इजाज़त
दोनों में दोस्ती नागुज़ीर थी।
दोनों जवान थे, ख़ूब-रू थे। बला के ज़हीन और एक सी सोच रखने वाले। घंटों गप शप करते, बहसें करते और फ़लसफ़े झाड़ते रहते। वो उसे कभी-कभार छेड़ कर फ़लसफ़िया भी कह डालता था जिसपर वो पंजे झाड़ कर उसके पीछे पड़ जाया करती थी।
सबसे बड़ी बात ये थी कि वो एक दूसरे की ज़ात से ख़ौफ़ नहीं महसूस करते थे बल्कि एक दूसरे को जगह देते थे, महसूस करते थे, साँस लेने देते थे और एक-दूसरे को इंजॉय करते थे। वो आज की नौजवान नस्ल के दो नुमाइंदे थे।
चाइनीज़ रेस्तोरान में चिकन कॉर्न सूप के दो प्याले उनके सामने रखे थे। लड़की गर्म-गर्म सूप में सिरका और हरी मिर्चें मिलाने लगी।
तुमने ग़ौर किया कभी? लड़के ने सूप के प्याले से उठते धुएं की ओट से लड़की को देखते हुए पूछा।
क्या? लड़की ने सूप पीना शुरू कर दिया।
हमारी बहुत सी आदतें और ख़्यालात मिलते हैं।
शायद हम पिछले जन्म में हमसाये रहे हों। लड़की ने मज़ाक़ किया।
हाँ, पिछले जन्म में हम यक़ीनन हमसाया रहे होंगे। लड़के ने ज़ू मानी अंदाज़ में फ़िक़रा उसकी तरफ़ उछाल दिया।
अरे! लड़की खिलखिला कर हँस पड़ी। वो उसके लफ़्ज़ों को तोड़ मोड़ कर नए मानी पहना देने की क़ाबिलियत से बहुत मुतअस्सिर हुई थी क्योंकि वो अक्सर ऐसे ही किया करता था।
कमाल करते हो तुम, हमसाये यानी जो उधार चीज़ें माँगा करते हैं। वो हंसने लगी।
हाँ, हम साया, जिनका क़दम मिला कर साथ-साथ चलना होता है। आई एग्री।
लड़की शर्माने लगी। हालांकि वो हरगिज़ शर्मीली नहीं थी, बहुत पुर एतिमाद थी। साफ़-साफ़ खुल कर बात किया करती थी, रिवायात से बग़ावत करना चाहती थी।
ये तुम मुझे ऐसी लाल-लाल आँखों से क्यों देख रहे हो। हटाओ अपनी ये आँखें, मुझे नर्वस कर रही हैं। उसने लड़के को डाँटा।
वो ख़ामोश बैठा मुस्कुराता रहा। उसे देखता रहा। इसका सूप उसके सामने पड़ा ठंडा होता रहा।
अरे कहीं तुम मुझ पे आशिक़ तो नहीं होते जा रहे? लड़की शोख़ी से बोली।
हाँ। लड़के ने बड़े आराम से जवाब दिया और उसके मुतहय्यर चेहरे से नज़रें न हटाने का फ़ैसला क़ाइम रखा। उसने जिस तरीक़े से हाँ कहा था। उस घमबीरता का एहसास उसे फ़ौरन हो गया था। यूँ लगता था जैसे वो किसी पुर सुकून झील के किनारे बैठे हों और हाँ का एक बड़ा सा कंकर गर्दाब बना कर ग़ायब हो गया हो। रेस्तोरान की दीवारें हाँ, हाँ सुन कर एक दूसरे से मज़ीद लिपट गईं। कंकर झील की तह में छुप कर बैठ गया, हाँ सीने में खुब कर रह गई।
नहीं, नहीं, ये ग़लत है। ये काम नहीं होगा। ये इश्क़-विश्क़ बीच में कहाँ से आ गया। मुझे तुम्हारी दोस्ती बहुत अज़ीज़ है। मैं उसकी बली नहीं चढ़ा सकती। तुम मुझे बहुत अज़ीज़ हो। वो तक़रीर करने लगी। उसे तक़रीर करने की बहुत आदत थी।
