गौरी हो गौरी
स्टोरीलाइन
यह इंसान और जानवरों के बीच एक मोहब्बत भरे रिश्ते की कहानी है। गौरी नामक गाय शिविर से अपनी गाँव लौटती है और बाढ़ में फँसी अपनी मालिक की बेटी को बचाती है। इसके बाद वह अपने बछड़े के पास जाती है और गौरी की पीठ पर बैठी लड़की बछड़े का रस्सा खोलकर उसे भी बचा लेती है।
चौमासा की अंधियारी रात थी। भीगी भीगी ठंडी हवा चलती थी। झींगुरों ने झंकार मचा रखी थी। मेंडक बोल रहे थे, टर-टर, टर, पीपल के सूखे डिगाले पर उल्लू कहता था, हुकहू हुकहू।
बसंती ने करवट ली। फिर मुँह पर थप्पड़ मारा, बोली, हाय रे। अरे राम कैसे डांस लागें।
पीपल पर उल्लू बोला, हुकहू हुकहू...
छः महीने का बच्चा पास लेटा था। उस पर हाथ रख लिया और बसंती बोली, मरी जाए, फिर आए बैठा। बोलत कैसे नास पीटा।
हुकहू हुकहू।
अजी, ओजी। अजी, ओजी। उठो ना, घुग्गू बोले। सोहे डर लागे।
माधव ने उसका हाथ झटका, बोला, सोन दे री, अरी ना खाए ले तोहे।
उठो जी उठो, मोहे डर लागे। तनी उड़ाए दे, ओंहो।
माधव, अध से तोरा डर। कहता हुआ आँखें मलता हुआ उठा। खटिया से नीचे पैर लटकाया। जल्दी से फिर ऊपर खींच लिया। घबरा कर फिर नीचे देखा। फिर इधर उधर देखा। छोटा सा कच्चा घर था, फूटी चिमनी की धुएँ से काली लालटेन थी। धीमी रोशनी में आँगन भर झल झला रहा था। घर भर में पानी भरा था।
माधव बोला, जुआ हुआ रे!
बसंती घबराकर उठी। बोली, अजी देखत का हो। हरे राम, भीका को जगा लो! अरे रमकलिया को जगा लो। अरी, ओ रमकलिया... सोए जात रे। अरे उठ, उठ ओ भीका।
आठ बरस की दुबली पतली रमकलिया जागी। छः बरस का भीका जागा। दूध पीता पास लेटा बच्चा जागा। ये रोया, वो चिल्लाए, अरी मइया री। मोहे लिए ले बापू रे। अरी मइया री।
ची करो चुप। माधव ने डाँटा। ख़ामोशी में माधव ने कान लगाए। बसंती ने ध्यान दिया। दूर कहीं से आवाज़ आ रही थी। गड़प शल शल शल। गड़प। शल शल शल।
घुग्गू बोला, हुक हू।
बसंती रोती हुई चिल्लाई, अरे प्रीतम भय्या आई गई। अरे मोरे बच्चे की जोरे।
खटोले से कूद। पानी में छप छपाते बच्चे माँ से चिमटे। माधो उठा, देखने को दरवाज़े की तरफ़ चला। बसंती रोई, अजी जावत कहाँ हो जी।
बाहर से आवाज़ आई, माधव भय्या हो। ओ माधव, अरे बाढ़ आई, उठ रे उठ।
शड़प, गड़प, शल शल शल। पानी के बहने की आवाज़ तेज़ी से बढ़ रही थी।
मम मम, में। बकरी बोली। माँ, हाँ आँ। कहीं गय्याँ चिल्ला रही थीं। बारह घर के गुजर पर्दे में हलचल मच गई। सब जाग उठे, सब भागने लगे। कोई पुकारता था, कोई चिल्लाता था, कोई रोता था।
माधव ने रमकलिया को कोठे की सीढ़ियों पर खड़ा कर दिया। भीका को गोद में लिया और सामान रखने और उठाने में लग गया। बसंती ने गोद वाली लड़की को दबाए दबाए चून की मक्की उठाई। तैरती हंडिया पकड़ी। मटका कतराया हुआ परे से निकला जाता था, उसे पैर से रोका। खटिया ने सर हिलाया। फिर वो भी घूमी, दरी, पछोरा, खत्री सब कुछ उस पर था। लो वो भी चली।
