़रब। फेयर वेल किक। जिसे पा कर उनका हाल हंसते हुए कराहता: बच्चो! मेरे बच्चो! क्यों दर पे हो तुम मेरे। मुझे तो कुछ नहीं चाहिए। मैं गदाए वक़्त हूँ, बंदा-ए-साअत हूँ, बजुज़ सानियों के मुझे कुछ नहीं चाहिए...

    ये कहता और फिर मंडकड़ी मार पड़ जाता... है...गा, उनका हाल।

    एक रोज़ क्या हुआ भतीजे कि जब मैं हाल के इस हाल को देखता था तो मैंने देखा कि एक लड़की ने हाल को वो लज़्ज़त ख़ेज़ अल-विदाई ज़रब रसीद करने से पहले फास्टफूड सा कुछ दाँतों में लिया और बायां बाज़ू हवा में बुलंद कर के नारा ज़न हुई। मगर ख़ुराक का ज़र्रा सांस की नाली में जाने से वो नारा पूरा कर पाई और खांसी के ग़लबे से हरी हो गई। तब हाल ने देखा कि वो कमसिन है और ऐसे हुस्न की मालिक है जिसके हुज़ूर सिर्फ़ मौत शरफ़ क़बूलियत पाती है। उसकी ज़र्दी माइल गेहुवां रंगत में चैत की पहली हरियाली की जोत थी। हाल ने उस जोत ज्वाला से रोशनी और हरारत पाकर कहा: तुम्हें तुम्हारे हरियाले वक़्त की क़सम ख़ूबसूरत लड़ी! मुझे मज़रूब करो। मैं तो वक़्त का फल हूँ। रसीला, ख़ुश ज़ाइक़ा। अपने दह्न-ओ-ज़ह्न को इस से आश्ना करो और मेरे रस को मेरे अपने लहू में आमेज़ होने दो। अजब नहीं कि फिर सितारे तुम्हारे हुज़ूर सिफ़ारतें भेजें और तुम्हारी सब्ज़ा सुनहरी रंग में एक रंग दवाम का मिले। अगर तुमने ये किया तो शजर फ़लक जो ज़मीन पर मौजूद-ओ-मालूम हर फल, ज़ाइक़े और रस का मादर-पिदर है रंज अफ़सोस से लरज़ उठेगा और उससे झड़ कर एक ऐसा बीज ज़मीन की कोख में पड़ेगा कि फिर किसी खेती में सिवाए ज़क़्क़ूम कुछ उगेगा। फिर कय दिन जी पाओगी यहां इस ज़मीन पर। तब तुम्हारे बदन पर जो तब तक इस क़दर करिह हो चुका होगा जिस क़दर कि अब हसीन है, फ़रिश्ते आएँगे और रूह इस तरह खींच निकालेंगे जैसे लोहे की सीख़ को भीगी हुई ऊन से निकाला जाता है। और जब तुम्हारी रूह से बदबूदार मुर्दार की सी बू आती होगी तो वो उसे टाटों में लपेट लेंगे। फिर उसे ले जा कर सुजैन में जो पाताल में है कीलों से ठोंक कर लटका देंगे। इसलिए हुस्न की बैन आयत! तू कि जिस जानिब मौजूदात रफ़्तार नूर से मुतवज्जा इस से पहले कि ज़िश्तरूई तुम्हें ले और मौजूदात-ओ-मख़लूक़ात उस से कहीं ज़्यादा रफ़्तार से तुझसे भागें, मुझसे एअतना करो। साहिब-ए-वजह अब्यज़! तुम्हें किताब की क़सम जिसमें तुम्हारा ज़िक्र है। मुझसे किनारा करो। अब्यज़ को अस्वद होने में देर नहीं... आवाज़ की एक निर्मल लहर को ज़ेर-ए-समाआत छेड़ करते हुए तो ज़रूर उस लड़की ने महसूस किया मगर आह! सांस की नाली और वो शरीर ज़र्रा ख़ुराक ! ख़ुदा ख़ुदा करके खांसी थमी तो एक मुश्कबार नफ़ीस टिशू पर आँखों का पानी लेती हुई वो आगे बढ़ी और बस बढ़ी ही थी कि वक़्त की कराह ने उसे छुआ। बे-इरादा एक उचटती नज़र उसने अक़ब में डाली तो देखा कि उसके एक साथी लड़के ने अधमुए हाल को पेट में एक ज़ोरदार लात रसीद की है और अपने ख़ाक-ओ-ख़ून में ग़लतां हाथ जोड़ते हुए, हाल मिन्नत ज़ारी कहता है: नहीं प्यारे बच्चे! मुझसे ये करो। ख़ुद से ये करो। ये करोगे तो कैसे बचोगे, उस दिन से जो तुम पर दफ़्अतन पड़ेगा। मैं वक़्त का मलबूस वक़्त की खाल हूँ। मुझे खींच लोगे तो कैफ़ तत्तक़ून...कैसे बचोगे उस दिन से जब बच्चे बूढ़े हो जाऐंगे। लड़के ने मगर एक सुनी, मुँह से लगा कोक केन ख़ाली किया और तबख़्तुर की एक शान ग़लत-अंदाज़ से एक तरफ़ उछाल दिया फिर ज़रब में ज़ोर भरने के लिए ज़रूरी फ़ासिला क़ायम करने के लिए वो पीछे हटा था, जब लड़की ने चाहा कि उसे रोके। मगर हाल तो, जो ख़ुद अपने लिए लड़की का मददगार होता, लहू में नहाया अपने घाव मिट्टी से भरता था। सो उमड़ती हुई एक ख़लक़त उस लड़के को उकसाती हुई और बेहंगम-ओ-हंगाम हो कर लड़की को बहा ले गई।

