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जेंटिल-मेनों का बुरश

सआदत हसन मंटो

जेंटिल-मेनों का बुरश

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    एक ऐसे आदमी की कहानी है जो अमीरों और रईसों की संगत में रहना ज़्यादा पसंद करता था और उनके कोट, पतलून से गर्द, बाल वग़ैरा झाड़ा करता था। इसी वजह से उसका नाम जेंटल मैनों का ब्रश पड़ गया था। एक दिन एक महफ़िल से जब वापस जाने लगा तो बाहर ज़ोरों की बारिश हो रही थी। लोगों ने उसे रोकने की कोशिश की लेकिन उसने कहा कि अभी लाला जगत नरायन की गाड़ी उसे लेने के लिए आ जाएगी। बारिश थमने के बाद जब लोग निकले तो वो कीचड़ में लिथड़ा पड़ा हुआ था और उसकी अचकन साफ़ करने वाला कोई नहीं था।

    ये ग़ालिबन आज से बीस बरस पीछे की बात है। मेरी उम्र यही कोई बाईस बरस के क़रीब होगी, या शायद इस से दो बरस कम। क्योंकि तारीख़ों और सनों के मुआमले में मेरा हाफ़िज़ा बिलकुल सिफ़र है। मेरी दोस्ती का हल्क़ा उन नौ-जवान पर मुश्तमिल था जो उम्र में मुझ से काफ़ी बड़े थे।

    हफ़ीज़ पेंटर की दुकान में जो बिजली वाले चौक से बाएं हाथ हाल बाज़ार के पास ही वाक़्य थी, हम सब बैठते और घंटों गपबाजी होती रहती। मैं पढ़ाई वढ़ाई क़रीब क़रीब छोड़ चुका था। इसी तरह मुबारक अपनी मुलाज़मत पर लात मार कर अमृतसर वापस चला आया था। वो किसी रियासत में मुलाज़िम था। हफ़ीज़ पेंटर की अपने बाप से चख़ हो गई थी, इस लिए उस ने अलाहिदा एक बड़ी दुकान ले ली जिस में कुछ अर्सा पहले एक कम्युनिस्ट सिख की दुकान थी, जो ग्रामोफोन डीलर था। ख़ैर दीन की मस्जिद से मुल्हिक़ा दुकान हाल बाज़ार में थी मगर अच्छे मौक़ा पर थी। यानी ऐन हाल बाज़ार के वस्त में और मस्जिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात मुरव्वजा उसूलों के मातहत होनी ही चाहिए। इस लिए वो उसे बहुत पसंद आगई थी। इधर अज़ान होती तो उधर रिकार्ड बजते। लेकिन कोई दंगा फ़साद इस बात पर वहां कभी हुआ। अलबत्ता छोटी छोटी बातों पर सैंकड़ों ख़ून होते रहते।

    अमरद परस्ती ग़ुंडों, रंडी बाज़ी पर, गुंडों की दो मुख़ालिफ़ पार्टीयों पर, ऐसे मुस्लिम मुस्लिम और मुस्लिम हिंदू फ़साद आम थे। जो एक दो दिन अपनी धाक बिठा कर झाग के मानिंद ग़ायब हो जाते। गर्मी की पहली पीली भिड़ों के मानिंद जो अपने इर्दगिर्द जाला तन लेती हैं और ब-ज़ाहिर बिलकुल मुर्दा हो जाती हैं। लेकिन मालूम नहीं फिर मुवाफ़िक़ मौसम आने पर ज़िंदा हो जाती हैं, और बे-क़ुसूर आदमियों को काटने के शुगल में मसरूफ़ होजाती हैं।

    अमृतसर एक अजीब-ओ-ग़रीब शहर है। यहां हर एक क़िस्म की शैय उस ज़माने में पाई जाती थी। भंगनों की लड़ाई से लेकर गर्वनमैंट से पंजा-कशी करने तक। लोग भी भांति भांति के थे। लाले जो अपनी बज़्ज़ाज़ी की दुकानों पर पादते रहते और कुछ ऐसे मन चले भी थे जो छोटे छोटे पटाख़े बना कर चलाते थे कि लोगों के दिल एक लहज़े के लिए दहल जाते। दहश्त पसंद भी थे और अमन पसंद भी। नमाज़ी और परहेज़गार भी थे और अव्वल दर्जे के ओबाश और गुनाहगार भी। मस्जिदें थीं और मंदिर भी। इन में गुनाह के काम भी होते थे और सवाब के भी।