घर के बाहर आदमी और जानवर चिल्ला रहे थे। घर के अन्दर रमकलिया और भीका रो रहे थे। पानी का शोर अन्दर और बाहर सब जगह था। बसंती और माधव घर के सामान में लगे थे। शोर हुआ, भागो भागो। ओ बसंती निकल, अरे माधव भाग।
पानी ने हिचकोला लिया। पिंडली से उचका, रानों तक आया।
भागो भागो, माधव बईआ भागो रे। अरे का होए गया। निकलत काहे नाहीं। बाहर से आवाज़ें आईं। पानी फिर हिचकोला लिया, आगे बढ़ा। पीछे हटा और रान से कमर तक आया।
बसंती रोई, अरे मोरे गड़वे, अरे मोरी हँसली तो निकाल ले रे।
चल चल तू चल निकल, मैं लाया। अरे नून चून तो लिये लूं। उड़ाना पछोरा तो दबाए लूं।
पानी का शोर था। चार आदमियों का चिल्लाना था, दरवाज़े पर धक्के थे, वो खुल गया। आदमी घर में आ गए। माधव और बसंती को पकड़ कर घसीटा।
चा लो, चा लो। सब छोड़ दो जान ही बचाए लो। चालो, चालो।
इस गड़-बड़ में, जल्दी में, घबराहट में, अंधेरे में दरी, पछोरे कपड़ों के लिए पुकारती, नाच और नाज की किठयों के लिए पुकारती। बर्तनों और ज़ेवरों के लिए फड़कती बसंती ने ये भी कहा, भय्या रे रमकलिया को ले लो रे। लालटेन डूब चुकी थी। अंधेरे में किसी ने जवाब दिया, मों उठा रे लूँ। तू तो चल। अरी निकस बाहरे।
पानी की शल शल, रात अँधेरी। बादल की गरज, बिजली की चमक, कमर कमर, सीने सीने पानी में बीस-तीस आदमी, पचास-साठ मवेशी चले। हर आदमी बोल रहा था। हर जानवर चिल्ला रहा था। कोई गिरता था, दूसरा सँभालता था। कोई डूबता था, दूसरा भारता था, शुरू’ में तो सब जत्था बनाए एक दूसरे को सँभालते पर्दे से बाहर चले। आमों के बाग़ के अन्दर से हो कर पवन मेल के फ़ासले पर दूर रेल की ऊँची पटरी का रुख़ किया था। लेकिन जूँ-जूँ आगे बढ़ते गए अंधेरे में एक दूसरे से अलग होते गए।
माधव और बसंती एक दूसरे को पकड़े हुए थे। दूध पीती लड़की और भीका उनके साथ थे। रमकलिया को जी किसी ने कोठे के ज़ीने पर से उठा लिया था उनको उस का इत्मीनान था। मगर माधव को अपनी गाय और चार बैलों की फ़िक्र थी जो कि गाँव से बाहर कुएँ के पास बंगलिया पर उसके साले के साथ रहते थे। बसंती को ढोरों की इतनी फ़िक्र न थी। अब वो अपने भाई के लिए बेताब थी। उधर तो वो अकेला ही रहता है। न जाने जागा कि नाहीं। का जाने आया कि नाहीं। माधव ने गिरती हुई जोरू को सँभालते हुए दुहराया, कोऊ जाने जागा कि नाहीं, का जाने बरवै खोले कि नाहीं।
अँधेरी रात थी। हाथ को हाथ दिखाई न देता था। पानी कमर और कमर से ऊँचा था। साथी सब बिछड़ कर अलग हो गए थे। इधर-उधर, दूर और नज़्दीक आवाज़ें उनकी आ रही थीं।
जानकी हो जानकी।
आरे रहूं दादा।
मुरली रे मुरली।
भला रे भला, चाले चालो।
माधव भी बार-बार साले को पुकारता था। नागा ओ नागा। और जवाब न आता था। अब पानी में शोर के साथ ज़ोर भी बढ़ा। किसी ने अंधेरे में पुकार कर कहा, लेन के लगे नरिया है नरिया। कोई बोला, सँभले सँभले निकले चालो। किसी ने कहा, डरते रहो भय्या, डटे रहना भय्या, आ गई लेन।
एक दफ़ा’ अंधेरे में नागा की आवाज़ आई, माधव भय्या हो। कोऊ माधव भय्या देखो?
