ग्रीन हाऊस
यू. एन. ओ. के डिप्टी सेक्रेटरी जनरल के इस निजी सनडाउनर से मौलू अब घर लौटना चाह रहा था मगर उसने इतनी पी ली थी कि उसे डर था, उठा तो लड़खड़ाने लगूँगा।
ऑस्ट्रेलियन लॉकर उसकी ख़्वाहिश और ख़ौफ़ भाँप कर हँसने लगा, “पर जब नशे का ये आलम हो तो घुटनों को सीधा ही क्यों किया जाए?”
लॉकर से मौलू ने पूछना चाहा कि ये क्या नाम हुआ, “लॉकर...?” और ख़ुद ही जवाब भी देना चाहा..., “अच्छा, अपने जराइम-पेशा बाप दादा की याद में अब तुम्हारा मुंह-बंद है...” मगर अपने सामने ही बैठे अमरीकी फ़ौरेन ऑफ़िस के एक सीनियर ऑफिशियल को पाकर वो उसी पर टूट पड़ा, “मिस्टर लॉकर, क्या तुम हमारी अमरीकी सरकार की किसी हालिया बद-हवासी पर तबसरा कर रहे हो?”
“क्या मतलब?” अमरीकी ऑफिशियल के कान इतने खड़े हो गए कि वो अपने कान ही कान आने लगा।
“मतलब यह कि जब से रूसियों ने ताइब होकर कान पकड़ लिए हैं, व्हाईट हाऊस नशे में अपनी दो टांगों पर खड़ा ही नहीं हो पा रहा... तुम यही कहना चाह रहे थे न मिस्टर लॉकर?” मौलू ने अपनी बात से महज़ूज़ हो कर स्टीवर्ड से एक और व्हिस्की तलब की। “इन हालात में क्या यह बेहतर नहीं, माई डियर ब्लैक बर्ड,” उसने अमरीकी ऑफिशियल से पूछा, “अमरीकी सरकार ज़रा दम लेने के लिए चुप-चाप बैठी रहे?”
लॉकर ने शायद व्हिस्की का घूँट भरने के लिए मुंह खोला था मगर वो बोल उठा, “अमरीकी का तो ख़ास्सा है कि दम लेना हो तो और तेज़ चलने लगता है।”
“मैं भी तो अमरीकी हूँ,” मौलू ने उसे जवाब दिया, “मैं तो दम लेने के लिए दम ही लेता हूँ।”
“इसी लिए वो अमरीकी सियासतदान क्या नाम है उसका...? वो तुम्हारी अमरीकियत को मशकूक क़रार देता है।” लॉकर को नशे में ज़बान को ढीला छोड़ देना बड़ा ख़ुश-गवार लग रहा था। “वो तुम्हारी सारी सहाफ़ती सल्तनत ख़रीदने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहा है।”
“सुनो, मिस्टर लॉकर,” मौलू पल भर बेचैन सा हो कर वही मूल चन्द धरम चन्द नज़र आने लगा जो कोई डेढ़ एक दहाई पहले केन्या की आज़ादी पर वहाँ अपना सारा बिज़नेस बेच कर यू.एस.ए. में आ बसा था। “तुम्हारा वो घाग सियासतदान ही सर-ता-पा बिक जाएगा।” उसे गोया अपना यह बयान भी नाकाफ़ी लगा।
“मेरा मतलब है, ब-शर्ते कि मैंने उसे ख़रीदना चाहा...”
मौलू ने एक ही डैक में अपनी सारी व्हिस्की हल्क़ से उतार ली तो आप ही आप पुर-सुकून हो कर मुस्कुराने लगा।
ब्लैक बर्ड के कान भी ढीले हो कर नीचे लटक आए और वो हँस कर कहने लगा, “अगर तुम मेरी तनख़्वाह की दोगुनी रक़म देने पर तैयार हो मौलू, तो मुझे ही क्यों नहीं ख़रीद लेते?”
“दोगुनी तनख़्वाह पर क्यों?”
“हेटी कहती है,” ब्लैक बर्ड ब-दस्तूर हँसते हुए अपनी बीवी की तरफ़ देखने लगा, जो पीने से सेर हो कर खा-खा कर मुंह हिलाए जा रही थी। “अगर तुम दोगुनी तनख़्वाह न लाए तो तुम्हें तलाक़ दे दूँगी।”
“तलाक़ के झंजट में क्यों पड़ती हो, हेटी डार्लिंग?” मौलू ने ब्लैक बर्ड की बीवी को मश्वरा दिया, “दोगुनी तनख़्वाह के लिए दो ख़ाविंद कर लो।”
हेटी और ब्लैक बर्ड ने सबसे ऊँचा क़हक़हा लगाया।
“अपनी बीवी को साथ क्यों नहीं लाए, नॉटी ब्वॉय?” हेटी मौलू से पूछने लगी।
“कैसे लाता?” ऐन वक़्त पर उसके एक दाँत में दर्द जाग पड़ा। घरेलू नुस्ख़ों से बात बनने में न आई तो मैंने डॉक्टर को फ़ोन किया।” मौलू ने स्टीवर्ड को एक और व्हिस्की का इशारा किया, “मैं उसे डॉक्टर के घर छोड़कर यहाँ चला आया हूँ।”
“ख़ूबसूरत औरतों को रात के वक़्त जवान डॉक्टरों के घर नहीं छोड़ना चाहिए,” हेटी अपने पर्स से शीशा निकाल कर होंटों पर लिपस्टिक की तह जमाने लगी।
“ख़ूबसूरत औरतों की तरजीह अगर यही हो,” मौलू एक अर्से से महसूस कर रहा था कि वो उसकी बीवी और एक दूसरे के लिए अपनी मोहब्बत को दोहरा दोहरा कर अज़-हद बोर हो चुके हैं। “तो हमारे अमरीकी क़ानून के तहत शौहरों को इसके सिवा कोई चारा नहीं कि उन्हें उन्ही की तरजीहों पर छोड़ दें और अपनी तरजीहें दरयाफ़्त करें।”
जवाबन हेटी ने अपने बाल झटक कर कुछ इस तरह आँखें मटकाईं गोया कह रही हो, ‘मैं तो तुम्हारे सामने बैठी हूँ मगर मुझे दरयाफ़्त करने के लिए तुम ना-मा’लूम कहाँ भटक रहे हो।’ “तुम्हें घर जाने की इतनी जल्दी क्यों है? क्या पता, डेंटिस्ट उसे सारी रात ईलाज के लिए वहीं रोके रखे?”
“मगर तुम ये क्यों समझती हो लिटिल गर्ल कि घर लौट कर हम वाक़ई घर जा पहुँचते हैं?”
“तो फिर कहाँ जा पहुँचते हैं?” हेटी का ख़याल था कि अंजान-पन के मेकअप से औरत की जिन्सी कशिश में ढेरों इज़ाफ़ा हो जाता है।
“क्या पता कहाँ?” अगर हेटी का शौहर वहाँ मौजूद न होता तो मौलू हेटी के क़रीब सरक कर अपना सिर उसके सीने पर टिका देता। “बर्डी!” उसने हेटी के शौहर को मुख़ातब किया, “अगर मैं वाक़ई तुम्हें ख़रीदना चाहूँ तो कितने पैसे लोगे?” और फिर अपने सवाल के जवाब का इतन्ज़ार किए बग़ैर उसने हेटी की तरफ़ मुंह फेर लिया। “हाँ, हेटी डियर, क्या पता, कहाँ?”
लेकिन मौलू के ज़ह्न में अपने घर का तसव्वुर सिर्फ़ उसी एक घर से बंधा हुआ था जहाँ वो पैदा हुआ था... हिमालय के कोहिस्तानी सिलसिले से कुछ ही फ़ासले पर इस छोटे से मैदानी शह्र सियालकोट में एक छोटा-सा निहायत पुराना मकान, जो इतना बड़ा था कि इतने सालों की दूरी से भी मौलू को वैसे ही साफ़ दिखाई देता था, और इतना पक्का कि अभी तक उसके दिल-ओ-दिमाग़ में जूँ-का-तूँ खड़ा था। सियालकोट में वो कभी घर पहुँचने से लेट हो जाता तो यहाँ ट्रंकों वाले बाज़ार से उस जैनियों की गली में से डग भरते हुए वो वहाँ उस पुल पर आ पहुँचता और फिर वहाँ से दौड़ते हुए एक साँस में मंदिर के पड़ोस में अपने घर के दरवाज़े के सामने।
“भाबू जी!”