    मगर ये कैसी आवाज़ थी जो ज़ेर-ए-समाआत से उठकर उसके गोश-ए-नाज़ुक की मुतलाशी थी...

    तू कि आलम-ए-बाला पर तेरी तमजीद! किसी अज़ली कलमे का दाइमी ज़हूर! मुझसे हमकलाम हो। मेरी ढारस बंधाओ। तुमसे उम्मीद का तमन्नाई मैं तुम्हारा हाल हूँ। कि सपेदा-ए-सहरी की तुझसे नमूद बह्र-ए-तारीक के किनारों से पलट आ। कि हुस्न-ए-अज़ल के सामेआ से तेरे सामेआ की तख़लीक़! क्यों इस सामेआ को तूने बेहंगम शोर के इख़्तियार में दे दिया। देवदासी कि जिसे देखने को वरनासी के क़ुर्ब में बहते पानी भोर समय मंदिरों से पर फोड़ते हैं...और पानियों के आँसू किस ने देखे हैं...सिर्फ़ एक बात उन पानियों को आईना कर लो ताकि आईना हाय मासिवा शिकस्त हो सकें। जानती हो ख़ूबसूरत लड़की! मैं खैरुलक़रून की लड़ी में पिरोया एक मोती हूँ। तुमने मुझे अपने ना मसऊद वक़्त से मुंसलिक संग-ए-ख़ार से भी कम जाना और ठोकरों पे रख लिया। अह्ल-ए-दुनिया क्यों?

    मेरे रग-ओ-पै में, मेरी खाल के नीचे एक दाइमी चराग़ जलता है जिसकी टिमटिमाहट का इशारा पा कर ही मुस्तक़बिल ख़ुद को मुनकशिफ़ करता है और देखते ही देखते ज़माना नवेद-ए-नव और निशात के नूर से भर जाता है। वगर ना...वगर ना, अह्ल-ए-तमाशा ! एक परिंदा कुरलाता है। क़रनों से ग्रैंड केनेन जिसके अज्दाद का घर है , वो एक परिंदा कुरलाया है।

