Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

मेरा बच्चा

कृष्ण चंदर

मेरा बच्चा

कृष्ण चंदर

MORE BYकृष्ण चंदर

    स्टोरीलाइन

    किसी भी औरत के पहला बच्चा होता है तो वह हर रोज़ नए-नए तरह के एहसासात से गुज़रती है। उसे दुनिया की हर चीज़ नए रंग-रूप में नज़र आने लगती है। उसकी चाहत, मोहब्बत और तवज्जोह सब कुछ उस बच्चे पर केंद्रित हो कर रह जाती है। एक माँ अपने बच्चे के बारे में क्या-क्या सोचती है वही सब इस कहानी में बयान किया गया है।

    ये मेरा बच्चा है। आज से डेढ़ साल पहले इसका कोई वजूद नहीं था। आज से डेढ़ साल पहले ये अपनी माँ के सपनों में था। मेरी तुंद-ओ-तेज़ जिंसी ख़्वाहिश में सो रहा था। जैसे दरख़्त बीज में सोया रहता है। मगर आज से डेढ़ बरस पहले उस का कहीं वजूद था।

    हैरत है कि अब इसे देखकर, इसे गले से लगा कर, इसे अपने कंधे पर सुला कर मुझे इतनी राहत क्यों होती है। बड़ी अ'जीब राहत है ये। ये राहत उस राहत से कहीं मुख़्तलिफ़ है जो महबूब को अपनी बाँहों में लिटा लेने से होती है, जो अपनी मन-मर्ज़ी का काम सर-अंजाम देने से होती है, जो माँ की आग़ोश में पिघल जाने से होती है। ये राहत बड़ी अ'जीब सी राहत है। जैसे आदमी यकायक किसी नए जज़ीरे में निकले, किसी नए समंदर को देख ले, किसी नए उफ़ुक़ को पहचान ले। मेरा बच्चा भी एक ऐसा ही नया उफ़ुक़ है। हैरत है कि हर पुरानी चीज़ में एक नई चीज़ सोई रहती है और जब तक वो जाग कर सर-बुलंद होले, कोई उसके वजूद से आगाह नहीं हो सकता। यही तसलसुल माद्दे की बुनियाद है। उसकी अबदीयत का मर्कज़ है। इस से पहले मैंने इस नए उफ़ुक़ को नहीं देखा था, लेकिन इसकी मुहब्बत मेरे दिल में मौजूद थी। मैं इस से आगाह था मगर ये मेरी ज़ात में थी। जैसे ये बच्चा मेरी ज़ात में था। मुहब्बत और बच्चा और मैं। तख़्लीक़ के जज़्बे की तीन तस्वीरें हैं।

    बच्चे सभी को प्यारे मा'लूम होते हैं। मुझे भी अपना बच्चा प्यारा है, शायद दूसरे लोगों के बच्चों से ज़्यादा प्यारा है। अपने आपसे प्यारा नहीं। मगर अपने आपके बा'द और भी कई चीज़ें हैं, कई जज़्बे हैं। अना की कितनी ही तफ़सीरें हैं जिनके बा'द ये बच्चा मुझे प्यारा है। ये तो कोई बड़ी अ'जीब और अनोखी बात नहीं है। मैं दिन में अपना काम करता हूँ और ये बच्चा मुझे बहुत कम याद आता है और जब ये सामने होता है, उस वक़्त बहुत कम काम मुझे याद आते हैं। ये सब एक निहायत ही आम बात सी है। हर माँ और हर बाप इस फ़ितरी जज़्बे से आगाह है। इस में तो कोई नई बात नहीं। लेकिन दुनिया में हर बार किसी बच्चे का मा'रिज़ वजूद में आना एक नई बात है। चाहे वो बादशाह का बच्चा हो या किसी ग़रीब लकड़हारे का। हर बच्चा इक नई हैरत है। इंसानियत के लिए, तहज़ीब के लिए, हाल के लिए, मुस्तक़बिल के लिए, वो एक ख़ाका जिसमें रंग भरा जाएगा, जिसमें नुक़ूश उभारे जाएँ, जिसके गिर्द समाज का चौखटा लगाया जाएगा। इस ख़ाके को देखकर हैरत होती है, दिल में तजस्सुस और तख़य्युल में उड़ान पैदा होती है। बुड्ढे को देखकर तख़य्युल पीछे को दौड़ता है, बच्चे को देखकर आगे बढ़ता है। बुड्ढा पुराना है, तो बच्चा नया है, एक माज़ी है तो दूसरा मुस्तक़बिल है, लेकिन तसलसुल लिए हुए। तख़य्युल की रेल-गाड़ी इन्ही दो स्टेशनों के दरमियान आगे पीछे चलती रहती है।