वो गला फाड़ कर माँ को आवाज़ देता और उसकी बावली माँ गोया अपने भीतर उसी को ढूँढ रही होती और उसकी आवाज़ सुनते ही बे-इख़्तियार अन्दर से वारिद हो कर उसे अपने बाज़ुओं में ले लेती, “तू किधर निकल गया सें, मौलू?” बचपन में भी मूलचंद को सब मौलू ही कह कर पुकारा करते थे। “कह के जाया कर, पुत्रा।”
“या फिर, हेटी,” मौलू ने अचानक हेटी की तरफ़ मुंह उठाकर कहा, “घर वो होता है जहाँ हमारा इंतिज़ार किया जाता है।”
ब्लैक बर्ड ने ज़ोर से क़हक़हा लगाया, “किस से मुख़ातिब हो मौलू? मेरी बीवी को तो इसकी एक दोस्त ले गई है... कहाँ...? यहीं-कहीं किसी दिलचस्प आदमी से मिलाने।”
“दिलचस्प आदमी,” मौलू ने मुंह में बड़बड़ा कर वहाँ से एक-बार फिर उठने का इरादा किया लेकिन लड़खड़ा सा गया और फिर बैठ गया।
“तुम्हारा घर बहुत दूर है मौलू। क्या तुम्हें यक़ीन है, बा-हिफ़ाज़त पहुँच जाओगे।” ऑस्ट्रेलियन लॉकर ने मौलू से भी ज़ियादा चढ़ा रखी थी लेकिन वो किसी आदी मुजरिम की तरह बड़ा पुर-सुकून और मुतमइन नज़र आ रहा था।
“फ़िक्र मत करो, लॉकर,” ब्लैक बर्ड बोला, “हमारी अमरीकी गाड़ियाँ निहायत क़ाबिल-ए-एतिमाद हैं।”
“क्या वो तुम्हारी शराब नहीं पीतीं?” रूसी, सफ़ीर एक जर्मन अमरीकी फ़ायर आर्म्ज़ डीलर के बाज़ू में बाज़ू डाले किसी अरब रिपब्लिक के नुमाइंदे के साथ यक-ब-यक उनके सिरों पर आ खड़ा हुआ।
“नहीं, वो हमारी मुक़द्दस मादर-ए-वतन का तेल पीती हैं।” अरब जम्हूरिया का नुमाइंदा सबकी तरफ़ दाद तलब नज़रों से देखते हुए अपने दोनों साथियों के साथ वहीं बैठ गया।
“मैं समझा था एक्सीलेन्सी, तुम दावे करोगे तुम्हारी मुक़द्दस मादर-ए-वतन का दूध पीती हैं।” मौलू के हाथ पैर जवाब देने लगे तो उसका ज़ह्न तन जाता। वो सोचने लगा, क्या ही अच्छा हो जो आदमी का उठना बैठना... उसकी तमाम-तर ट्रैफिकिंग सिर्फ़ उसके ज़ह्न में हो, उसके सारे काम यहीं अन्जाम पाते रहें।
उसे खिलखिला कर हँसते हुए पाकर सभी उसकी तरफ़ देखने लगे।
“मैं दर-अस्ल प्राचीन भारत के उन ऋषियों के बारे में सोचने लगता था जो एक-बार किसी दरख़्त के नीचे की मिट्टी पर समाधी लगा लेते हैं तो मिट्टी में इतने मिट्टी हो जाते थे कि उनके वुजूद पर दरख़्त उग आते मगर वो अन्दर ही अन्दर मुतवातिर धड़कते रहते थे और उनके वुजूद में सारी कायनात सिमट आती थी और...”
“ख़ुदा के लिए, मौलू!” जर्मन अमरीकी कारख़ाने-दार ने मौलू को टोका। “हम तुम्हारा ये आर्टिकल कल तुम्हारे गडावलिड, ऑल वर्ल्ड में पढ़ लेंगे। इस वक़्त सिर्फ़ बातें करो, सिर्फ़ मुंह हिलाओ।”
“इसमें क्या मुश्किल है?” मौलू ने जर्मन अमरीकी को खाने की प्लेट पर हाथ साफ़ करते हुए देखकर कहा। “पेट भरते जाओ, मुंह हिलता रहेगा।”
“इससे मेरा काम बहुत मुश्किल हो जाएगा।” इसी गिरोह के एक कोने में आलमी इदारे के फ़ूड फ़ॉर ऑल प्रोग्राम का बॉस भी चुपके से आ बैठा था।
“हाँ, माई डियर मौलू, अगर हमने इतना खाना शुरू’ कर दिया।” जर्मन अमरीकी ने अश्या-ए-ख़ुर्दनी से हाथ खींच लिया। “तो तुम्हारे हिन्दुस्तान भेजने के लिए क्या बचेगा।”
“फ़ायर आर्म्ज़ माई डियर डीलर इन डेथ!”
सभों के क़हक़हे किसी बम के मानिंद फूट पड़े, जिससे आस-पास के लोग उन्हें तजस्सुस से देखने लगे।
“एक बात मेरी समझ में नहीं आती...” फ़ूड फ़ॉर ऑल प्रोग्राम का बॉस कहने लगा, “जब हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के पास पेट भर खाना भी नहीं तो वो किसे बचाने के लिए अपना सारा पैसा डिफ़ेंस पर ख़र्च कर देते हैं?”
“और किसे? अपनी भूक और...”
“और ख़ुदा को... है ना?”
“हाँ, हिन्दुस्तानी हो या पाकिस्तानी, ख़ुदा को भी अपने सामान में बाँध कर सिपाह की तलाश में दुनिया-भर में मारा मारा घूम रहा है।”
“ख़ुदा को भी क्यों?”
“ख़ुदा के बग़ैर उसके लड़ने-झगड़ने की ख़्वाहिश क्यों कर पूरी होगी?” सब हँस दिए।
“हँसने की बात नहीं। घर में आग लगी हो...”
“कौन लगाता है आग...?”
“घर में आग लगी हो।” बोलने वाले ने ज़ह्न में बिखरते हुए जुमले को जल्दी से अज़सर-ए-नौ यकजा किया। “तो हर शख़्स आफ़ियत के लिए बाहर की तरफ़ दौड़ता है...”
“आफ़ियत... माई फ़ुट!” जर्मन अमरीकी उन्हें बताने लगा, “मेरे भाई ने जर्मनी से लिखा है कि वहाँ बीसियों मशकूक अड्डों पर एक-एक कमरे में एक-एक दर्जन एशियाई बीमार मवेशियों की तरह फ़र्श पर ऊपर तले पड़े रहते हैं और पुलिस वीज़ा चेक करने के लिए छापा मारती है तो वो दुहाई देने लगते हैं, हमारी खाल खींच लो, जान ले लो, पर हमें वापस घर मत भेजो...”
“तअ’ज्जुब है... उनकी बीवी बच्चे...”
“बीवी बच्चों को भी यही डर लगा रहता है कि कहीं वो घर न लौट आएँ।”
“तअ’ज्जुब है...”
“इसमें तअ’ज्जुब की क्या बात है? अगर वो घर लौट जाएँ तो उन्हें परदेस से पैसा कौन भेजेगा...? क्यों, मौलू...?”