    अह्ल-ए-ज़माना इस कुरलाट को सरदार सैफ़ुल की कूक में आमेज़ होते सुनो। मिस्टर प्रेज़िडेंट! धरती का चप्पा चप्पा मेरे लोगों के मंदिर है और सुनो ही नहीं देखो भी कि कुर्रा-ए-अब्रू बाद को लपेट में लेती ये कुरलाट कैसे बाबुल-ओ-नैनवा में दम ब-ख़ुद है, क्योंकि क़रनों पहले पूरे चांद की एक रात को यहां जब कि हवा धीरे धीरे पानियों पर बहती थी एक मछली ने एक पैग़ंबर को कनार-ए-आब उगल दिया था और दर्द-ए-जुदाई से रोती हुई अपने पानियों को लौट गई थी। तब से आज तक वहां के आब बाद, शजर हजर, जन-ओ-अनस उस लम्हे की याद के आलम-ए-तहय्युर में हैं और अह्ल-ए-ज़माना! सुनो! अलवाह ख़ाक पर लिखा गया कि पूरे चांद की रातों में आज भी वो पैग़ंबर अपने अर्फ़ा मर्क़द से ज़ीना ज़ीना चांदनी पर पांव धरते इसी कनार-ए-आब आते हैं और जब हवा उनके साधे हुए दम में शामिल होने के लिए बेकल होती है तो उसी मछली की पुश्त में चली आती कोई कोई मछली भी किसी लहर में से सर निकाल कर उन तक़द्दुस-ए-मआब को देखती है और जब वो दोनों... सिर्फ़ उन दोनों को ख़ास मंतिक़ा-ए-लिसान में एक दूए से कुछ कहते हैं तो चांदनी और चांदी ऐसे पानी भरे अमन और राहत के चंद और दिन दुनिया के बख़्त में लिख दिए जाते हैं।

    जमीला ! बता क्यों तूने इन अलवाह को नोक पा पोश रख लिया जिन पर मछली और पैग़ंबर की कहानी कुंदा थी और अनगिनत दीगर अलवाह जिन पर शाइरों और क़िस्सागरों ने हैरत सरा-ए-दहर की कितनी ही हिकायात कुंदा करके पहले उन्हें दिल के ख़ून से रंगीन किया फिर जिगर की आग में पकाया। जब वो तड़ख़ती टूटती अलवाह भारी एड़ियों तले पिस्ती थीं, क्या तू ने क़िस्सागरों शाइरों का दिल टूटने की सदाएँ सुनीं? नहीं सुनी होंगी कि ऐसी सदाएँ अपने लिए कुछ ख़ास समाअतें इंतिख़ाब करती हैं। फिर भी, मैं कि नौबत नौबत तुम्हारे लिए दिल ख़ून करता हूँ मुझे गोश शुनवा दो। मेरी सुनो! मैं आइन्दा का मुनाद हूँ, सुनो तो मौत हूँ। मगर क्रन्थियो ! लहू रोती मेरी आँखों पे जाना और मेरे शिकस्ता आज़ा पर कि मेरा लश्कर तो लम्हे हैं। कभी शिकस्त ख़ुर्दा कि मैं तोड़ भी दिया जाऊं तो भी दस्त ख़ुदावंदी हूँ। ख़ुदावंद हूँ और जैसा कि पुलिस रसूल पहले ही तुम्हें लिख चुका है। ख़ुदावंद का नाम मुहकम ब्रज है और ख़ुदा की कमज़ोरी आदमियों के ज़ोर से ज़्यादा ज़ोर आवर है।

    सुनते हो, समझते हो तुम कुछ? मगर क्या तुम्हारा सुनना और क्या समझना कि कभी जब जितनी समझ भी लेते हो कुछ तो जब तक नासमझी कर लो, कल नहीं पड़ती तुम्हें। तुम मुझे उतना ही सुनते उतना ही समझते हो जितना तुम्हारे जूं का तूं को जूं का तूं रखे। अगर मुझे तुम पूरा पा लो, तो तुम्हें अपने आब-ओ-बाद, असातीर, अदयान और अर्ज़ तूल बलद सब बदलना पड़ें और ऐसा करने के लिए तुम्हें अपने कोकून से निकलना पड़ेगा। जो...क्यों चाहोगे तुम उस से निकलना और फ़िल अस्ल मेरी अस्ल पाने के लिए भी तुम्हें अपने फ़िर्दोसी लछों से निकलना पड़ेगा...क्योंकि मेरी लिसानियात का पैराईआ इज़हार, उस्लूब और ब्यानिया, क्वांटम ला अदरियत और तशक्कुक, सिरी स्ट्रिंग थ्योरी की गू ना गूं ग्यारह जह्ती कसीर-उल-क़लीम बूक़लमूनी का महज़ एक ग़मज़ा, सिर्फ़ एक इशवा, बस एक अदा है। जो अक्स कि तुम्हारी अबजद है उसकी असल मैं हूँ।