किसी ने जवाब दिया, बड़ा दिखवय्या । हाथ लो तो लौकत नाहीं।
माधवन ने जल्दी से पुकार कर जवाब दिया, भली है भली, आत हूँ। बरदे ले आया रे?
नागा चिल्लाया, बसंती िकत्ते बोलत नाहीं!
अरे है रे मोरे साथ, हिर्दय िकत्ते छोड़े? ले आया रे?
आए जाओ, आए जाओ। आर.के.आर.की लाईन पास आ गई थी। नागा दो गज़ पानी के बाहर खड़ा था।
डकराती भैंसें, चिल्लाती गाएँ, मिमियाती बकरियाँ, रोते बच्चे, सहमी औरतें, पुकारते मर्द, सब भीगे, सब पानी टप टपाते रेल की पटरी पर चढ़े। अँधेरी रात में सूनी पटरी आबाद हो गई। लोगों ने गले फाड़ फाड़ कर पूछना शुरू’ कर दिया कि कौन कौन आ गया है और कौन कौन रह गया। हर किसी को किसी न किसी की फ़िक्र थी। छोटे से पूर्वे की पूरी आबादी की मर्दुमशुमारी की गई। आदमियों और जानवरों दोनों की गिनती हुई। जानवर सब मौजूद थे। आदमियों में एक चमार का लड़का और दो सगे भाई कुर्मी कम थे। बच्चों में रमकलिया कम थी।
बसंती ने रमकलिया के वास्ते और चमार-चमारिन ने लड़के के वास्ते बिलक बिलक कर रोना शुरू’ कर दिया। दोनों कुर्मी भाईयों के रिश्तेदारों को इत्मीनान था क्योंकि एक तो दोनों तैराक थे। दूसरे काफ़ी ऊँचे मक्का के खेत में बहुत मज़बूत और ऊँचे मचान पर वह सोए हुए थे।
रमकलिया की माँ तड़प-तड़प कर रो रही थी। सब दिलासा देते थे, हर कोई समझाता था। रो धो ना, सब्र करो। शायद दोनों कुिर्मयों में से ही कोई आ गया होगा किसी दरख़्त पर ही लेकर बैठ गया हो। चमार का लड़का भी वहीं था। उसने ही तो कहा था गोदी ले लेगा। वही उसको लेकर किसी दरख़्त पर चढ़ गया होगा। पर मामता की मारी दुखियारी चुप कैसे होती। उसका तो दिल ही टूटा जाता था। माधव भी चुपका खड़ा रोता था। नागा हिचकियाँ लेता था और वहीं पर उनकी गौरी गाय खड़ी अराती थी। तो काँ आँ ह, तो का नां ह। ये भी दुख पीटी माँ है। अरे कोई जाने न जाने। बछड़ा उसका भी नहीं मिलता है। दुखिया रोती है, तो काँ आँ ह।
रोती हिचकियाँ लेते हुई, बसंती के पास बोलती हुई गाय आई। बसंती ने उसकी गर्दन में बाँहें डाल दीं और रोई।
गौरी रे, मोरी रमकलिया... ईह ईह ईह ईह
गौरी रे, अब तोहे कौन चराए... ईह ईह ईह ईह
गौरी रे, अब तोहे कौन खिलाए... ऊह ऊह ऊह ऊह
गौरी रमकलिया तो गई रे... ऊह ऊह ऊह ऊह
गौरी तोरी रमकलिया... ईह ईह ईह ईह
गाय ने वही लंबी आवाज़ निकाली, तो का नां ह