    ग़र्ज़ कि इंसानी ज़िंदगी के ये सब धारे साथ साथ मुतवातिर बहा करते थे... कई सयासी तहरीकें हुईं। कई ग़ुंडों का आपस में किश्त-ओ-ख़ून हुआ। मुस्लमानों और क़ादियानियों में कई मुबाहले हुए, जिन में बड़े जग़ादरी उलमाए किराम ने हिस्सा लिया। क़हत पड़े, वबाएं आईं। जलियाँ वाला का तारीख़ी हादिसा हुआ, हज़ारों इंसान, जिन में मुस्लमान, सिख, हिंदू सब शामिल थे, मौत के घाट उतारे गए, लेकिन अमृतसर जूं का तूं रहा।

    हफ़ीज़ पेंटर की दुकान पर यूं तो दुनिया भर के सयासी, मजलिसी और मआशी मसाइल पर तबादल-ए-ख़यालात और बहस होती रहती, मगर बड़े ख़ाम अंदाज़ में। असल में वो सब के सब आर्टिस्ट थे। गो नीम रस... उन को दरअसल मोसीक़ी से शग़फ़ था। कोई तबले की जोड़ी उठा लेता, कोई सितार, कोई सारंगी और कोई तानबूरा हाथ में लेकर मियां की टूडी, मालकौंस या भागीरी का अलाप शुरू करदेता।

    यहां भांग भी घोटी जाती, चरस भरे सिगरेट भी पीए जाते, शराब के दौर अक्सर चलते। इस लिए कि दिन इतना बड़ा बे-बाक नहीं था। साढ़े आठ रुपय में एक पूरी बोतल बढ़िया से बढ़िया स्काच विस्की की आजाती थी। हफ़ीज़ शाम को अपनी दुकान के भारी भरकम किवाड़ बंद करदेता और हम चटाईयों पर बैठ कर इस मशरूब से आहिस्ता आहिस्ता लुत्फ़-अंदोज़ होते। फिर आधी रात को जब आस पास की सारी दुकानें बंद होतीं, हम मोसीक़ी का दौर शुरू कर देते।

    यहां क़रीब क़रीब सब गवय्ये, बड़े और छोटे फ़न का मुज़ाहरा कर चुके थे। इस लिए कि ज़िंदा दिल नौजवानों की महफ़िल थी। फकड़ बाज़ी भी होती तो कोई बुरा मानता था।

    एक दिन मैं सुबह दस बजे के क़रीब हफ़ीज़ पेंटर की दुकान के सामने से गुज़र रहा था। इस लिए कि मुझे ज़रा आगे चल कर एक कैमिस्ट की दुकान से अपने कान के लिए दवा लेनी थी कि हफ़ीज़ ने बर्श कान में उड़िस कर मुझे ब-आवाज़-ए-बुलंद पुकारा और इसी कान में अड़े हुए बर्श को निकाल कर उस से मुझे इशारा किया, जिस का ये मतलब था कि मैं उस की बात सुनता जाऊं।

    मैं उस की दुकान के थड़े के पास खड़ा होगया, और उस से पूछा “क्या बात है हफ़ीज़ साहब?”

    हफ़ीज़ ने बर्श फिर कान में उड़िस लिया और जवाब दिया “बात ये है मेरी जान कि आज तो कल का गाना होगा। उस के साथ मच्छर ख़ान और बसे ख़ान भी होंगे... वो मुआमला भी होगा... छः बजे से पहले पहले ही आजाना... मैंने तमाम दोस्तों को इत्तिला दे दी है। तवक्कुल को मैंने सुना तो नहीं लेकिन नए ख़याल के लोग उसे बहुत पसंद कर रहे हैं। नौ-जवान है। कहते हैं कि ख़ां साहब आशिक़ के मानिंद बे-डार गाता है और हक़ अदा करता है।”

    में बहुत ख़ुश हुआ “आऊँगा और ज़रूर आऊँगा। मगर ये मच्छर ख़ान क्या बला है... क्या तुम उसे किसी मच्छरदानी के अंदर बिठाओगे?

    हफ़ीज़ पेंटर खिखला कर हंसा “अरे नहीं यार, उस की आदत है कि जब कोई तान लेता है और वापस सिम पर आता है और बड़े ज़ोर से अपनी रानों पर दो हत्तड़ मारता है... इस लिए उस का नाम मच्छर ख़ान पड़ गया है। जैसे वो गा नहीं रहा, बल्कि अपने बदन पर काटने वाले मच्छर मार रहा है।”

    मैंने उस से कहा “चलो, इस का तमाशा भी देख लेंगे... पर अगर इस ने आज रात कोई मच्छर मारा तो ये तय है कि तुम्हारे आर्ट स्टूडियो से वो ज़िंदा बाहर नहीं निकलेगा।”

    हफ़ीज़ खिखला कर हंसा, कान में से उड़सा हुआ बर्श निकाला और साइन बोर्ड पेंट करने लगा “जाओ यार जाओ... मेरा वक़्त हर्ज कर रहे हो... मुझे ये काम वक़्त पर मुकम्मल करना है।”