    किस क़दर तहय्युर-ज़दा, अजीब-ओ-ग़रीब नया हादिसा है ये बच्चा। एक तो इसकी अपनी शख़्सियत है, फिर इसके अंदर दो और शख़्सियतें हैं। एक इसकी माँ की, दूसरी इसके बाप की। और फिर दो शख़्सियतों के अंदर जाने और कितनी शख़्सियतें छिपी हुई होंगी। और उन सबने मिलकर एक नया ख़मीर उठाया होगा। ये ख़मीर कैसा होगा, अभी से कोई क्या कह सकता है। इस बच्चे को देख के जो इस वक़्त जा! जा! जा! कहता है और फिर हँसकर अँगूठा चूसने में मसरूफ़ हो जाता है। मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि इस चेहरे में मेरा तबस्सुम है, मेरी ठोढ़ी है, वही होंट हैं, वही माथा, भवें और आँखें माँ की हैं और कान भी। लेकिन कोई चीज़ पूरी नहीं, सारी नहीं, मुकम्मल नहीं, बस मिलती हुई। इन सब के पस-ए-पर्दा एक नयापन है, एक नया अंदाज़ है, एक नई तस्वीर है। ये तस्वीर हमें और हम उसे हैरत से तक रहे हैं। शायद उसके अंदर हिंदू कल्चर और तहज़ीब का मिज़ाज मौजूद होगा। बाप का ग़ुरूर और माँ का भोलापन मौजूद होगा। लेकिन अभी से मैं क्या, कोई भी क्या कह सकता है इसके बारे में। ये एक नई चीज़ है। जैसे ऐटम के वही ज़र्रे मुख़्तलिफ़ अंदाज़ से मिलकर मुख़्तलिफ़ धातें बन जाते हैं। कोई इस बच्चे के मुतअ'ल्लिक़ भी कह सकता है।

    जहाँ इंसान हर नई चीज़ को हैरत से देखता है, वहाँ वो हर नई चीज़ में अपनी जानी-पहचानी चीज़ें ढूँढ कर उसे पुराना बनाता रहता है। ये अ'मल हर वक़्त जारी रहता है। शायद मैं भी अपने बच्चे में अपने मतलब की तस्वीरें देखता हूँ। और उनमें रंग भरने की कोशिश करता रहता हूँ। दुनिया में बहुत से ख़ाके इसी तरह भरे जाते हैं और माज़ी और हाल और मुस्तक़बिल की इसी तरह ता'मीर होती रहती है। बू, क़लमों, रंगों से इस बच्चे की दुनिया आबाद होती है। कुछ रंग-आमेज़ी करता है, कुछ माँ बाप करते हैं, कुछ उसकी अपनी शख़्सियत ब-रू-ए-कार आती है और इस तरह ये तस्वीर मुकम्मल होती जाती है। मगर कभी पूरी तरह मुकम्मल नहीं होती क्योंकि मौत की सियाही भी तो एक रंग ही है। इंसान की तक़दीरें और इस सारी काएनात की तक़दीर में आख़िरी ब्रश आज तक किसी ने नहीं लगाया। इर्तिक़ा की आख़िरी कड़ी कोई नहीं है। हैरत बढ़ती जाती है।