    तुम्हारी अबजद जैसे हुरूफ़ पर मुश्तमिल है मेरी अबजद बेअंत अबजदों पर मुश्तमिल है। मेरी एक अबजद के हुरूफ़ तमाम नबातात हैं तो दूसरी के तमाम जमादात, एक के हैवानात हैं तो दूसरी के चरिंदे और परिंदे...एक के तमाम लोगों की तमाम असातीर के तमाम हुरूफ़ तो दूसरी के तमाम इल्हामी किताबों के तमाम हुरूफ़, एक के तमाम साहिलों की तमाम रेत के तमाम ज़र्रात तो दूसरी के तमाम कहकशाओं के तमाम सितारे। एक अबजद में सारे कांटे हैं तो दूसरी में सारे कंकर। उसके साथ साथ तुम्हारी अबजद अगर हुरूफ़ पर तो मेरी अस्मा-ए-अफ़आल, कलमात, महाकात और तसव्वुरात, तसावीर, मुजस्समों, नुक़ूश और मनाज़िर पर मब्नी है। कभी कई सफ़हात पर फैला एक जुमला मेरा एक हर्फ़ होता है कभी पूरी एक पुस्तक एक हर्फ़। मेरा एक हर्फ़ ग़ालिब है एक शेक्सपियर। एक बेदिल एक बैकट। एक मीर एक मंटो। एक फ़ैज़ी एक ज्वायस और एक उसकी किताब यूलिसिस। एक मेरा हर्फ़ दोस्तोफ्स्की है तो एक उसकी तमाम तसानीफ़ और फ़िल-अस्ल मेरे मसौते भी यही तसानीफ़ हैं और मुसम्मते भी। यही मेरी सौतियात यही मेरी नह्वियात और मानियात और यही मेरी फ़ाइल, फ़ेअल, इस्म और ख़बर हैं। मिसाल के तौर पर फ़ाइल अगर कार्ल मार्क्स हो फ़ेअल ऐडवर्ड मंच की दी स्क्रीम और ख़बर सार्त्र तो फ़ेअल हाल मुतलक़ का दूसरा जुमला दूसरा पैरा डाइम दूसरा जहां तशकील पाता है और फ़ाइल अगर आइन्स्टाइन हो फ़ेअल एक बार फिर ऐडवर्ड मंच का चीख़ना, कि चीख़ना फ़ेअल हाल मुतलक़ के हर जुमले का फ़ेअल है और ख़बर स्टीफ़िन हॉकिंग तो तीसरा जुमला तीसरा पैराडाइम तीसरा जहां...और ये तीनों अगर ज़म हो के हम एक जुमले की तशकील के लिए फ़ाइल फ़ेअल और ख़बर बुनते रहने के अमल और रद्द-ए-अमल, थीसिज़, ऐन्टी थीसिज़, सेनथीसिज़, ऐन्टी सेनथीसिज़ के ज़ंजीरी तआमुल में मसरूफ़-ओ-मुलव्वस हो जाएं तो जुमलों और जहानों का जो लामतनाही सिलसिला शुरू होगा फ़िल-अस्ल वो ही प्रेजेंट इंडेफिनिट टेंस/ फ़ेअल हाल मुतलक़ का असासी जुमला होगा। तो जमाल-ए-जहाँ आरा! देखो कैसे लहू ने मिट्टी को गूँध कर एक लौह की शक्ल दे दी है उस पर देखो। मैंने कैसे बड़े बड़े हरूफों मैं तुमको अपने हाथ से लिखा है। सर ता नोक पा रूह! रूह भी क्या रूह को घायल करती है? जब कि सारा मसला रूह को माद्दे में मुनक़लिब करना हो। मुजस्सम ख़ूबी कि जिसकी ज़ीनत, दार की सदाबहार टहनी से की गई है...ए सदा सुहागन कुँवारी! किसी शब मुझ पर उर्यां हो। काश कोई शब मेरा ख़याल तुझे शहवानी हो। ज़रखेज़ गुल अज़ार मुझे सेज तक आने दे कि अब मेरी ईस्तादगी मुझे कर्ब है। तुझे ख़ुदाए ईस्तादगी की क़सम, मुझे आने दे। अहबाब-ओ-सहाब सूँ बे-एतिबार-ओ-नासतवार मेरी और मेरे बच्चों की माँ! कभी ताज़ा हल चले खेतों की नर्म मिट्टी पर और कभी ताज़ा चुने सुर्ख़ अंगूरों के ढेर पर पूरा एक मौसम मुझे मशग़ूल होने दो... यूं कि हमारे मजनूं बोझ तले अंगूर रस छोड़ दें और जब तुम्हारे अन्दर हमारे रस ममज़ोज होते हों तो ऊंचे चोबीनांद अरग़वानी मय से लबरेज़ हो चुके हों और...

