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मिस्टर हमीदा

सआदत हसन मंटो

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    स्टोरीलाइन

    यह कहानी एक एसी औरत की है जिसके चेहरे पर मर्दों की तरह दाढ़ी आती है। राशिद ने उसे पहली बार बस स्टैंड पर देखा था और वह उसे देखकर इतना हैरान हुआ था कि उसके होश-ओ-हवास ही गुम हो गए थे। दूसरी बार उसने उसे कॉलेज में देखा था। कॉलेज में लड़के उसका मज़ाक़ उड़ाया करते थे और दाढ़ी के कारण उन्होंने उसका नाम मिस्टर हमीदा रख दिया था। राशिद को लड़कों की ये हरक़तें बहुत नापसंद थी। उसने हमीदा से दोस्ती करनी चाही, लेकिन उसने इंकार कर दिया। एक बार हमीदा बीमार पड़ी तो उसने अपनी शेव कराने के लिए राशिद को बुला भेजा और इस तरह वो दोनों दोस्त हो कर एक रिश्ते में आ गए।

    रशीद ने पहली मर्तबा उसको बस स्टैंड पर देखा, जहां वो शेड के नीचे खड़ी बस का इंतिज़ार कर रही थी। रशीद ने जब उसे देखा तो वो एक लहज़े के लिए हैरत में गुम हो गया। इससे क़ब्ल उसने कोई ऐसी लड़की नहीं देखी थी जिसके चेहरे पर मर्दों की मानिंद दाढ़ी और मूंछें हों।

    पहले रशीद ने सोचा कि शायद उसकी निगाहों ने ग़लती की है। औरत के चेहरे पर बाल कैसे उग सकते हैं। पर जब उसने ग़ौर से देखा तो उस लड़की ने बाक़ायदा शेव कर रखी थी और सुरमई ग़ुबार उसके गालों और होंटों पर मौजूद था।

    रशीद ने समझा कि शायद हिजड़ा हो, मगर नहीं, वो हिजड़ा नहीं थी। इसलिए कि उसमें हिजड़ों की सी मस्नूई निस्वानियत के कोई आसार नहीं थे। वो मुकम्मल औरत थी, नाक नक़्शा बहुत अच्छा था, कूल्हे चौड़े चकले, कमर पतली, सीना जवानी से भरपूर, बाज़ू सुडौल, ग़रज़े कि उसके जिस्म का हर अ’ज़ो अपनी जगह पर निस्वानियत का उम्दा नमूना था।

    एक सिर्फ़ उसकी दाढ़ी और मूंछों ने सब कुछ ग़ारत कर दिया था। रशीद सोचने लगा, क़ुदरत की ये क्या सितम ज़रीफ़ी है कि एक अच्छी भली नौजवान ख़ूबसूरत लड़की को बदनुमा बना दिया।

    रशीद के दिमाग़ में कई ख़याल ऊपर तले आए और वो बौखला गया। वो सोचता था,“क्या उस लड़की की ज़िंदगी अजीरन हो के नहीं रह गई!”

    “सुबह उठ कर जब उसे उस्तरा पकड़ कर शेव करना पड़ती होगी तो उसे क्या महसूस होता होगा, क्या उस वक़्त उसके जी में झुँझला कर इंतक़ामी ख़्वाहिश पैदा होती होगी कि वो घस-खुदे की तरह अपने गाल और होंट छील डाले।”

    “एक औरत के लिए ये कितना बड़ा अ’ज़ाब है कि ख़ार पुश्त की मानिंद उसके गालों पर दूसरे रोज़ नुकीले बाल उग आएं।”

    “अगर मर्दों के मानिंद औरतों के भी दाढ़ी मूंछ आगई तो कोई हर्ज नहीं था, पर यहां अज़ल से औरतें उन बालों से बेनियाज़ ही रही हैं।”

    “जहां तक मैं समझता हूँ, औरतों के चेहरे पर बालों का होना कोई मा’यूब चीज़ नहीं, लेकिन मुसीबत तो ये है कि हम लोग ये देखने के आदी नहीं।”

    “सिन्फ़-ए-नाज़ुक, आख़िर सिन्फ़-ए-नाज़ुक है... इसमें शक नहीं, उस लड़की में निस्वानियत के तमाम जौहर मौजूद हैं, फिर ये दाढ़ी मूंछ किस लिए उग आई है? नज़र बट्टू के तौर पर... उसकी कोई तशरीह-ओ-तौज़ीह तो होनी चाहिए, बेकार में एक ख़ूबसूरत शय को भोंडा बना दिया, ये कहाँ की शराफ़त है!”