“ओह शट-अप,” मौलू उसे बड़ी मोटी गाली बकना चाहता था मगर उसे वो दिन याद आ गए जब वो अपने बूढ़े माँ-बाप और जवान बहन को पीछे छोड़कर पहले-पहल केन्या आ निकला था। उन दिनों उनके यहाँ उसका दूर का एक रिश्तेदार आया हुआ था जिसने केन्या में अपनी ग्रोसिरी से लाखों की दौलत पैदा कर रखी थी। ग्रोसिरी ने उसकी बीए की थर्ड क्लास की डिग्री पर रीझ कर उसे केन्या चलने पर आमादा कर लिया था, ताकि वहाँ पहुँच कर वो उसकी लड़की से शादी कर ले।
केन्या में मौलू की दुल्हन एक दिन उसे अपने बाप की ग्रोसिरी वैन में नेशनल पार्क ले गई जहाँ मीलों के अहाते में जंगली जानवर खुले-बंदों घूमते फिरते थे। उस रोज़ का एक मंज़र मौलू गोया उस वक़्त इस सनडाउनर में बे-ऐनिही देख रहा हो। एक जंगली बैल सिर झुकाए घास पर मुंह मार रहा है कि उसकी पुश्त से अचानक एक शेर उस पर चढ़ आया है और उसे चीरने-फाड़ने लगा है। मगर बैल ब-दस्तूर अपनी चार टांगों पर खड़ा है और मुंह में आई घास को तेज़ तेज़ चबाने लगा है कि मरने से पहले उसे हलक़ से उतार ले।
वो सारी रात मौलू ने चुपके-चुपके रो कर गुज़ारी थी और अपने माँ-बाप और बहन तीनों को मुख़ातिब करके एक बड़ी लंबी चिट्ठी लिखी थी और उन्हें यक़ीन दिलाया था कि वो हर महीने तनख़्वाह के दिन घर पहुँचने से पहले उन्हें अपनी आधी तनख़्वाह का मनी ऑर्डर पोस्ट कर दिया करेगा। इसके पहले मनी आर्डर की वसूली पर बाबा ने उसे फ़ौरी तौर पर मुत्तला किया था कि यहाँ पूरी ख़ैरियत है। तुम्हारा मनी ऑर्डर मिल गया है और हमने सोचा है कि अगले तीन माह के मनी आर्डरों से पहला काम ये करेंगे कि सारे घर का फ़र्श पक्का करवा लें... तुम्हारी माँ ओर बहन कच्चे फ़र्श की लीप-पोत से आजिज़ आ चुकी हैं और।
“शट अप!” मौलू ने सिर उठाकर फ़ायर आर्म्ज़ डीलर से कहा मगर जब इस जर्मन-अमरीकी ने उसे हँसते हुए बताया, “मैं तो तुमसे पूछ रहा हूँ भाई, तुम्हारी तबियत तो ठीक है,” तो उसने आवाज़ लटकाकर जवाब दिया, “आई एम सॉरी माई डियर मिस्टर।”
“तुम बहुत थके हुए लग रहे हो?”
“नहीं, मैंने बहुत पी ली है,” मौलू ने कहा, “इन हालात में मेरा नशा उस वक़्त कम होता है जब और पियूँ...”
“और...!” जर्मन-अमरीकी ने झूम कर कहा, “शराब का नशा हो, या पावर का, या कोई भी, इसका तदारुक इसी तौर मुम्किन है। और...” फिर वो सभों को मुख़ातब करके कहने लगा, “हैर्ज़ दामेज फ्रॉम आवर ग्रेट अमरीका... और... हमें और कुछ नहीं चाहिए, बस और... गिलास उठाओ दोस्तो और अपने इस अमरीकी दोस्त की ख़ुशी की ख़ातिर एक ही डैक में सारा बचा खुचा और पी जाओ...”
सभी ने अपने गिलास ख़ाली कर दिए तो दो स्टीवुर्ड बड़ी ख़ामोश मुस्त’ईदी से आगे बढ़कर उनके लिए और शराब उंडेलने लगे।
मौलू ने अपने भरे हुए गिलास पर निगाह डाली और उसे छुए बग़ैर खड़ा हो गया।
“थैंक यू, एवरी बॉडी बाक़ी की मैं अब घर जाके पियूँगा।”
“यहीं क्यों नहीं?” ब्लैक बर्ड ने उससे पूछा।
“क्यों कि अपने मकान की चार-दीवारी में मुझे अपना आप भरोसे के क़ाबिल मा’लूम होने लगता है। यही एक जगह है जहाँ मैं धुत चैन से सो जाता हूँ।”
हेटी उस वक़्त उन्हीं की तरफ़ लौट रही थी। मौलू का जुमला कान में पड़ने पर वो कहने लगी, “मगर घर में सोओगे किसके साथ, मौलू? तुम्हारी बीवी तो अपने डेंटिस्ट के पास गई हुई हैं।”
“दी ओल्ड बिच!” मौलू ने दिल ही दिल में कहा और उसकी तरफ़ हाथ हिलाकर आगे बढ़ गया।
बेंक्वेट हॉल में अभी वो चन्द ही क़दम चला था कि एक विंग से उसे सुनाई दिया।
“जांबू, बवाना मौलू।” उसने देखा कि केन्या का हाई कमिश्नर चन्द लोगों में से उठ कर उसे सलाम कह रहा है।
“जांबू, एक्सीलेन्सी,” उसे मा’लूम था कि अफ़्रीक़ी और एशियाई रिपब्लिकों के सफ़ीर शाही एहतिमाम से पुकारे जाने पर जामे में फूला नहीं समाते।
“आओ, हमारे साथ नहीं बैठोगे, बवाना?”
मौलू ने सोचा कि तरक़्क़ी-पज़ीर मुल्कों के नौकरशाहों की दावत बरसर-ए-राह भी क़ुबूल न की जाए तो वो उसे अपनी तौहीन पर महमूल कर लेते हैं। “हाँ, हाँ, क्यों नहीं, एक्सीलेन्सी?” वो लड़खड़ाए बग़ैर अपना आप लड़खड़ाते महसूस करके इस ग्रुप में आ बैठा और एक नीग्रो स्टीवर्ड उसके सामने गिलास रखकर शराब उंडेलने लगा। नीग्रो के झुके हुए सिर के बालों के छल्ले देखकर मौलू को लगा कि वो अपने केन्या के घर में बैठा हुआ है और उसका, काला नौकर उसका गिलास भर रहा है।
केन्या की बीस बाईस साला ज़िन्दगी भी गुरु श्री के दामाद ने राजा बन कर बिताई थी। हिन्दुस्तान से वहाँ आए अभी उसे दो साल भी न हुए थे कि चन्द कालों ने उसके इकलौते साले को क़त्ल कर दिया। उसका साला आधी रात को केबरे देखकर नशे की हालत में घर लौट रहा था कि लुटेरों ने उसकी गाड़ी रुकवा कर उसे ड्राईवर की सीट पर ख़त्म कर दिया और उसका बटवा, घड़ी, अँगूठी... जो कुछ भी उनके हाथ आया... लेकर चम्पत हो गए। उसका रंडुवा ससुर भी अपने बेटे के ग़म में चन्द ही माह में उसके पीछे हो लिया। फिर जब बुड्ढे के वकील ने उसे कुल जायदाद की तफ़्सीलात से आगाह किया तो उसने अपनी ज़िन्दगी को नए सिरे से प्लान करने की ठान ली। उसने अपनी अच्छी ख़ासी सरकारी नौकरी छोड़ दी। बूढ्ढा इतना कुछ छोड़ गया था कि वो काम-वाम के बग़ैर भी ठाट से रह सकता था, ता-हम बच्चे के सामने खिलौनों का ढेर लगा हो तो वो कब तक खेलने से हाथ रोके रखेगा। थोड़े ही अर्से में उसने ग्रोसिरी सँभाल ली। इसके इलावा वो अपने बाअज़ पुराने अंग्रेज़ अफ़सरों की बाक़ायदा कमीशन तय करके कई सरकारी इदारों को ठेके पर मुतफ़र्रिक़ ज़रूरियात सप्लाई करने लगा। जूँ-जूँ उसका काम बढ़ता चला गया वो सारे ईस्ट अफ़्रीक़ा में नए तर्ज़ पर ग्रोसिरी की एक लंबी तिलाई ज़ंजीर बनाने में जुट गया और इतनी दौलत पैदा कर ली कि कोई एक दहाई में उसका शुमार मुल्क के निस्फ़-दर्जन मालदार तरीन अश्ख़ास में होने लगा।
उसके माँ-बाप...? अब उसे इतनी फ़ुर्सत कहाँ रही थी कि उनकी याद में घुलता रहे। पहले-पहल तो उसने कई बार उन्हें लिखा कि वो भी उसी के पास आ जाएं, लेकिन बूढ़ा-बुढ़िया अड़ गए कि वो इस उ’म्र में समुंदर पार अपना मुर्दा कहाँ ख़राब करेंगे, वो यहीं अपने सियालकोट के घर में इसकी तरफ़ मुंह और मन करके ठंडी हवाएँ महसूस कर लिया करेंगे। चुनाँचे वो दोनों उसकी ठंडी हवाएँ महसूस कर-कर के सुलगते रहे और वो उनके माहाना एलाउन्स में उनकी शफ़क़त-ओ-दुआ के सिले की रक़म भी जोड़ कर उन्हें उस वक़्त तक पैसे भेजता रहा जब तक उसे पता न चला कि उसके पैसे चन्द माह से उनकी बजाय न जाने कौन वसूल करता रहा है। उन्हें मरे-खपे तो आधे साल से भी ऊपर हो लिया था।
उनकी मौत की इत्तिला पाकर उस शाम वो अपने बंगले के टैरिस पर तन्हा आ बैठा था और जानी वॉकर के पैग-दर-पैग चढ़ाते हुए अपने दिल में माँ-बाप की जलती हुई अर्थियों पर निगाह जमाए हुए था और उसका रोना नहीं निकल रहा था शायद इसलिए कि वहाँ कोई न था जो उसकी ढारस बंधाता... उसकी बीवी...? नहीं, वो उसकी ढारस कैसी बँधाती। बाँझ लज्जावती की कोख में कैंसर का टयूमर उग आया था और उसके पेट में चार-सू फैल रहा था। उसे तो ख़ुद आप ढारस की ज़रूरत थी जिसे पूरा करने के लिए मौलू ने चौबीस घंटों में आठ-आठ घंटों के लिए तीन तर्बियत-याफ़्ता नर्सें लगा रखी थीं। उसके बच्चे? नहीं, उसके कोई औलाद न थी जिसकी तोतली आँखों में खोकर उसे अपनी टोह खोह होने लगती।
जलती हुई अर्थियों पर ब-दस्तूर टक-टकी बाँधे उसने एक और पैग होंटों से लगा लिया और जब शराब अपना रस्ता चीर कर उसके मेदे में उतर रही थी तो चाँद आसमान से उसके सिर में समाया जा रहा था... मौलू... जब केन्या आने के लिए सियालकोट से उसकी गाड़ी रवाना हुई थी तो चाँद उसके साथ-साथ दौड़े चला आ रहा था... मौलू... न जाओ मौलू... अपने माँ-बाप को छोड़कर कहाँ जा रहे हो...? मौलू... मू... ओह शट अप... शट अप... थोड़े ही फ़ासले पर टियर्स की लिफ़्ट के क़रीब अफ़्रीक़ी बैरे मुअद्दब खड़े इन्तिज़ार कर रहे थे कि बवाना बेहोश हो और कब वो उसे स्ट्रेचर पर डाल कर उसके बेडरूम में पहुँचा दें।
“बवाना...?”