    मैं वहां से चला गया... कैमिस्ट की दुकान से दवाई ली। बाहर निकला तो शेख़ साहब जो वहां के बहुत बड़े रईस थे, उन से दो आदमी दुकान के पास खड़े बातें कर रहे थे। मैंने शेख़ साहब को सलाम किया... उन्हों ने जैसा कि उन की आदत थी, छड़ी बिजली के खंबे के साथ मारी। जब आवाज़ पैदा हुई तो उन का इत्मिनान होगया तो वो मुझ से मुख़ातब हुए। “कहो भई सआदत क्या हाल है।”

    मैंने अर्ज़ की “जनाब की दुआ से सब ठीक है।”

    जिन दो आदमियों से शेख़ साहब बातें कर रहे थे, वो स्याह फ़ाम थे, लेकिन उचकन का रंग उन के रंग से कहीं ज़्यादा काला।

    दुबला पुतला, लेकिन चेहरे के नक़्श तीखे। शेख़ साहब चलने लगे तो इस आबनोसी गोश्त-पोस्त के टुकड़े ने तेज़ी से बढ़ कर शेख़ साहब के कोट की पीठ झाड़नी शुरू की, बड़ी नफ़ासत से, शेख़ साहब ने गर्मा कर उस से पूछा “क्या बात थी?”

    इस आबनोसी आदमी ने बड़ी पतली आवाज़ में जवाब दिया “चन्द बाल थे और थोड़ी सी गर्द।”

    शेख़ साहब ने उस का शुक्रिया अदा किया और कहा “अच्छा तुम कल सुबह घर पे आना” और वो फिर बिजली के खंबे को अपनी छड़ी से बजाते हुए ग़ालिबन कंपनी बाग़ की तरफ़ निकल गए।

    एक दिन मैंने फिर उसे देखा। अपने कटड़े के बाज़ार में वो दो लालों की मुसाहिबी में मसरूफ़ था। उस ने साफ़ सुथरे कोटों पर से कई मर्तबा ग़ैर-मरई चीज़ें जुदा कीं। उस दिन भी वो अपनी काली उचकन पहने था। हालाँकि काले कपड़े पर गर्द-ओ-ग़ुबार फ़ौरन नुमायां होता है, मगर मैंने ग़ौर से देखा, कि उस पर ऐसी कोई चीज़ भी नहीं थी। मेरा ख़याल है वो जनटल मैनों के बर्श के इलावा अपना बर्श ख़ुद भी था।

    मुझे रास्ते में एक दोस्त मिल गया। मैंने उस से पूछा “ये आबनोसी आदमी कौन है?”

    उस ने हैरत से पूछा “कौन सा आबनोसी आदमी... बन मांनुस से थे, मगर आबनोसी कहाँ से तुम ने घड़ लिया।”

    मैंने उस से ज़रा तेज़ लहजे में कहा “अरे ये आदमी जो हमारे आगे आगे जा रहा है... चुग़द हो परलय दर्जे के। क्या इतना भी नहीं जानते कि आबनोस एक लकड़ी होती है।”

    “तो क्या ये लकड़ी है जो चल फिर रही है?”

    “अबे नहीं... आबनोस का रंग काला होता है, चूँकि उस ने काली उचकन पहनी है और रंग भी उस का ख़ुदा के फ़ज़ल-ओ-करम से ख़ासा काला है, तो मैंने उसे आबनोसी कह दिया।”

    मेरा दोस्त हंसा “अरे, तुम उसे नहीं जानते, उस का नाम जेंटिलमैनों का बर्श है।”

    “इतना तो मैं जानता हूँ।”

    “तो इस से ज़्यादा तुम और क्या जानना चाहते हो?”

    मैंने चिढ़ कर कहा “यही कि इस का महल्ले वक़ूअ क्या है... इस का पेशा क्या है?”

    मेरा दोस्त मुस्कुराया “ये ज़ात का रुबाबी है, जो दरबार साहब में चौकी करते हैं... मगर ये वहां नहीं जाता...”

    “क्यों?”

    “बस इस को अमीरों की सोहबत हासिल है। इन ही में उठता बैठता है, और उन के कोटों पर बर्श करता रहता है।”

    मैंने उस से पूछा “खाता पीता कहाँ से है?”

    जवाब मिला “जिन की मुसाहिब-दारी करता है... इस के इलावा गाता बहुत अच्छा है।”

    मैंने पूछा “तुम ने कभी सुना है उस को?”