कोई जाने न जाने दिल की लगी राम जाने। गाय ने चिल्ला चिल्ला कर और बसंती ने सिसकियाँ लेकर आख़िरी सुब्ह ही कर दी। निकलते दिन की पहली राैशनी में सबकी आँखें गूजर पर्दे की तरफ़ उठ गईं। सामने छोटा सा आमों का बाग़ था। उस ही के बराबर और कुछ उसकी आड़ में गूजरपुर्वा आबाद था। लेकिन अब वहाँ कुछ न था। आमों के दरख़्त तो थे, मकान बह चुके थे और अगर कोई बचा खुचा मकान होगा भी तो दरख़्तों की आड़ में होगा। सामने तो बाग़ ही बाग़ था। जिसके दरख़्त अपने हरे हरे हाथ पानी पर फैलाए मल रहे थे और फिर उनके पार। मीलों मीलों जहाँ-जहाँ तक नज़र जाती पानी ही पानी था। रेल की लाईन के क़रीब ही जहाँ पर छोटा नाला था पानी का तेज़ धारा था तेज़ी से चल रहा था। लेकिन फिर भी चार नौजवानों ने हिम्मत की लंगोटी कस पानी में कूद पड़े। तैरते हुए आमों के बाग़ तक गए। वहाँ चमार और दोनों कुर्मी भाई मौजूद थे, रमकलिया न थी। चमार को तैरना न आता था और फिर डरता बहुत था। उन लोगों ने एक पटेला ढूंढ लिया था जो कि दरख़्तों में उलझ कर तैरता हुआ रह गया था। सबने चमार से बहुत कहा कि उस पटेले पर दोनों हाथ का सहारा ले और ये लोग खेते हुए उसे ले जाएं मगर उसकी अक़्ल में ही न आए। डर के मारे मरा जाए, पानी में उतरे ही नहीं। बहुत समझाया ख़ुशामद की, लेकिन राज़ी न हुआ और जब ये लोग उसे दरख़्त पर छोड़कर चलने को तय्यार हों तो फिर बुरी तरह से धाड़ें मार-मार कर रोए। एक दफ़ा’ उनमें से एक की समझ में आ गया। चमार के दरख़्त पर चढ़ कर और उसकी गर्दन पकड़, मारे कस-कस के जो हाथ तो राज़ी हो गया। पटेले के तख़्ते पर दोनों हाथ रखकर तैरता हुआ सब के बीचों बीच साथ हो लिया और सब बारी बारी पटेले को ढकेलते हुए ले चले। रस्ते में किसी ने कहा, ले अब बहाए रे। सांची सांची नाहीं डुबोएं दें तोहे इत्ते ही। बेचारे ने सब उगल दिया कि हाँ वो डर के मारा उन चार आदमियों के साथ साथ था जो कि माधव और उसकी बीवी बच्चों को निकालने गए थे और बसंती के चिल्लाने पर उसी ने कहा था कि वो रमकलिया को गोदी ले लेगा। लेकिन सब के सब तो जल्दी से घर में से निकल गए और वो अकेला जो रह गया तो डर के मारे सीढ़ियों के पास ही से लौट आया, बाहर आया तो वो लोग न मिले। पानी और बढ़ गया था। आख़िर जब बाग़ में पहुंचा तो अकेले चलने की हिम्मत न पड़ी। दरख़्त पर चढ़ गया। ये सुनकर सबने कहा, डुबो रे दो ऐसे पापी को। क्या करना ले जा कर ऐसे दुष्ट को।
लेकिन डुबोया नहीं बल्कि रेल की पटरी पर उतार ही दिया।
वहाँ सेवा समिति के सच्चे ख़िदमतगार। कांग्रेस के ज़रा बड़े और ज़रा मग़रूर, थोड़ा काम और बहुत बातें करने वाले लीडर, लाल साफ़े वाले पुलिस के एेंठते अकड़ते सिपाही मौजूद थे। मदद उनकी सब ही अपनी तरह कर रहे थे। तेल, घी, आटा, लकड़ी, दाल, सेवा समिति वाले लाए थे। अमन इन्तिज़ामात पुलिस वालों की तरफ़ से थे। छोटी छोटी छोलदारियां और मरहम-पट्टी का सामान कांग्रेस वालों की तरफ़ से था। थोड़ी ही देर में हँसी-ख़ुशी खाने पकने लगे। कढ़ाइयाँ चढ़ गईं। पूरियाँ तली जाने लगीं। दो-चार जिनके अंधेरे में पानी में गिरते पड़ते चलने से चोटें आई थीं उनकी मरहम-पट्टी हुई लेकिन बसंती के ज़ख़्मी दिल की मरहम-पट्टी कौन करता । माधव और नागा ख़ुद ही परेशान थे। एक हमदर्द गौरी थी जो रात-भर उसके साथ रोई थी। अब वो भी न थी। का जाने भोर भए किए चाल गई।