    “अब ऐसी लड़की से शादी कौन करेगा जो हर रोज़ सुबह-सवेरे उठ कर, उस्तरा हाथ में पकड़ कर शेव कर रही हो।”

    “ये लड़की मूंछें मूंडे और उन्हें बढ़ा ले तो क्या उससे ख़ौफ़ नहीं आएगा, आप बेहोश हों, लेकिन चंद लम्हात के लिए आपके होश-ओ-हवास ज़रूर जवाब दे जाऐंगे। आप अपने होंटों पर उंगलियां फेरेंगे, जहां मूंछें मुंडी होंगी, मगर आपकी सिन्फ़-ए-मुक़ाबिल अपनी मूंछों को ताव दे रही होगी।

    बस गई, वो लड़की उसमें सवार हो कर चली गई। रशीद को भी उसी बस से जाना था लेकिन वो अपने ख़यालों में इस क़दर ग़र्क़ था कि उसको बस की आमद का पता चला उसके जाने का।

    थोड़ी देर के बाद जब वो लड़की को एक नज़र और देखने के लिए पलटा तो वो मौजूद नहीं थी। उस का ज़ेहन इस क़दर मुज़्तरिब था कि उसने अपना काम मुल्तवी कर दिया और घर चला आया। अपने कमरे में बिस्तर पर लेट कर उसने मज़ीद सोच बिचार शुरू कर दी।

    उसको उस लड़की पर बहुत तरस रहा था... बार बार क़ुदरत की बेरहमी पर ला’नतें भेजता था कि उसने क्यों निस्वानियत के इतने अच्छे और ख़ूबसूरत नमूने को ख़ुद ही बना कर उसपर स्याही का लेप कर दिया, आख़िर इसमें क्या मस्लिहत थी? अब इस शक्ल में उससे शादी कौन करेगा? क़ुदरत ने क्या उसके लिए कोई ऐसा मर्द पैदा कर रखा है जो उसे क़बूल कर लेगा, लेकिन वो सोचता कि क़ुदरत इतनी दूर अंदेश नहीं हो सकती...

    उसकी बहन आई, दोपहर हो चुकी थी... उसने रशीद से कहा,“भाई जान, चलिए खाना खा लीजिए।”

    रशीद ने उसकी तरफ़ ग़ौर से देखा और उसको यूं महसूस हुआ कि उसके चेहरे पर भी बाल हैं, “सलीमा।

    “जी...”

    “कुछ नहीं, लेकिन नहीं ठहरो... क्या तुम्हारी मूंछें हैं?”

    सलीमा झेंप गई।

    “जी हाँ, बाल उगते हैं।”

    रशीद ने उससे पूछा, “तो... मेरा मतलब है, तुम्हें उलझन नहीं होती उन बालों से?”

    सलीमा ने और ज़्यादा झेंप कर जवाब दिया, “होती है भाई जान!”

    “तो उन्हें तुम कैसे साफ़ करती हो, ब्लेड से!”

    “जी नहीं, एक चीज़ है जिसे बेबी टच कहते हैं, उसको थोड़ी देर होंटों पर घिसाना पड़ता है।”

    “तो बाल उड़ जाते हैं!”

    “उड़ते वुड़ते ख़ाक भी नहीं, दूसरे तीसरे रोज़ फिर नमूदार हो जाते हैं, बड़ी मुसीबत है। बाज़’ औक़ात तो आँखों में आँसू जाते हैं।”

    “वो क्यों?”