तुम जो चाहती हो करो। मुझे क्या, तुम न करो इश्क़। मैं तुमसे करता हूँ, ये मेरा मसला है।
यार फ़रीदा ओदियाँ ओ जाने
सनूँ अपनी तोड़ निभावन दे
लड़के ने यूँ तहम्मुल से बात की जैसे वो दोनों कोर्स के नोट्स का तबादला कर रहे हों,लेकिन फिर कैसे काम चलेगा? क्या होगा। बड़ी मुसीबत हो जाएगी भई क्योंकि मुझे अपना पता है ना। जवाबन मुझे भी मोहब्बत हो जाएगी। मैं इस ओल्ड फ़ैशन आउट डेटेड जज़्बे का रोग नहीं पाल सकती। मुझे और भी बहुत से काम हैं। तुम समझते क्यों नहीं? लड़की रूहाँसी हो कर बोली।
देखो रूप, घबराओ मत। क़ुदरत के रास्ते में मत आओ। जो होना है हो कर रहेगा। तुम जो मर्ज़ी करो। जो ऊपर मास्टर प्लानर बैठा है ना उसकी मर्ज़ी है तो हमारी मर्ज़ियाँ नहीं चलेंगी।
अरे इसते तो प्यार से मुझे रूप कह डाला। रूबी दिल ही दिल में डर गई। ये तो सचमुच मुझसे मोहब्बत करने लगा है। अब क्या होगा?
मेरा एक मसला है रज़ी। वो ख़ुद अपने अंदाज़-ए-तख़ातुब पे हैरान हो गई क्योंकि उसने आज पहली बार रज़ा को प्यार से रज़ी कह डाला था।
देखा ये मेरा मसला है। इस बात से मैं डरती हूँ।
क्या हुआ, किस बात से?
मेरा जज़्बा बहुत शदीद होता है। एक-बार पहले भी मुझे इश्क़ हुआ था। मैं तो हेड ओवर हेल्ज़ बेवकूफ़ाना इश्क़ में गिरफ़्तार हो जाती हूँ। निकम्मी बेकार, फ़ज़ूल पागल, अहमक़ Possessive और न जाने क्या-क्या बन जाती हूँ। मैं अपने आपसे डरती हूँ। मुझे जब मोहब्बत होती है तो मैं उस पे नहीं बल्कि ये मुझ पे ग़लबा पा लेती है। मुझे अपने में ज़म कर लेती है। मैं किसी के आगे और किसी जज़्बे के आगे कमज़ोर नहीं पड़ना चाहती, झुकना नहीं चाहती, महकूम नहीं बनना चाहती लेकिन मोहब्बत मुझे मफ़लूज कर देती है। रूबी की तक़रीर जारी थी।
रज़ा ने रूबी की ख़ूबसूरत नेल पॉलिश से सजी छोटी उंगली को टेबल के नीचे से हाथ लगा कर छू लिया। वो दम बख़ुद रह गई, सन हो गई, ख़ामोश हो गई, उसे अच्छा लगा था, ये नया सा जज़्बा पसंद आया था।
अब दोनों में मोहब्बत नागुज़ीर थी।
दोनों मोहब्बत की फुवार में भीगते रहते। ज़्यादा तर वक़्त साथ गुज़ारते थे। हँसते खेलते, सैरें करते ख़ुश-ख़ुश रहते थे। अक्सर लड़ भी पड़ते थे मगर रज़ा हमेशा ही रूबी को मना लेता और वो मन जाने के लिए हमेशा तैयार मिलती। रूबी को अपनी पेश गोई दुरुस्त साबित होती नज़र आ रही थी। वो रज़ा की ज़ात में गुम होती जा रही थी। उसे और कुछ सूझता ही न था।