    बाला नशीन! कि जिसके झरोके के पानी काट कर और दरीचे हवा को ठहरा कर तख़लीक़ किए गए हैं जिसके पांव छू लेने को ऊद-ओ- लोबान पस्तियां ढूंडते हैं! किसी रोज़ अपने अंबरीं बुर्ज आज से मेरी तारीक कुटिया में उतर और बहार का एक पूरा मौसम मेरे साथ गुज़ार ...शायद हम एक ऐसे मौसम को जन्म दे पाएं जो इस जहान पर पहले कभी गुज़रा हो।

    मगर वहां कोई होता जो उस की सुनता!

    शाम का एक चटियल मैदान। किनारों पर वुसअत पज़ीर और कुछ दूर पड़े शहर की दहलीज़ों, दर्सगाहों, चूल्हे-चौकों दस्तरख़्वानों और चारपाइयों पर...दम-ब-ख़ुद...एक झुटपुटा और इन दोनों के हाथों से चोर की तरह निकलता अंधेरा। नौबत नौबत सू सू क़र्या बढ़ता। उनके खेतों में बीज की जगह पड़ता। फिर खलियानों, पानी के सर चश्मों और मवेशियों के थनों में फूंक फूंक उतरता। फिर पहाड़ी चोटियों पर चढ़ कर बर्फ़ चबाता और हर चाब पर दरियाओं को मैदानों में दर्द से फुंकारते सुनता। वो अंधेरा।

    काश वो लड़की ही सुनती! मगर कोई ठिकाना था उसका, अर्ज़ी आब-ओ-आतिश और हब्स-ओ-बाद में हर ठिकाना जिसका ठिकाना था। और यहां इससे उर्यां होने की आरज़ू में उसका बदन जलता था। उस हरजाई के हज़ार भाव थे और हर भाव में एक चरित्र। हर चरित्र में एक हिस्ट और हर हिस्ट में फिर भाव फिर चरित्र।

    वो उसके पीछे लपकता तो वो अपनी खाट उठाती और समुंदर की तह में जा बिछाती। वो तह को जा छूता तो वो खाट से फिसल कर मूंगा चटानों के मुसामों में जा छुपती और सखी सहेलियों को साथ मिला कर आबी नफ़ीरियों पर ऐसे स्याल राग छेड़ देती जो दिल को जगह जगह से चीर देते और जब सुंदर उसके गिर्या-ओ-ज़ारी के शाकी होते तो आबी तहों के साथ साथ बहर बहर सफ़र करती वो किसी रकाज़ी आर्काइव्स में जा निकलती और कोई कह सकता कि वो क्या हुई कहाँ गई। फ़िल अस्ल किसी ट्राई लव बाईट की सूरत मुतहज्जिर हो चुकी होती। वो लड़की। यूं जैसे हमेशा से ऐसी ही थी। मुतहज्जिर। रकाज़। फॉसिल और रहती वो यूँ ही। बरसों। जब तक कि हाल के उसके लिए नौहा सलाम से सारे के सारे रकाज़ी दूर बयक वक़्त गूंज उठते। तब वो अपनी रकाज़ी पिनहांगाह से निकलती और फ़ित्रत का दिया बेशक़ीमत लिबास ज़ेब-ए-तन कर के निपट ठस्से से उस के आगे ज़हूर करती। निपट सुंदर, निपट कठोर। बाल बाल गाली बंधी कि क्यों मुझे चैन नहीं लेने देते एक जगह एक पल एक छन और फिर चल देती। मुँह से आग-झाग छोड़ती किसी ऐसी ओर...जिसका ओर छोर।