“ओ शट अप...” मौलू ने नशे में हड़बड़ाकर कहा, और यह देखकर कि उससे तो केन्या का हाई कमिश्नर हम कलाम है उसे तअस्सुफ़ हुआ... “आई एम सॉरी, एक्सीलेन्सी। मैं दर-अस्ल अपने आप को डाँट रहा था।” मौलू ने स्टीवर्ड को इशारा किया कि उसके लिए व्हिस्की लाए।
“कॉमनवेल्थ के मुल्कों को ये एक ब्रिटिश देन है,” ब्रिटिश वाइसकाउंसल वाट्स भी वहाँ मौजूद था। “कि अपने आपको डाँट कर वो अपनी इस्लाह करते रहें।”
“च ख़ूब!” मौलू ने सारे ग्रुप पर नज़र दौड़ाकर कहा, “यहाँ तो हेडमास्टर की निगरानी में पूरी कॉमनवेल्थ क्लासरूम में मौजूद है। इंडिया, पाकिस्तान, युगांडा, केन्या, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड उसने ऊब कर ख़ुद को बाक़ियों की तरफ़ देखने से रोक लिया। “क्या विक्टोरिया राज की बरकतों पर कोई सबक़ जारी है मिस्टर वाट्स?”
“मिस्टर मौलू स्पीकिंग को आउट लायक़ हिम सेल्फ,” वाट्स ने कहा। “हम सब तुम्हें मिस कर रहे थे।”
वाट्स, के लहजे में सफ़ेद झंडा पाकर मौलू ने अपना अन्दाज़ भुलाकर कहना चाहा, “मिस्टर वाट्स, आई विश आई हैड नॉट रिअनाउंस्ड माई ब्रिटिश सिटीज़न शिप...”
“तुम अगर दरख़्वास्त देना चाहो,” ब्रिटिस वायस काउंसिल ने उसे जवाब दिया। “तो हम फिर से तुम्हारी ब्रिटिश सिटिज़न शिप पर ग़ौर कर सकते हैं।”
“तुम ब्रिटिश लोग इतना ग़ौर मत किया करो मिस्टर वाट्स,” व्हिस्की का गिलास हाथ में लेकर मौलू ख़ुद को रोक न पाया।
“क्या मतलब?”
मौलू व्हिस्की का घूँट भरने के लिए ज़रा रुक गया, “अब यही देखो मिस्टर वाट्स, तुम्हारे ग्रेट ब्रिटेन ने केन्या के ब्रिटिश पासपोर्ट होल्डरों की ब्रिटिश शह्रियत तो क़बूल कर ली मगर बड़े ग़ौर-ओ-ख़ौज़ के बा’द ये फ़ैसला किया कि वो लोग अपनी ब्रिटिश शह्रियत के बावुजूद आपके मुल्क में रह नहीं सकते...”
“वतन की मोहब्बत का तकाज़ा तो ये था मिस्टर मौलू,” हिन्दुस्तान का सफ़ीर कुमोड पूछने लगा। “कि तुम भारत ही लौट जाते। आख़िर तुम यहाँ अमरीका क्यों चले आए?”
“वतन की मोहब्बत का तक़ाज़ा पूरा करने, मिस्टर... मिस्टर कुमोड।” कुमोड से बात करते हुए मौलू को हमेशा कुमोड की ‘डी’ पर ज़ोर डालने की तरग़ीब रहती। “मेरा मतलब है अस्सी करोड़ की आबादी में एक और नफ़्स का इज़ाफ़ा क्यों हो?”
“अस्सी करोड़,” न्यूज़ीलैंडर जिन इस्तिजाब में अपनी आवाज़ को फैलाता ही चला गया। “क्या इंडिया की औरतें बारह महीने हामिला रहती हैं मिस्टर कुमोड?”
“हाँ, मिस्टर जिन,” कुमोड के बजाय मौलू ने उसे जवाब दिया।
“हिन्दुस्तानी मग़रिबियों से इसी मानिंद अपने बदले चुकाते हैं। आप लोग कहीं भी मरें, वो आपको अपने मुल्क में पैदा कर लेते हैं...”
“रियली!” जिन घबराकर अपनी सारी जिन एक दम पी गया। “बडेबल मुझे किसी हिन्दुस्तानी घर में पैदा होना पड़ जाए तो मैं पैदाइश पर ही रो-रो कर जान दे दूँ।”
“मगर हम हिन्दुस्तानी सारी ज़िन्दगी रोते रहते हैं, फिर भी हमारी जान नहीं निकलती।”
“मगर हम अमरीकीयों को हिन्दुस्तानियों में शुमार नहीं करते मिस्टर मौलू,” कुमोड को मौलू पर ग़ुस्सा आ गया।
“मिस्टर कुमोड, क्या मुझे पाकिस्तानी समझ कर मुझसे नाराज़ हो गए?”
पाकिस्तानी सिफ़ारत-कार ने कुमोड के गले में अपना बाज़ू डाल दिया। “मेरी और कुमोड की दोस्ती पर शक की गुंजाइश रवा रख के तुम हम दोनों से ज़ुल्म बरत रहे हो मौलू।”
“यही तो सारे स्कैंडल की बिना है अली।” मौलू की पाकिस्तानी सफ़ीर से बड़ी गाढ़ी छनती थी।
“अश्ख़ास एक दूसरे से मोहब्बत करते हैं और इन्ही अश्ख़ास की सरकारें शायद उनकी मोहब्बत के बाइस एक दूसरे से नफ़रत।”
“बस अगर कश्मीर का मस्अला हल हो जाए,” पाकिस्तानी सफ़ीर ने कहा, “तो हमारे दर्मियान और कोई तनाज़ा है ही नहीं।”
“मगर कश्मीर हिन्दुस्तान का इन्टीग्रल पार्ट है,” कुमोड बोला।
“नहीं, कश्मीर पाकिस्तान की मज़हबी और तहज़ीबी कुल में वाक़े है,” अली ने फ़ौरन जवाब दिया।
“नहीं...”
“नहीं...”
इसी दौरान यू. एन. ओ. में ऑस्ट्रेलिया का नुमाइंदा सबको बताने लगा, “चंद साल पहले अपने सिडनी में एक कश्मीरी मेरा शरीक-ए-कार था उसने हमारी ऑस्ट्रेलियन शह्रियत इख़्तियार कर रखी थी। एक दिन मैंने उससे पूछा, ‘क्यों मिस्टर ज़हीरुद्दीन, यहाँ आने से पहले तुम कहाँ थे, हिन्दोस्तान में या पाकिस्तान में...?’ ‘पता नहीं, कहाँ...?’ उसने जवाब दिया... दंगों से जान बचाने के लिए ना-मा’लूम मैं कहाँ भागा फिरता था मिस्टर डाविनर। मुझे तो यहाँ ऑस्ट्रेलिया पहुँच कर पहली बार मा’लूम हुआ है कि मैं अपने ही वुजूद में हूँ...”