उसके कई काम अधूरे रहने लगे थे। वो कई क़िस्म के सोशल वर्क और औरतों के हुक़ूक़ की तन्ज़ीमों की रुक्न थी। बहुत सरगर्म मेम्बर थी मगर अब उससे अपने कालेज की असाइनमेंट्स ही बमुश्किल ख़त्म की जाती थीं। रातों को नींद भी मुश्किल से ही आती थी। बड़ी मुसीबत हो गई थी और इस मुसीबत से वो डरती थी।
कभी सोचती।
न जाने वो इस वक़्त क्या कर रहा होगा। शायद क्लास अटेंड कर रहा हो या शायद किसी दोस्त के साथ फ़िल्म देखने चला गया हो। शायद इस वक़्त सो रहा हो या शायद जाग चुका हो। हो सकता है बारिश के पहले क़तरों में भीगने के लिए घर से बाहर की सड़क पे चलता जा रहा हो। रूबी को बारिश दीवाना बना दिया करती थी और रज़ा को भी बारिश से इश्क़ था।
शाम गहरी हो चुकी थी।
वो दोनों कालेज में एक ड्रामा कर रहे थे। ब्रेक मिली तो लॉन में एक बेंच पर बैठ गए। हल्की-हल्की ठंड सी महसूस हो रही थी। दोनों क़रीब-क़रीब हो कर बैठे हुए थे। रूबी ने रज़ा के हाथ हस्ब-ए-आदत अपने हाथों में ले रखे थे, उसे हाथ पकड़ना बहुत अच्छा लगता था। चौदहवीं पन्द्रहवीं का चाँद पूरी आब-ओ-ताब के साथ चमक रहा था लेकिन उसके आगे एक बहुत बड़े से नंगे दरख़्त ने हाथ फैला रखे थे। जैसे चाँद से कुछ हुस्न भीक लेना चाहता हो। माहौल के जादू में वो दोनों नहाए चले जा रहे थे।
रज़ा ने हस्ब-ए-आदत जेब से जूस के दो छोटे-छोटे डिब्बे निकाले। रूबी का पसंदीदा ज़ायक़ा पाइन कोल था और वो वही लाया करता था। वो हमेशा दोनों के पीने के लिए दो डिब्बे लाया करता था लेकिन वो पीते एक ही डिब्बे और एक ही स्ट्रा से थे। पहले एक डिब्बे बारी-बारी चुस्कियाँ लेकर ख़त्म करते फिर दूसरा। ये भी उनकी ज़ाती तख़्लीक़ करदा रिवायात में से एक रवायत थी। जब से उनके दरमियान मोहब्बत का तनावर जज़्बा और रिश्ता क़ाइम हुआ था उन्होंने एक ही प्लेट में से खाया और हमेशा एक ग्लास में से ही पिया था।
ये बात दोनों को बहुत अच्छी लगती थी।
रूप सर्दी लग रही है। रज़ा ने प्यार से सरगोशी की।
रूबी ने उसका हाथ ज़ोर से पकड़ लिया जैसे कभी न छोड़ने का इरादा हो।
रूप, हम दोस्त हैं ना। हम हर बात एक दूसरे से खुल कर कर सकते हैं ना?
रज़ा ने रूबी की कमर में हाथ डाल दिए।
हाँ। रूबी गुम सुम सी बैठी थी।
तुम्हें मुझ पे, मेरी मोहब्बत पे एतिमाद है ना। ये पता है ना कि मैं सिर्फ़ तुम्हें चाहता हूँ, पिछली सारी दोस्तियाँ, चाहतें मैंने तुम्हारे लिए छोड़ दी हैं। हैं ना? पता है ना?
दोस्तियाँ या दोस्तनियाँ? रूबी ने उसे गुदगुदाया।
हाँ-हाँ दोस्तनियाँ। मानता हूँ कि मेरी थीं लेकिन वो तो जहालत का ज़माना था। रूप चंद महाराज। अब तो हम सिर्फ़ आपके हैं सरकार और आप हमारे।
वो तो हम हैं। तुम्हें अच्छी तरह पता है जानां! क्या शक है किसी क़िस्म का?