    मगर हाल को सब मालूम होता। इस जफ़ा पेशा का उसने कुछ यूं तआक़ुब किया था कि अब उसे सब मालूम था कि मौसम-ए-सरमा वो इब्तदाए वक़्त की पहली साअत में वाक़े अपने सरमा महल में गुज़ारती और जब सर्दियां गुज़र जातीं तो बेच पड़ता हिग्ज़ बोसन (Higgsboson) नामी एक ज़र्रा उलांग कर वो गर्मा के लिए गर्मा महल में चली जाती...

    रियल से वर्चुअल से रियल से अनरियल से बईद-उल-फ़हम से सरीअ-उल-फ़हम से इख़फ़ा से इफ़शा से अलामत से इस्तिआरा से मजाज़ मुर्सल से मतन से बैन-उल-मतन से निशान से तिमसाल से तारबख़ीत से तशकील से रदतशकील से अलाप से महर खंड के एक दो से तीन से छः से गले की बिसात पर चालें चलती तनाही से हलमपत से लातना ही से रियाज़ी से द्रुत में सर के बहलावे से...ले के हलकोरे से ध्रुपद के तंतना से ख़्याल की तमकेनत में वो डाल डाल किसी चिड़िया की तरह फुदका करती। मगर इस फुदकने के लिए उसे वक़्त दरकार ना होता। वक़्त को जल देना दरकार होता।

    यूं हाल को हमेशा उस के और अपने बीच कोई छलबल कोई जल जादू बरसर-ए-कार दिखाई देता। मगर कभी-कभार एक लम्हा तरफ़ा, कोई तरोफ़ा सा तरफ़ा, ऐसा भी आता है कि इस की सारी क़िला बंदीयां रेत की ढेरी साबित होती हैं। इस की एक नहीं चलती और इस की महल सराएं हाल की जुफ़्त तलबी से गूंज उठती हैं।।।। इस के क़र्रोफ़र का सारा लहौर नचड़ कर उस के पेड़ू में आजाता है और वो पीली पड़जाती है। सरसों ज़र्द और जब ज़बत ख़ाहिश से इस की हड्डियां पहले चटख़्ने फिर पिघलने लगतीं तो।।।। बड़े जतिन से ख़ुद को इन्हिदाम नहानी से बचाती, काँपती वो।।।।अपने समीं शह-नशीनों से उठती, आमादगी से यूं भरी कि कोई सुखी सहेली कनीज़ बांदी उसे रोक ना पाती।।। और भारी नकलई फाटकों और उनके दरबानों को ख़ातिर में ना लाती हाँफती होंकती वो बादिक़्क़त किसी बुलंद, सख़्ता, सागवानी मदख़ल के सहारे खड़ी हो जाती और जब उस के आतिशीं गेसू किसी दुम-दार सितारे के साथ अड़े जा रहे होते और मादा-ए-तारीक उस के चशम ख़िशम नाक का कुहल होता और गालियों की अंबर हाल तक पहुंच रहा होता तो यूं बुरा फ़रोख़्ता जूं ख़ुदावंद की सांस गंधक के सेलाब की मानिंद उस को सुलगाती (यसईआह) हो, वो एक गुलाबी बालाए लब लाकर, बाख़बरी की कज-अदाई से पूछती है: क्या चाहते हो तुम।।।।