    लेकिन रंग-आमेज़ी कहीं कहीं से तो शुरू' होगी इस ख़ाके में रंग भरा जाएगा। अब जब ये रोया था और आया ने इसे शहद चटाया था, तो ब्रश की पहली हनीश मा'रिज़ अ'मल में आई थी। फिर उसने कपड़े पहने , और इसके कानों में वेदमंत्र फूँके गए, और माँ ने पंजाबी ज़बान में लोरी सुनाई और बाप ने हँसकर अंग्रेज़ी ज़बान में उससे बात की। और बाप के मुसलमान दोस्त उसे अपने सीने से लगाए लगाए घूमे। ये तस्वीर कहीं गड-मड तो हो जाएगी। माज़ी पुराना है, लेकिन हाल ना-आसूदा है, मुस्तक़बिल क्या होगा, ये बच्चा किधर जा रहा है।

    सवाल कोई नया नहीं। हर सदी में, हर बरस में, हर माह में, हर-रोज़, हर लम्हा यही सवाल इंसानियत के सामने पेश आता है। ये नया लम्हा जो उफ़ुक़ के फलाँग के सामने मौजूद हुआ है, क्या है? किस की ग़म्माज़ी कर रहा है, तारीख़ के किस धारे का मज़हर है, इस आग को हम कैसे बाँध सकते हैं, इस शो'ले की तर्बियत क्यूँ-कर मुम्किन है। आम लोगों के लिए, इमामदीन और गंगाराम के लिए शायद ये सवाल अहम नहीं है। इमाम देन का बेटा फ़त्हदीन होगा और गंगा राम का सपूत जमुना राम होगा। सीधा सादा दस्तूर ये है कि हर नई चीज़ को माज़ी के साथ जकड़ दिया जाए। निहायत आसान बात है। क्योंकि माज़ी जानी-बूझी सोची-समझी हुई कहानी है। वो आने वाला तजुर्बा नहीं। गुज़रने वाला तजुर्बा है। एक ऐसा मुशाहिदा जो तकमील को पहुँच गया। जिसकी नेकी-बदी की हुदूद इंसानी औराक़ के जुग़राफ़िए में दर्ज कर दी गई हैं। ये काम सबसे आसान है और दुनिया यही करती है। और हैरत और सच्चाई और नेकी और तरक़्क़ी का शब-ओ-रोज़ ख़ून करती है।

    शायद मुझे भी यही करना चाहिए मगर अभी तलक तो ये बच्चा मेरे लिए इतना बना है कि मैं इस ख़ाके को छूते हुए डरता हूँ। इसके नाम ही को ले लें। हर-रोज़ इसरार होता है, बीवी भी कहती है, अहबाब भी पूछते हैं, इसका नाम क्या है? इसका नाम तो कुछ रखो। मैं सोचता हूँ इसका नाम, इसका नाम मैं क्या रखूँ? पहले तो यही सोचना है कि मुझे इसका नाम रखने का भी कोई हक़ है? किसी दूसरे की शख़्सियत पर मैं अपनी पसंद कैसे जड़ दूँ, बड़ी मुश्किल बात है, बिल-फ़र्ज़-ए-मुहाल मैं इस ग़ासिबाना बे-इंसाफ़ी पर राज़ी भी कर दिया जाऊँ। तो इसका नाम किया रखूँ? इसकी दादी को श्रवण कुमार नाम पसंद है। और इसकी माँ को दिलीप सिंह। मेरे ज़हन में तीन अच्छे नाम आते हैं। रंजन, असलम, हैनरी, सौती ए'तिबार से ये नाम बड़े प्यारे हैं। कम-अज़-कम मुझे अच्छे मा'लूम होते हैं। लेकिन सौती ए'तिबार के अलावा सियासी और मज़हबी उलझनें भी इन नामों के साथ लिपटी हुई हैं। काश कोई ऐसा नाम हो जो इन उलझनों से अलग रह कर अपनी शख़्सियत रखता हो।रंजन हिंदू है, असलम मुसलमान है, हैनरी ईसाई है। ये लोग नामों को इस क़दर महदूद क्यूँ-कर देते हैं। इस क़दर कमीना क्यों बना देते हैं। मा'लूम होता है ये नाम नहीं है, फाँसी है, फाँसी की रस्सी है जो ज़िंदगी से मौत तक बच्चे के गले में लटकती रहती है। नाम ऐसा हो जो आज़ादी दे सके। ऐसा नहीं जो किसी किस्म की सियासी मज़हबी समाजी गु़लामी अता करता हो। फिर वो नाम क्या हो, यहाँ आकर हमेशा घर में और दोस्त अहबाब में झगड़ा शुरू' हो जाता है और मैं सोचता हूँ। अभी मैं इसका नाम क्यों रखूँ, क्यों इसे ख़ुद मौक़ा दूँ कि बड़े हो कर ये अपना नाम ख़ुद तजवीज़ कर ले। फिर चाहे ये अपना नाम ट्राराम, कोमल गंधार या अबदुल शकूर रखता फिरे, मुझे इस से क्या वास्ता।