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के सिफ़ारत-कार अभी तक अपने चेहरों के यकसाँ ख़द्द-ओ-ख़ाल से बरामद होते हुए होंटों को इतनी यकसाँ वुसअत में खोले हुए थे गोया मुहिब-ओ-महबूब हों।
“नहीं...”
“नहीं...”
ग्रेट ब्रिटेन के वाट्स ने निहायत सिफ़ारत-काराना सन्नाई से बात का रुख़ मौसम की ख़राबी की तरफ़ मोड़ दिया। “यहाँ की सर्दी बड़ी ख़ुश्क है, मगर हमारे ग्रेट ब्रिटेन की सर्दी अपने गीलेपन के बाइस हमें बहुत अज़ीज़ है।”
मौलू शायद बोर होने लगा था, “क्या आप लोग इसी लिए नहाने से बहुत घबराते हैं?”
जब सब लोग हँस रहे थे तो केन्या का हाई कमिशनर मौलू के और क़रीब सरक आया, “पर मेरी समझ में नहीं आता बवाना, तुमने हमारा केन्या क्यों छोड़ दिया।’ जवाब में मौलू सिर्फ़ मुस्कुरा दिया।
केन्या की आज़ादी से चन्द साल पहले ही उसे अन्दाज़ा हो गया था कि हालात कैसा पलटा खाने वाले हैं। चुनाँचे उसने अपनी ग्रोसिरी की तिलाई ज़ंजीर काटना और जायदाद बेचना और धीरे-धीरे अपना सारा पैसा अमरीका भेजना शुरू’ कर दिया था। हत्ता कि आज़ादी के आस-पास वहाँ उसके एकाऊंट में लाखों डॉलर जमा हो गए। जब उसने अमरीका रवाना होने का तय कर लिया तो आज़ाद केन्या की लेजिस्लेटिव काउंसिल के एक फ़रीकी रुक्न ने उससे पूछा, “जब हिन्दुस्तान को आज़ादी मिली तो तुम यहाँ भाग आए और अब हमें मिली है तो तुम अमरीका भाग रहे हो। क्या तुम वहाँ नहीं रह सकते जहाँ आक़ाईयत के अस्बाब ना रहें...”
“शायद तुम पूछना चाह रहे हो बवाना, मैं वहाँ क्यों नहीं रहता जहाँ आक़ाईयत के अस्बाब पेचीदा होने लगते हैं,” मौलू ने उसे हँस कर जवाब दिया और सोचने लगा, ‘मैं इसे क्या बताऊँ? इसलिए कि पनाह-गाहें बदले बग़ैर मेरी निजी आक़ाईयत को ख़तरा लाहक़ हो जाता है, जिसे मैंने एड़ियाँ रगड़-रगड़ कर अपने पैरों पर खड़ा किया है।’
“बवाना मवाँगी,” थोड़े तवक़्क़ुफ़ के बा’द उसने आज़ाद केन्या की पार्लियामेंट के रुक्न को दोबारा मुख़ातब करके कहा, “जिस अक्सरियत की सरकार को तुम बज़रिया और बराए अक्सरियत क़रार देकर ख़ुश रहते हो, ज़रा उसका चीर-फाड़ तो करके देखो। जम्हूरी इन्तिख़ाबात में ढोल बजाने वालों को न गिनें तो इन्तिख़ाब करने वाले भी वही होते हैं और मुन्तख़ब भी वही।”
“मगर बवाना...”
“नहीं, बवाना, तुम्हारी स्वाहिली में एक कहावत है, लोमड़ अपनी चार टांगों पर इसलिए सीधा नज़र आता है कि उसकी कोई कल सीधी नहीं होती। इसी लोमड़ का दूसरा नाम जम्हूरियत है।”
“लोमड़ दोमड़ को ख़ारिज करके सीधी बात करो।”
“सीधी बात ये है जम्हूरियत में भी सारे लोग चन्द एक की हुक्मरानी में ही बसर करते हैं।”
“मुझे यक़ीन है बवाना, अमरीकी तुम्हारी ये नॉनसेंस पसंद नहीं करेंगे।”
“और मुझे यक़ीन है बवाना मवांगी, इट शुड मेक परफ़ेक्ट सेंस टू दा अमेरिकन्ज़... ख़ैर।” ग्रोसिरी के धंधे ने मौलू को बातों का इतना धनी बना दिया था कि वो तसलसुल तोड़े बग़ैर बात से बात पैदा कर लेता। “जम्हूरियत का ये ग़ैर अख़्लाक़ी पहलू भी देख लो। यहाँ भी पहला दर्स यही है कि आदर्श जम्हूरिया अक़ल्लियत को टालने का मिजाज़ नहीं। हा हा हा... जैसे भी कह लो, कलीदी लफ़्ज़ वही है... वाहिद... फ़र्द-ए-वाहिद... सो जम्हूरियत की तारीफ़ यूँ होनी चाहिए...’ मौलू अपने लफ़्ज़ों को तर्तीब में बिठाने के लिए ज़रा रुक गया। “सरकार-ब-रिश्ता-अक़ल्लियत, बराए अक़ल्लियत... एंड ऑफ़ कोर्स... बज़रिया-अक़ल्लियत... बोलो, है न बवाना?”
केन्या की आज़ादी के चन्द माह बा’द मौलू वहीं रुका रहा, कि उसकी बीवी के दम का भरोसा न था। उसने कई बार डॉक्टर से मश्वरा भी किया कि क्या मर्सी किलिंग मुनासिब न रहेगा। मगर उसी अस्ना में ख़ुदा ने आप ही अपनी मर्सी के दरवाज़े खोल दिए। मौलू ने पूरी हिन्दू रसूमात के साथ मरहूमा के धुएँ को बैकुंठ की तरफ़ उड़ाने का एहतिमाम किया और ख़ुद आप केन्या की आज़ादी का पहला जश्न ख़ूब धूम-धाम से मनाकर अमरीका उड़ आने के लिए हवाई जहाज़ में आ बैठा। रास्ते में चाँद उसके जहाज़ के साथ-साथ दूर तक दौड़ता रहा... मौलू... मौलू... शायद वो अपनी सीट पर बैठे-बैठे सो गया और.... और...
वो सियालकोट में अपने माँ-बाप के कच्चे आँगन में चाँदनी में अपने साए से खेल रहा है... मौलू... उसे अपनी माँ की आवाज़ सुनाई दी है.... अब अन्दर आके सो जाओ बेटा... नहीं माँ, मुझे नींद नहीं आ रही... मौलू... उसके बाप ने उसे डाँट कर बुलाया है... चलो, अन्दर आओ... आया, बाबा...