जब तक अंधेरा रहा। हड़प, गड़प, गड़ाप करते पानी ने रमकलिया को ख़ूब ही डराया और रोते-रोते बेदम गज़ भर की लड़की का आने वाले दिन ने अपनी भीनी-भीनी रौशनी फैला कर दिल ही दहला दिया। एक दफ़ा’ ही चौंक कर देखती है तो न मकान हैं, न गाँव है। आधे से ज़ियादा कोठा बह चुका है। एक कोने पर ख़ुद बैठी, दूसरे कोने पर काला साँप कुंडली मारे बल खाया बैठा दोहरी ज़बान निकाल रहा है। सामने चारों तरफ़ पानी ही पानी है। जिसमें से इक्का-दुक्का पेड़ कहीं कहीं झांक रहे हैं। पीछे आम का बाग़ आधा डूबा आधा निकला तरह तरह की लहरें अपने दरख़्तों में से निकाल रहा है।
हिरास और ख़ौफ़ से रमकलिया चिल्लाई और फिर चिल्लाई। डरी, सहमी और चारों तरफ़ उसने घबरा कर देखा। न आदम न आदमजा़द। एक वो थी और दूसरा काला नाग था और पानी ही पानी था, जिसमें फिरकी ऐसे घूमते कटोरे बनते थे और हड़प हड़प कर के ग़ाइब हो जाते हैं।
रमकलिया ने दोनों हाथों से आँखें मूंद ली थीं और अरी मय्या री, ओ मोरी मय्या। कह कर बिलक रही थी कि उसके कान में आवाज़ आई, तो काँ आँ ह।
रमकलिया चौंकी। हाथ आँखों पर से हटे। आँसू बहते मुर्दा चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट आई।
तो काँ आँ ह। आवाज़ फिर आई।
रमकलिया ने, हरे राम गौरी बोले। कहते हुए चारों तरफ़ देखा । गाय दिखाई तो दी नहीं लेकिन रमकलिया ने अपनी पूरी ताक़त से पुकारा, गौरी हो गौरी।
जवाब आया, तो काँ आँ ह।
और फिर बाग़ में से तैरती हुई गाय निकली। रमकलिया ने फिर पुकारा वो उसकी तरफ़ बोलती हुई बढ़ी। लेकिन दूर से एक और आवाज़ आई, ओ माँ आँ ह।
बाग़ की आढ़ से बछड़े की आवाज़ थी। गाय उस आवाज़ की तरफ़ घूम पड़ी। रमकलिया का नन्हा सा दिल बैठने लगा। वो रात भर रोने और हिचकियाँ लेने से थक चुकी थी। फिर भी अपनी सकत भर चिल्लाई, गौरी हो गौरी।
गौरी हो गौरी।
अरे गौरी रे आए जा।
हाय रे मय्या नाहीं आवत।
गौरी हो गौरी।
गौरी मय्या आए जा री।
लेकिन गौरी ने रुख़ न बदला । अलबत्ता दो-चार दफ़ा सर घुमा कर रमकलिया की तरफ़ देखा। अरा कर बोली और फिर उधर ही तैरती चली गई जिधर से बछड़े की आवाज़ आर ही थी।
बाग़ की आड़ से निकलते ही गाय को बछड़ा उसी जगह तैरता हुआ नज़र आ गया। जहाँ सरेशाम वो उसका बछड़ा और बैल बाँधे गए थे। अब वहाँ न खेत था न झोंपड़ी। जगह वही थी लेकिन अब सिवाए पानी के कुछ नज़र न आता था। माँ-बच्चे की आवाज़ का जवाबी देती तैरती हुई उसके पास गई। चारों तरफ़ घूमी, उसे सूँघा। एक दफ़ा’ उस की थूथनी भी चाट ली और फिर एक तरफ़ को तैरती चली। मगर