    सलीमा ने दर्दनाक लहजा में जवाब दिया,“तकलीफ़ होती है बहुत, जब बाल उखड़ते हैं तो छींकें आती हैं और छींकों के साथ आँखों में पानी उतर आता है। मालूम नहीं अल्लाह मियां मुझे किन गुनाहों की सज़ा दे रहा है।”

    रशीद ने थोड़े तवक्कुफ़ के बाद अपनी बहन से पूछा, “तुम्हारी किसी और सहेली की भी दाढ़ी और मूंछें हैं?”

    “मूंछें तो कई लड़कियों की देखी हैं, पर दाढ़ी मैंने कभी किसी औरत के चेहरे पर नहीं देखी। एक दो बाल ठोढ़ी पर देखने में आए हैं जो वो मोचने या हाथ से उखाड़ फेंकती हैं। ये आपने कैसी गुफ़्तगू आज शुरू कर दी, चलिए खाना खा लीजिए।”

    रशीद ने कुछ देर सोचा।

    “नहीं, मैं आज खाना नहीं खाऊंगा। मेरा मे’दा ठीक नहीं है।” रशीद को यूं महसूस होता था कि उसने बालों की पुडिंग खाई है जो हज़म होने में ही नहीं आती, उसके सारे जिस्म पर तेज़ तेज़ नुकीले बाल यूं रेंग रहे थे जैसे ख़ारदार च्यूंटियां।

    जब सलीमा चली गई तो रशीद ने फिर सोचना शुरू कर दिया, लेकिन सोचने से क्या हो सकता था। उस लड़की के चेहरे के बाल तो दूर नहीं हो सकते थे। इस अमर का रशीद को कामिल यक़ीन था लेकिन फिर भी वो सोचे चला जा रहा था, जैसे वो कोई बहुत बड़ा मुअ’म्मा हल कर रहा है।

    रशीद को दाख़िले की दरख़्वास्त देना थी, उसने बी.ए का इम्तहान रावलपिंडी से पास किया था। अब वो चाहता था कि लाहौर में किसी कॉलिज में दाख़िल हो जाये और एम.ए की डिग्री हासिल कर के आ’ला ता’लीम के लिए इंग्लिस्तान चला जाये, जहां उसके वालिद प्रिवी कौंसिल में प्रैक्टिस करते थे।

    उस रोज़ मूंछों और दाढ़ी वाली लड़की के बाइ’स जा सका। दूसरे रोज़ वो बस के बजाये तांगे में गया। उसने चूँकि बी.ए का इम्तहान बड़े अच्छे नंबरों पर पास किया था इसलिए उसे दाख़िले में कोई दिक्क़त महसूस हुई।

    वो दाढ़ी मूंछों वाली लड़की अब रशीद के दिल-ओ-दिमाग़ से क़रीब क़रीब मह्व हो चुकी थी, लेकिन एक दिन उसने उसको कॉलिज में देखा, लड़के उसका मज़ाक़ उड़ा रहे थे।

    एक ने आवाज़ा कसा,“मिस्टर हमीदा...”

    दूसरे ने कहा,“एक टिकट में दो मज़े हैं... औरत की औरत और मर्द का मर्द।”

    तीसरे ने क़हक़हा लगाया,“अ’जाइब घर में रखना चाहिए था ऐसी शख़्सियत को...”

    और वो बेचारी ख़फ़ीफ़ हो रही थी, उसकी पेशानी पसीने से तर थी। रशीद को उस पर बहुत तरस आया, उसके जी में आई कि आगे बढ़ कर उन तमाम लड़कों का सर फोड़ दे जो उसका मज़ाक़ उड़ा रहे थे। मगर वो किसी मस्लिहत की बिना पर ख़ामोश रहा।

    जब लड़के चले गए और उस लड़की ने अपने दुपट्टे से आँखों में उमडे हुए आँसू ख़ुश्क किए तो वो जुरअत से काम लेकर उसके पास गया और बड़े मुलायम लहजे में उससे मुख़ातिब हुआ, “आप यहां किस क्लास में पढ़ती हैं?”

    उसने तंग आकर कहा,“क्या आप भी मेरा मज़ाक़ उड़ाने आए हैं?”