मौलू हड़बड़ाकर अपनी हवाई जहाज़ की सीट में जाग पड़ा... मौलू... दौड़ते-दौड़ते चाँद की साँस फूल गई थी मगर वो अभी तक वैसे ही उसके पीछे चला आ रहा था... मौलू... यहाँ से भी आगे जा रहे हो मौलू? वहाँ तुम्हारा कौन है...? आओ मौलू, मैं तुम्हें बाबा और माँ के पास ले चलता हूँ... आओ... मौलू की आँखें फिर मुँदने लगीं।
सो जाओ मौलू। बहुत खेल लिए हो... आओ, आके सो जाओ... मौलू... आया, माँ... वो अपने पहले घर के कच्चे आँगन से कोठरी में दाख़िल हो रहा है और चाँदनी भी दबे-पाँव उसके पीछे चली आ रही है और चन्द क़दम में ही उसके आगे होके उसकी चारपाई पर उछल आई है और वो उसे यहाँ भी पाकर खिलखिला कर हँस पड़ा है... देखो, मौलू की माँ, तुम्हारा बावला बेटा आप ही आप हँसे जा रहा है... सो जाओ, बेटे सवेरे स्कूल जाना है... हाँ, बाबा... चादर में चाँदनी को भी लिए मौलू ने सात बार ओम का जाप करने के लिए मुंह खोला है मगर छठी बार नींद ही नींद में एक और नींद में उतर आया है... माँ... माँ... और बाबा कहाँ खो गए...? बा... बा... वो उन्हें बाबे बैरी के मेले में ढूंढ रहा है... माँ... मौलू बे-इख़्तियार रोने लगा है और सारे मेले में रो-रो कर घूमते हुए दोनों नींदों की सरहदों से बाहर निकल आया है।
आँख खुलने पर भी वो अपने मा’सूम गिरए से कान नहीं हटा पाया।
और... मगर केन्या का सफ़ीर उसे मुख़ातिब करके कह रहा था, “अगले वीक एंड को मेरा केन्या जाने का प्रोग्राम था बवाना मौलू, मगर मैंने अपनी रवानगी सिर्फ़ इसलिए मुल्तवी कर दी है कि तुम्हारे ग्रेट गिबिन्ज़ मरहूम की बर्थ एनी वर्सरी का ग्रेट डिनर भी इसी दिन है।”
“इट इज़ ओवर ग्रेट प्रिविलेज।”
मौलू ग्रेट गिबिन्ज़ मरहूम का प्रोटेजी भी था और उसकी ज़िन्दगी में उसके ऑल वर्ल्ड का पार्टनर भी। ग्रेट गिबिन्ज़ की बीवी यहाँ अमरीका आने से पेशतर वहाँ केन्या में ही एक जर्मन वाईट हाई लैंडर की बीवी थी और वहाँ मौलू से भी उसका अफ़ेयर चलता रहा था। उसी के ज़रिए मौलू का गिबिन्ज़ से राब्ता पैदा हुआ था, जिसके बा’द दो एक साल में ही वो इतने क़रीब आ गए कि गिबिन्ज़ ने उसे अपनी सहाफ़ती सल्तनत में बराबर का हिस्से-दार बना लिया था। गिबिन्ज़ को शराब की इतनी लत थी कि पिए बग़ैर होश में न आता था और डॉक्टरों की बातों में आ कर कभी पीने से हाथ खींच लेता तो बैठे-बैठे भी लड़खड़ा जाता। अपनी बीवी की मानिंद उसे भी मौलू से इश्क़ था, शायद इसलिए कि उसकी माँ भी हिन्दुस्तानी थी... नहीं... वो फ़ौरन अपने आपको दुरुस्त करके मौलू को बताता... दरअस्ल मेरा बाप हिन्दुस्तानी था। मेरा मतलब है, मेरी माँ ही मेरा बाप थी, क्यों कि उसी ने अपनी निहायत कड़ी निगह-दाश्त में मुझे ऊँचा किया... गिबिन्ज़ हँसने लगता... मेरे बिगड़ने का यही सबब है कि मेरी माँ मुझे लम्हा भर भी अपनी नज़रों से ओझल न होने देती थी। जब वो मर गई तो ख़ुद को उसकी नज़र से बंधा हुआ न पाकर मैं बे रोक-टोक अपने मौजूदा जहन्नुम की तरफ़ बढ़ता चला आया।
“तुम्हारा बा...?”
“मेरे अमरीकी बाप को पैसा कमाने से फ़ुर्सत ही कहाँ थी? उसे तो ये भी ख़बर न थी कि मैं उसका बेटा हूँ या उसके पड़ोसी का... उसे छोड़ो मौलू, तुम मुझे अपनी माँ के बारे में कुछ बताओ... नहीं, मेरी शराब में पानी मत मिलाओ।” गिबिन्ज़ उसे टोकता। “मौलू, हिन्दुस्तानी माँओं के बारे में मेरी ला-इल्मी मज़हका-ख़ेज़ है। तुम अपनी माँ का कुछ ऐसा ख़ाका खींचो कि मैं भी अपनी माँ को जानने पहचानने लगूँ।”
गिबिन्ज़ इसलिए पीता था कि होश में रहे, और मौलू इसलिए कि होश खो बैठे। कई बार ऐसे हुआ कि शराब पी कर मौलू ख़्वाह आसमान की तरफ़ देखता ख़्वाह अपने ज़ह्न में, धुंद ही धुंद में कहीं से वही चन्द आ नमूदार होता... आओगे नहीं, मौलू...? आओ, माँ तुम्हारी राह तक रही है।
“तुम कहाँ चले गए थे मौलू?” गिबिन्ज़ की बीवी ने एक दिन उससे कहा था, “मैं पिछले दस दिन से तुम्हारा रास्ता देख रही हूँ।”
मगर नशे में होश खोकर वो मौलू को अपनी माँ ही मा’लूम हो रही थी और उसकी गोद में सर रखकर उसका रोना थमने में नहीं आ रहा था और गिबिन्ज़ की बीवी ने जल्दी-जल्दी उसके और अपने कपड़े उतार कर उसे अपने साथ रज़ाई की हिद्दत में लिटा लिया था और उससे वालेहाना प्यार करने लगी थी, मगर मौलू सिसकियाँ भरते हुए अपने ख़्वाब में डूबा जा रहा था।
“मौलू, तुम्हारे ग्रेट गिबिन्ज़ की दिलचस्प गुफ़्तगू की गूँज अभी तक वैसे ही कानों में महसूस होती है,” न्यूज़ी लैंडर, जो यहाँ एक मुद्दत से रह रहा था, मौलू को मुख़ातिब करके उसकी तवज्जोह तलब कर रहा था।
“इसी लिए हमारे ‘ऑल वर्ल्ड’ ने इस डिनर में एक ऐक्टर की ख़िदमात हासिल की हैं,” मौलू ने उसे बताया, “इस ऐक्टर की बातें सुनकर यही लगता है कि गिबिन्ज़ ही राकेट में सवार हो कर जहन्नुम से आ पहुँचा है।”
“क्या अमरीकी सरकार ने अपनी स्पेस टैक्नोलॉजी शैतान को भी बेच दी है,” पाकिस्तानी सिफ़ारतकार से न रहा गया।
“मैं तो राय दूँगा कि जिसे भी हमारी स्पेस टैक्नोलॉजी हासिल करना है वो शैतान से ग़ैर-मशरूत राह और रब्त पैदा करे।”
“नऊज़ु-बिल्लाह,” अरब रिपब्लिक के नुमाइंदे ने बे-इख़्तियार ब-आवाज़-ए-बुलंद कहा जिसे सुनकर मौलू को अचानक घर लौटने की ख़्वाहिश होने लगी और वो उठ खड़ा हुआ।
“चीयर यू, एवरीबॉडी!”
चंद ही क़दम पर हाल के बैरूनी दरवाज़े पर मेज़बान और उसकी बीवी जाने वालों को शब-ब-ख़ैर कहने के लिए खड़े थे।
“मैं तुमसे बहुत ख़फ़ा हूँ मौलू,” पिछले माह मौलू ने अपने ‘ऑल वर्ल्ड’ में पूरे निस्फ़ सफ़हे पर होस्टेस डॉली की तस्वीर शाया की थी जिस बाइस वो उस पर ख़ास मेहरबान थी और उससे बड़ी बे-तकल्लुफ़ी से पेश आने लगी थी।
“डाली डियर, कल तक भी इसी तरह नाराज़ रहना।”
“क्यों?”
“इस वक़्त में नशे में हूँ,” मौलू ने उसे जवाब दिया। “इस वक़्त कैसे बता सकता हूँ कि ख़फ़ा हो कर तुम वाक़ई ज़ियादा ख़ूबसूरत मा’लूम होने लगती हो।”
“हाउ नॉटी!”
“टा...टा!”
मौलू आगे बढ़ने लगा तो उसकी चाल-ढाल देखकर डाली का शौहर बोला, “ठहरो मौलू। नशे में हो तो एक टाट और चढ़ा जाओ।” वो शायद ऑल वर्ल्ड में अपने सनडाउनर के राइट-अप से मुताल्लिक़ सोच रहा था। “होश आ जाएगा।”
“होश आ जाएगा माई डियर रोली, तो कौन सा ख़ुदा नज़र आने लगेगा,” मौलू आगे बढ़ने लगा तो रोली के इशारे पर एक स्टीवर्ड उसके साथ हो लिया और वो गोया उसी के पैरों पर चल कर अपनी कार के पास आ खड़ा हुआ।
मौलू को गाड़ी चलाने का होश ही कहाँ था? बस यही समझ लें कि उसकी गाड़ी आप ही आप चलती जा रही थी। उसकी ज़िन्दगी की गाड़ी भी यूँ ही चलती आई, इसीलिए तो वो सियालकोट के चाउनां मौहल्ले से यहाँ न्यूयार्क आ पहुँचा, वर्ना अपनी मर्ज़ी से उसे कहीं से कहीं पहुँचना होता तो मुहल्ला चाउनां से मौहल्ला धारोवाल से आगे क़दम न रखता। धारोवाल में। क्या नाम था उसका...? जबीं रहा करती थी। सितारा जबीं मौलू की पहली महबूबा थी और वो उसे अभी तक इसीलिए नहीं भूल पाया था या फिर शायद इसलिए कि उसे उसका नाम बहुत पसंद था, या शायद चेहरा... मौलू को अचानक सितारा जबीं का ख़याल आ गया था और वो उसका चेहरा आँखों में लाने की कोशिश कर रहा था मगर एक उस चेहरे के सिवा दुनिया-भर की औरतों के चेहरे यके-बा’द-दीगरे उसके सामने आ रहे थे। नहीं, वो उसकी शक्ल भूला तो नहीं था मगर... उसने मुस्कराकर सर हिला दिया। मगर पता नहीं उसकी क्या शक्ल थी। बड़ी भली शक्ल थी, इतनी भली, कि उसने जबीं को बे-झिजक बता दिया था, तुम मेरा आदर्श हो, मेरा सब कुछ... नहीं, जी ही जी में बताया था। सच-मुच तो उसने अपनी सितारा जबीं से बात भी न की थी। उसे तो शायद मा’लूम ही न था कि मौलू उससे मोहब्बत करता है। मौलू ने अपनी मोहब्बत को अपनी ज़ात का एक निहायत मुक़द्दस राज़ समझ कर सीने से लगाए रखा। मौलू खिल-खिला कर हँस पड़ा। मुक़द्दस राज़... उ’म्र गँवा कर उस पर खुला तो ये था कि मोहब्बत एक पब्लिक अफ़ेयर है जिससे भी चाहो मोहब्बत करो मगर उसकी और अपनी सहूलियत के मुताबिक़ करो, और चाहने वाले बहुत ज़ियादा हों तो सब्र से काम ले के अपनी बारी पर कर लो... और क्या...
मौलू पर जो हँसी का दौरा पड़ा तो उसकी गाड़ी ज़रा ग़लत पहलू की तरफ़ खिंच आई और मुख़ालिफ़ सिम्त से इक बर्क़-रफ़्तार कार के ड्राईवर ने अपने फेफड़ों से आवाज़ बुलंद की, ‘ब्लडी फ़ूल!’ मगर मौलू को अपनी तरंग में जो ख़्वाहिश उठी तो उसने यही राग अलापना शुरू’ कर दिया। आई एम-ए ब्लडी फ़ूल! आई एम अ ब्लडी फ़ूल... वो अपने सामने सड़क पर निगाह जमाए ना-मा’लूम कहाँ पहुँचा हुआ था और उसकी गाड़ी अज़-ख़ुद अड़ी जा रही थी। ड्राईवर की सीट पर बैठ कर वो गोया स्टेयरिंग, थर्रा टल या सोच बोर्ड के मानिंद गाड़ी का ही कोई हिस्सा बन जाता, गाड़ी ही बन जाता, और इस पर भी अपने आपको सोचते हुए पाकर उसे तअ’ज्जुब होने लगता कि गाड़ियाँ क्यों-कर सोच सकती हैं। चन्द ही रोज़ पहले उसने अपने ‘ऑल वर्ल्ड’ में ह्यूमन ऑटो मोबाइल्ज़ के मौज़ू पर एक मिडल में अपने क़ारईन को ये वाक़िया सुनाया था, “परसों में अपनी कार में ड्यूक ऑफ़ एडिनबरा की आमद पर उससे इंटरव्यू करने ब्रिटिश एम्बेसी जा रहा था। एम्बेसी से थोड़ी ही दूर मेरी कार अचानक पंक्चर हो गई। ड्यूक ऑफ़ एडिनबरा से मेरी एप्वाइनमेंट का वक़्त गुज़रा जा रहा था और मुझे गाड़ी का पहिया तब्दील करने के ख़याल से उलझन हो रही थी। पाँच-सात मिनट गो-म-गो में ही गुज़र गए और फिर मुझे एक दम जैसे अपनी मुश्किल का हल सूझा... अरे... दो सौ गज़ का फ़ासला ही तो है। पैदल ही क्यों न चला जाए... अरे हाँ... इस इन्किशाफ़ पर ख़ुशी से मेरे हाथ पाँव फूल गए। मैं भूल ही गया था मेरे टांगें भी हैं...” आई एम अ ब्लडी फ़ूल।
मिडल याद आने पर मौलू गोया अपने सामने ऑल वर्ल्ड खोले ड्यूक ऑफ़ एडिनबरा से अपना इंटरव्यू पढ़ने लगा था।
मुझे ज़र्द-रू पाकर ड्यूक ऑफ़ एडिनबरा को शायद ख़याल गुज़रा कि ऑल वर्ल्ड ने अपने जूनियर स्टाफ़ में से किसी को भेज दिया है। फिर भी उसने... जैसा कि इसके तअ’ल्लुक़ से मश्हूर है... ख़ुश-दिली से कहा, “हेलो क्या नाम है तुम्हारा?”
“योर रॉयल हाईनेस,” मैं तो सोच कर ही आया था कि मुझे इसी तरह इंटरव्यू को शुरू’ करना है। “एक ज़माना था कि लोग मुझे भी ड्यूक ऑफ़ एडिनबरा कहा करते थे।”
“माई!” मुझे मा’लूम था कि ड्यूक ऑफ़ एडिनबरा की मज़ाह की रग अगर फड़क उठे तो वो अपनी लागत पर भी बोलने से नहीं चूकता। “क्या तुम्हारी बीवी भी कहीं कोई मलका है?”
“हाँ, योअर रॉयल हाईनेस। आपके यहाँ तो ग्रोसिरी की बेटी को प्राइम मिनिस्टर के ऑफ़िस तक ही रोक दिया जाता है मगर हमारे यहाँ ईस्ट अफ़्रीक़ा में हिन्दुस्तानी गुरु श्री की बेटियाँ मलिकाएँ क़रार दी जाती थीं और हम हिन्दुस्तानी दर-आमद शुदा भोंदू शौहर, आपके मानिंद ड्यूक।”
ड्यूक ऑफ़ एडिनबरा किसी स्कूल ब्वॉय की मा’सूमियत से हँसने लगा था, “तो आओ, अपनी इस कॉमन प्रॉब्लम से ही इंटरव्यू का आग़ाज़ करें।”
“योर रॉयल हाई नेस, अगर अपनी बीवी की बजाय आप हुकमरान होते तो...”
मेरा पूरा जुमला अदा होने से पहले ही ड्यूक ने जवाब दिया, “तो मैं अपनी सारी बेचारगी और ड्यूक ऑफ़ एडिनबरा का लक़ब फ़ौरी तौर पर क्वीन को सौंप देता।”
क़हक़हा हँसते हुए मौलू को महसूस हुआ कि उसकी गाड़ी के पहिए सरक के टेढ़े-मेढ़े पत्थरों पर उछलने लगे हैं। वो सोचने लगा था कि अगर मैं अपनी बीवी के ईलाज में अपनी दुआएँ भी शामिल कर लेता तो शायद... मगर वो अपने आपको बताने लगा कि किसी ने भला शैतान को भी दुआएँ माँगते देखा है। शैतान की शहज़ादगी तो ख़ुदा का मज़ाक़ उड़ाने के दम से है। दुआ की सलाहियत खो कर ही तो वो अपने बड़े अमरीकी फ़ोर्थ स्टेट को अपनी मिल्कियत में ला पाया है... मिस्टर प्रेज़ीडेंट... उसने एक दफ़ा अपने एक एडिटोरियल में यू.एस.ए. के सद्र को रास्त मुख़ातिब करके मुतनब्बेह किया था... ये क्या तुक हुई कि जहाँ तुम्हारी मन्तिक़ जवाब दे जाती है वहाँ तुम कांग्रेस को ख़ुदा का वास्ता देने लगते हो...? मौलू अपने वाक़िफ़-कारों को बताया करता कि मुझे जब बे-मन्तिक़ नेकियों की तहरीक होती है तो ख़्वाह-म-ख़्वाह ख़ुदा को डिस्टर्ब करने की बजाय में ख़ूब शराब चढ़ाकर अपनी गाड़ी में बे-तहाशा जंगलों की तरफ़ हो लेता हूँ और वहाँ किसी ट्री टॉप हॉलीडे उनके महफ़ूज़ चबूतरों से इस वक़्त तक चौपाओं की ज़िन्दगी के फ़ित्री अस्बाब का मुताला करता हूँ जब तक मेरी समझ में पूरी तरह न आ जाए के सबसे बड़ी नेकी क्यों-कर वही एक है जो हर ज़ी-जाँ अपने साथ बरत पाता है, और न बरत पाए तो कोई और उसी की नेकी को बरत कर उसे हड़प कर जाता है।
“तुम नेक इन्सान नहीं,” उसकी केन्या की हिन्दुस्तानी बीवी उससे लड़ते हुए अक्सर कहा करती। “जब तुम मुझे अपनी बाहों में लेते हो तो मेरी कोख सिकुड़ कर बंद हो जाती है और मैं तुम्हारी चोटें बर्दाश्त किए जाती हूँ और बस...”