    ब्रश तज़बज़ुब में है कि कौन रंग भरे। नाम को छोड़िए मज़हब को लीजिए। हिंदू कल्चर में डूबा हुआ घर बेटे को इसी रंग में रंगेगा। इस्लामी कल्चर का फ़र्ज़ंद ज़रूर मुसलमान होगा। या'नी माँ बाप की यही ख़्वाहिश होती है। मगर ये तो बड़ी अ'जीब सी बात हुई कि आपने पच्चीस बरस तक अपने फ़र्ज़ंद को एक अपने ही पुराने ढर्रे पर चलाने की कोशिश की। और इसके बा'द यकायक ख़यालात ने जो पल्टा खाया तो हिंदू मुसलमान, मुसलमान ईसाई, और ईसाई कम्युनिस्ट हो गया। ए'तिक़ादात ज़िंदगी के देखने से बनते हैं कि दिमाग़ पर ठूँसने से। या'नी कौन सा तरीक़ा बेहतर है। अब तक तो दूसरा तरीक़ा राइज है या'नी ज़बरदस्ती ठूँसम-ठाँस। और इसके बा'द आदत-ए-सानिया, दादा हिंदू, बाप हिंदू, बेटा हिंदू। ख़मीर पहले एक क़दम उठाती है, फिर दूसरा, फिर तीसरा, और फिर उसी रास्ते पर उसी तरह उन्हीं क़दमों पर चलती जाती है। वो ये नहीं देखती कि रास्ते में दाएँ तरफ़ घास है, मक्खन पियालों के फूल हैं, बाएँ तरफ़ चील के दरख़्त हैं, रास्ते में चटानों पर ख़ुश-इलहान तुयूर अपने रंगीन परों को सँवारे बैठे हैं। फ़िज़ा में नशे की बारिश है, आसमान पर बादलों के परीज़ाद हैं। नहीं ये सब कुछ नहीं है। बस ख़च्चर के लिए तो क़दमों की मुसलसल ज़ंजीर है और मालिक का चाबुक। हर बेटा अपने बाप का चाबुक खाता है और ख़च्चर की तरह पुराने रास्ते पर चलता है। तो फिर नए रास्ते कैसे दरियाफ़्त होगे और हर पुरानी मंज़िल को छोड़ कर हम नई मंज़िल पर कैसे गामज़न हो सकेंगे, शायद मुझे इस चाबुक को भी छोड़ना पड़ेगा।

    अच्छा नाम और मज़हब को भी गोली मारिए, आइए ज़रा सोचें कि इसका मुल्क और इसकी क़ौम क्या है। माज़ी पर जाएँ तो कोई मुश्किल बात नहीं है। ये बच्चा हिन्दोस्तान में पैदा हुआ इसलिए हिन्दुस्तानी है। शुमाली हिंद के माँ बाप का बेटा है इसलिए आरयाई क़ौम से मंसूब किया जाना चाहिए। ठीक है। दुनिया में हर जगह यही होता है, होता आया है, देर तक होता रहेगा, मगर मैं सोचता हूँ कि हर लम्हा जो नया बच्चा हमारे सामने लाता है। इस तहय्युर-ज़दा अम्र पर इस से गहरे ग़ौर-ओ-ख़ौज़ की ज़रूरत है। हिन्दुस्तानी क्या क़ौम है, कौन सा मुल्क है, आर्य लोग शायद वास्त एशिया से आए थे। रगों में मंगोल और आरयाई ख़ून की आमेज़िश लिए हुए। फिर यहाँ पहुँचे तो द्रविड़ क़ौम में गड-मड हो गए। फिर मुसलमान आए तो रगों में सामी ख़ून भी मोजज़न हो गया और अब ये क्या क़ौम है? कौन सा मुल्क है? ये हिन्दोस्तान। इस में तुर्किस्तान भी है। रूस भी है। चीन भी है। ईरान भी है। तुर्की भी है। अरब भी है। यूरोप भी है। और अब पाकिस्तान भी है। ये ख़ून, ये क़ौम, ये मुल्क, किस क़दर झूटी इस्तिलाहें हैं। इंसान ने ख़ुद अपने आपको जान-बूझ कर इन ज़ंजीरों से बाँध रखा है लेकिन मुझे तो अपना बेटा बहुत प्यार है। मैं उसे दीदा-ओ-दानिस्ता इन ज़ंजीरों में कैसे जकड़ सकता है।