    रशीद ने अपना लहजा और मुलायम कर दिया, “जी नहीं, आप मुझे अपना दोस्त यक़ीन किजिए।”

    उसने, जिसका नाम हमीदा था, नफ़रत की निगाहों से रशीद को देखा,“मुझे किसी दोस्त की ज़रूरत नहीं।”

    “ये आपकी ज़्यादती है... हर शख़्स को दोस्त और हमदर्द की ज़रूरत होती है। मैं इस वक़्त मुनासिब नहीं समझता कि आपके मुज़्तरिब दिमाग़ को अपनी बातों से और ज़्यादा मुज़्तरिब कर दूं, वैसे मैं आपसे फिर दरख़्वास्त करता हूँ कि आप मुझे अपना दोस्त यक़ीन कीजिए।”

    ये कह कर रशीद चला गया।

    इस के बाद मुतअ’द्दिद मर्तबा उसने हमीदा को देखा जो बी.ए में पढ़ती थी। सारे कॉलिज में उसकी दाढ़ी मूंछों के चर्चे थे, लेकिन ऐसा मालूम होता था जैसे वो लड़कों की आवाज़-बाज़ी की आदी हो चुकी है। मेरा ख़याल है कि अब उसने ये महसूस करना शुरू कर दिया था कि उसके चेहरे पर कोई बाल नहीं है।

    वो होस्टल में रहती थी। एक दफ़ा वो शदीद तौर पर बीमार हो गई। दस पंद्रह दिन तक बिस्तर में लेटना पड़ा। रशीद ने कई बार इरादा किया कि वो उसकी बीमार पुर्सी के लिए जाये मगर उसको ये ख़तरा लाहक़ था कि वो मुश्तइल हो जाएगी क्योंकि उसे किसी की हमदर्दी पसंद थी।

    वो चाहती थी कि उसकी कश्ती, टूटी फूटी, जैसी भी है उसे उसके सिवा और कोई खेने वाला हो, लेकिन एक दिन मजबूर हो कर उसने चपरासी के हाथ एक रुक्क़ा रशीद के नाम भेजा, जिसमें ये चंद अलफ़ाज़ मर्क़ूम थे:

    “रशीद साहिब!

    मैं बीमार हूँ, क्या आप चंद लम्हात के लिए मेरे कमरे में तशरीफ़ ला सकते हैं मम्नून-ओ-मुतशक्कुर हूंगी।

    हमीदा”

    रशीद ये रुक्क़ा मिलते ही होस्टल में गया, बड़ी मुश्किलों से हमीदा का कमरा तलाश किया। अंदर दाख़िल हुआ तो उसने पहले ये समझा कि कोई मर्द जिसने कई दिनों से शेव नहीं की... कम्बल ओढ़े लेटा है, मगर उसने अपना रद्द-ए-अ’मल ज़ाहिर होने दिया।

    चारपाई के साथ ही कुर्सी पड़ी थी, रशीद उस पर बैठ गया।

    हमीदा मुस्कुराई।

    “मैंने आपको इसलिए तकलीफ़ दी है कि मुझे बुख़ार के बाइ’स बहुत नक़ाहत हो गई है और शेव नहीं कर सकी, क्या आप मेरे लिए ये ज़हमत बर्दाश्त कर सकेंगे?”

    रशीद ने कमरे में इधर उधर देखा, शेव का सामान खिड़की की सिल पर मौजूद था।

    कैंटीन से गर्म पानी ला कर उसने हमीदा के चेहरे के बाल नर्म किए, साबुन मला। अच्छी तरह झाग पैदा की और फिर पाँच मिनट के अंदर अंदर शेव बना डाली।

    फिर तौलिये से उसका चेहरा ख़ुश्क किया और शेव का सामान साफ़ करने के बाद वहीं रख दिया जहां से उसने उठाया था।

    हमीदा ने अपना नहीफ़ हाथ गालों पर फेरा और फिर रशीद से कहा,“शुक्रिया...”

    अब दोनों एक दूसरे के दोस्त हो गए।

    रशीद ने एम.ए और हमीदा ने बी.ए पास कर लिया। रशीद को फ़ौरन बहुत अच्छी मुलाज़मत मिल गई।

    अब वो एक नहीं रोज़ाना दो शेव बनाता था।

    स्रोत:

    بغیر اجازت

      • प्रकाशन वर्ष: 1955

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