“सन ऑफ़ अ बिच...” मौलू अपनी बीवी को कोस रहा था कि शायद उसकी गाड़ी के पहियों तले रात का कोई जानवर आ गया मगर नशे में किसी की चीख़ें कहाँ सुनाई देती हैं। सारी ज़िन्दगी मुझसे नफ़रत करने के बा-वुजूद शिकायत करती रही कि में उससे मोहब्बत नहीं करता
“तो क्या करता हूँ?”
“धंदा...”
मौलू की मौजूदा सफ़ेद बीवी भी उससे यही कहा करती... डार्लिंग, जब तुम मेरे बदन पर उछल कूद में मसरूफ़ होते हो तो मुझे लगता है तुम्हारे किसी ब्यूटीफ़ुल लिटिल एडिटोरियल से लुत्फ़ अंदोज़ हो रही हूँ और बस...
सन ऑफ़ अ बिच... उसने अपनी उस बीवी को भी गाली बकी। मेरी बे-मेह्र मुबाशरत के बाइस मेरे बच्चे मेरे ख़ून में ही बूढ़े हो कर रह गए हैं और मैं उन्ही का बलग़म थूकता रहता हूँ... उसने शुक्र अदा किया कि उसकी औलाद पैदा होने से रह गई, वर्ना पैदा होते ही खाँस-खाँस कर उससे मुख़ातब हो कर कहती। डैड फ़र्मांबरदार बाप अपनी औलाद के अहकाम को तौलते नहीं, उन्हें बजा लाते हैं... हा हा हा... हा हा... मौलू की हँसी रोके न रुक रही थी, शायद वो अपने ख़ून में खाँसती औलाद के खूसट रवय्यों पर हँसे जा रहा था या शायद यू.एन.ओ. के डिप्टी सेक्रेटरी के सनडाउंर में उस बूढ़े एशियाई प्रोफ़ेसर राधा स्वामी पर, जिसकी बातों में घिर कर तीन-चार हसीनाओं को पता नहीं चल रहा था कि वो फ़रार की क्या सूरत करें। लड़कियों की बेचारगी के मंज़र से महज़ूज़ हो कर मौलू भी प्रोफ़ेसर के घेरे में जा दाख़िल हुआ था।
“भूक ख़ुदा की सबसे बड़ी ने’मत है ख़ूबसूरत लड़कियों,” एशियाई प्रोफ़ेसर की नज़र अमरीकी लड़कियों को चाट-चाट कर खा रही थी।
“तुम्हारे अमरीका का सबसे बड़ा मस्अला उसका रुझापन है। उसे भूक ही नहीं लगती, मगर कोई खाए नहीं तो जिएगा कैसे? लिहाज़ा अमरीका मौत के ख़ौफ़ से बे-भूक खाता रहता है...”
“मैं आपके खाने के लिए कुछ लाती हूँ।”
“नहीं,” प्रोफ़ेसर ने बोलने वाली लड़की के कंधे को मज़बूती से थाम लिया। “पहले मैं तुम्हें एक महाराजा की कहानी सुनाता हूँ। इस कहानी से मेरी सारी बात वाज़ेह हो जाएगी।”
उसी दम बूढ़े प्रोफ़ेसर की नौजवान बीवी भी उसे ढूँढती हुई आ पहुँची और उसका आख़िरी जुमला सुनकर बोली, “तुम ख़्वाह-म-ख़्वाह अपना वक़्त ज़ाए कर रही हो लड़कियों। मेरा शौहर अपनी बात को कभी वाज़ेह नहीं कर पाएगा। उसे सुनकर मुझे तो वो कुछ भी ग़ैर वाज़ेह मा’लूम होने लगता है जो पहले ऐन वाज़ेह था।”
“क्या वाज़ेह था?” फ़लसफ़े का प्रोफ़ेसर अपनी बीवी से पूछने लगा जो माहौलियाती आलूदगी के इंसिदाद पर तहक़ीक़ के काम पर मामूर थी... “पॉल्यूशन?”
“हाई, मौलू!” मिसेज़ राधा स्वामी मौलू को भी वहीं पाकर खिल उठीं। “माई डियर हसबैंड को समझाओ मौलू, कि पॉल्यूशन सिर्फ़ धुएँ और गैस से नहीं होती, बातूनी लोगों के शोर से भी पॉल्यूशन बढ़ रही है।”
“मैंने तो सुना है लॉजी,” मौलू ने मिसेज़ राधा स्वामी को जवाब दिया, “कि आदमी के बुरे ख़याल भी साँस के रास्ते माहौल में बिगाड़ पैदा करते हैं।”
लॉजी ने इसकी तरफ़ देखकर कृष्ण की गोपी सी बने अपनी साउथ इंडियन पतली कमरिया को बल दिया, गोया ये कहने के लिए, कुछ बुरा भला सोचो तो जानूँ भी मौलू, नहीं तो क्या पता क्या है।
“क्या ये सच है?” हसीनाओं में से एक ने सवाल किया, “कि हमारी पॉल्यूशन से हमारी दुनिया ग्रीन हाऊस में मुन्तक़िल होती जा रही है?”
“हाँ” दूसरी बोली, “पोल्यूशन से आस्मान में ये जो ग्रीन हाऊस बन रहा है, क्या मजाल, उसकी दीवारों से बाहर कुछ जा पाए।”
“ग्रीन हाऊस की छत मोटी होती चली गई तो हमारा ग्लोब जहन्नुम बन जाएगा।”
“मौलू।” मानो अचानक याद आने पर मिसेज़ राधा स्वामी रुक न सकीं। “मैंने आज तुम्हारे ‘ऑल वर्ल्ड’ में पढ़ा है कि चाँद के पहले ट्रिप के लिए धड़ा-धड़ बुकिंग की जा रही है।”
मौलू... मू... लू... मौलू की गाड़ी हवा से बातें कर रही थी कि उसे यक-ब-यक चाँद की मानूस आवाज़ सुनाई दी जो आसमान से उतर कर उसकी मुत्तसिल निशिस्त की खिड़की पर आ बैठा था। चलो, मौलू, मैं तुम्हें लेने आया हूँ... कहाँ क्या? आओ... मौलू...
मौलू ने सोच रखा था कि घर पहुँचने से पहले वो व्हिस्की नहीं पिएगा मगर अपनी ख़्वाहिश से मग़्लूब हो कर उसने ड्राईवर की सीट के पहलू के एक थैले से व्हिस्की की बोतल निकाली और अभी उसे खोल कर मुंह से भी न लगा पाया था कि उसकी गाड़ी सड़क के किनारे उस मोड़ पर नीचे वादी में लुढ़क गई।
मौलू बच गया था।
उसे अस्पताल में दाख़िल हुए कोई हफ़्ता भर हो लिया तो एक सुबह डॉक्टर ने उसके ज़ख़्मों के मुआइने के बा’द तशफ़्फ़ी में सिर हिलाया और उसे बताने लगा, “जब तुम्हें यहाँ लाया गया था मिस्टर मौलू, तो हम दो डॉक्टरों की राय में तुम्हारी मुकम्मल मौत वाक़े हो चुकी थी, मगर फिर क्या हुआ, कि तुमने यक-लख़्त आँखें खोल लीं।”
“मैं आँखें कैसे न खोलता डॉक्टर...?” मौलू उसे बताने लगा। “मेरी रूह वाक़ई उड़ान भर चुकी थी, मगर कहाँ जाती? ज़रा सी ऊपर गई तो ग्रीन हाऊस की छत के नीचे ही फड़-फड़ाकर रह गई, और निजात की कोई राह न पाकर अपना जहन्नुम जीने के लिए लौट आई।”
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