अगर कहते हो तो चीख़-चीख़ कर ऐलान कर दूँ के मुझे रज़ी अहमद से इश्क़ है। लोगो सुन लो, दरख़्तों, चिड़ियो, कव्वो। रूबी उठ कर खड़ी हो गई और हंस-हंस कर सरगोशियों में झूट-मूट ऐलान करने लगी।
तुम बिल्कुल झल्ली हो, बैठो इधर। तुम्हारी इन्ही अदाओं पे तो हम मरते हैं ज़ालिम। अब रज़ी भी शोख़ हो चला था।
अच्छा देखो संजीदा हो जाओ पल भर के लिए। मैंने तुमसे एक ज़रूरी बात करनी है।
करो।
हम दोनों बालिग़ हैं ना। ज़हीन हैं, समझदार हैं। अपना अच्छा बुरा ख़ुद सोच सकते हैं। अपने फ़ैसले ख़ुद करने के मुख़्तार हैं, जदीद सोच रखते हैं ना। फ़र्सूदा ख़्यालात के हामी तो नहीं? रज़ी कुछ पूछने लगा।
नहीं तो। रूबी ने कुछ न समझते हुए सर हिलाया।
तो फिर?
फिर क्या?
समझो ना, मैं तुम्हें हासिल करना चाहता हूँ। रज़ा ने उससे इस लहजे में कभी बात नहीं की थी। उसकी आँखों में एक नया जज़्बा नज़र आ रहा था। शराब सी छलक रही थी।
मैं चाहता हूँ, हममें कोई फ़ासला भी न रहे।
रूप ख़ुद बख़ुद रज़ी से चिमट गई। हाथ गीले-गीले होने लगे। यकदम बिजली का कौंदा सा लपका। रूबी एक झटके से उससे अलैहदा हो गई।
नहीं-नहीं जानाँ, ऐसा नहीं हो सकता।
क्यों? क्यों नहीं? क्या तुम इसकी अहमियत से इनकार कर सकती हो?
कहो क्या कँवल के बग़ैर तालाब ख़ूबसूरत रह सकता है? भूका शेर बिफर गया था।
अच्छा-अच्छा चुप हो जाओ। इस मस्अले पे आराम से बैठ कर सोच बिचार कर लेते हैं। काम डाउन प्लीज़। लॉजिक इस्तेमाल करते हैं। हर मसले का हल दुनिया में मौजूद है। इसके मुख़्तलिफ़ पहलुओं पे ग़ौर करते हैं।
बकवास बंद करो रूप। हर वक़्त उस्तानी बनी तज्ज़ीए करती रहती हो।
वो मिट्टी की तरह भुर-भुरी हो कर झड़ने ही वाली थी कि उसने अपना पर्स खोला और अपना हेयर ब्रश निकाल कर अपने बाल सँवारने शुरू कर दिए। वो अपनी घबराहट इसी तरह दूर किया करती थी।
देखो रज़ी टीन एजर्ज़ जैसी बात मत करो। मुझे पता है कि तुम एक जवान मर्द हो और तुम्हारी कुछ ज़रूरतें हैं मगर मैं उनको पूरा नहीं कर सकती। मुझे ये भी पता है कि मुझसे पहले तुम्हारे कुछ लड़कियों से तअल्लुक़ात थे और तुमने मेरी वजह से उन सबको छोड़ रखा है मगर मैंने तो तुम्हें ऐसा करने पे कभी मजबूर नहीं किया ना? सोरी ये तुम्हारा प्रॉब्लम है, मेरा नहीं। तुम्हारी च्वाइस है। मैं इस बात को सराहती ज़रूर हूँ मगर इस सिलसिले में तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकती। मैं इस तअल्लुक़ के लिए तैयार नहीं क्योंकि मैं इसको अपने लिए ज़रूरी नहीं समझती। रूबी ने अच्छी तक़रीर करके अपनी तरफ़ से उसे क़ाइल कर दिया था मगर वो भी जवाबी हमला कर रहा था। तुम साफ़-साफ़ क्यों नहीं कह देतीं कि तुम अंदर से वही डरपोक, रिवायती मशरिक़ी लड़की