बच्चा न चला, वहीं तैरता रहा। गाय फिर लौट आई। चारों तरफ़ घूमी। बराबर आकर अपनी कमर और पेट से उसे ढकेला। एक तरफ़ चली, बच्चा साथ न आया तो फिर लौट आई। अब वो समझ गई। बच्चा छः फुट ज़मीन में गड़े हुए खूंटे में रस्सी से बंधा हुआ था और रस्सी बस इस क़द्र लंबी थी कि अब तक तो किसी न किसी तरह बछड़े की नाक पानी से बाहर थी। लेकिन अगर पानी एक इंच भी और बढ़ जाए तो रस्सी की वज्ह से नाक डूब ही जाए। गाय ने मायूस हो कर चिल्लाते बच्चा तो वहीं छोड़ा और फिर रमकलिया की तरफ़ रुख़ किया।
रमकलिया रोने चिल्लाने की थकन, डर और ख़ौफ़ और आख़िर में इन्तिहाई नाउम्मीदी का अब तक मुक़ाबला करती रही थी। लेकिन आख़िर आठ बरस की नन्ही जान ही तो थी। गाय जब उसके पास आई तो वो गिरती हुई छत के किनारे बेहोश पड़ी थी। गौरी ने आकर कई आवाज़ें दीं और जब भी रमकलिया को होश न आया तो फिर लंबी दुम, खुरदुरी गर्मगर्म ज़बान से उसका मुँह चाटा। लड़की को होश आ गया। पहले तो डरी, फिर गौरी को देखा, गौरी मय्या, गौरी मय्या कहती हुई उसके गले में चिमटी। गौरी ने दो पैर मारे, आगे बढ़ी। रमकलिया छत से घिसट पानी में आ गई। उसने डर के मारे पैर चलाए और चिमट चिमटा कर गौरी की पीठ पर आ गई और वहीं छिपकली की तरह लेटी लेटी चिमट गई। गौरी फिर बछड़े के पास आ गई। वही हरकतें फिर कीं। कई दफ़ा’ उस के गिर्द चक्कर लगाए और चली। जब बछड़ा साथ न चला तो फिर लौट आई। अब रमकलिया की भी समझ में आ गया कि क्या बात है। जैसे ही एक दफ़ा’ गाय तैरती हुई बछड़े के पास गई। रमकलिया ने औंधे लेटे ही लेटे एक हाथ बढ़ा कर बछड़े के गले से रस्सी की गाँठ निकाल दी। बछड़ा आज़ाद हो गया। गाय और बछड़ा दोनों तैरते हुए चले। रमकलिया गाय पर चिमटी हुई थी। बाग़ और रेल की पटरी की तरफ़ से धार चल रही थी। इसलिए ये दोनों बहाव ही की तरफ़ तैरते चल दिये और ढाई घंटे के बाद बहुत चक्कर खा कर फिर उसी रेल की पटरी पर चढ़ आए। लेकिन जहाँ गाँव वाले थे, तीन मील दूर ये निकले थे। ये सब बहुत सवेरे ही चल दिये थे और जब गाँव के बहादुर तैराक तैरते हुए बाग़ में आए तो वहाँ न बछड़ा था न रमकलिया थी। बल्कि माधव के मकान का बचा खुचा हिस्सा भी बह चुका था। दिन के बारह बजे जिस वक़्त आगे आगे गौरी, पीठ पर रमकलिया, पीछे बछड़ा, ओ माँ आँ ह। के सवाल जवाब करते गाँव वालों में पहुँचे तो हलचल मच गई। लोग मारे ख़ुशी के कूदते थे।
बसंती ख़ुशी के मारे धारों धार रोती हुई कभी रमकलिया को गले लगाती थी, कभी बछड़े को और कभी गौरी के चिमटती थी और गाय कहती थी तुम, माँ आँ ह, हम, माँ आँ ह।
आवाज़ आई, बोल गौरी मय्या की जय।
पचास आवाज़ों ने जय पुकारी।
फिर आवाज़ आई, बोल गऊ माता की जय।
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