    हाल भला क्या कहता और क्यों कहता कि इस की आरज़ू तो काम कर ही चुकी होती।।।। वर्ना वो कहता कि ज़हर फ़रोश दर्द की बयो पारण! मेरे रह वार से क़ता रहमी ना करो। बस एक-बार उसे अपनी घास में दीवाना-वार दौड़ लेने दो। सो वो ख़ामोश रहता और उम्मीद-ओ-बीम भरी दिलचस्पी के साथ पानी आरज़ू को इस की उथल पुथल साँसों में और जोबन पर मुताम्मिल देखता रहता। तब इस देदो बाज़ दीद ही में कहीं वो जान जाता कि तमाम सुमई बस्री लमसी और शामई अलोझ़न उस के दरपे हैं। वर्ना क्यों, जब वो ये देख सन सोच सूंघ रहा होता कि अपने बदनी मस से सागोनी फाटकों में आग भड़का कर इज़ार बिन्दकी ग्रहों से लड़ती पड़ती वो अभी उस के नीचे पड़े गी।वो उस की आँख में पड़ती और फिर इस से पहले कि वो आँख बंद करे वो आँख से निकल किसी बाफ़्त या ख़लीए में बिराज भी चुकी होती। एक स्याल ख़लीए की एक थैली में डुबकी लगा कर वो दूसरी में जा निकलती।।।। और जब मिलियनों मिलियन डुबकियां लगा चुकती तो।।।। अपने बदन की पोशीदगी में से क्रोध कटार निकाल कर ख़लीयों के बख़िये उधेड़ने लगती।।।। और यूं हासिल एकड़ों पर मुश्तमिल झिल्लियों को बाहर निकाल कर एक ग़ालीचे की शक्ल दे देती और इस पर सवार हो कर अर्ज़-ओ-समा और वक़्त लावक़त की सैर को निकल जाती।।।।

    हाल का बदन।।। इस लड़की का उड़न क़ालीन।

    तो वो क्यों सुनती!

    क्या पड़ी थी सुनने की उसे जो अपने लिए मुश्ताक़ आँख को सॉकॅट से सर्जीकल सफ़ाई से निकाल कर पहले तो एहतिमाम से चीनी की बेशक़ीमत तश्तरी में सजाये फिर इस में आँखें डाल कर हुक्म दे: देखो मुझे अब।।। क्या पड़ी थी सुनने की उसे जो अपने लिए धड़कते दल के गिर्ये नारसाई से भड़क कर दनदनाती दिल में जा कर खटाक से किवाड़ बंद करे और फिर तैश से बढ़ आए नाख़ूनों से दीवार दिल पे हुक्म लिखे: अब धड़को और दिल अगर अपनी धड़कन में सच्चा और समीम हो और यक लमही मकर नींद के बाद फ़ी अलवा कई धड़क उठे तो।।।। अज़बस ब्रहम हो कर जो हसीना उसे नोच कर पहले मुट्ठी मुट्ठी भींचे, फिर दाँत कचकचाती हथेलियों के बीच रगड़े मसले।।। फिर नीचे पटख़ कर तलवे एड़ी तले पैसे।।। पीसती हैता देरता आँ कि हाल का वो दिल मुहीन-ओ-लतीफ़ वर्क़ लहम हो कर रक़्स गाह के फ़र्श की सूरत उस के क़दमों में बिछ जाये।। और जब इस ताज्जुबख़ेज़ फ़र्श रक़्स पर एक ज़माना गुज़र जाने पर वो पाकोबी, तांडव नाच के द्रुत में ढल चुकी हो और दिल-ए-पर ढाई अपने ख़राबी से मुतमइन जब वो रक़ासा पांव रोक लेने को हो तो दिल बोले: टाँडो छोड़ना टांगो नाच।। मुझ संग एक-बार।।।बस एक रात। पर टाँडो सुनने दे तो सुने वो इन सुनती!

    तो कोई और ही सुनता! इस जम्म-ए-ग़फ़ीर के रंग रंग के देस धर्मियों में से ही कोई।।। कोई तो सुनता! मगर कौन? और क्यों? कि बेशतर वो मर्द वज़न तो अपनी अपनी बेदिली, फ़ुतूर या फ़म मादा, बेज़ारी या ताल्लुक़ की हर आलाईश से पाक ख़ालिस लाताल्लुक़ी के मारे बाँधे, या कर्ज फ़ाक़ा बहलाने या महिज़ अपनी बे-कैफ़ ज़िंदगीयों को दिलचस्पी की चंद घड़ियाँ तोहफ़ा करने के लिए सिकुड़ा या बढ़ा जिगर थामे यहां तलबा तालिबात के खेल का हिस्सा।।। क्यों कि बह हरहाल, यहां रोज़ाना की बुनियाद पर खेला जाने वाला खेल रूमी उखाड़ों में खेले गए खेलों से दिलचस्पी में किसी तौर कम ना था।