    “नहीं, अलबत्ता तारीफ़ बहुत सुनी है।”

    हम बातों में मशग़ूल पीछे रह गए और वो जेंटिलमैनों का आबनोसी बर्श इन दो लालों के कोट झाड़ता बहुत दूर निकल गया।

    थोड़ी देर के बाद मेरा दोस्त भी मुझ से जुदा हो गया। उस को कोई ज़रूरी काम था वर्ना में उस शख़्स के मुतअल्लिक़ कुछ और मालूमात हासिल करता।

    इत्तिफ़ाक़ से मुझे अपने बहनोई (जो अमृतसर के आनरेरी मजिस्ट्रेट थे और ख़ुदा मालूम क्या क्या थे) के साथ एक तक़रीब पर जाना पड़ा। अब मुझे अच्छी तरह याद नहीं कि वो तक़रीब थी जो नए डिप्टी कमिश्नर के तक़र्रुर के सिलसिले में थी। वो शख़्स वही काली उचकन पहने मुअज़्ज़ज़ और रईस लोगों के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रहा था। उस ने बिला मुबालग़ा आधे घंटे के अंदर अंदर चुन चुन कर कई रूअसा के कोट साफ़ किए। अपनी पतली पतली उंगलियों से। किसी के कालर पर से उस ने बाल उठाए, किसी के कोट की पीठ पर से... बाज़ों के कोटों को, जब उस की समझ में आया वो गर्द अपने रूमाल से झाड़ दी और हर एक से शुक्रिया वसूल किया।

    बड़ी जुरअत से काम लेकर वो डिप्टी कमिश्नर बहादुर के पास भी जा पहुंचा, और उस की पतलून साफ़ करदी। वो अंग्रेज़ था। इस ने जेंटल-मैनों के बर्श का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा किया।

    इस के बाद एक रात जब कि हल्की हल्की बूंदा बांदी हो रही थी और हफ़ीज़ पेंटर की दुकान में हम माशूक़ अली फ़ोटोग्राफ़र से उस का गाना सुन कर महज़ूज़ हो रहे थे, और साथ साथ विस्की भी पी रहे थे, कि अचानक दुकान का फाटक नुमा दरवाज़ा खुला और जेंटिलमेनों का बर्श नुमूदार हुआ। उस ने हम सब से मुख़ातब हो कर कहा “मैं इधर से गुज़र रहा था कि गाने की आवाज़ सुनाई दी... माशा अल्लाह बड़ी सुरीली थी... है तो ये तहज़ीब के ख़िलाफ़ कि में बिन बुलाए चला आया... अगर आप की इजाज़त हो तो क्या थोड़ी देर के लिए आप की महफ़िल में शरीक हो सकता हूँ।”

    हफ़ीज़ पेंटर और माशूक़ अली फ़ोटो ग्राफ़र बैक वक़्त बोले “हाँ, हाँ तशरीफ़ रखिए।”

    मुबारक ने कहा, “सर आँखों पर... यहां मेरे पास बेठिए... आप तो ख़ुद बड़े मअर्के के गाने वाले हैं... कुछ नोश फ़रमाईएगा।”

    मुबारक की मुराद विस्की से थी, मगर जेंटिलमेनों के बुर्श ने बड़ी शाइस्तगी से कहा “जी नहीं... मैं इस नेअमत से महरूम हूँ।”

    सब के इसरार पर उस ने गाना शुरू किया। मियां की टोडी थी जो उस ने ऐसी ख़ुश-इलहानी से गाई कि मज़े आगए। इस के बाद उस ने इजाज़त चाही... सब नशे में चूर थे, इस लिए उन को ये ख़बर नहीं थी कि बाहर ज़ोरों की बारिश हो रही है... लेकिन जब जेंटिलमेनों के बर्श ने दरवाज़ा खोला तो उस ने कहा “हुज़ूर, बाहर बहुत बारिश हो रही है, कैसे जाईएगा।”

    आबनोसी बर्श के होंटों पर मुस्कुराहट नुमूदार हुई। “आप फ़िक्र करें, अभी लाला जगत नारायण कम्बल वाले की गाड़ी मुझे लेने के लिए आजाएगी... आप अपना शुग़ल जारी रखिए... शुक्रिया!”

    ये कह कर उस ने दुकान का फाटक नुमा दरवाज़ा बंद कर दिया।

    एक घंटे के बाद बारिश थमी तो महफ़िल बर्ख़ास्त करदी गई... बाहर निकल कर हम ने देखा कि कोई आदमी बदरु में औंधे गिरा पड़ा है... मैंने ग़ौर से देखा तो चिल्लाया “अरे ये तो वही जेंटिलमेनोंका बर्श है।”

    हफ़ीज़ ने लड़खड़ाते हुए लहजे में कहा “जेंटिलमेनों की ऐसी तैसी... चलो अपने अपने घर।”

    सब ने इस फ़ैसले पर साद किया... जब वो चले गए तो थोड़ी देर के बाद वो शख़्स जो बे-दाग़ काली उचकन पहनता था और रूअसा के कोट साफ़ किया करता है, होश में आया... उस की उचकन कीचड़ से अटी हुई थी, मगर उसे साफ़ करने वाला कोई नहीं था।

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