हो जो हर वक़्त सहमी रहती है जो मुआशरे, मज़हब, रिवायात की मज़बूत ज़ंजीरें नहीं तोड़ सकती। जो जितनी मर्ज़ी डिग्रियाँ ले-ले। आज़ादी के गीत गा ले, महकूम और मज़लूम ही रहती है क्योंकि वो इसी में तहफ़्फ़ुज़ महसूस करती है। अपने जज़्बात को झुठलाना, इंसानी महसूसात, ख़्वाहिशात को दबाना कहाँ का इंसाफ़ है। तुम अपने आपको धोका दे रही हो। तुम ख़ुद भी यही चाहती हो लेकिन तस्लीम करने का हौसला नहीं रखतीं।
रज़ी ने मस्नूई ग़ुस्से से हाथ छुड़ाना चाहा लेकिन रूबी ने इतने ज़ोर से हाथ पकड़ती थी कि छुड़ाना मुश्किल हो जाता था।
आख़िर वजह क्या है इनकार की? रज़ा जवाब लेने पे तुला हुआ था।
वजह! रूबी सिटपिटा गई। हाँ वजह, बस जो भी कुछ हो। दर अस्ल मेरे नज़दीक अस्ल मोहब्बत आपस की शेयरिंग ज़ेहनी तअल्लुक़ और कम्यूनिकेशन है। क़ुर्बत एक खेल नहीं बल्कि गहरी कमिटमेंट है। दिल लगी नहीं दो दिलों के दरमियान का पुल-ए-सिरात है। मैं इसकी अहमियत से इनकार नहीं करती मगर शादी के बग़ैर...
रूबी की आधी बात ने उसके लबों पे ही दम तोड़ दिया।
शादी! ये शादी बीच में कहाँ से आ गई। हमने तो कभी शादी वादी को डिस्कस नहीं किया। शादी तो दो इंसानों के मेल का नहीं बल्कि वो इंसानों के ख़्वाबों के आपस में टकराव का नाम है। रज़ी भी खुल कर ही बात कर रहा था।
मैं जानती हूँ, मुझे पता है। में ख़ुद शादी जैसे बोसीदा इंस्टीट्यूशन को मुस्तरद करती हूँ। जो औरत को ग़ुलाम और मर्द को हाकिम बना डालता है। मुझे अपने लिए, अपने वालिदैन के लिए पूरी वूमन काइंड के लिए बहुत कुछ करना है। अपने क़दमों पे खड़ा होना है। अभी अपनी सेल्फ़ वर्थ को साबित करना है। मैं ख़ुद शादी वादी के चक्करों में नहीं पड़ना चाहती जनाब। एंड ऑफ़ रूबी ख़ान नहीं होने दूँगी।
वो फिर तक़रीर शुरू कर चुकी थी।
अच्छा देखो एक काम करते हैं। उसने प्यार से रज़ा के घुंगरियाले बालों का माथे पे आया हुआ छल्ला हटाते हुए कहा।
चूँकि मैं तुम्हारी दोस्त हूँ और मुझे तुमसे शदीद प्यार है। इसलिए तुम्हारा ख़्याल भी तो मुझी को रखना है। एक समझौता कर लेते हैं। मोहब्बत हम आपस में ही करेंगे। इश्क़ तुम मुझसे ही करोगे लेकिन अपनी वो ज़रूरत पूरी करने के लिए किसी दूसरी लड़की से... लेकिन सिर्फ़ एक शर्त पे कि इसमें किसी जज़्बाती वाबस्तगी का दख़ल नहीं होगा। रूबी ने फ़ैसला सुना दिया।
लो, ये क्या बात हुई। रज़ा किसी छोटे बच्चे की तरह फुसफुसाने, मुँह बिसूरने लगा, ये मुझे से नहीं होगा। ऐसे कैसे हो सकता है भला? मैं कैसे करूँ, मोहब्बत किसी से और...
मेरा जवाब नफ़ी में है। कितने उल्लू हो तुम। मेरी इस सुनहरी ऑफ़र का फ़ायदा नहीं उठा रहे। अरे बेवक़ूफ़ इतनी अंडरस्टैंडिंग लड़की तुम्हें कहाँ मिलेगी?
रज़ी रूबी को बहुत दिन अपने मतलब की बात मनवाने की कोशिश करता रहा लेकिन वो टस से मस न हुई। दोनों के फ़ाइनल नज़दीक थे, इसलिए बात आई गई हो गई। रूबी को अपने दिल में सौ फ़ीसद यक़ीन था कि रज़ा उसके प्यार की रस्सियाँ नहीं तुड़वा सकता। उसके प्यार के मीठे गाढ़े शीरे की दलदल में डूबता ही चला जाएगा। हाथ-पाँव नहीं मारेगा, किसी के नज़दीक नहीं जाएगा। उसे रज़ी पे बहुत एतिमाद था। उतना ही जितना अपने ऊपर। वो मोहब्बत में रूमानवियत के मज़े लूटना चाहती थी, जिस्म से उसे लॉग न थी। वो रात को सोते वक़्त रज़ा को जिस्मानी तौर पर साथ न पाकर भी ख़ुशी-ख़ुशी सो जाया करती थी क्योंकि वो उसे ख़्वाबों में जो मिल जाया करता था। वो सुबह उठ कर टेलीफ़ोन पे रज़ी को अपने ख़्वाब सुनाती और बदले में उसके ख़्वाब सुना करती। फिर कहती, आओ हम अपने ख़्वाबों को जमा कर लें और उनका एक मिला-जुला ख़्वाब बनाएं। रेशमी, सिल्की, शबनमी ख़्वाब शीशे की एक ट्रांस्पेरेंट बोतल में जमा कर लें और उस पे हैंडल विद केयर का लेबल लगा कर शेल्फ़ पे सजा कर देखा करें, महज़ूज़ हुआ करें।
और अगर वो बोतल किसी दिन हाथ से फिसल गई तो वो ख़्वाब तितलियाँ बन कर साबुन के चमकीले रंगदार बुलबुलों की मानिंद उड़ जाएंगे। वो छेड़ता।
तो हम नए ख़्वाब देखने की अज़ सर-ए-नौ इब्तिदा कर देंगे। वो पुर यक़ीन हो कर कहती।
रज़ा अपने दोस्त शकील के ऑफ़िस उससे मिलने गया तो उसे ये देख कर बहुत हैरत हुई कि उसकी एक पुरानी जानने वाली लड़की ज़ुबैदा फ़ाइलें उठाए एक कमरे से दूसरे कमरे तक जा रही थी। वो शायद वहाँ कोई सेक्रेटरी वग़ैरा की नौकरी कर रही थी। एक ज़माने में ज़ुबैदा से रज़ी के गहरे मरासिम रह चुके थे। फिर सुनने में आया कि वो शादी करवा कर कराची चली गई है और उनका फिर कभी दोबारा राब्ता न हुआ।
ज़ुबैदा तुम, यहाँ इस दफ़्तर में कैसे? रज़ा ने उससे हैलो करने के बाद पूछा।
मैं बस दोबारा अपने शहर वापस आ गई हूँ। घरेलू हालात कुछ ऐसे हो गए थे कि मुझे नौकरी करना, अपना पेट पालना लाज़िम हो गया था।
अच्छा भई बहुत ख़ुशी हुई तुमसे मिल कर। अगर कभी फ़ारिग़ हो तो मिलने आओ घर पर। रज़ा ने हवा में तीर चलाया।
मैं तो अभी पाँच मिनट में फ़ारिग़ होने वाली ही थी, चलें चलते हैं। वो भी शायद तन्हाई का शिकार थी। रज़ा को उसके साथ अपना पुराना तअल्लुक़ याद आ गया और फिर रूबी की पेश-कर्दा ऑफ़र और ख़ुश दिली से दी हुई इजाज़त भी।
घर पहुँचते ही ज़ुबैदा ने अपने जाने पहचाने कमरे का रुख़ किया और दुपट्टा उतार फेंका। गर्मी बहुत महसूस हो रही थी। इसलिए फ़ौरन पंखा चलाया और ख़ुद बिस्तर पर ढ़ेर हो गई।
रज़ा ने फ़्रीज में से जूस के दो छोटे-छोटे डिब्बे निकाले। एक ज़ुबैदा को थमा दिया, दूसरा ख़ुद पीने लगा।
ज़ुबैदा अपनी शादी की नाकामी की दुख भरी दास्तान रज़ा को सुनाने और ससुराल वालों के किए गए मज़ालिम को रोना रोने लगी। वो बोल रही थी मगर रज़ा के कान सुन नहीं रहे थे। उसे अपने कमरों के झरोकों से रूबी की दो बड़ी-बड़ी ख़ूबसूरत आँखें दो भूरी बिल्लियों की तरह ताक-झाँक करती नज़र आ रही थीं। उसका भरा-भरा जिस्म जिसे उसने सिर्फ़ महसूस किया था, देखा नहीं था, नज़र आने लगा था वो उसकी पतली-पतली मख़रूती उँगलियों का लम्स अपने हाथों पे महसूस कर रहा था। उसका कभी-कभार बड़ी बूढ़ियों जैसी सयानी बातें करना और कभी बच्चों की तरह रूठ जाना याद आने लगा। उसे वो अपने इर्द-गिर्द एक हाले की तरह छाई नज़र आने लगी। वो इस हाले को तोड़ने की सकत से महरूम था। वो एक अनजाने सह्र में लिपटा ख़ुद को बेबस सा महसूस कर रहा था।
ज़ुबैदा ख़ामोश हो चुकी थी और रज़ा को पता भी नहीं चल सका था। उसने अपने डिब्बे से जूस ख़त्म कर लिया था और रज़ा की तरफ़ तालिब और सवालिया नज़रों से देख रही थी।
चलो तुम्हें घर छोड़ आऊँ। रज़ा ने कुर्सी से उठते हुए यक-लख़्त फ़ैसला कर लिया। हैरान-हैरान सी ज़ुबैदा ने बिस्तर से उठ कर दुपट्टा अपने ऊपर डाल लिया।
रूबी को ढ़ूँढ़ना चंदाँ मुश्किल न था। वो अपने डिपार्टमेंट की लाइब्रेरी में अपने मख़्सूस गोशे में किताबों में छुपी बैठी थी। फ़ाइनल में बहुत थोड़ा टाइम रह गया था। रज़ा उसे बताने के लिए बेताब था कि उसने कितने ज़ब्त का मुज़ाहिरा किया था।
वो उसे ये भी बता देना चाहता था कि उसे अब यक़ीन हो गया है कि वो रूप के साथ ही अपना हर तअल्लुक़, हर बंधन, हर रिश्ता क़ाइम कर सकता है, किसी और से नहीं। दिल ही दिल में वो एक लंबा बयान तैयार कर चुका था।
मैं उसे कहूँगा कि मैं तुम्हारा इंतिज़ार करूँगा।
अगर शादी भी करनी पड़ी तो उसे भी डिस्कस कर लेंगे। में मोहब्बत और क़ुर्ब को अलग-अलग ख़ानों में बाँट कर अपने जज़्बात से खेल नहीं सकता। मेरे नज़दीक मोहब्बत की तकमील का एक रूप क़ुर्बत है।
तुम ही मेरे दिल, जिस्म और ज़ेहन पे हक़ जता सकती हो और कोई दूसरा इसका हक़दार नहीं हो सकता।
अरे जानू तुम इस वक़्त? रूबी ने उसे खड़े देख कर कुर्सी ऑफ़र कर दी।
पढ़ाई क्यों नहीं कर रहे? आपका पहला पर्चा परसों है, कुछ होश नहीं है आपको अच्छा इधर लाओ अपना हाथ ठंडा हो रहा होगा। उसने हस्ब-ए-आदत ख़ुश दिली से रज़ा का हाथ अपने हाथों में थाम कर सहलाना शुरू कर दिया। फिर धीरे-धीरे उसे अपने लबों से छू कर शरारत से मुस्कुरा दी।
क्या हुआ? ऐसे क्यों घूर रहे हो? तुम्हें पता है तुम्हारी आँखें मुझे नर्वस कर देती हैं। वो भोलपन से बोली।
रूप तुमने कहा था ना... तुम ही ने तो इजाज़त दी थी ना...
रज़ा कुछ अटक-अटक कर बोल रहा था। समझ में नहीं आ रहा था कि बात कैसे शुरू करे।
ओह माई गॉड! रूबी के दिल पे एक घूँसा लगा। लाइब्रेरी की शेल्फ़ों की तमाम किताबें शोर करती धड़ा धड़ से नीचे आन गिरीं।
आज ये ख़बीस इंसान अपनी हवस पूरी कर आया है और मुझसे शाबाश मांग रहा है या शायद अपना एहसास-ए-जुर्म छुपाने के लिए किसी सड़ी हुई ईमानदारी का ढोंग रचाने लगा है। रूबी का हाथ रज़ा के हाथ में सर्द और बेजान हो गया। उसने हाथ खींचे बग़ैर सरसरी अंदाज़ में बग़ैर किसी रद्द-ए-अमल के पूछा, ओह, तो फिर कैसा रहा तजुर्बा? जैसे पूछ रही हो तुम्हें इस नई फ़ाइंडिंग से इख़्तिलाफ़ है या तुम भी सचमुच मानते हो कि आइंस्टाइन की थ्योरी ऑफ़ रिलेटिवटी जिसने फ़िज़िक्स की दुनिया में इंक़लाब बरपा कर दिया था, उस अकेले की ब्रेन चाइल्ड नहीं बल्कि उसकी बीवी की और उसकी मुशतर्का काविशों का नतीजा था और उसने दानिस्ता तौर पर अपनी बीवी का नाम न लेकर उसे जायज़ क्रेडिट से महरूम रखा था?
सुनो तो तुम्हें यक़ीन नहीं आएगा। रज़ा बहुत एक्साइटेड था।
सुना दो या न सुनाओ, तुम्हारी मर्ज़ी है। कोई मजबूरी नहीं। रूबी ने कंधे उचकाए।
मैं उसे अपने घर ले गया। बातें-वातें करते रहे, गर्मी बहुत लग रही थी। मैंने सोचा पहले कुछ ठंडा वग़ैरा होना चाहिए। बोतलें तो अब कौन लाता बाहर से। फ़्रीज में से जूस ही निकाल कर पिला दिया उसे।
क्या कहा? रूबी उसकी तफ़सीलात सुनते-सुनते बात काट कर बोली।
तुमने उसे जूस पिलाया?
हाँ, कुछ तो पिलाना था भई, आख़िर मेहमान थी। वैसे भी हम दोनों को ही प्यास लग रही थी। क्यों क्या हुआ?
कितने डिब्बे थे जूस के? रूबी ने आराम से पूछा।
दो।
और कितने स्ट्रा थे?
दो भई, ये क्या बकवास है?
तुम दोनों ने किस तरह जूस पिया?
किस तरह पिया? जिस तरह पीते हैं और क्या? रज़ा ग़ुस्सा खा गया।
क्या फ़ज़ूल बातें कर रही हो, जूस का इस क़िस्से से क्या तअल्लुक़ है? अजब पागल लड़की हो। ये नहीं पूछती कि हम ने... जानना नहीं चाहतीं कि क्या हुआ?
मुझे इससे कोई ग़रज़ नहीं कि क्या हुआ? रूबी भी ग़ुस्से में आ गई।
अच्छा, कोई ग़रज़ नहीं, तो सुन लो जूस हमने एक ही डिब्बे और एक ही स्ट्रा से पिया था। बस यही जानना चाहती थी ना तुम? रज़ा ने सड़ कर ख़्वाह-मख़्वाह ही झूट बोल दिया। वो इसके लिए इतनी बड़ी क़ुर्बानी दे कर आया था और इस झल्ली लड़की को जूस की पड़ी हुई थी।
रूबी छमा-छम रोने लगी। हिचकियां लेते बोली,
मैंने तुम्हें किसी और बात की इजाज़त दी थी। इंटीमेसी Intimacy की तो नहीं।
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