    तो वो क्यों सुनते!उनमें से कोई क्यों सुनता! दिन-भर की बाछें खिलाती, टोकरों हज़-ओ-मुसर्रत लुटाती तफ़रीह के बाद।।।। आनंद भरे आराम से मुतमइन, आसूदा, मतबख़ की तरफ़ पूरा मुँह खोल कर वो जमाहियों के दरमयान पूछते: और कितनी देर है।।।।

    फिर अपने इस्तिफ़सार को ओं आँ ईं ईं गठ गाँगी गी में बदल जाने देते हुए वो मतबख़ से आती आवाज़ों को अलाइम-ओ-तमसालात में ढाल कर दिल में उतार लेते, फिर खाने की मेज़ पर पड़ी छोटी बड़ी चीज़ों की मदद से उन अलाइम को तोड़ते खोलते हुए वो दाइमी तौर पर उलझे तज़कीरी तानीसी आज़ा के साथ संग-बस्ता हो जाते।।।।

    और मतबख़ में मसाला भौंती तज़कीरो तानीस तक मेज़ पर से उठती आवाज़ों के अलाइम की गिरह-कुशाई बह ख़ूबी पहुंच रही होने के सबब देगची में मसाले के साथ साथ अलाइम-ओ-तमसालात भी भुन रहे होते, ता आँ कि।।। वो तज़कीर-ओ-तानीस अगर अपनी आग में जल ना उठे तो अपनी भीग से लड़खड़ा ज़रूर जाये जब कि सीधे हाथ पर धरी रकाबी में लहू में तर एक पारचा-ए-लहम को गर्दिश ख़ून की याद थरथरा रही हो और फ़िल-अस्ल ये थरथराहट इस ज़िंदा जानवर की , ऐन सेहत मंदी की हालत में खड़े खड़े काट लिए गए। अपने गोश्त के लिए पुकार का जवाब हो। फिर ये पारचा काट कर ज़ख़म भद्दे पन से सी दिया गया हो ख़ाह मिट्टी या घास फूंस से भर दिया गया हो और वो ज़िंदा हैवान काँपती टांगों बुलबुला कर और ये पारचा थरथरा कर एक दूसरे को दर्द-ए-जुदाई तरसील करते रहे हूँ तो करते रहे हूँ। तो ख़ाब गाही ख़यालों में ग़लतां वो मर्द वज़न। पारचा लहम के साथ मसरूफ़ या उस के मुंतज़िर, हाल की किया और क्यों सुनें!

    और उनकी औलादें। ग़ज़ाली के तलबा-ओ-तालिबात हाल के साथ अच्छी झड़प के बाद वो घुटने पेट में दीए अध खुले मुँह के साथ ख़ाब-ए-ख़रगोश में थे।।।। ग़ैर अग़्लब नहीं कि दिन-भर की हक़ीक़त को ख़ाब में हक़ीक़त कर के वो लुतफ़, तफ़रीह पिकनिक और मुहिम जोई से ममलूहस दिन को फिर से जी रहे हूँ और ये ग़ज़ाली के फ़ी अलवा कई/अनजीनरड/ विरचूयल माज़ी में जा कर जी आने से ज़्यादा नशात-अंगेज़ हो क्यों कि आप-बीती ख़ुश गेती को ख़ाब गेती करके जीना ही फ़िल-अस्ल हमेश्गी के बहिश्तों में जी आता है और ये भी ग़ैर अग़्लब नहीं कि इन बहिश्तों को क़बल अज़ आख़िरत जी लेने के लिए और उनमें अपने क़ियाम को दाइमी तौर पर यक़ीनी बनाने के लिए ही वो आख़िरत क़बल अज़ आख़िरत के तसव्वुर को हक़ीक़त में बदलने के लिए, किसी दूसरे वक़्त दूसरी जगह, हाल के साथ एक और झड़प के लिए ख़ुद को तैयार करते हूँ।

    मगर मुझे एतराफ़ करने दो भतीजे।।। कि में नहीं जानता कि फे़अल हाल मुतलक़ बारे बात किस फे़अल में की जाये

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