    ब्रश उसी तरह जामिद है। अभी इस ख़ाके में एक रंग भी नहीं भर सका। तख़य्युल कोई दूसरी राह इख़्तियार करे और ये सोचे कि इसकी ता'लीम-ओ-तर्बियत क्या हो, तो यहाँ भी अ'जीब पेचीदगियाँ दिखाई देती हैं। स्कूलों और कॉलिजों में जो ता'लीम है, वो भी माज़ी से इस क़दर बंधी हुई है कि किसी नए तजुर्बे की, किसी नई हैरत की गुंजाइश नहीं। क्या मैं उसे वो तारीख़ पढ़ाऊँ जो इंसानों के दरमियान नस्ली मुनाफ़िक़त और मज़हबी बद-ए'तिमादी फैलाती है। ये तारीख़ जिसमें बादशाहों की ज़िना-कारियों के क़िस्से हैं और बेवक़ूफ़ वज़ीरों के क़सीदे हैं। ये जुग़राफ़िया में क़ुत्ब शुमाली और क़ुत्ब जुनूबी सही हुदूद-ए-अरबा तक नज़र नहीं आते। ये अदब जिसमें औबाश अमीरों और शराबी शाइरों की इश्क़िया दास्तानें हैं। ये इक़्तिसादात जिसे सरमाए की माहियत का इल्म नहीं। ये रियाज़त जिसमें एक घोड़ा एक घंटे में दो मील चलता है तो चौबीस घंटे में कितना चलेगा, ये जाहिल बे-ख़बर इल्म-ओ-फ़न जो हमारे स्कूलों और कॉलिजों में पढ़ाए जाते हैं। ज़माना-ए-हाल से कितने दूर हैं, ये मबलग़-ए-इल्म एक सौ साल पुराना है। लेकिन मेरा बच्चा तो नया है क्या उसे पढ़ाने के लिए एक पूरी क़ौम को दर्स-ए-हयात देना पड़ेगा।

    शायद मुम्किन नहीं। लेकिन ये तो मुम्किन है कि मैं इसका कोई नाम रखूँ। मज़हब रखूँ, उसे किसी क़ौम से, किसी मुल्क से मंसूब करूँ। इस से सिर्फ़ इतना कह दूँ कि, बेटा तू इंसान है, इंसान अपने ख़मीर का, अपनी तक़दीर का, अपनी ज़मीन का ख़ुद ख़ालिक़ है। इंसान, क़ौम से, मुल्क से, मज़हब से बड़ा है। वो अपनी रूह ता'मीर कर रहा है, तू हमसे नया है, अपनी जिद्दत से इस रूह को नई सर-बुलंदी अता कर, तेरे और मेरे दरमियान बाप बेटे का रिश्ता नहीं है। तेरे और मेरे दरमियान सिर्फ़ मुहब्बत का रिश्ता है, जैसे समंदर लहरे, और आग शो'ले से और हवा झोंके से मिलती है। उसी तरह मैं और तू इस दुनिया में आके मिल गए हैं। और माज़ी से हाल और हाल से मुस्तक़बिल की ता'मीर कर रहे हैं

    बच्चा अँगूठा चूस रहा है। और मेरी तरफ़ हैरत से देख रहा है।

    स्रोत :

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए